प्रस्तावना
भाई-भाई का रिश्ता बहुत ही पवित्र होता है।
वो रिश्ता, जिसमें बचपन के दिन साथ हँसते-खेलते, लड़ते-मनाते और एक-दूसरे की परछाईं बनकर बीतते हैं।
कुल्लू और कुलिया भी ऐसे ही दो सगे भाई थे, जो बचपन में एक-दूसरे के बिना अधूरे थे।
जब कुल्लू गिरता, तो कुलिया दौड़कर उठाता।
जब कुलिया रोता, तो कुल्लू उसे हँसाने के लिए आसमान के तारे तोड़ लाने की बात करता।
गर्मियों की छुट्टियों में दोनों भाई खेतों की मेंड़ों पर दौड़ लगाते, नहर में नहाते, और बाग में आम तोड़कर बाँट-बाँटकर खाते।
उनकी माँ अक्सर कहतीं—
"इन दोनों में भगवान ने एक ही दिल बाँट दिया है।"
बाबूजी भी गर्व से कहते—
"मेरी दो आँखें हैं—एक कुल्लू, एक कुलिया।"
लेकिन समय के साथ परिस्थितियाँ बदलीं।
बचपन की वह सादगी, वह सच्चा प्रेम, धीरे-धीरे संपत्ति, अधिकार और अहंकार के बोझ तले दबता चला गया।
जिस खेत की मिट्टी पर दोनों साथ खेले थे, वही खेत अब उनके बीच दीवार बन गया।
यह उपन्यास केवल दो भाइयों की कहानी नहीं है—
यह उन अनगिनत परिवारों की कहानी है,
जहाँ रिश्ते बाँट दिए जाते हैं,
जहाँ खून से गाढ़े रिश्ते, ज़मीन के बँटवारे में कमजोर पड़ जाते हैं।
यह कथा एक आईना है—
जो हमें दिखाती है कि संपत्ति की लालसा,
कभी-कभी जीवन की सबसे कीमती चीज़—रिश्तों—को भी खो देती है।
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अध्याय 1 — कुल्लू आया घर आँगन
गाँव थुंगल की उस सुबह में कुछ अलग ही बात थी।
मानो सूरज जैसे पहले से तेज चमक रहा था!!
चिड़ियाओं की चहचहाहट!!!!जैसे मंगलगीत गा रही हो,
और हवाओं में कोई मीठी सी बात तैर रही थी।
मगरू सिंह, गाँव का बडा ज़मींदार,
जिसके धोरे पूरे साठ बीघे ज़मीन थी,
आज उसकी आँखों में एक अलग ही चमक थी—
क्योंकि उनके घर पहली संतान, एक बेटा हुआ था।
जब दाई ने चिल्ला कर कहा—
"बधाई हो मालिक!!! घर में राजकुमार आया है!"
तो मगरू कि आखों से अपने आप आँसू निकल पड़े।
उन्हें ऐसा लगा मानो उनका खून, उनकी माटी में फिर से जड़ पकड़ चुका हो।
मगरू, जो हमेशा गंभीर रहते थे,
आज दौड़-दौड़ कर सबको खुशखबरी दे रहे थे।
"बुला के लाओ ढिंढोरा पिटने वाले कू!!"
"ओ भोला! गाँव के मंदिर में घंटे बजा दो!"
"हर घर में बताशे बंटेंगे! मेरी पगडी सम्भालने वाला आगा !!! बेटा हुया है हमारे घर मैं!!!"
गाँव के लोग हैरान थे—
आज जो आदमी शांत रहता था,
वो बच्चा बन गया था अपनी ही खुशी में।
उस दिन थुंगल गाँव में चारों ओर एक ही बात थी—
"मगरू सिंह के कुलदीपक आया है!! मगरू को बिहा के 12 साल बाद एक बेटा हुआ है!!!!!!
पड़ोसन-" चलो ठीक ही होगा 3 बेटियों (बड़ी रागिनी, बीच वाली रज्जो , छोटी रजिया) को 1 भाई मिला तो सही, ना तो किसे भाई बोलती बिचारी"!!!
चाची बसंती --"बता, ईब बालक कर्ण कि के जरूरत थी बुढ़ा- बढिया होरा थे, छोरी 4 साल पीछे बिहा लायक होजागी, छोरियो स लगाव कम होगा अब!!! जमीन तो ये छोरी भी ले लेती, ( रजिया सब सुन रही थी).
पड़ोसन-- हा चाची सीधी-सीधी बोल सारी जमीन तुझे नहीं मिली तो जलन में बोलती जारी कुछ भी.....
पूरे गाँव की दावत हुई।
हलवाई बुलाया गया,
खीर, पूरी, आलू की सब्ज़ी से लेकर मुँह में घुल जाने वाले गुलाब जामुन तक सभी पकवान बनवाये हैं मगरू ने —
हर किसी को मानो मगरू की खुशी का स्वाद मिल रहा था।
मगरू की पत्नी, गंगा देवी,
साफ़ सुथरी धोती में लिपटी, सिर ढँके बैठी रहीं,
पर उस के चेहरे पर मातृत्व की जो चमक थी—वो पूरे घर को रोशन कर रही थी!!
गंगा देवी बोलीं—
"ये बच्चा मेरे जीवन की पूजा का फल है।
मैंने हर सोमवार उपवास रखा, शिवजी से यही वर माँगा था।
अब मेरा घर पूरा हो गया।"
उन्होंने कुल्लू को अपनी गोद में उठाया,
उसके माथे पर चूमते हुए कहा—
"तू मेरा लाल ही नहीं, इस धरती की आस है बेटा।
तेरे क़दमों से इस घर में सुख ही सुख आएगा।"..............Vibhama....