🕯️🔥 जलती हुई परछाईलेखक: विवेक सिंहरात के दो बज चुके थे। बाहर सुनसान सन्नाटा पसरा था। मीनाक्षी ने बिस्तर पर करवट बदली तो अचानक उसकी नज़र कमरे की दीवार पर पड़ी।हल्की सी रोशनी में उसे अपनी परछाई दिखी।लेकिन उसमें कुछ अजीब था—वो परछाई धीरे-धीरे हिल रही थी, जैसे उसमें कोई आग सुलग रही हो।मीनाक्षी ने घबराकर बल्ब जलाया। कमरे में सब कुछ ठीक था। उसने चैन की सांस ली, पर जैसे ही बल्ब की रोशनी परछाई पर पड़ी—उसके सिर से लेकर पैर तक झुरझुरी दौड़ गई।परछाई की पीठ से धुएं की पतली लकीर उठ रही थी। उसने हथेली से आंखें मलीं, मगर परछाई वहीं थी—अब उसमें हल्की-हल्की लाल चिंगारियां चमक रही थीं।---बचपन की घटनाउसकी यादों में एक पुराना हादसा कौंध गया।बचपन में जब उसकी मां बीमार पड़ी थीं, मीनाक्षी ने एक रात दीया गिरा दिया था। वो कहती रही—“मुझे माफ कर दो…”लेकिन मां की साड़ी में आग लग गई।वो आग बुझने से पहले उसकी मां का आधा शरीर जला चुकी थी।मीनाक्षी को हमेशा लगता रहा कि वो हादसा उसकी ही गलती था।अब इतने सालों बाद, वो परछाई उसी आग की तरह उसके सामने आ खड़ी हुई थी।---परछाई की आवाज़अचानक कमरे में ठंडी हवा चली।परछाई और गहरी काली हो गई। उसमें से एक खरखराती हुई आवाज़ गूंजी—“तू बच नहीं पाएगी…हर रात मैं तेरे साथ जलूंगी…जब तक तू अपना पाप कबूल न कर ले…”मीनाक्षी की सांस अटक गई। उसने घबराकर अपनी आंखें बंद कर लीं। लेकिन आवाज़ बंद नहीं हुई।वो दीवार की तरफ खिंचती चली गई, जैसे किसी ने उसे रस्सी से बांध दिया हो।दीवार के पास पहुंचते ही परछाई ने अपनी दो लंबी काली भुजाएं फैलाकर उसके गले को छू लिया। उसके होंठ कांप उठे—उसका शरीर पसीने से भीग गया था, पर परछाई की पकड़ बर्फ जैसी ठंडी थी।---आग का दरवाज़ाअचानक परछाई ने मीनाक्षी का हाथ पकड़कर उसे आईने की तरफ खींच लिया।आईने में वही हादसा दिख रहा था—मां का झुलसा चेहरा, जलती हुई साड़ी और वो बच्ची जो कोने में बैठकर रो रही थी।परछाई की जलती हुई आंखें आईने में चमकीं—“तूने मुझे जलाया, अब मैं तुझे हर रात जलाऊंगी…”मीनाक्षी ने चीखने की कोशिश की, मगर आवाज़ गले में फंस गई।उसकी हथेलियों में जलन होने लगी। उसने देखा—उसके हाथ की परछाई में आग की लपटें लहराने लगी थीं।वो पीछे हटने लगी, मगर पैर जम गए थे।कमरे की दीवारें भी अब धुएं से काली हो रही थीं।उसने खुद को छुड़ाने के लिए दीवार पर हाथ मारा, मगर परछाई ने उसकी उंगलियों को जकड़ लिया।---अंतिम मुक्तिमीनाक्षी ने कांपती आवाज़ में कहा—“मुझे माफ कर दो…मैं छोटी थी…मुझसे गलती हो गई थी…”परछाई ने कोई जवाब नहीं दिया।लेकिन उसकी आंखों में जलती आग हल्की होने लगी।धीरे-धीरे उसकी पकड़ ढीली पड़ी।कमरे में सन्नाटा छा गया।मीनाक्षी फर्श पर गिर पड़ी।उसकी हथेलियां राख से काली हो चुकी थीं।आईना अब भी धुंधला था।उसमें मां की परछाई धीरे-धीरे लहराती हुई खो गई…मीनाक्षी ने कांपते हाथों से फर्श पर पड़ी राख की लकीर पर उंगलियां फेरीं।एक आखिरी आवाज़ फुसफुसाई—“हर आग का एक हिसाब होता है…”उसके बाद कमरे में सब शांत हो गया।लेकिन हर सुबह जब मीनाक्षी आईने में खुद को देखती—उसकी परछाई अब भी हल्की-हल्की सुलगती रहती थी।---