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भाग 1: पहली बारिश में भीगा प्यार
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दिल्ली की सर्द सुबह थी। नवम्बर का महीना। आसमान में बादल गहराए हुए थे और हवा में नमी की वो खास ख़ुशबू थी, जो सिर्फ़ बारिश के आने से पहले महसूस होती है। शहर की गलियों में खामोशी थी, मगर उस खामोशी के बीच भी कहीं न कहीं दिलों में तूफ़ान उठ रहे थे।
कॉलेज का पहला दिन था।
Meher अपनी दुपट्टे को संभालती हुई, भागती-सी कैंपस में दाख़िल हुई। उसका मन थोड़ा डरा हुआ, थोड़ा उत्साहित था। हर चेहरा नया था, हर मुस्कान में अजनबीयत। वो सोच ही रही थी कि कहाँ बैठे, तभी उसकी नज़र लाइब्रेरी के कोने में बैठे एक लड़के पर पड़ी।
Aarav
शांत, गंभीर चेहरा।
काली शर्ट, नीला स्वेटर, और आँखों में ऐसा सन्नाटा… जैसे किसी ने मुस्कुराने की इजाज़त छीन ली हो।
वो किताब में खोया था, मगर उसकी आँखें कहीं और ढूंढ रही थीं। शायद किसी अधूरी कहानी का अंत… या किसी अधूरे रिश्ते की शुरुआत।
Meher का दिल एक पल को थम गया।
“कौन है ये? इतना अकेला क्यों है ये लड़का?”
वो चाहकर भी नज़रें हटा न सकी। कुछ था उसमें… कोई खिंचाव, कोई रहस्य।
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अगले दिन, Meher अपनी फ़ेवरेट किताब ढूंढते हुए लाइब्रेरी पहुंची —
"रूह की खामोशियाँ" — एक कविता-संग्रह।
जैसे ही उसने हाथ बढ़ाया, उसी पल किसी और का हाथ भी उस किताब पर पड़ा।
नज़रें उठीं — सामने Aarav खड़ा था।
"तुम ये पढ़ती हो?" – उसकी आवाज़ धीमी और थकी हुई थी, जैसे हर लफ्ज़ में कोई बोझ हो।
Meher मुस्कुराई, "हाँ... इसमें कुछ लफ्ज़ सीधे दिल में उतर जाते हैं।"
Aarav ने किताब उसकी ओर बढ़ा दी। "तुम पहले पढ़ लो… मैं इंतज़ार कर लूँगा।"
Meher चौंकी। कौन इस दौर में इतना सब्र करता है?
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दिन बीते। दोनों की मुलाक़ातें बढ़ीं। क्लास के प्रोजेक्ट्स, लाइब्रेरी में आमने-सामने बैठना, या कभी-कभी कैंटीन की चाय।
Aarav बहुत कम बोलता था। मगर जब बोलता… तो ऐसा लगता जैसे उसकी बातों में कोई अधूरा गीत छिपा है।
एक दिन, Meher ने पूछा —
"तुम इतना चुप क्यों रहते हो?"
Aarav ने नज़रें झुका लीं। "कुछ लोग बोलने से डरते हैं… कहीं सच निकल गया तो?"
उसके लफ्ज़ों में दर्द था। ऐसा दर्द जो सालों से जमा हो और अब जंग की तरह रिस रहा हो।
Meher धीरे-धीरे Aarav की खामोशियों को पढ़ना सीख गई। वो उसकी आँखों में देख कर समझ जाती थी कि कब वो उदास है, कब टूटा हुआ।
एक शाम, दोनों कैंपस के पीछे की बेंच पर बैठे थे।
हवा में गुलमोहर की पत्तियाँ उड़ रही थीं।
Meher ने कहा, "कभी कुछ लिखा है तुमने?"
Aarav ने मुस्कुराते हुए एक पुराना कागज़ निकाला।
“तू जो चुप रही, तो दर्द ने बोलना सीखा,
तेरे जाने के बाद मैंने खुद को खोना सीखा…”
Meher की आँखें भीग गईं। वो नहीं जानती थी कि एक शायर इतना टूटा हुआ हो सकता है।
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एक दिन अचानक तेज़ बारिश हुई। क्लास ख़त्म होते ही सभी लोग भागने लगे।
Meher भीगती हुई बाहर निकली — और तब Aarav उसे दिखा।
बिना कुछ कहे उसने अपने कंधे से स्वेटर उतारा और Meher के सिर पर डाल दिया।
"तुम भीग रही हो… बीमार हो जाओगी।"
Meher ने उसकी आँखों में देखा — वहाँ कोई चिंता नहीं थी… सिर्फ़ अपनापन था।
उस एक लम्हे में, Meher को एहसास हुआ…
वो इस लड़के से मोहब्बत कर बैठी है।
उस दिन शाम को कॉलेज से लौटते समय Meher और Aarav कैंपस के बगीचे में बैठे थे। हवा में ठंड थी, और मौसम में कुछ अजीब सी बेचैनी।
Meher कुछ कहना चाह रही थी, पर चुप थी।
"Aarav," उसने धीमे स्वर में कहा, "तुम अब मुझसे बातें करने लगे हो, मुस्कुराने लगे हो... पर फिर भी ऐसा लगता है जैसे तुम मुझसे कुछ छुपा रहे हो।"
Aarav ने उसकी तरफ़ देखा। उसकी आँखों में वो पुरानी चुप्पी लौट आई थी।
"हर कोई कुछ न कुछ छुपाता है, Meher... कुछ कहानियाँ बताने के लिए नहीं होतीं, सिर्फ़ सहने के लिए होती हैं।"
Meher का दिल डूबने लगा।
अचानक उसकी नज़र Aarav की किताब के पन्नों में रखी एक पुरानी तस्वीर पर पड़ी। तस्वीर में एक लड़की थी — मुस्कुराती हुई, और उसके गले में Aarav का वही लॉकेट था जो अब Aarav नहीं पहनता।
Meher कुछ पूछने ही वाली थी, कि Aarav ने तस्वीर खामोशी से वापस किताब में रख दी।
उस दिन Meher को पहली बार ऐसा लगा — Aarav सिर्फ़ टूटा हुआ नहीं है... किसी भयानक दर्द में बंद है।
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दिन गुज़रते गए। Meher और Aarav की दोस्ती गहराती गई। वो दोनों एक-दूसरे के इतने करीब आ गए कि एक-दूसरे की ख़ामोशियों को भी पहचानने लगे।
Aarav अब कभी-कभी हँसता भी था — और उसकी हँसी, Meher के लिए किसी तोहफे से कम न थी।
एक दिन कैंटीन में बैठे हुए, Meher ने कहा —
"काश, ये पल रुक जाए… और हम कभी अलग न हों।"
Aarav ने हल्की मुस्कान के साथ कहा,
"कुछ पल ही तो होते हैं जो हमेशा के लिए हमारे रहते हैं… लोग तो चले जाते हैं।"
Meher उसकी बातों को मज़ाक समझकर हँस पड़ी… पर Aarav की आँखें उस पल गीली हो गई थीं।
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Meher को अब Aarav से मोहब्बत हो चुकी थी। और एक दिन जब Aarav क्लास में नहीं आया, Meher उसकी किताबें लाइब्रेरी से उठाकर ले गई।
उन्हीं में एक पुरानी डायरी थी — भूरे रंग की, थोड़ी फटी हुई, और उसमें समय की धूल जमी थी।
Meher ने वो डायरी खोल दी।
> "28 जनवरी — आज भी वो आई थी... हँसी थी... पर मैं जानता हूँ, वो मुझे नहीं देख रही थी।
शायद मैं अब भी उसके लिए बस एक गुज़र चुका मौसम हूँ।"
꧁ क्रमशः ꧂