turn of time in Hindi Moral Stories by mukesh more books and stories PDF | काल की करवट

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काल की करवट

"काल जब करवट लेता है,तो सिर्फ़ समय नहीं,जिंदगी की दिशा, रिश्तों की परिभाषा और सपनों की मंज़िल भी बदल जाती है।जो आज है, वही कल नहीं होता,और जो बीत गया, वो कभी वैसा लौटकर नहीं आता" 

धूल से अटी पगडंडी, सूखे आम के पेड़, और दूर से आती बैल की घंटियों की धीमी आवाज़,यही था गोपाल का गांव धनपुर। न कोई पक्की सड़क, न अस्पताल, न ढंग का स्कूल। बरसात में जब गांव तालाब बन जाता, तो बच्चे मिट्टी में फिसलते-गिरते स्कूल तक पहुंचते। और गर्मियों में खेत सूखकर दरारों में बदल जाते।लेकिन इन्हीं दरारों के बीच गोपाल ने सपनों का पौधा बोया था।वह गांव का एक सीधा-सादा, मेहनती लड़का था। उसकी मां जसोदा खेतों में काम करती थी और पिता हरिशंकर गांव की चौपाल पर बैठकर बीड़ी पीते हुए जीवन को समय के हवाले कर चुके थे। पढ़ाई में कोई खास मदद नहीं मिलती थी, लेकिन गोपाल को किताबों से प्यार था।हर रोज़ सुबह 5 बजे वह नहर किनारे बैठकर पढ़ता था,वहीं उसकी पाठशाला थी। पुरानी किताबें, फटी हुई कॉपी, और टूटी हुई पेन,यही उसका खजाना था।उसके पिता कहते

“गोपाल, पढ़-लिख कर कौन सा कलेक्टर बनेगा तू?“तेरे जैसे लोगों के लिए तो हल ही बना है बेटा!”

गांव वाले मज़ाक उड़ाते, लेकिन गोपाल चुपचाप मुस्कुरा देता। उसके अंदर कुछ ऐसा जल रहा था जिसे कोई बुझा नहीं सकता था और वो था उसका आत्म-विश्वास।

गोपाल अब खेतों की मिट्टी से किताबों के अक्षरों तक की यात्रा में लगा हुआ था। गांव के स्कूल से बारहवीं पास करने के बाद उसने निश्चय किया था,कि अब वह सिर्फ अपने खेतों का नहीं, अपनी तक़दीर का भी हल चलाएगा। गांव से कुछ कोस दूर कस्बे जैसे एक शहर में, उसने बी.ए. में दाखिला लिया।कॉलेज की हालत देख कर उसे कोई विशेष उत्साह नहीं हुआ,पुरानी सी इमारत, उखड़ी हुई छत, और वही गांव जैसी सादगी। परंतु उसके इरादे बड़े थे। बी.ए. के साथ-साथ वह प्रतियोगी परीक्षाओं की भी तैयारी करने लगा था। हर शाम जब बाकी छात्र चाय की दुकानों पर बहस में उलझे होते, तब गोपाल अपने किराये के कमरे में बैठकर ‘सामान्य अध्ययन’ और ‘हिंदी निबंध’ के नोट्स बनाता।बी.ए. अंतिम वर्ष की परीक्षा चल रही थी, तभी समाचार आया,वन विभाग और शिक्षा विभाग में सीधी भर्ती निकली है। कोई परीक्षा नहीं, सिर्फ मेरिट के आधार पर चयन। गोपाल ने दोनों में आवेदन कर दिया। परीक्षा समाप्त होते ही वह गांव की ओर लौट गया,माँ की रोटियों और बाबा की कहानियों के बीच कुछ सुकून तलाशने।

महीनों बीत गए।एक दिन डाकिया एक लिफाफा लेकर आया और बोला,“गोपाल के नाम चिट्ठी आई है सरकारी दफ्तर से”सब लोग हैरान थे। गोपाल ने कांपते हाथों से पत्र खोला वह वन विभाग में बाबू के पद पर चयनित हो चुका था। उसकी आंखों में पानी था। मां ने उसके सिर पर हाथ फेरा और बोली,

“आज तेरा बाप भी गर्व करेगा बेटा... तूने घर का नाम रोशन कर दिया”

गांव में मिठाइयां बटी, गांव के बुजुर्गों ने आशीर्वाद दिया। लेकिन कुछ लोगों की आंखों में जलन भी थी “अब बड़ा आदमी बन गया है ये गोपाल... देखना, भूल जाएगा गांव को"

नया शहर, नई दुनिया गोपाल की नियुक्ति जबलपुर के पास एक फॉरेस्ट ऑफिस में हुई थी। उसने पहली बार ट्रेन में सफर किया। वह नई दुनिया से चकित था।बिजली, पंखा, डाक्टर, होटल, मोबाइल फोन,सब कुछ उसके गांव से बिल्कुल अलग लग रहा था।

ऑफिस में लोग उसे “गांव वाला” कहकर चिढ़ाते, लेकिन वह शांति से काम करता। धीरे-धीरे वह सबकी मदद करने वाला, भरोसेमंद कर्मचारी बन गया।उसे वहां काम करते दो साल ही हुए थे,कि उसने कंप्यूटर कोर्स करना शुरू किया। शाम को दफ्तर के बाद वह टाइपिंग और इंटरनेट सीखता। उसके भीतर अब सिर्फ नौकरी नहीं, आगे बढ़ने की भूख भी थी।

एक शाम वह फॉरेस्ट गेस्ट हाउस की छत पर बैठा था। हाथ में चाय का कप था, और आंखें आसमान की ओर उसे गांव की वो नहर याद आई, मां के पसीने से भरा चेहरा याद आया, और खुद की वो भूख,जो कभी कम नहीं हुई।वह जानता था,यह तो बस शुरुआत है।उसे नहीं पता था, कि यह सफलता, भविष्य में उसके लिए एक नई सज़ा भी बन सकती है।

“क्योंकि समय का पहिया घूमता जरूर है,लेकिन कब, किसके पक्ष में और किसके विरोध में यह कोई नहीं जानता”

गोपाल की जिंदगी में अब बदलाव की लहरें थीं। नौकरी लगने के कुछ महीने बाद, उसने अपने गांव चिट्ठी भेजी, “बहन सुनीता को शहर भेज दो” मां पहले हिचकी, लेकिन गोपाल ने भरोसा दिलाया कि वह अब जिम्मेदारी उठा सकता है।

कुछ ही हफ्तों में सुनीता उसके पास आ गई। वह दसवीं में थी,होशियार, लेकिन गांव के माहौल में घुट रही थी। गोपाल ने उसका दाखिला एक सरकारी स्कूल में करवाया और उसके लिए एक छोटा कमरा किराए पर ले लिया।

“अब तू सिर्फ पढ़ाई कर बहन,” गोपाल ने कहा, “बाकी सब मैं देख लूंगा”

शहर में गोपाल को जल्दी ही पता चला कि उसके ऑफिस के पास एक प्री-मैट्रिक हॉस्टल था, जहां पास के गांवों से आए गरीब बच्चे रहते थे,वही खेतों की धूल, वही टूटी चप्पलें, वही सपने वाली आंखें।हर शनिवार वह शाम को वहां चला जाता। बच्चों के साथ बैठता, उनके होमवर्क में मदद करता, कहानियां सुनाता।बच्चों को उससे लगाव हो गया था,वे उसे “गोपाल भैया” कहते,किसी के पास किताब नहीं होती, तो गोपाल खुद दिला देता। कभी किसी को बुखार होता, तो डॉक्टर के पास ले जाता।शायद यही गोपाल की असली पहचान थी,सपनों को सिर्फ जीना नहीं, दूसरों में बाटना भी।

एक रविवार की सुबह गोपाल बाजार गया था,बहन के लिए कुछ ज़रूरी सामान लेने। सब्जी मंडी से निकलते समय, उसकी नजरें एक लड़की से टकराईं,गहरे नीले सूट में, हाथ में किताबें और माथे पर हल्की शिकन।वह एक पुराने पुस्तक भंडार के पास खड़ी कुछ किताबें देख रही थी।गोपाल के कदम रुक गए। किताबें और किताबों से मोह,ये तो उसकी कमजोरी थी।लड़की शायद कॉलेज की छात्रा थी। उसने हाथ में पकड़ी किताब के पन्ने पलटे, फिर दुकानदार से पूछा,

“क्या आपके पास ‘The Discovery of India’ की हिंदी प्रति है?”

गोपाल ने सहज भाव से कहा,“अगर न मिले तो मेरे पास है, दे सकता हूँ,पढ़ने की शर्त पर।”

लड़की ने उसकी ओर देखा और मुस्कुराई नहीं,पर कहने लगी,“मैं छात्रा हूँ, समाजशास्त्र में एमए कर रही हूँ। किताबें मेरी ज़रूरत हैं, शौक नहीं।

“मुझे भी यही लगता है,” गोपाल बोला, “शौक तो पैसेवालों के होते हैं,हमारे हिस्से सिर्फ ज़रूरतें आती हैं।”

इस पहली मुलाकात के साथ दोनों के बीच एक अनकहा रिश्ता बन गया। लड़की का नाम था रंजना। थोड़ी तेज़, थोड़ी चुप,लेकिन आंखों में कुछ था,जो कहता था,कि उसने भी जीवन के कई रंग देखे हैं।शाम को जब गोपाल वापस अपने कमरे में आया, तो बहन ने पूछा,

“भैया, किताबें मिली?”किताबें तो बहुत मिलीं, गोपाल बोला, “लेकिन शायद आज कोई कहानी भी शुरू हुई है।”

और कहीं न कहीं, समय का पहिया अब एक नए मोड़ पर था,एक ऐसा मोड़ जहां गोपाल की निजी जिंदगी की नई राहें खुलने वाली थी” 

 शहर अब गोपाल के लिए अजनबी नहीं रहा था। वह अपनी जिम्मेदारियों के साथ जम चुका था।बहन की पढ़ाई, नौकरी की भागदौड़, और हर हफ्ते हॉस्टल के बच्चों से मुलाकात।लेकिन अब तो वह और भी करीब आ गए थे,हॉस्टल के कुछ बच्चे उसके घर आने लगे थे।कभी कोई गणित का सवाल पूछता, कोई होमवर्क करवाने आता, तो कोई बस चुपचाप एक कोने में बैठकर गोपाल भैया की मौजूदगी महसूस करता।धीरे-धीरे सुनीता भी उन्हें अपनाने लगी थी।

“दीदी, भूख लगी है! “दीदी, कल परीक्षा है!

वे बच्चे अब गोपाल और सुनीता के लिए परिवार जैसे बन चुके थे।रविवार का दिन अब घर में किसी त्योहार जैसा होता।खिचड़ी बनती, बच्चे खाना खाते, हँसी-मज़ाक चलता।गोपाल के लिए यह उसका सबसे बड़ा सुख था,बिना शर्त के स्नेह और अपनापन।इन्हीं दिनों में रंजना से गोपाल की बातचीत बढ़ने लगी थी। किताबों से शुरू हुई बात अब जिंदगी के दर्शन तक पहुंच गई थी।रंजना को गोपाल की संवेदनशीलता और उसका सादा जीवन आकर्षित करने लगा।गोपाल को भी उसकी बुद्धिमत्ता और दृढ़ता पसंद थी।कुछ ही समय बाद, उन्होंने शादी का निर्णय लिया,सादगी से, दोनों की मर्ज़ी से।गांव से माता-पिता और कुछ रिश्तेदार आए। शादी हुई, और गोपाल की जिंदगी ने एक नया मोड़ लिया।रंजना शहर के एक स्कूल में अतिथि व्याख्याता बन गई। वह थोड़ी गंभीर थी, गोपाल से अलग-सी,लेकिन दोनों के बीच सम्मान का रिश्ता था।अब जब गोपाल की गृहस्थी जमने लगी थी,उसने सुनीता की शादी का भी विचार किया और उसने एक अच्छा लड़का देखा जो स्कूल मास्टर था, समझदार और मेहनती।शादी धूमधाम से हुई, लेकिन जब सुनीता विदा हुई, तो गोपाल का मन भारी हो गया।

“तू अब अपनी दुनिया में जा रही है बहन,” उसने कहा,“लेकिन यहां जो खालीपन रहेगा, उसे मैं कैसे भरूंगा...? सुनीता की आंखों से आंसू गिरे “भैया, आप तो सबके भैया हैं,वो हॉस्टल के बच्चे अब भी आपके हैं।”

धीरे-धीरे बदलती दुनिया।रंजना अब नौकरी में व्यस्त रहने लगी थी। वह आधुनिक विचारों की थी, और उसका गोपाल के ‘गांव वाले जुड़ाव’ से धीरे-धीरे मोहभंग होने लगा।उसे हॉस्टल के बच्चों का घर आना, गोपाल का उनके साथ बैठना, खाना खिलाना, सब “गंवारपना” लगता। “तुम्हारा यह भैया-पन कभी खत्म नहीं होगा क्या? गोपाल ने शांत होकर जवाब दिया, “अगर यही खत्म हो गया, तो मैं रह क्या जाऊँगा? इस बीच, रंजना ने बच्चों के आने पर टोकना शुरू कर दिया, खाने-पीने पर असंतोष जताया, और घर का माहौल धीरे-धीरे बदलने लगा।एक दिन जब एक बच्चा रोते हुए आया,उसके हॉस्टल वार्डन ने उसे पीटा था,गोपाल ने उसे चुप कराया और खाना खिलाने लगा,लेकिन रंजना ने कहा

“अब बस! यह घर समाज सेवा केंद्र नहीं है।”

गोपाल चुप रहा। उसने सिर्फ उस बच्चे की ओर देखा,जो खाना छोड़कर दरवाज़े के पास खड़ा था भैया की आंखें पढ़ते हुए, वह हॉस्टल की ओर चल पड़ा।जहां गोपाल पहले हॉस्टल के बच्चों से घिरा रहता था, अब किसी को घर बुलाने में डर लगता था।रंजना अब साफ कह चुकी थी।

“मुझे तुम्हारा समाज नहीं चाहिए, मुझे तुम्हारा समय चाहिए।“लेकिन समय तो जैसे उसके हाथ से फिसल रहा था।

“समय का पहिया घूमने लगा था,एक बार फिर लेकिन इस बार चक्के की रगड़ मन को चुभ रही थी” 

     कुछ दिनों बाद बारिश का मौसम था,गोपाल ने दफ्तर की खिड़की के बाहर देखा बारिश हो रही थी। भीतर रजिस्टर, नोटिंग, फाइलें, और गोपाल की रोज की दिनचर्या पर उस दिन कुछ अलग था। उसी दिन दोपहर में उसका पुराना मित्र अचानक दफ्तर में आया। हाथ में एक फाइल थी।गोपाल ने पूछा

“क्या है ये?”मित्र ने मुस्कराते हुए जवाब दिया,“मेरी शिक्षक पद की पदोन्नति की अर्जी है।

“गोपाल ने फाइल खोली। उसमें लिखा था,“एम.ए. हिंदी, प्रथम श्रेणी, नियमित सेवा के साथ पढ़ाई पूर्ण की है।”गोपाल की उंगलियाँ वहीं ठिठक गईं।उसने धीरे से फाइल बंद की और सिर पीछे टिकाया।सोचा,

“ये भी तो रोज़ दफ्तर आता होगा। फिर कब पढ़ता होगा? और मैं... मैं क्यों नहीं? मैं भी आगे पढ़ूंगा यह सोचते हुए”

घर लौटकर उसने अपनी किताबों को देखा जैसे बरसों से धूल फाँक रहे हों।उस रात गोपाल देर तक सो नहीं पाया।अगले ही हफ्ते उसने एम.ए. समाजशास्त्र में दाखिला लिया,ओपन यूनिवर्सिटी से।

संघर्ष शुरू हुआ,सुबह 9 बजे से शाम 6 बजे तक फाइलें फिर किताबें खोलना, और रात देर तक पढ़ते रहना।साथ के बाबू हँसते,

“अबे गोपाल बाबू, प्रोफेसर बनने का सपना देख रहे हो क्या?“देख लेना, पास भी नहीं होगा!”

गोपाल बस मुस्कुरा देता।हर ताना उसकी हिम्मत बन जाता।तीन साल बाद, गोपाल एम.ए. में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ। उसी समय शहर के महाविद्यालयों में नियमित व्याख्याताओ की नियुक्ति निकली, जिसमें योग्य उम्मीदवार न मिलने के अभाव में एम ए वालों को भी मौका दिया गया।

गोपाल ने अपना आवेदन फार्म जमा कर , कुछ दिनों बाद ही उसका साक्षात्कार थासाक्षात्कार में उसने कहा, “पढ़ना और पढ़ाना, दोनों का रिश्ता सिर्फ किताबों का नहीं, आत्मा का होता है”

शायद यही बात दिल तक पहुँची।दो हफ्ते बाद नियुक्ति पत्र आया गोपाल अब प्रोफेसर था।गोपाल की ज़िंदगी अब पहले जैसी नहीं थी। जहां पहले वह बच्चों के बीच खुद को पाता था, अब वह कॉलेज के प्रोफेसर के रूप में पहचाना जाने लगा।उसने फॉरेस्ट डिपार्टमेंट की नौकरी छोड़ दी थी,बहुत सोच-समझकर एक दिन उसने कहा था,

“मैं पेड़ों की फ़ाइलें गिनते-गिनते थक गया हूं, अब असली बीज ज्ञान के बोना चाहता हूं।

गोपाल को उज्जैन के एक सरकारी कॉलेज में सहायक प्राध्यापक की नियुक्ति मिल गई।अब वह समाजशास्त्र पढ़ाता था,वह विषय जो उसने खुद अनुभवों से सीखा था।वहीं रंजना अब भी उसी शहर के एक सरकारी स्कूल में पढ़ा रही थी।

गोपाल और रंजना की शादी को अब चार साल बीत चुके थे,इस बीच उनके घर एक बेटा पैदा हुआ, और शहर की चकाचौंध में रहने के कारण उसका नाम रखा गया, आदित्य।

बेटे के आने से घर में एक अलग ही माहौल बन गया था। गोपाल के चेहरे पर पिता बनने का गर्व तो था, लेकिन जिम्मेदारी का बोझ भी, अब गहराने लगा था।रंजना के लिए अब स्कूल और घर दोनों संभालना भारी पड़ रहा था।

“आदित्य को दिनभर कौन संभाले? “मैं स्कूल से आऊं तो खाना कौन बनाएगा? “तुम तो बस किताबों में खोए रहते हो”

इन शिकायतों का सिलसिला शुरू हो चुका था।गोपाल अब पहले जैसे शांत नहीं था।कॉलेज की जिम्मेदारियां, समाज में जगह बनाने का दबाव, और घर का बिगड़ता संतुलन वह भीतर से थकने लगा था।

गोपाल अब एक प्रतिष्ठित प्रोफेसर बन चुका था। घर में सुख-सुविधाओं की कमी नहीं रही,सरकारी क्वार्टर, बैंक बैलेंस, मोबाइल, टीवी, फ्रिज... सब कुछ था। पर एक चीज धीरे-धीरे घर से खिसक रही थी,संवाद और अपनापन।रंजना अब एक स्कूल में शिक्षिका बन चुकी थी। सुबह की घंटी से शाम की थकान तक, वह भी अपने काम में उलझी रहती। दोनों अपने-अपने दायित्व निभा रहे थे, पर आदित्य का बचपन बीच में पिसता जा रहा था।आदित्य जब भी कहता,

“पापा, मुझे ये कार चाहिए...।“मम्मी, स्कूल में सबके पास स्मार्टवॉच है...,तो गोपाल और रंजना जवाब देते “अभी टाइम नहीं है बेटा, ये पैसे रख लो… जो चाहिए ले लेना।”

धीरे-धीरे आदित्य को आदत हो गई, बिना कहे पैसा मिल जाता, लेकिन बिना कहे कोई गले नहीं लगाता।शुरुआत में वह महंगी टॉफियां, वीडियो गेम्स, लेता रहा और बाद में मोबाइल रिचार्ज के नाम पर फालतू खर्च। कोई पूछने वाला नहीं था, कोई टोकने वाला नहीं था।पैसे उसके हाथ में जरूरत से ज्यादा रहते, और अपनापन जरूरत से बहुत कम।धीरे-धीरे आदित्य की हरकतें बदलने लगीं। वह झूठ बोलने लगा, स्कूल से छुट्टी लेकर घंटों मोबाइल में डूबा रहता। उसके शब्दों में चिढ़-चिड़ापन आ गया था, आंखों में खालीपन।एक शाम जब रंजना ने उससे कहा,

“तू इतना गुस्से में क्यों रहता है बेटा?”तो आदित्य ने सिर झुकाकर जवाब दिया“आप लोग जब भी मैं कुछ बोलता हूं, पैसे दे देते हो… मुझे चीज़ें नहीं चाहिए थीं, मम्मी… मुझे आप दोनों चाहिए थे”

एक दिन कॉलेज से लौटते हुए गोपाल एक पुराने छात्र से मिला, वही जो कभी हॉस्टल से आता था, गोपाल भैया के घर खाता था।वह अब बैंक में अफसर था। उसने अपना सर झुका कर प्रणाम किया और कहा,

“सर आज जो हूं आपकी वजह से हूं आपने हमें इंसान बनना सिखाया था...”

गोपाल मुस्कुराया, लेकिन उसकी आंखें भीग गई,घर लौटकर देखा आदित्य मोबाइल पर गेम खेल रहा था, और रंजना किसी काम से बाहर जा चुकी थी। 

   समय बीतता गया। आदित्य अब बीस वर्ष का हो चुका था।किसी ज़माने में जो बच्चा गोपाल की उंगली पकड़कर स्कूल गया था, अब वही इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहा था।डिग्री तो मिली, लेकिन ज्ञान नहीं।उसका मन पढ़ाई में नहीं, शहर की गलियों, होटलों, और नशे की बोतलों में था।गोपाल को जब पहली बार उसके दोस्तों के साथ शराब पीते देखा, तो जैसे उसका दिल बैठ गया,

“बेटा, ये रास्ता अच्छा नहीं…”“पापा, आपसे जब कहा तब आपने सुना क्या?”बेटा “कम से कम अपनी ज़िंदगी खराब मत कर…”

लेकिन आदित्य की आंखों में अब संस्कारों का नहीं, शराब का नशा था।गोपाल को आशा थी, कि रंजना आदित्य को समझाएगी।लेकिन उसने समझाने की बजाय बचाने का काम किया।

“बच्चा है, थोड़ा बहुत करेगा ही…” “तुम भी तो रोज़ बच्चों को लेकर रोते रहते थे”

अब तुम कुछ मत कहो, तुम्हारा ज़माना अलग था!धीरे-धीरे रंजना और आदित्य की एक टीम बन गई, जिसमें गोपाल अब बाहरी व्यक्ति हो गया था।एक दिन कॉलेज से लौटते समय गोपाल के साथ सड़क दुर्घटना हो गयी,उसके पैर में गंभीर चोट आई,कई टांके लगे, ऑपरेशन हुआ, और महीनों बिस्तर पर पड़ा रहा।शरीर का दर्द तो झेल गया, लेकिन मन की चोट उससे गहरी थी।उसकी उम्मीद थी, कि उसका बेटा इस अवस्था में परिवार उसका सहारा बनेगा,लेकिन हुआ इसके ठीक उलट।आदित्य कई बार गालियाँ देकर चला गया।रंजना ने एक गिलास पानी भी मन से नहीं दिया, कई बार दोनों आपस में हँसते हुए उसकी बेबसी का मज़ाक उड़ाते

“अब ये पापा का ड्रामा शुरू…!“दिनभर पड़े रहते हैं, ना काम, ना कुछ…!

गोपाल अब शब्दों से नहीं, चुप्पियों से टूट रहा था।जिस घर को उसने अपने हाथों से बसाया था, अब वहीं वो अजनबी था।उसकी और आदित्य की बातचीत लगभग खत्म हो चुकी थी।रंजना से अब केवल ज़रूरी बातें होती,वह भी जैसे कोई ऑफिस का आदेश हो। अब गोपाल भी कभी-कभी वह शराब का सहारा लेने लगा,पहले अपने ग़म को समझने के लिए, फिर उसे भूलने के लिए।एक रात, गोपाल बालकनी में चुपचाप बैठा था। आदित्य और रंजना भीतर टीवी देख रहे थे।हवा ठंडी थी।आसमान में वही तारे थे,जो किसी समय हॉस्टल के बच्चों को दिखाते हुए गोपाल कहता था

“हर तारे में एक सपना छुपा होता है” आज उसी तारे को देखकर उसने कहा:“काश, मेरा सपना सिर्फ मेरा ही रहता… तो शायद टूटता न…।

”समय का पहिया एक और चक्र पूरा कर चुका था,लेकिन अब उसमें संवेदना की चिंगारी नहीं, राख रह गई थी”   

 समय आगे बढ़ा, लेकिन जैसे गोपाल की जिंदगी एक ही मोड़ पर ठहर गई थी।वह घर में रहता था, लेकिन घर अब ‘घर’ नहीं रहा था।कभी तेज़-तर्रार रही रंजना अब रीढ़ की हड्डी की गंभीर बीमारी से जूझ रही थी।चलना-फिरना कठिन, बैठना मुश्किल, और लेटना भी पीड़ा भरा,वो अक्सर कुर्सी या बिस्तर पर झुकी पड़ी रहती,चेहरे पर ना तो दर्द का शिकवा था, और ना ही गोपाल के लिए कोई ममता।गोपाल उसे दवा देता, पानी लाकर रखता,लेकिन अब वह कोई शिकायत नहीं करता, ना शब्दों में, ना आंखों में,

“तुम्हारी हालत देखकर कभी-कभी सोचता हूँ” “वक़्त सबको बराबरी से हिसाब देना जानता है…”

रंजना कुछ नहीं कहती, सिर्फ दूर से देखती रहती। आदित्य अब घर में रात का आदमी बन चुका था।दोपहर तक सोता, फिर शाम को तैयार होता और रातभर शहर की गलियों में भटकता,कभी बाइक की आवाज़ सुनाई देती, कभी अजनबी दोस्तों की हँसी।पड़ोसी भी बातें कहने लगे थे,

“आपका लड़का… अच्छा नहीं जा रहा…,लेकिन गोपाल अब जवाब नहीं देता।

किसी ज़माने में जो हर बच्चे की जिम्मेदारी लेता था,अब अपने ही बेटे के लिए बेबस और मौन था।

“कभी सोचा था, मेरा बेटा मेरा गर्व बनेगा…” “आज वही मेरा बोझ बन गया है, जो मैं न उतार सकता हूँ, न सह सकता हूँ”

एक दिन रंजना को तीव्र पीड़ा हुई, उठ भी नहीं पा रही थी,गोपाल ने उसे सहारा दिया, दवा दी, लेकिन उसकी आंखों में अब दया नहीं, शून्यता थी।रंजना ने पहली बार कहा,

“तुम सही थे शायद… मुझे तब समझना चाहिए था…”

गोपाल चुप रहा।कुछ शब्द ऐसे होते हैं, जो समय पर कहे जाएं तो राहत बनते हैं, वरना राख।उसी रात आदित्य फिर देर से लौटा, नशे में धुत, लड़खड़ाता हुआ।गोपाल ने देखा, फिर नज़रें फेर लीं।

“अब उसे कुछ भी कहना मानों भैंस के आगे बीन बजाने जैसा, क्योंकि जो सुन नहीं सकता, वह तबाही से ही सीखेगा”

अगली सुबह सूरज निकला, लेकिन घर के भीतर अंधेरा गहराता रहा।रंजना दर्द से कराह रही थी।आदित्य गहरी नींद में था,और गोपाल, अपनी पुरानी डायरी के पन्ने पलट रहा था, वही डायरी जिसमें उसने कभी हॉस्टल के बच्चों के नाम, जन्मदिन, और सपने लिखे थे।काश… जीवन सिर्फ उन बच्चों जैसा ही होता,जो थोड़ा खाकर भी संतुष्ट रहते थे,और थोड़ा प्यार पाकर भी अमीर,फिर उसने डायरी बंद की।

“समय का पहिया फिर घूमने को तैयार था — लेकिन अब गोपाल इसके नीचे नहीं, बाहर चलना चाहता था”     

 शहर अब गोपाल के लिए सिर्फ इमारतों का जंगल रह गया था,जहाँ ना कोई अपनापन था, ना ही कोई बचा हुआ सपना। रंजना अब चलने में असमर्थ, और आदित्य अपनी ही दुनिया में कैद, गोपाल को अब समझ आ गया था, कि इस घर में उसका कोई नहीं है।  एक सुबह चुपचाप निकल पड़ा, गांव की ओर सिर्फ एक झोला, दो जोड़ी कपड़े, और एक पुरानी डायरी साथ ले आया,

“अब मुझे किसी स्टेशन पर नहीं जाना है...मुझे अपने आप तक लौटना है”

ट्रेन से उतरकर जब गोपाल ने अपने गांव की मिट्टी को छुआ,तो आंखों में एक पल के लिए नमी आई,यह वही रास्ते थे, जहां वह कभी नंगे पैर दौड़ा करता था,जहां पेड़ों ने उसकी बातें सुनी थीं, और जहां उसने भविष्य के सपने बोए थे,लेकिन गांव में अब न तो वो पेड़ बचे थे, न लोग,गोपाल को यह जानकर गहरा धक्का लगा की उसके दोनों छोटे भाई अब नहीं रहे,एक की बीमारी से मृत्यु हो गई थी, और दूसरा किसी दुर्घटना में चल बसा।तीसरे भाई, जिसे वह सबसे सरल और सीधा समझता था, उसने मौका देखकर गोपाल के हिस्से की सारी जमीन-जायदाद अपने नाम कर ली थी, और गोपाल के पूछने पर कहता

“भइया, आपको तो क्या ज़रूरत अब... आप तो शहर वाले हैं ना...”

और गांव वालों ने भी अब उसे ‘बाहरी’ की तरह देखना शुरू कर दिया था। गोपाल ने कोई विवाद ना करते हुए,आखिरकार वह पिता के पुराने मिट्टी के घर में आकर रहने लगा जहां अब छत टपकती थी, दीवारें गिरने की कगार पर थीं,और एक टूटी चारपाई ही उसका ठिकाना बनी।गांव का कुआं, वो स्कूल की घंटी, और वो आंगन, सब अब बीते समय की परछाइयाँ बन गए थे।रातें वहां लंबी थीं… और दिन खाली।पर आत्मा अब शांत थी।गोपाल अब शिकायत नहीं करता था।वह खुद ही कुएं से पानी भरता पेड़ों की छांव में बैठकर पुराने पन्ने पढ़ता और कभी-कभी गांव के गरीब बच्चों को पढ़ा भी देता।किसी ने पूछा,

“अब क्यों आए भइया? क्या मिला शहर में?” गोपाल मुस्कुराया, थका हुआ, लेकिन साफ़ दिल से कहा “सब कुछ खोकर ही मैं खुद को पा सका शहर में शरीर था, यहां आत्मा आई है”

एक शाम वह अपने आंगन में बैठा था।हाथ में वही पुरानी डायरी थी, अब आखिरी पन्ना बचा था।उसने लिखा

“समय का पहिया घूमता है कभी ऊपर ले जाता है, कभी मिट्टी में गिरा देता है,पर अगर तुम धैर्य रख सको…तो मिट्टी में भी तुम खुद को बो सकते हो”

फिर वह चुपचाप लेट गया वही पिता की चारपाई पर छत से गिरती बूंदें जैसे कह रही थीं, “अब तू अपने घर लौट आया है, गोपाल…”

गांव की मिट्टी अब गोपाल की देह और आत्मा दोनों का हिस्सा बन गई थी।वह हर सुबह कुएं से पानी खींचता, आंगन बुहारता, और मंदिर की घंटी की आवाज़ में अपने दिन की शुरुआत करता।उसके पास अब धन नहीं था, रिश्तेदार नहीं थे,लेकिन अब वह खुद के सबसे नज़दीक था।धीरे-धीरे गांव के गरीब बच्चे गोपाल के पास आने लगे।कोई झोला लिए आता,कोई बिना चप्पल के,कोई भूखा, लेकिन आँखों में चमक लिए गोपाल ने बिना शुल्क, बिना अहंकार खाली आंगन को विद्यालय में बदल दिया।

“पढ़ना सीखोगे तो जीवन को समझ पाओगे और जो जीवन को समझ गया, वो समय से कभी हारता नहीं”

बच्चे उसे “गुरुजी” कहने लगे और उसकी टूटी दीवारों के बीच एक नई दुनिया बसने लगी।एक दिन डाकिया आया।एक चिट्ठी लेकर शहर से, वह रंजना की लिखी चिट्ठी थी। उसमें लिखा था

“मैं अब बिस्तर से नहीं उठ सकती।आदित्य ने घर छोड़ दिया है,कई महीने हो गए, कोई खबर नहीं,मैं जानती हूं, मैंने तुम्हारे साथ अन्याय किया अगर कभी माफ कर सको, तो मुझे देखने आ जाना…नहीं तो… बस मन से मुझे क्षमा कर देना” 

गोपाल चिट्ठी पढ़ता रहा…फिर उसे मोड़ा, और धीरे से मिट्टी में दबा दिया, “कुछ जवाब शब्दों में नहीं दिए जाते…वे समय ही देता है”

उस रात गोपाल आंगन में बच्चों को सितारे गिनना सिखा रहा था, “देखो वो तारा… ये ध्रुव तारा है… जो कभी नहीं डोलता” बच्चे “गुरुजी, आप जैसे? गोपाल मुस्कुरा दिया शायद पहली बार वैसी मुस्कान जो भीतर से निकली थी। उस रात जब वह सोया, तो सपना आया, उसका बचपन, उसके माता-पिता, हॉस्टल के बच्चे, और वह खुद…जो अब फिर से जीने लगा था।

अंतिम पंक्तियाँ

गोपाल अब कोई सरकारी बाबू, प्रोफेसर, या पति नहीं था।वह अब केवल एक बीज था जो समय की धूप, वर्षा और आँधी से गुजरकरफिर से अंकुरित हो चुका था।“समय का पहिया चलता रहता है…लेकिन जो मिट्टी से प्रेम करना सीख जाए,वो हर बार फिर से जन्म ले सकता है।“

                           समाप्त