कुछ रिश्तों को ना ही बनाया जाए तो बेहतर होता हैक्योंकि उनका अंजाम अक्सर राख ही होता है।
आज के इस युग में जब भी रिश्तों के बारे में सोचता हूँ, तो मन खिन्न हो जाता है। आज के रिश्तों में न तो कोई मिठास है, न कोई अपनापन। जब-जब अख़बार खोलता हूँ, तो अंत होते-होते आँखों में ऐसा पानी भर आता है, जो बाहर तो आना चाहता है परंतु मैं स्वयं उसे अपनी कमजोरी समझकर रोक देता हूँ। आखिर रिश्तों में रहा ही क्या है? न माँ जैसी ममता, न अपनों के लिए कोई प्यार।
अक्सर सुनने को मिलता है — किसी बेटे ने अपनी माँ को मार दिया, पत्नी ने पति को ज़हर दे दिया, सीमेंट से भरकर लाश को ठिकाने लगाया, किसी माँ ने अपने ही बच्चे की हत्या कर दी। लोग कहते हैं "अपने तो अपने होते हैं", लेकिन कभी-कभी अपनों का होना और न होना एक बराबर होता है।
जब भी इन सब पर सोचता हूँ, मुझे अपने दोस्त नंदू की याद आ जाती है। उसका असली नाम नरेंद्र था।
अत्यंत शीतकालीन समय था। सब अपने-अपने घरों में थे। रात का एक बज चुका था। इतना सन्नाटा था कि नल से गिरती एक-एक बूंद भी किसी विस्फोट जैसी प्रतीत हो रही थी। मैं पानी पीने के लिए उठा और पास की खिड़की से झाँका — तो देखा, एक 12-13 साल का बच्चा कचरा उठा रहा था।
अभी थोड़ी देर पहले ही मैं एक भावुक कर देने वाली फ़िल्म देखकर आया था, सो मेरा अंतरात्मा जाग गई। मैंने सोचा, इसे गोद ले लूँगा, इसे जीवन दूँगा, और ये एक दिन बड़ा आदमी बनकर कहेगा कि "मुझे इस मुकाम तक पहुँचाने वाला वही है।" फिर तुरंत ही मुझे अपने हालात याद आ गए — मैं तो अपना किराया भी मुश्किल से भर पा रहा था, अपना खर्च नहीं चला पा रहा था, तो इसकी परवरिश कैसे करूँगा?
उसी वक्त मुझे अपने दोस्त नंदू की याद आई। वो अनाथालय में पला, लेकिन आज एक सफल, सम्पन्न इंसान है। शादीशुदा है, पर संतान नहीं है। मैं समझ गया — शायद यही राह हो।
सुबह जल्दी उठना था, इसलिए मैंने जल्दी से बाहर जाकर उस बच्चे से पूछा, "और भाई, कैसा है? सब ठीक है ना?" वह मेरी ओर ऐसे देख रहा था मानो उसे यकीन ही न हो। फिर मैं उसे घर ले आया, उसे नहलाया, अच्छे कपड़े पहनाए और सोने का स्थान दिया।
मैं वापस अपने कंबल में तो आ गया, पर आँखों से नींद गायब थी। मन में एक ही सवाल — इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी ले तो ली, निभाऊँगा कैसे?
मैंने तुरंत अपने दोस्त को फोन किया। वह रात में देर तक जागता था, सो मिल गया। मैंने सारी बात बताई। उसने पूछा, "कहाँ मिला? क्या कर रहा था?" मैंने कहा, "कचरा उठा रहा था। उसके परिवार वाले कुछ समय पहले मर गए, और चाचाओं ने सारी ज़मीन हथिया ली।"
वो भी भावनाओं में बह गया और मान गया। अब सवाल था — क्या बच्चा मानेगा?
सुबह हो चुकी थी। देखा तो दोस्त अपने घर आ चुका था और बच्चे से उसकी खूब अच्छी दोस्ती हो चुकी थी। मैं खुश था — लगता था जैसे मेरी कोई फिल्म चल रही हो।
कुछ ही समय में सारे कानूनी काम पूरे हो गए और वो बच्चा मेरे दोस्त का बेटा बन चुका था। वह मुझे चाचा कहता था और अपने नए माँ-बाप को मम्मी-पापा। मैं मन ही मन गर्व से भर जाता था — क्या कर दिखाया मैंने!
करीब 18 महीने बीत गए। एक दिन रात में बाहर से तेज़ कोलाहल की आवाज़ आई। मैंने झाँका — मेरे दोस्त के घर के बाहर पुलिस थी। मैं तुरंत दौड़ा, देखा — पुलिस मेरे दोस्त और उसकी पत्नी को ले जा रही थी।
मैंने पूछा, "क्या हुआ? क्यों ले जा रहे हैं?"
जो बात पता चली, उसने मेरे पैरों तले ज़मीन खिसका दी।
दरअसल, नंदू कुछ बुरे लोगों के संपर्क में था। जिस दिन उसका फोन आया था, उसी दिन उसने बहुत कुछ खो दिया था। उसके ससुराल वालों को वह बच्चा बिल्कुल पसंद नहीं था। जब वह बर्बाद हो गया, तो फिर से उन्हीं गलत लोगों की ओर लौट गया। वह जुआ खेलता था, सब कुछ हार चुका था।
लालच में आकर उन्होंने बच्चे को मारने का निर्णय लिया — ताकि उसके अंग बेचकर पैसे कमा सकें। ये जानकर मेरी आत्मा काँप उठी।
बच्चा उन दोनों को खुश करने के लिए क्या कुछ नहीं करता था। काम करता, जो कमाता, उन्हें दे देता। लेकिन फिर भी...
धीरे-धीरे पुलिस की जाँच में पता चला कि उसे स्लो पॉइज़न दिया गया था। मैं स्तब्ध था। मैंने तो उसे बचाने का सोचा था, पर मैं ही उसकी मौत की वजह बन गया।
आज भी याद आता है — जब मैंने उस बच्चे से पूछा था, "बता बेटा, ये दोनों कौन हैं?" और हर बार, वह सिर्फ एक शब्द कहता था - अपने।