रिमझिम रिमझिम बारिश हो रही हैं| बारिश की बूंदे खिड़कियों से टकरा रही है | बीती हुई यादे दरवाजा खटखटा रही हैं|
प्रेम, खामोशी से उस बंद कमरे की चौखट पर बैठा था, जहाँ अब केवल सन्नाट था
इस कमरे में एक वक़्त शिवानी की हँसी गूंजती थी।
आज उसी हँसी की जगह, दीवारों में कैद आहें थीं।
शिवानी सात साल पहले अचानक लापता हो गई थी।
कोई चिट्ठी नहीं, कोई अलविदा नहीं।
बस एक शाम, जब सूरज डूबा… वो भी डूब गई…
राघव की ज़िंदगी से, और इस दुनिया से भी शायद।
पुलिस ने उसे ‘गुमशुदा’ कहा,
लोगों ने उसे ‘भागी हुई’ कहा,
पर राघव ने कभी ‘मरा हुआ’ नहीं माना।
शिवानी के कमरे को उसने आज तक वैसा ही रखा था —
पलंग पर वही पुराना कंबल, मेज़ पर अधूरी डायरी, और अलमारी में वही गुलाबी दुपट्टा…
जिसे शिवानी हर शाम ओढ़ती थी।
पर आज कुछ बदला था।
आज हवा भारी थी, और राघव के हाथ काँप रहे थे।
उसके सामने वो संदूक रखा था,
जिसके बारे में शिवानी ने एक बार कहा था —
“इसे कभी मत खोलना, जब तक मैं वापस न आ जाऊं।”
पर वो लौटी नहीं।
और आज, पहली बार…
राघव ने उस संदूक की कुंजी उठाई।
तालाबंदी खुली, लकड़ी की हल्की चिरचिराहट गूँजी,
और उस पुराने रेशमी कपड़े के नीचे उसे मिली…
एक चिट्ठी।
कांपते हाथों से राघव ने लिफाफा खोला।
शब्दों की स्याही धुंधली थी,
पर एहसास, जैसे जिंदा थे।
> "राघव… अगर तू ये पढ़ रहा है,
तो मैं या तो बहुत दूर जा चुकी हूँ…
या फिर, बहुत पास हूँ — तुझसे भी ज़्यादा करीब।
मैं तुझसे कुछ छुपा रही थी।
वो रात… जब तेरे पापा की मौत हुई…
वो एक हादसा नहीं था।
और मैं जानती हूँ कि तू मुझे माफ़ नहीं करेगा।
लेकिन एक सच और है —
उस रात मैंने कुछ देखा था… किसी को…
जो अब भी ज़िंदा है… और हमें देख रहा है।
अगर दरवाज़ा अपने आप बंद हो जाए,
तो समझ जाना… मैं लौट आई हूँ।"
राघव का गला सूख गया।
उसने सिर उठाया… और देखा —
कमरे का दरवाज़ा धीरे-धीरे अपने आप बंद हो रहा था।
अगले भाग में - शिवानी की डायरी के पन्ने खुलेंगे, और एक ऐसा चेहरा सामने आएगा, जिसे राघव कभी भूल नहीं पाया था...)
भाग 2: "उस रात की चीख़"
(कहानी: "वो चिट्ठी जो कभी खोली नहीं गई")
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दरवाज़ा धीरे-धीरे बंद हो चुका था…
कमरे में अब सिर्फ़ राघव की धड़कनों की आवाज़ थी।
एक अधूरी चिट्ठी, एक पुराना संदूक… और वो हवेली,
जिसकी दीवारों ने शायद बहुत कुछ देखा था —
बहुत कुछ... जो किसी को कभी बताया नहीं गया।
राघव ने काँपते हाथों से चिट्ठी को फिर से पढ़ा,
हर शब्द… जैसे उसकी रगों में उतर रहा हो।
"वो रात... जब तेरे पापा की मौत हुई..."
"...वो एक हादसा नहीं था..."
राघव की आँखें भर आईं।
पिता की वो मृत्यु…
जिसे सबने दिल का दौरा बताया था,
क्या वो कत्ल था?
उसने संदूक को और टटोला।
नीचे कुछ कागज़ और एक पुरानी डायरी रखी थी —
जिस पर नाम लिखा था:
"शिवानी राघव सिंह"
पहला पन्ना खोला गया…
और उस पर लिखा था:
(> “18 जून की रात —
आज राघव के पापा ने मुझे अकेले में बुलाया।
उनके चेहरे पर गुस्सा था… डर था… और कुछ और…
उन्होंने मुझसे कुछ ऐसा कहा जिसे मैं किसी से कह नहीं सकती।
और फिर, आधी रात…
वो अचानक नीचे की सीढ़ियों से गिरे…
पर मैं जानती हूँ…
वो गिराए गए थे।”)
राघव की साँसें तेज़ हो गईं।
“गिराए गए थे”? किसने?
डायरी के अगले पन्नों में एक नाम बार-बार आ रहा था —
“काका”
हवेली का पुराना नौकर,
जो आज भी हवेली के पिछवाड़े में बने कमरे में रहता था…
बोलता नहीं था… और हमेशा किसी बात से डरा हुआ रहता था।
राघव उसी वक़्त उठा।
डायरी हाथ में लिए सीढ़ियों से उतरता हुआ पिछली ओर गया।
दरवाज़ा खटखटाया।
“काका… दरवाज़ा खोलो…”
कोई आवाज़ नहीं…
“काका… मुझे कुछ पूछना है…”
और तभी दरवाज़ा खुद-ब-खुद चरमराया…
खुला…
और राघव ने देखा —
कमरे में एक पुराना बक्सा था…
जिस पर एक और चिट्ठी रखी थी।
इस बार… चिट्ठी पर लिखा था —
“अगर तुम यहाँ तक पहुँच गए हो,
तो अब पीछे मत मुड़ना…”
राघव की आँखों में आंसू थे।
डर था… पर अब सवाल ज़्यादा भारी थे।
उसने बक्सा खोला…
अंदर एक पुराना मोबाइल फोन था —
जिसका स्क्रीन टूटा हुआ था,
और एक फोल्डर था:
“Video - 18 June”
राघव ने उसे चलाया…
स्क्रीन पर कुछ धुँधली तस्वीरें उभरीं —
सीढ़ियों की, उसके पिता की… और शिवानी की…
और फिर एक परछाईं —
किसी तीसरे व्यक्ति की,
जो उन्हें धक्का दे रहा था।
वीडियो वहीं टूट गया।
राघव अब पसीने से भीग चुका था।
पर वो चेहरा…
वो परछाईं…
उसे पहचानी लग रही थी।
और तभी —
पीछे से किसी ने धीरे से कहा:
“अब बहुत कुछ जान चुके हो बेटा… अब चुप रहना सीखो…”
राघव मुड़ा —
और जो उसने देखा…
वो वही था,
जिसे वो अपना कहता था।
भाग 3: "वापसी से पहले की रात"
(कहानी: "वो चिट्ठी जो कभी खोली नहीं गई")
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राघव उस रात सो नहीं सका।
जिसने उसे पालने में झूला झुलाया…
आज उसी ने शायद उसके पिता को…
हमेशा के लिए सुला दिया।
वो आवाज़…
जो उसने पीछे से सुनी थी —
वो किसी और की नहीं…
बल्कि उसके अपने ताऊजी की थी।
ताऊजी, जो पापा के बड़े भाई थे,
जो हमेशा कहते थे —
“तेरे पापा जैसे इंसान फिर नहीं मिलेंगे राघव…”
और अब वही इंसान,
उसके पिता के गिराए जाने के पीछे…?
राघव का दिल टूट चुका था।
पर उसके पास अब सिर्फ़ दर्द नहीं,
सवाल भी थे।
शिवानी कहाँ है?
वो क्यों कहती रही कि "मैं लौट आऊँगी..."
और अगर वो मरी नहीं —
तो कहाँ है वो?
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अगली सुबह, राघव ने पुलिस को कॉल किया।
पुराने केस की फाइल माँगी।
जवाब साफ़ था: “शिवानी का केस बंद हो चुका है।”
वो हवेली लौटा —
अब उस डायरी का आखिरी हिस्सा पढ़ने को बचा था।
> “19 जून —
मैं भाग रही हूँ…
नहीं, मैं छुप रही हूँ।
मैंने राघव के ताऊजी को उस रात सीढ़ियों पर देखा था।
उन्होंने मुझे भी देख लिया…
और कहा — ‘अगर मुँह खोला, तो राघव को भी खो दोगी।’
मैंने राघव से कुछ नहीं कहा…
क्योंकि मैं जानती थी, वो अपनी जान दे देगा मेरे लिए…
लेकिन मुझे उसकी जान बचानी थी।”
राघव अब चीख़ना चाहता था —
पर हवेली में जैसे अब भी कोई देख रहा था…
उसी शाम, हवेली के पिछले हिस्से से एक आवाज़ आई —
“राघव…”
वो दौड़ा —
और देखा…
एक लड़की…
धूप में झुलसी हुई साड़ी, बिखरे बाल, थके कदम…
लेकिन आँखें वही थीं।
शिवानी!
राघव सन्न रह गया —
उसने पास जाकर छूना चाहा…
पर शिवानी ने धीरे से हाथ हटाया।
“मैं आई हूँ… लेकिन मैं रुक नहीं सकती…”
“क्यों?” राघव ने रोते हुए पूछा।
शिवानी की आँखों से आँसू बहने लगे।
> “क्योंकि जिनसे मैं भागी थी,
वो अब भी इसी हवेली में हैं…
और इस बार वो सिर्फ मुझे नहीं,
तुझे भी मारना चाहते हैं।”
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तभी अचानक पीछे से एक गाड़ी का दरवाज़ा खुला।
काला रंग, काले शीशे…
और उसमें से उतरे ताऊजी…
अपने साथ दो नकाबपोश आदमी।
“बहुत हो गया बेटा…
अब तुझे भी सच्चाई के साथ दफ़ना देंगे…”
भाग 4: "अंधेरे का अंतिम सच"
(कहानी: "वो चिट्ठी जो कभी खोली नहीं गई")
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गाड़ी से उतरे ताऊजी की आँखों में अब कोई स्नेह नहीं था,
सिर्फ़ नफ़रत थी… और एक ठंडी साज़िश।
“शिवानी… तुझे ज़िंदा देखकर अफ़सोस हुआ,”
उन्होंने धीरे से कहा।
राघव उनके सामने खड़ा हो गया,
आँखों में आंसू नहीं, अब सवाल थे।
“क्यों ताऊजी?
क्यों मारे आपने पापा को?”
ताऊजी हँसने लगे।
एक धीमी, भयावह हँसी —
जो हवेली की दीवारों से टकरा कर और डरावनी लग रही थी।
> “क्योंकि वो उस ज़मीन पर दस्तख़त करने को तैयार नहीं थे।
तुम्हारे पापा उस हवेली को स्कूल बनाना चाहते थे…
और मैं उसे होटल बनाना चाहता था।
मैं हार नहीं सकता था।”
“और शिवानी?” राघव चीखा।
“वो सब जान गई थी… और भाग गई।”
शिवानी काँप रही थी,
पर अब उसकी आँखों में डर नहीं,
हिम्मत थी।
तभी ताऊजी ने इशारा किया,
उनके साथ आए दोनों नकाबपोश आगे बढ़े।
लेकिन राघव तैयार था।
उसने जेब से एक रिकॉर्डर निकाला।
“ताऊजी, आपकी आवाज़ अब रिकॉर्ड हो चुकी है।
आपका हर जुर्म… हर राज़ अब बाहर आने वाला है।”
ताऊजी की आँखों में पहली बार डर झलका।
“क्या बकवास है… तुझे लगता है इससे कुछ होगा?”
और तभी… हवेली के दरवाज़े पर पुलिस जीप रुकी।
शिवानी ने फोन किया था,
लेकिन किसी को बताया नहीं था —
किसे फोन किया था।
ACP वर्मा अंदर दाख़िल हुए।
“बहुत सालों से इस हवेली का राज़ हमें सता रहा था,
आज तुम्हारी ज़ुबान ने खुद उसे खोल दिया।”
ताऊजी भागने लगे,
पर पुलिस के जवानों ने उन्हें दबोच लिया।
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दो दिन बाद…
हवेली अब शांत थी।
ताऊजी जेल में थे,
शिवानी ने कोर्ट में गवाही दी थी,
और राघव… वो अब खाली था —
लेकिन बोझ से नहीं,
बल्कि उन जवाबों से,
जिन्हें ढूँढते हुए वो टूटा था।
वो उसी हवेली की छत पर बैठा,
पापा की तस्वीर देख रहा था।
“आपका सपना अधूरा नहीं जाएगा पापा…
यह हवेली अब स्कूल बनेगी —
और यहाँ हर बच्चा वो सिखेगा जो मैंने सीखा —
सच से कभी मत भागो।”
शिवानी पास आई —
उसके हाथ में वही चिट्ठी थी,
जो कभी खोली नहीं गई थी।
“अब खोल लूं?” राघव ने मुस्कराते हुए पूछा।
शिवानी ने कहा —
“अब उसकी ज़रूरत नहीं… क्योंकि अब हम खुद एक नई कहानी लिखेंगे।”