निशा चंद्रा
नीलम कुलश्रेष्ठ रचित अभी तक तो रंग बनाती हुई पारु, चित्र बनाते हुए रॉबर्ट, दुभाषिया नईम, अजंता की गुफाएँ, काला गुलाब विचारों के वृंदावन में चक्कर लगा रहे थे कि हाथों में आ गयी,
'अवनी, सूरज और वे'
एक बिल्कुल ही अलग तरह का उपन्यास। सच कहूँ तो इस उपन्यास को पढ़ने में मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ी।
किसानों के विषय में बहुत कुछ पढ़ा था, परन्तु महिला किसानों पर पहली बार पढ़ा और वह भी थोड़ा बहुत नहीं, पूरा उपन्यास।
महिला किसानों पर लिखा गया एक महत्वपूर्ण कदम। जिसे सार्थक बनाया उपन्यास के माध्यम से नीलम कुलश्रेष्ठ जी ने। बहुत सारी समस्याएं, उनके समाधान, भावनात्मक संवाद, गांव, लहलहाते खेत, एक सीधी सरल सी किंजल नाम की लड़की, एक आश्रम, आश्रम में हीरा बा, सरपंच सविता बा, अमर, अमृत, निमकी, टिकुली,
कितने कितने पात्र, कितनी कितनी कहानियां।
वड़ के पेड़ के नीचे बनी हुई एक झोंपड़ी और सुबह सुबह ताली बजाकर कभी नरसिंह महेता के तो कभी किसी और के भजन गाते हुए हीरा बा के पति।जिन्हें सब काका कहते हैं। धीरे-धीरे गांव का आदिवासी समुदाय इसमें जुड़ता गया और वहीं नींव पड़ी 'सानंद आश्रम ' की। हीरा बा भजन के बाद औरतों को शहर से लाई भाजियों से परिचित कराती। उन्हें बीज देती और उन्हें उसके गुण सिखाती।
इसी आश्रम की कोख से जन्म हुआ लोक अदालत का। गुजरात में महिला सामाख्या योजना का।
आदिवासियों की पृथक पृथक जातियां, जैसे तड़वी भील, वसावा भील, ढ़ोली। उनके भिन्न प्रकार के चांदी और गिलट के आभूषण। पुरुषों के वस्त्र जिन्हें केड़िया कहते हैं, उनका वर्णन, उनकी अलग प्रकार की पगड़ी । सभी की विस्तार से जानकारी इस उपन्यास में मिलती है। परिस्थितियां बदलने से वही चीजें कैसे नये अर्थ की पोशाक पहन लेती हैं, यह इस उपन्यास में उजागर होता है। समय रिश्तों में कैसे बोध और दायित्व को गूंथ देता है, वह भी रेखांकित किया गया है।
व्याहता किंजल जब बचपन के प्यार अमर से मिलती है और अमर जब कहता है तू सरुप को छोड़ दे, मैं तुझ से व्याह करूंगा। क्या मनस्थिति तब रही किंजल की? क्या हुआ? क्या किंजल सरुप को छोड़कर अमर के पास आई? या नहीं, यह तो पाठक उपन्यास पढ़ने पर ही जान पायेंगे पर जो हुआ उस दुःख, पीड़ा को व्यक्त करने में शायद लेखिका की लेखनी से स्याही की जगह दर्द टपका होगा।
लहलहाते भुट्टे के हरे भरे खेत ने उसके अंदर के पत्थर को पिघलाने में मदद की।
जैसा कि अधिकांश आश्रमों में होता है वही यहां भी। एक आश्रम, आश्रम में पच्चीस तीस आदिवासी औरतें, आश्रम के संचालक काका को सब गांधी कहते थे। पर दूसरे कमरों से जुड़ा एक लंबा कमरा, कुछ अलग ही कहानी कहता था।
गुजरात में छियासठ प्रतिशत स्त्रियां खेतों में काम करती हैं, यह मुझे उपन्यास पढ़ने पर ही पता चला।
कितने आश्चर्य की बात है, कि एक छोटे से गांव खींचा में रहने वाले काशीराम वाघेला गांव गांव घूमकर लोगों में प्राकृतिक (ऑर्गेनिक) खेती के लिए जागृति फैला रहे थे। सरकार तो सन 2016 में तब जागी, जब गुजरात के हर गांव में कैंसर पंजाब की तरह फैलने लगा था परंतु अमृत भाई बहुत पहले से लोगों को जगा रहे थे। मुझे लगता है, अमृत भाई की तरह ही तपती गर्मी, ठिठुरती सर्दी में गांव गांव जाकर लेखिका ने तथ्य एकत्र किये हैं।उपन्यास पढ़ते हुए लगता है कि हम पढ़ नहीं रहे, बायोस्कोप देख रहे हैं।
मैं चकित हूं केंस फ़िल्म फ़ेस्टिवल ----2024 में 48वर्ष पुरानी फ़िल्म 'मंथन' की रील का नवीनीकरण करके उसे क्लासिक सेक्शन के अंतर्गत रिलीज़ किया गया है ।
उधर सं 2023 में प्रकाशित नीलम जी के इस उपन्यास में डॉ. कुरियन वर्घीज़ के आनंद आने की बात, अमूल क्रांति से ' श्वेत क्रांति' से महिलाओं की स्थिति में सुधार की बात विस्तार से कही ग ई है।क्या बहुत आवश्यक है इतिहास को फिर फिर दोहराना जिससे न ई पीढ़ी कुछ सीख सके? मैं बहुत संतुष्ट हूँ कि सं 2023 में प्रकाशित मेरा ये उपन्यास मेरा उपन्यास भी एक दस्तावेज है।
सं 2024 की फ़िल्म `लापता लेडीज़' अंत की तरफ़ बढ़ती है लगता है इस उपन्यास 'अवनी, सूरज और वे' की महिला किसान आत्मनिर्भर दृढ़ व्यक्तित्व नायिका किंजल साकार होती जा रही है।
जब फ़िल्म की पुष्पा रानी उर्फ़ जया कहती है कि वह ऑर्गेनिक खेती का कोर्स करना चाहती है जिससे दस वर्ष बाद स्वस्थ फ़सलें लहलहा सकें --तो लगा सच ही ये हमारे देश के किसानों व बेटियों का भी संकल्प है ।
ये क्यों ज़रुरी है? किरण राव जो बात `लापता लेडीज़' फ़िल्म में वे कहने से चूक ग ईं, वह नीलम जी का उपन्यास आपको बतायेगा।ये इसलिए आवश्यक है कि गुजरात के हर गांव में कम से कम एक तो केंसर का रोगी है।जो लोग व स्त्रियाँ भारत को सच ही स्वस्थ कृषि प्रधान देश बनाने में जुटीं हुये है, उन्हें सेल्यूट।
इस उपन्यास की पृष्ठभूमि महिला किसानों पर आधारित है। इस उपन्यास में वैश्वीकरण और भूमंडलीकरण की ओर बढ़ती दुनिया की तल्ख सच्चाईयां बड़ी खूबसूरती से पिरोई गयी हैं। कुछ पुरानी यादें, कुछ नए ख्वाब हैं। बिखरे हुए वक़्त के आरोप हैं, ख़ामोशियां हैं।
नीलम कुलश्रेष्ठ जी ने आस पास के गांवों की स्थितियों को अलग तरीके से देखा और खेतों में स्वयं जाकर वहां के लोगों से बातचीत कर, उनकी मनःस्थिति समझकर, उपन्यास के दायरे में कैद किया।
इस उपन्यास में नीलम जी ने स्त्री सशक्तिकरण का वह अध्याय खोला है, जो आत्महीनता और अवसाद के लंबे अंधेरे रास्तों से निकल कर उद्दाम वेग से बह निकली हैं। चाहे वह हीरा बा हों, किंजल हो, मोटी बा हो या अनेकानेक आदिवासी स्त्रियां।
एक बेहद उज्जवल, प्रसन्न्ता, संभावना, संतुष्टि से परिपूर्ण है यह उपन्यास। इसके लिए नीलम जी बधाई की पात्र हैं। इसके साथ ही बधाई की पात्र हैं प्रकाशिका नीरज शर्मा जी, जिन्होंने मिट्टी की गंध में रचे-बसे कुछ सरसराते से, महकते से पन्नों को पुस्तक रूप में बांधा। आवरण पृष्ठ भी बेहद आकर्षक।
उपन्यास में इतने सारे पात्र, उनकी कहानी, सेक्स एजुकेशन, बलात्कार, प्यार विछोह, पच्चीस साल से समाज सेवा में रत सोनल बेन ......
मुझे लगता है कि यदि मैं इन सभी के विषय में थोड़ा थोड़ा भी लिख दूंगी तो पाठकों के पढ़ने के लिए कुछ नहीं बचेगा। उपन्यास की पूर्णाहुति यहीं हो जायेगी। इसलिए अब मैं हवन कुंड में कुछ आहुति देकर, उपन्यास के कुछ पात्रों के साथआप को छोड़े जा रही हूं, उसकी पवित्र धूनी में आप भी अपने आपको बहने दें.....
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हल्के झुटपुटे में जीप में घर जाते हुए मोटी बा से पूछा था,
'मोटी बा !तुम तो कहती थी, हीरा बा ने आश्रम बसाने के लिए बहुत मेहनत की है तो वह बरामदे की सीढ़ी पर ऐसे कैसे परायी सी बैठी थी? भीड़ के बीच फटी फटी आँखों से काका को ऐसे देख रहीं थीं, जैसे उनसे उनका कोई रिश्ता ही ना हो, उन्हें पहचानती ही ना हों '
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आश्रम में कितनी आदिवासी औरतें थीं?
तब तो बीस पच्चीस थीं।
वह अभी भी काका के पास वाले लंबे कमरे में रहती है?
बिचारी और कहाँ जायेंगी? काका को सब गांधी कहते थे पर जब मैं पहली बार लोक अदालत देखने गई, सब समझ गई थी। हीरा बा, जिसके सिर पर आज भी इस आश्रम को खड़े करने के निशान हैं, क्या रात में काका के कमरे में जाती हुई औरतें उन्हें नहीं दिखाई देती होंगी।
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आपको पता है हमारे गुजरात में छियासठ प्रतिशत औरतें खेतों में काम करती है। यानि सारे गुजरात का पेट भरने में औरतों का बड़ा हाथ है।
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पहली बार बीज बोने के दस ग्यारह दिन बाद जब कपास के पौधे के पहले अंकुर फूटे तो उसकी आँखें सजल हो उठी थी। उसकी कोख में एक हिलोर उठी थी। स्वंय तो माँ नहीं बन पाई तो क्या, इस दूर दूर तक फैली धरती को बार बार माँ बनायेगी।
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पंचायत में आज बहुत भीड़ है। काशीराम सूराभाई वाघेला नाम ही ऐसा है जिसे सुनते ही भीड़ उमड़ पड़ी है। पहले वह इला भट्ट की संस्था सेवा में किसान योजना में काम करते थे। जब गुजरात के हर गांव में पंजाब की तरह कैंसर फैलने लगा तो वह गांव गांव घूमकर लोगों को प्राकृतिक खेती के लिए जगा रहे थे।
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किंजल को समझ नहीं आ रहा था, क्या काम करे, वह ऐसे ही इन सूखे पौधों को हाथ से सहलाने लगी थी। इनके ऊपर के पत्ते कड़क हो गये थे। क्या मानस का मन और पेड़-पौधे, ऋतुओं में रहते हैं.....।
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अंत में बस इतना ही......
'इतना आसान नहीं है, जीवन का हर किरदार निभाना......
इंसान को बिखरना पड़ता है
रिश्तों को समेटने के लिए....
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अवनी, सूरज और वे(उपन्यास)
लेखिका -नीलम कुलश्रेष्ठ
प्रकाशन - वनिका प्रकाशन
प्रकाशिका -नीरज शर्मा
कीमत -400 रुपए