भोर की पहली किरण जब धरती पर उतरती थी, तब गांव की पगडंडियों पर एक धुंधली-सी हलचल दिखाई देती,ओस से भीगी घास की गंध और मिट्टी की सौंधी सुगंध के बीच से एक दुबला-पतला लड़का अपनी मां के पीछे-पीछे चलता हुआ खेत की ओर बढ़ रहा होता,उसका नाम था — रतन।
उम्र कोई दस-ग्यारह बरस की रही होगी, पर माथे की शिकन और पैरों की थकान में कोई बालपन नहीं झलकता था। हाथ में एक पुरानी, जंग लगी खुरपी, जिसे उसके दादा कभी इस्तेमाल करते थे, और पीठ पर एक झोला, जो जगह-जगह से रफू किया हुआ था। उसमें आधी किताबें, आधा जूठन बचा हुआ रोटी का टुकड़ा, और ढेर सारी उम्मीदें भरी रहतीं। उसकी आँखें बड़ी थीं,बहुत बड़ी जैसे वे खुद से आगे देखती थीं, पर उनमें कोई जल्दी नहीं थी... कोई शोर नहीं था,जैसे उनमें एक धीमी, मगर अडिग रोशनी थी,जो रतन खुद भी नहीं समझ पाया था, पर जो हर सुबह उसे जगा देती थी।उसके कपड़े मैल-भरे थे, पैरों में चप्पलें आधी टूटी हुई, लेकिन चाल में एक ऐसा आत्मबल था, जिसे कोई गरीबी झुका नहीं सकती थी। उसकी माँ आगे-आगे चल रही थी,एक पतली, लेकिन मज़बूत काठी वाली स्त्री जिसके हाथों में कड़वाहट थी, और माथे पर मिट्टी का लेप, उसका नाम था धनीबाई, और वह खुद भी सुबह से शाम खेतों में बैलों की तरह काम करती थी। खेत दूर नहीं था, गांव से बाहर निकलते ही काली मिट्टी का वो टुकड़ा शुरू हो जाता था, जहां रतन का बचपन बोया जा रहा था, हर दिन, हर कतार के साथ।
पिता का नाम घनश्याम था। सीधा-साधा, मेहनती आदमी। खेतों में दूसरों के साथ मजदुरी करता, कभी कटाई करता, तो कभी बैल हांकता, उसका चेहरा अक्सर धूप से जला होता और पांवों में दरारें पड़ी रहतीं, उसकी दुनिया खेत की मेड़ तक ही थी,उससे आगे कुछ सोचना, जैसे उसके लिए मृगतृष्णा थी। परिवार की स्थिति कुछ खास नहीं थी। कच्चा, मिट्टी का बना छोटा-सा घर, जिसमें एक कमरा, एक छोटी रसोई और बाहर एक टूटा-फूटा ओटला था। बारिश के दिनों में अक्सर छत से पानी टपकता, तो रतन और उसकी मां रात-रात भर बर्तनों को जगह-जगह रखते फिरते ऐसे ही माहौल में रतन ने किसी तरह गांव के ही स्कूल से आठवीं तक की पढ़ाई पूरी की, ये कोई आसान बात नहीं थी। मास्टर जी का स्कूल में आना-जाना भगवान भरोसे था,कई बार तो एक पूरी हफ्ता स्कूल बंद रहता, पर रतन हर सुबह स्कूल की ओर जाता, जैसे कोई जिद हो उसे, आठवीं के बाद जब रतन ने तहसील के सरकारी स्कूल में नौवीं कक्षा में दाखिला लिया, तब घर में बखेड़ा मच गया।
पिता घनश्याम को यह बिल्कुल पसंद नहीं आया वो अक्सर गुस्से में कहता —
“पढ़ी-लिखी न अरु काय करी लेग करनू त अपण न क कामज छै, देखी ल गांव का सब पौरियां न क काम धंध लगी गया न तुक नि समज पड़ती।“
रतन चुप रहता, सिर झुकाए सुनता रहता,पर मां, हमेशा की तरह चुप नहीं रहती।
वो कहती —
“ काम धंधा का लेन त अवखी जिंदगी पड़ी पर भण्ण का लेण अभीज टाइम छै, म्हारो रतन भण ग।
रतन अब रोज़ तीन किलोमीटर पैदल चलकर स्कूल जाता, फिर शाम को खेतों में काम करता। जब गर्मी की छुट्टियाँ लगतीं, तो गांव के बाकी लड़के मस्ती करते लेकिन रतन या तो खेतों में काम करता, या फिर कहीं भैंस चराने चला जाता, कई बार वो मवेशियों को चराते वक्त ही किताबें साथ ले जाता और किसी छांव में बैठकर पढ़ने की कोशिश करता लेकिन जब नौवीं का परिणाम आया, तो उसके जैसे गांव के सभी लड़के फेल हो गए रतन को भी गणित में पूरक आ गई थी,पूरक परीक्षा का नाम सुनते ही घनश्याम फिर बरस पड़ा —
“देखी! लियो केतरों भणी लियो तून? अभी भी समजी जा, खेत म काम करन लगी जा, तू खोब भणी लियो।
रतन अंदर से टूटा हुआ था, लेकिन हार मानना उसे आता नहीं था,उसने पूरक परीक्षा दी… और पास हो गया,धीरे-धीरे इसी तरह संघर्ष करते हुए दसवीं और ग्यारहवीं भी पास कर ली,पर बारहवीं में आते-आते उसके स्कूल के मास्टर से अनबन हो गई,रतन ने एक दिन साहस करके स्कूल की गड़बड़ व्यवस्था पर कुछ कह दिया, तो मास्टर ने उसे बेइज्जत कर दिया।
उधर घर में भी पिता से रोज़ तकरार होती,नतीजा ये हुआ, कि रतन ने स्कूल जाना छोड़ दिया,अब वह गांव के ही एक लड़के के साथ ट्रक सीखने चला गया,कभी-कभी ड्राइवर की सीट पर बैठकर उसे लगता “शायद यही सही है, अब पढ़ाई के लिए ताकत नहीं बची।”
लेकिन एक दिन उसकी मां ने जब उसे अकेले में समझाया, माँ बोली —
“बेटा रतन,ई गाड़ी-वाड़ी पर जाणु छोड़ न सिदो-सिदो भण्ण लगी जा नवकरी लगी जायग त हमारा जसो अई-वई भटकनु नि पड़ग।”
उसकी आंखें भर आईं,रतन ने फिर घर छोड़ा इस बार अपने फूफा जी के यहां चला गया,वहाँ तीन-चार महीने छोटे-मोटे काम करता रहा कभी राशन का सामान ढोता, तो कभी खेतों की निगरानी करता,फूफा जी ने धीरे-धीरे उसकी हिम्मत को फिर से जगाया,वो बोले —
“देख बेटा रतन, लोग खेत नमण केतरा काम करज फिरी भी काय मिलज एक-दो दिन का खाण का पयसा आन तू अच्छों भणि जायग न नवकरी लगी जायग त थारी त थारी पण थारा घर की दशा पलटी जायग।“
फिर रतन को समझ आया और उसने बारहवीं का प्राइवेट परीक्षा फार्म भरा, और काम करने के साथ-साथ पढ़ाई कर उसने बारहवीं की एग्जाम दी,और वह पास हो गया,हाथ में प्रमाणपत्र था, लेकिन आंखों में अब भी सवाल थे,बारहवीं के बाद रतन के सामने सवाल खड़ा था, अब आगे क्या? गांव में तो न कॉलेज था, न कोई मार्गदर्शन,पिता ने दो टूक कह दिया —
“अब भणणु लिखणु छोड़ न काम करन लगी जा । हाउ न थारी बाय केतरों काम कराग न तूक पयसा कुण पुराव ग
पर किस्मत की गठरी में कभी-कभी उम्मीद भी छुपी होती है,रतन की मौसी का लड़का, जो खंडवा जिले में रहता था, और खुद भी पढ़ाई कर रहा था,उसे जब रतन की हालत का पता चला, तो उसने उसे अपने पास बुला लिया।
रतन पहली बार अपने गांव से बाहर निकला था। जब बस में बैठकर उसने गांव की सीमा पार की, तो उसे महसूस हुआ, कि उसकी देह से कुछ छूट रहा है।
खंडवा पहुंचने पर शहर की चहल-पहल, तेज़ ट्रैफिक, ऊंची इमारतें सब कुछ उसे अजनबी लगा।पर मौसी के बेटे ने उसे स्थानीय गवर्नमेंट कॉलेज में बी.ए. में दाखिला दिलवा दिया।
विषय था,राजनीति शास्त्र, समाजशास्त्र और हिंदी साहित्य,अब असली लड़ाई शुरू हुई। शहर में रहने का किराया, खाना, किताबें, और कॉलेज की फीस सब कुछ एक पहाड़ जैसा था।
रतन ने फैसला लिया, वो खुद ही खर्च उठाएगा,शाम को वह किसी बेकरी में काम करता जहाँ कभी ब्रेड स्लाइस करता, तो कभी केक के डिब्बे सजाता,कई बार रात को होटल के पीछे जूठे बर्तन धोने भी चला जाता,कभी-कभी स्टेशन के पास अख़बार बांटता, और जो थोड़ा बहुत मिलता उसी में गुज़ारा करता,उसका खाना कई बार बची-खुची ब्रेड, या बेकरी से बचा हुआ समोसा होता। रात को मौसी के बेटे के कमरे की छत पर बिछी एक चटाई, और सिरहाने किताबों का गट्ठर। कॉलेज की कक्षा में जब वह पहली बार गया, तो वहां अंग्रेज़ी में बोले गए शब्दों ने उसे चुप कर दिया।वह बाहर आकर कॉरिडोर के कोने में बैठ गया,लेकिन उसी शाम एक पुरानी अंग्रेज़ी डिक्शनरी खरीदी जिसकी कीमत पचास रुपए थी, पर उसके लिए वह जैसे सैकड़ों सपनों की चाबी थी। धीरे-धीरे उसने शब्दों से डरना छोड़ दिया, और अर्थों से दोस्ती करना सीख लिया।
कॉलेज में वह चुपचाप सबसे पीछे बैठता न स्मार्टफोन था, न ब्रांडेड कपड़े,उसकी पुरानी पैंट, वही मां के हाथ का सिला हुआ झोला, और चप्पलें जिनकी एक पट्टी हमेशा उधड़ी रहती, पर उसके पास एक चीज़ थी जो सबके पास नहीं थी — जिद! वो जिद जो खेत से चली थी, जो पूरक परीक्षा से गुज़री थी, और अब शहर की भीड़ में अपनी जगह तलाश रही थी। उसके लिए हर सेमेस्टर जैसे एक युद्ध था,बीमार हो जाना, फीस न भर पाना, पढ़ाई का समय न मिलना, ये सब आम बात थी,पर रतन हर परीक्षा पास करता गया,कभी कम नंबर आए, कभी बाल-बाल बचा पर हर बार हार से एक क़दम आगे रहा,और तीन साल बाद, जब उसने बी.ए. की डिग्री अपने हाथों में पकड़ी,तो उसे वो पल याद आया जब वह ट्रक सीखने चला गया था…वो पूरक परीक्षा…माँ की वो बात…,
बी.ए. पूरा हो गया था, लेकिन उसके आगे की राह को लेकर रतन के मन में धुंध छाई हुई थी,कोई मार्गदर्शन नहीं था, न परिवार में, न कॉलेज में हर कोई यही कहता “अब क्या करेगा? नौकरी कहां है? पैसे लाने का सोच अब।“
रतन कभी छत पर बैठा खाली आसमान को देखता, तो कभी डायरी के पन्नों पर दो-चार शब्द लिखकर फाड़ देता। उसे नहीं समझ आ रहा था, जिंदगी उसे कहाँ ले जाना चाहती है,उसी दौरान एक दिन गांव से ख़बर आई माँ की तबीयत बहुत बिगड़ गई है,उसने बिना देर किए सब कुछ समेटा और गांव लौट आया। छह से आठ महीने वो घर पर ही रहा,न कोई कॉलेज, न किताबें।
बस सुबह से शाम तक माँ की देखभाल,कभी दवा देना, कभी चूल्हे पर खिचड़ी बनाना, कभी उसके सिर पर तेल लगाना,माँ की तबीयत उतनी गंभीर नहीं थी, पर उसे रतन का साथ चाहिए था,और रतन ने वो दिया, बिना कोई शिकायत किए।
उस एक साल में रतन की पढ़ाई ठहर गई, जैसे किसी नदी पर बांध बन गया हो,लेकिन माँ की हालत सुधरी, और अगले शिक्षा सत्र की शुरुआत हुई, तो उसकी मौसी के बेटे ने फिर से उसका हाथ थामा,इस बार एम.ए. में दाखिला करवा दिया विषय राजनीति शास्त्र रतन फिर से खंडवा लौट आया,पर अब पहले जैसी ऊर्जा नहीं थी, जेब में पैसे नहीं थे, और भीतर आत्मविश्वास भी दरक चुका था,अब वह दिन में पढ़ाई और बाकी समय रोज़गार की तलाश में भटकता,कभी किसी इलेक्ट्रिक मोटर वाइंडिंग की दुकान पर मजदूरी करता,तो कभी पंखे के तार जोड़ता, बल्ब बदलता,तभी अचानक दुनिया की चाल थम गई, कोरोना आ गया,लॉकडाउन लग गया, कॉलेज बंद, दुकानें बंद, रोज़गार ठप रतन फिर गांव लौट आया,अबकी बार पढ़ाई छोड़कर नहीं, मजबूरी में गांव में उसने ड्राइविंग सीख ली, गांव की गाड़ीयों में बैठकर धीरे-धीरे ट्रैक्टर, ट्रक, पिकअप वैन चलाना सीख गया। डेढ़ साल तक वह गाड़ी चलाकर अपना और घर का खर्च निकालता रहा,पर रतन को पता था,यह उसकी मंज़िल नहीं है, यह तो एक पड़ाव है, जैसे ही लॉकडाउन खत्म हुआ, कॉलेज फिर खुला,तो वो फिर से खंडवा लौट आया,इस बार रतन बदला हुआ था,अब वो लोगों की गाड़ियाँ चलाकर पैसे जुटाता,किसी को स्टेशन छोड़ता, किसी को बस स्टैंड,और जैसे-तैसे,संध्याकालीन पढ़ाई करता,इन सबसे उसने अपना एम.ए. पूरा किया,यह डिग्री उसके लिए सिर्फ एक प्रमाणपत्र नहीं थी,यह उसके संघर्ष का प्रमाण थी, जिसके हर पन्ने के पीछे एक कहानी थी,भूख की, थकावट की, और जिद की।
एम.ए. पूरा करने के बाद भी रतन को न कोई नौकरी मिली, न कोई निश्चित दिशा,वह अब भी अपना गुज़ारा लोगों की गाड़ियाँ चलाकर, कहीं बस स्टैंड, कहीं स्टेशन छोड़कर करता पर अब उसका मन भटकता नहीं था,जब भी खाली समय पाता, खंडवा की जिला पुस्तकालय में चला जाता,वहीं शांत कोनों में बैठकर पुराने अखबार, सामान्य अध्ययन की किताबें, और सरकारी योजनाओं से जुड़ी फाइलें पढ़ता रहता,इसी लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर एक दिन उसकी मुलाकात हुई सुरेश भैया से,सुरेश यादव, उम्र में थोड़े बड़े,चेहरे पर स्थिरता, आंखों में समझदारी और बातचीत में अपनापन,वो खुद एम.ए. कर चुके थे, और कई वर्षों से सिविल सेवा की तैयारी कर रहे थे।
हालांकि वे अभी चयनित नहीं हुए थे, पर उनकी तैयारी गहरी थी, सोच स्पष्ट थी। उन्होंने रतन को कुछ दिनों से लाइब्रेरी में आते देखा था,कभी अंग्रेज़ी की किताब पलटता, कभी संविधान की धाराएं टटोलता। एक दिन उन्होंने पास आकर पूछा “भाई, क्या तैयारी कर रहे हो?”रतन ने धीरे से कहा —“बस... कुछ समझ नहीं आता… शायद सिविल सेवा।” सुरेश भैया मुस्कराए,“समझ नहीं आता यही तो शुरुआत है,जब समझ आने लगे, तब मंज़िल भी पास आने लगती है।”
उस दिन से रतन को पहली बार एक ऐसा साथी मिला, जो सिर्फ साथ चलने वाला नहीं था, बल्कि राह दिखाने वाला भी था,अब रतन की दिनचर्या बदलने लगी,सुबह जल्दी उठता, गाड़ी चलाकर थोड़ा कमाता,फिर दिन में लाइब्रेरी में सुरेश भैया के साथ बैठकर पढ़ाई करता,वे उसे टाइम टेबल बनाना, विषयों का चयन, पुराने पेपर की रणनीति, और आत्मविश्वास,सब सिखाने लगे। सुरेश भैया ने कहा था —
“रतन, इस परीक्षा में नंबर से ज़्यादा, मन जीतता है। तुझे डरना नहीं है, तुझे लगना चाहिए कि तेरा गांव तुझसे उम्मीद कर रहा है।”
रतन अब पहले से ज़्यादा केंद्रित था,उसके पास न कोचिंग थी, न गाइड,पर एक भरोसा था, खुद पर, और भैया पर,पहली बार उसने सिविल सेवा की प्रारंभिक परीक्षा दी,परीक्षा के दिन वह नंगे पांव नहीं था, पर दिल में वही मिट्टी की गंध थी,वही माँ की आवाज — “रतन, थक मत जाना बेटा... ये आखिरी चढ़ाई है।” पर जब परिणाम आया,वो कुछ अंकों से चूक गया,प्रारंभिक परीक्षा पास नहीं कर पाया,मन तो टूटा, पर चेहरा नहीं झुका,वह खुद से बोला — “रास्ता वहीं रुकता है, जहाँ हम ठहर जाते हैं… मैं नहीं ठहरूँगा।” पहले प्रयास की चूक ने रतन को तोड़ने की बजाय तराश दिया था,अब वह पहले से कहीं ज़्यादा समझदार और संगठित था। सुरेश भैया की मदद से उसने अपने भीतर की कमज़ोरियों को पहचाना,समय प्रबंधन, उत्तर लिखने की कला, और विश्लेषण की गहराई। दूसरे प्रयास की तैयारी शुरू हुई,दिन में किराये की गाड़ी चलाना,रात को लाइब्रेरी में देर तक बैठकर अध्ययन करना,पुराने पेपर हल करना, और मॉक टेस्ट देना।
जब दूसरी बार प्रारंभिक परीक्षा दी,तो इस बार उसका नाम पास सूची में था,लेकिन मुख्य परीक्षा में,जब उत्तर पुस्तिका में शब्द कम और आत्मविश्वास अधूरा था,तो परिणाम फिर नकारात्मक आया। सपना फिर अधूरा रह गया,रतन कुछ दिन चुप रहा,न भैया से ज़्यादा बोला, न खुद से बहस की,बस बैठा रहा एक दिन नहर के किनारे जहाँ बचपन में किताबें पढ़ा करता था,वहीं सोचते-सोचते उसके भीतर से एक आवाज़ आई —“रतन, तू सिर्फ एक रास्ते से मंज़िल तक नहीं पहुंचेगा... तुझे दो नाव चलानी होंगी।“ उसने तय किया,अब वो सिविल सेवा के साथ-साथ कोई विकल्प भी तैयार करेगा,शिक्षा सेवा, जिसे वो कभी आदर से देखता था,अब उसके लिए भी एक राह बन गई।
उसने UGC-NET और MP SET की तैयारी शुरू की,किसी कोचिंग की सुविधा नहीं, बस किताबें, पुराना पेपर और खुद की लगन,पहले ही प्रयास में,उसने MP SET परीक्षा पास कर ली,अब वो कॉलेज में प्रोफेसर बनने के लिए पात्र हो चुका था। सुरेश भैया ने उसी शाम कहा —
“रतन, अब तेरे पास दो पंख हैं, अब उड़ान का बहाना मत ढूंढ।” रतन मुस्कराया —
“भैया, मैं अब सिर्फ उड़ना नहीं चाहता… मैं उन खेतों तक हवा ले जाना चाहता हूँ, जहाँ आज भी पसीना ही भविष्य लिखता है।”
तीसरे प्रयास की तैयारी अब आत्मा से हो रही थी,उसने खुद को पूरी तरह MPPSC की मुख्य परीक्षा के स्वरूप में ढाल लिया,रातों को नींद से ज़्यादा उत्तरों की रचना होती थी,दिन में भूख से ज़्यादा जानकारी की प्यास रहती थी,और आखिरकार MPPSC की मुख्य परीक्षा में भी उसका चयन हो गया,वो अब साक्षात्कार की तैयारी कर रहा था, जिसकी पहली सीढ़ी कभी टूटी चप्पल में चढ़ी गई थी। कई वर्षों की मेहनत, संघर्ष, हार और फिर हिम्मत…आख़िर वो दिन आ ही गया। कुछ महीनों बाद रतन का साक्षात्कार हुआ।
वह कोट पैंट पहनकर, हाथ में फाइल और दिल में माँ की दुआ लिए पहुँचा था।
साक्षात्कार में उससे बहुत कुछ पूछा गया — भारतीय संविधान, प्रशासनिक तंत्र, सामाजिक विषमता, ग्रामीण योजनाएं,और अंत में “अगर आपको प्रशासन में काम करने का मौका मिला, तो आप किस क्षेत्र में बदलाव लाना चाहेंगे? ”रतन कुछ क्षण चुप रहा,फिर उसकी आवाज़ में वो आत्मा बोल उठी —“सर, मैं चाहता हूँ कि मेरा गांव, जहाँ आज भी नहर से ज्यादा नशे की बात होती है,वहाँ एक दिन बच्चे किताबों की नहर में बहें,और मांओं की आंखों में सिंचाई नहीं, सपनों की चमक हो।” बोर्ड के सदस्य मुस्कराए,उन्होंने सिर हिलाया,और एक ने कहा, “Best of luck, Ratan. You have the fire we need.”
कुछ हफ्तों बाद रतन के पास एक चिट्ठी आई उसमें लिखा था, “बधाई हो… आप मध्यप्रदेश राज्य प्रशासनिक सेवा में चयनित हुए हैं, पोस्ट — उपजिला दंडाधिकारी (SDM)पदस्थापन: नीमखेड़ा उपतहसील, धार”
वो कुछ नहीं बोल पाया…बस माँ की तस्वीर सामने थी, और खुद को उसी खुरपी के पास बैठा महसूस कर रहा था,जहाँ उसने पहली बार मिट्टी को हाथ में लेकर कहा था, “मैं बड़ा होकर खेत का मालिक नहीं, गांव का सपना बनूंगा।” जब वह गांव लौटा,तो उसके साथ कोई बैंड-बाजा नहीं था,पर उसके कदमों की आवाज़ से ही गलियां चहकने लगीं,लोग कहते —
“देखो-देखो… रतन आ गया, अब SDM साहब है हमारा रतन!” और जब वो अपने मिट्टी के घर के सामने पहुँचा, तो माँ ने उसे अब सरकारी अफसर के रूप में देख दौड़कर उसे गले लगा लीया,और पापा, जो हमेशा चुप रहते थे, इस बार खुद बोले —
“बेटा, हाउ गलत थो! म न सोच्यों की तू कई नि करी पावग पर तुन त बहुत करी लियो।
अब गांव में रतन सिर्फ एक नाम नहीं था,वो प्रेरणा का प्रतीक था। हर बच्चा अब अपने बस्ते को “रतन भैया का बस्ता” कहता,और हर मां अपने बेटे को कहती —
“रतन न करी लियो त एक दिन तूभी करी लेग।“
रतन ने अपनी पहली तनख़्वाह से माँ के लिए एक सुंदर साड़ी, और पिता के लिए सफेद कुर्ता खरीदा,जब दोनों ने उसे पहना,तो माँ की आंखें भीग गईं, और पापा की पीठ सीधी हो गई, और उसी दिन रतन ने तहसील कार्यालय में अपनी ड्यूटी जॉइन की,पर जाते वक़्त एक पुरानी खुरपी अपनी जेब में रख ली,जो अब सिर्फ मिट्टी की नहीं, उसकी पहचान की थी, अब लोग कहते हैं —“खुरपी और कलम में कोई फर्क नहीं होता…बस, कोई खेत जोतता है, और कोई किस्मत।”
रतन अब तहसीलदार की कुर्सी पर बैठा है, पर उसकी आँखों में आज भी खेतों की मिट्टी के रंग बसे हैं। जब भी वह गांव लौटता है, बूढ़े बापू की झुकी कमर, मां के हाथ की रोटी और नीम की छांव में पढ़ा गया पहला पाठ उसे भीतर से झकझोर देता है। उसके लिए यह पद सिर्फ नौकरी नहीं, एक उत्तरदायित्व है,उस माटी का, जिसने उसे खुरपी थमाई थी, और उस शिक्षा का, जिसने उसे कलम सौंप दी, अब वह अपनी पहचान को लेकर गर्व से कहता है — “मैं खेतों से निकला हूं, पर अब गांव के बच्चों को कलम थमाने की कोशिश कर रहा हूं।“
उसकी कहानी ‘खुरपी से कलम तक’ की वह यात्रा है, जो केवल उसकी नहीं, बल्कि हर उस बेटे की है, जो मिट्टी की गोद से उठकर बदलाव की लौ लेकर लौटता है।
(समाप्त)
मुकेश मोरे
मो. 9669699718