कहते हैं कि दुख, विषाद या हताशा किसी सरहद या मज़हब की ग़ुलाम नहीं होती। किसी भी देश, धर्म अथवा संप्रदाय को मानने वाली हर माँ को उसके बच्चों से बिछुड़ने का दुख हर जगह..हर माहौल में एक जैसा होता है। इसी तरह आतंकवाद से दिन-रात त्राहिमाम करती जनता अथवा उससे जूझने वाले हर फौजी..हर सिपाही के मन में भी एक जैसी ही भावनाएं उमड़ती हैं। भले ही वे भारत या ईरान-इराक-अफ़गानिस्तान अथवा किसी भी अन्य मुल्क से ताल्लुक रखते हों।
दोस्तों.. आज मैं यहाँ इसी तरह के विषय पर लिखे गए एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'क़यामत' के नाम से लिखा है पंजाबी लेखक हरमिंदर चहल ने और इसका हिंदी अनुवाद किया है प्रसिद्ध साहित्यकार एवं अनुवादक सुभाष नीरव ने।
मूलतः इस उपन्यास में कहानी है इराक के अल्पसंख्यक यज़ीदी समुदाय पर इस्लामिक स्टेट (ISIS) के आतंक भरे कहर की। जिसमें एक परिवार के माध्यम से वहाँ के लोगों की दशा-दुर्दशा और बुरे हालात का वर्णन किया गया है। उस आईएसआईएस (ISIS) की जो ऐसा चरमपंथी संगठन है जिसके आतंक की की शुरुआत 2013 में हुई थी। इस संगठन का पूरा नाम इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (Islamic State of Iraq and Syria) है। शुरू में, इसे अल-कायदा इत्यादि का समर्थन प्राप्त था, लेकिन बाद में अल-कायदा ने इससे दूरी बना ली। मौजूदा हालात में आईएसआईएस अब अल-कायदा से भी ज़्यादा क्रूर और खतरनाक संगठन के रूप में जाना जाता है।
इस उपन्यास में कहीं जवान युवतियों और औरतों को जबरन बंधक बनाए जाने और सीरिया में लड़ाकों की यौनिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए इन्हें भेजे जाने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा इनकी सकुशल बरामदगी सुनिश्चित करने के प्रयास होते नज़र आते हैं। कहीं ईरान-इराक के युद्ध में सद्दाम हुसैन द्वारा जबरन युवाओं को युद्ध में झोंके जाने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं दुश्मनों के लिए बिछाई गयीं बारूदी सुरंगों की चपेट में आ बेज़ुबान जानवरों के मरने की बात भी उठती नज़र आती है।
इसी किताब में कहीं सद्दाम हुसैन द्वारा कुर्दिश इलाकों पर ज़ुल्म करने की वजह से वहाँ की जनता त्रस्त नज़र आती है तो कहीं सद्दाम हुसैन का हौसला तोड़ने के मद्देनज़र चीनी जैसी मामूली चीज़ की उपलब्धता पर भी अमेरिका द्वारा इस कदर बंदिश लगाने की बात होती दिखाई देती है कि इराक के शहरों, कस्बों और गाँवों में चीनी की मौजूदगी बमुश्किल ही दिखाई देती है। इसी उपन्यास में कहीं गद्दारी के शक में सद्दाम हुसैन के द्वारा ज़हरीली गैस के ज़रिए कुर्दिश इलाकों के गाँव के गाँव ख़त्म कर देने की बात होती नज़र आती है।
इसी उपन्यास के द्वारा हमें पता चलता है कि यज़ीदी धर्म को इस वजह से मुस्लिमों द्वारा धर्म ही नहीं माना जाता कि इनकी बाइबल या कुरान की तरह कोई धार्मिक किताब नहीं है। साथ ही यज़ीदी धर्म में धार्मिक मान्यता के अनुसार उसके अनुयायी बुधवार के दिन नहाते नहीं हैं। जिसकी वजह से उन्हें गंदा समझ जाता है।
इसी उपन्यास द्वारा हमें पता चलता है कि यज़ीदी धर्म वाले अपने धर्म का प्रचार नहीं करते क्यों बाहर का कोई भी व्यक्ति अन्य धर्मों की तरह अपना धर्म बदल कर इनके धर्म में नहीं आ सकता। साथ ही इराक के गाँवों में गाँव वालों द्वारा किसी की मौत पर बंदूकें चला-चला कर शोक मनाया जाता है। तो कहीं सुन्नी मुसलमानों द्वारा यजीदियों के जवान बच्चों का पैसे के लिए अपहरण कर लिया जाता है।
इसी उपन्यास में कहीं गाँव देहातों में ISIS के बढ़ते प्रभाव एवं अतिक्रमण की वजह से आम जन चिंतित को कहीं अपनी तथा अपने क्षेत्र की सुरक्षा के प्रति सजग रूप से प्रयासरत नज़र आते हैं। तो कहीं ISIS के हमले के बाद अपने गाँव-घर छोड़ कर भागे लोगों द्वारा पेड़ों के पत्ते खा कर जीवित रहने या फ़िर अमेरिकी के रूप में हवाई जहाजों से फैंकी जाने वाली रसद सामग्री के पैकेटों पर निर्भर रहने की बात होती नज़र आती है। इसी किताब में कहीं सिखों (सिख धर्म के अनुयायी) द्वारा सीरिया और कुर्दिस्तान की सीमा पर शरणार्थियों की सेवा के लिए राहत कैंप चलाए जाने की बात पता चलती है। तो कहीं ISIS द्वारा सामूहिक नरसंहार के रूप में पूरे गाँव के बुज़ुर्गों और अधेड़ों को गोलियों द्वारा छलनी किए जाने की बात होती दिखाई देती है।
कहीं जवान युवकों और बच्चों को आत्मघाती हमलों के लिए तैयार किए जाने की बात तो कहीं जवान युवतियों को आगे बेचने या सैक्स स्लेव के रूप में ISIS के लड़ाकों द्वारा इस्तेमाल किए जाने की बात उठती दिखाई देती है। इसी उपन्यास में कहीं ISIS द्वारा विरोध किए जाने की सज़ा के रूप में एक युवती को पहले जबरन गैंगरेप का शिकार और फ़िर सबके सामने ज़िंदा जला दिए जाने की बात होती नज़र आती है।
दरअसल किसी भी उपन्यास को एक शिफ़्ट में लिखने के बजाय कई-कई शिफ्टों में लिख कर तैयार किया जाता है। इस बीच वक्त ज़रूरत के हिसाब से बीच में काफ़ी दिनों के गैप का आ जाना भी कोई बड़ी बात नहीं है। ऐसे में दिक्कत ये आती है कि पहले हम किसी चीज़ के बारे में कुछ और लिख चुके होते हैं मगर कहानी को बढ़ाते समय हम पहले लिखी बात को भूल जाते हैं जिससे कहानी की कंटीन्यूटी में फ़र्क आ जाता है। इस चीज़ का एक उदाहरण इस उपन्यास में भी नज़र आया कि पेज नंबर 105 में लिखा दिखाई दिया कि..
'वह आँखें मूंदे प्रार्थना कर रही थी। उठकर बाहर देखने का यत्न किया, पर सफलता नहीं मिली, क्योंकि खिड़कियों के शीशे कागज़ लगाकर ढके हुए थे।'
इससे अगले पैराग्राफ में दिखा दिखाई दिया कि..
'अंदाज़ा हुआ कि सवेरा हो चुका है। फिर दिन चढ़ गया और खिड़कियों के बाहर दिखने लगा।'
यहाँ एक पैराग्राफ़ पहले लेखक द्वारा बताया जा रहा है कि खिड़कियों से बाहर देख पाना मुमकिन नहीं था क्योंकि खिड़कियों के शीशों पर अख़बारी कागज़ चिपका हुआ था जबकि अगले ही पैराग्राफ़ में लिखा जा रहा है कि खिड़कियों से बाहर दिखाई दे रहा था।
इस उपन्यास को पढ़ते वक्त कुछ एक जगहों पर प्रूफरीडिंग की कमियाँ भी दिखाई दीं जैसे कि पेज नम्बर 20 के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..
'रात उसी तरफ बीती जैसे पहली रात बीती थी'
यहाँ 'रात उसी तरफ बीती' की जगह पर 'रात उसी तरह बीती' आएगा।
पेज नम्बर 41 में लिखा दिखाई दिया कि..
'क्योंकि बाइबल या कुराना की तरह हमारी कोई धार्मिक किताब नहीं'
यहाँ 'कुराना' की जगह पर 'कुरान' या फ़िर 'कुरआन' आएगा।
पेज नम्बर 56 के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..
'मैंने तो तैयारी की थी कि भेड़ा काटूँगा'
यहाँ 'भेड़ा काटूँगा' की जगह पर 'भेड़ काटूँगा' आना चाहिए।
पेज नम्बर 64 में लिखा नज़र आया कि..
'इस बातें से अमेरिका भी सावधान है'
कहानी के हिसाब से यहाँ 'इस बातें से अमेरिका भी सावधान है' की जगह पर 'इन बातों से अमेरिका भी सावधान है' आना चाहिए।
पेज नम्बर 71 में लिखा दिखाई दिया कि..
'उसके कहे मुताबिक जो लोग भागने में कामयाब हो गए, वे सिंजार पहाड़ों की तरह निकल गए'
यहाँ 'सिंजार पहाड़ों की तरह निकल गए' की जगह पर 'सिंजार पहाड़ों की तरफ़ निकल गए' आएगा।
पेज नम्बर 79 में लिखा नज़र आया कि..
'क़रीब एक घंट बाद आकर वह संक्षेप में बात बताने लगा'
यहाँ 'एक घंट बाद' की जगह पर 'एक घंटा बाद' आएगा।
पेज नम्बर 84 में लिखा दिखाई दिया कि..
'इस वक्त इस्लामिक स्टेट वाले आँधी की तरह हर तरफ़ चढ़े जो रहे हैं'
यहाँ 'चढ़े जो रहे हैं' की जगह पर 'चढ़े जा रहे हैं' आएगा।
पेज नम्बर 89 में लिखा दिखाई दिया कि..
'पता नहीं था कि कब तक इस्लामिक स्टेट वालों का घरा पड़ा रहेगा'
यहाँ 'घरा पड़ा रहेगा' की जगह पर 'घेरा पड़ा रहेगा' आना चाहिए।
पेज नम्बर 112 में लिखा दिखाई दिया कि..
'मैंने राते हुए कहा'
यहाँ 'मैंने राते हुए कहा' की जगह पर 'मैंने रोते हुए कहा'
पेज नम्बर 113 में लिखा दिखाई दिया कि..
'उसकी बात सुनकर फौजिया बड़ी विचलित हो गई और बाली'
यहाँ 'और बाली' की जगह पर 'और बोली' आएगा।
पेज नम्बर 119 में लिखा नज़र आया कि..
'लगा जैसे सारा मास उखाड़कर ले गया हो'
यहाँ 'मास' की जगह पर 'मांस' आएगा।
पेज नम्बर 131 के अंत में लिखा नज़र आया कि..
'पीछे घर की चारदीवारी के ऊपर से घिसरते हुए दूसरी तरफ़ जाया जा सकता था'
यहाँ 'घिसरते हुए' की जगह पर 'घिसटते हुए' आना चाहिए।
पेज नम्बर 173 में लिखा दिखाई दिया कि..
'इस्लामिक स्टेट का नासिर नाक का एक खतरनाक आतंकवादी हलाक'
यहाँ 'नासिर नाक का एक खतरनाक आतंकवादी हलाक' की जगह पर 'नासिर नाम का एक खतरनाक आतंकवादी' आएगा।
पेज नम्बर 174 में लिखा दिखाई दिया कि..
'सुरक्षा फोर्सों ने उसको वहीं ढेर कर दियाकृ'
यहाँ 'कर दिया' की जगह पर ग़लती से 'कर दियाकृ' छप गया है।
* लावारिश - लावारिस
* पड़क - पकड़
* (पूछ-तड़ताल) - (पूछ-पड़ताल)
* घिराव - घेराव
* इस्लामिद स्टेट - इस्लामिक स्टेट
* (धागा-तावीत) / (धागा-तावीज)
उपन्यास को पढ़ते वक्त इस किताब के काफ़ी पेज अपनी बाइंडिंग से उखड़े मिले। जिसकी तरफ़ ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है।
यूँ तो यह उम्दा उपन्यास मुझे लेखक की तरफ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस रोचक किताब के 175 पृष्ठीय हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है भारत पुस्तक भंडार ने और इसका मूल्य रखा गया है 450/- रुपए जो कि मुझे ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक, अनुवादक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।