प्रस्तावना – लेखिका की ओर से
"फूल, जो कभी खिल न सका" एक ऐसी लड़की की कहानी है, जो जन्म से ही बोझ समझी गई, पर सपने बोझ नहीं, पंख बनकर उड़े।
यह उपन्यास केवल फूल की नहीं, हर उस लड़की की आवाज़ है जिसे कभी बोलने की इजाज़त नहीं मिली, हर उस माँ की भावना है जिसने बेटी को जीते हुए मरा देखा, और हर उस समाज का आईना है जो इज़्ज़त के नाम पर इंसानियत को मिटा देता है।
फूल मिट्टी में मिली, पर उसकी गवाही हवा में बसी।
यह उपन्यास नफरत की चुप्पी के बीच एक छोटी सी आवाज़ है — जो कहती है, "अब चुप मत रहना।"
मैं चाहती हूँ कि जब भी आप इसे पढ़ें, एक पल के लिए रुकें… और सोचें — कहीं अगली ‘फूल’ आपके आसपास तो नहीं?
— [ सुरभि यादव]
अध्याय 1: गलुमोहर के साए में
गाँव देवलपरु की सकरी गलियाँ सुबह की सर्द हवा से धीरे-धीरे जाग रही थीं। मिट्टी के घरों से धुआँ उठता था, कहीं चूल्हे जल रहे थे, कहीं गायों को चारा दिया जा रहा था। इन्हीं सब के बीच, एक छोटा-सा आँगन था जहाँ हर सुबह ज़िंदगी नई तरह से मुस्कुराती थी। उसी आँगन में एक गलुमोहर का पेड़ अपनी लाली बिखेरता था, और उसके नीचे खड़ी होती थी—फूल, किताबें हाथ में थामे, स्कूल जाने के लिए तैयार।
लेकिन फूल अकेली नहीं होती थी।
उसकी माँ गायत्री उसके बालों में दो चोटी बनाते हुए कहती,
"सीधी खड़ी रह, फूलवा... आज बालों में नई रिबन बाँधी है। स्कूल में कोई कहे कि हमारी बिटिया सबसे सुंदर नहीं है तो बताना, माँ ने कहा है!"
फूल हँस देती, "माँ, मैं पढ़ाई में अच्छी हूँ, सुंदर तो मेरी माँ है।"
गायत्री मुस्कराती, उसकी चोटी पर पंखुड़ी-सा हाथ फिराती, और फिर लंच बॉक्स के साथ उसकी बोतल थमाते हुए कहती, "किताबों से दोस्ती मत छोड़ना, यही तुझे दूर तक ले जाएँगी, बिटिया।"
सुबह की यह छोटी-सी रस्म माँ-बेटी के जीवन का सबसे प्यारा हिस्सा थी।
स्कूल जाने से पहले दोनों मंदिर जाती थीं। रास्ते में गाँव की बूढ़ी काकी, बच्चों की टोली और दूधवाला लखन सबसे फूल की कोई न कोई बात हो जाती। वह सभी से स्नेह से मिलती, सबकी मदद करती। मंदिर के पुजारी, पंडित शिवनारायण, अक्सर फूल से कहते,
"बिटिया, तू तो सच में देवी के जैसी है... भगवान तुझे खूब आशीर्वाद देंगे।"
"पंडित जी, भगवान मेरी माँ का ध्यान रखे, मेरे लिए तो माँ ही सबकुछ हैं," फूल कहती।
मंदिर की सीढ़ियों पर बैठकर गायत्री फूल के माथे पर कुमकुम लगातीं और कहतीं, "आज स्कूल में अच्छा करना, गुरुजी की बात ध्यान से सुनना।"
उस दिन स्कूल में एक समारोह था—वार्षिक पुरस्कार वितरण। फूल को गणित में सर्वोच्च अंक लाने पर ‘सर्वश्रेष्ठ छात्रा’ का पुरस्कार मिला। प्रधानाचार्य ने मंच से कहा,
"हमारे गाँव की यह बिटिया न केवल होशियार है, बल्कि विनम्र भी है। इसका सपना है टीचर बनना... और मुझे विश्वास है कि ये एक दिन इस गाँव की बहुत बड़ी मिसाल बनेगी।"
पूरा स्कूल तालियों से गूँज उठा।
शाम को फूल जैसे ही घर लौटी, उसकी आँखें चमक रही थीं। माँ चूल्हे के पास बैठी रोटियाँ सेक रही थीं। फूल ने आकर माँ के गले में बाँहें डाल दीं।
"माँ... देखो क्या मिला!"
गायत्री ने उसकी मुस्कान देखी और आँखों में चमक भर आई।
"हे ठाकुर, मेरी बिटिया का सपना एक-एक कदम पर सच्चा हो रहा है..."
फूल ने दिन भर की बातें सुनाईं, स्कूल का मंच, तालियाँ, पुरस्कार, और वो सब जो वो दुनिया को दिखाना चाहती थी।
लेकिन तभी दरवाज़ा ज़ोर से खुला।
रम्मलन, फूल का पिता, घर में दाखिल हुआ। उसके चेहरे पर थकावट नहीं, एक अलग ही कठोरता थी। उसने दोनों को साथ हँसते देखा और उसके चेहरे पर एक सख्त परछाईं उतर आई।
"बड़ी खुशियाँ मनाई जा रही हैं आजकल… किस बात की?" उसने ताने से पूछा।
गायत्री कुछ कहती, इससे पहले ही उसने झट से कह दिया,
"अगर एक बेटा देती, तो शायद ये पुरस्कार मुझे कुछ लगता भी। लड़की है… पढ़ भी ले, तो क्या? पराए घर जानी है।"
गायत्री का चेहरा उतर गया। फूल चुप हो गई।
"बेटी पढ़ रही है, ये भी तो तुम्हारी इज़्ज़त की बात है," गायत्री ने हिम्मत से कहा।
"इज़्ज़त? इज़्ज़त तो तब होती जब वारिस होता मेरा! लड़की से क्या मिलेगा? कल को इश्क लड़ाएगी, सर झुक जाएगा मेरा।"
उस रात, फूल अपने कमरे में किताबें खोलकर बैठी थी, लेकिन उसके पन्ने धुंधले हो गए थे… माँ की आँखों का आँसू और पिता के शब्दों की चोट उसके मन में टकरा रही थी।
पर फिर माँ आई, उसके पास बैठी, और बोली:
"फूलवा, ज़िंदगी में कई लोग तेरे रास्ते को काटेंगे… पर तू मेरी तरह चुप मत बैठ जाना। तुझमें हिम्मत है। तू मेरी पूरी की हुई दुआ है।"
फूल ने माँ का हाथ थामा। एक आहट थी उस हाथ में—सहारे की, सपनों की और एक अनकही कसमें निभाने ***
अध्याय 2: घर की दीवारें
देवलपरु की सुबह आम तौर पर बैलों की घंटियों, चूल्हों की चटकती लपटों और औरतों की हँसी के साथ जागती थी। लेकिन फूल के घर की सुबह में एक अलग ही सन्नाटा था—जैसे कोई धुँआ कमरे में भरा हो, न दिखता था, न पूरी तरह निकलता था।
रम्मलन हर सुबह अख़बार लेकर बैठ जाता। चाय का प्याला हाथ में आते ही उसके माथे पर बल और स्वर में चुभन आ जाती।
"गायत्री! ये चाय है या करेला निचोड़ा है?"
गायत्री कुछ नहीं कहती। चुपचाप प्याला उठाकर रसोई में चली जाती। यह रोज़ का ही हिस्सा था, अब तो जैसे उसकी आत्मा ने भी आदत डाल ली थी।
उस दिन की सुबह भी कुछ अलग नहीं थी। लेकिन फूल की आँखों में चमक थी। स्कूल में हुई पुरस्कार वितरण की यादें अब भी दिल में गूंज रही थीं।
फूल धीरे से अपने पिता के पास बैठ गई।
"बाबा... आपने मेरी ट्रॉफी देखी? गणित में टॉप किया मैंने… सर ने कहा कि मैं चाहूँ तो डॉक्टर बन सकती हूँ।"
रम्मलन ने अख़बार से नज़रें उठाईं।
"डॉक्टर? किसके पैसे से बनेगी डॉक्टर? और फिर… लड़की होकर डॉक्टर बनके क्या करेगी? गाँव में बैठकर दवाई बाँटेगी? ये सब बड़े घरों की बेटियाँ करती हैं।"
फूल की आवाज़ धीमी पड़ी।
"पर बाबा, अगर आप चाहें तो मैं… मैं बहुत मेहनत करूँगी। आप कहें तो मैं…"
"मैं कहता हूँ, तो सुन ले," रम्मलन ने उसकी बात काटते हुए कहा, "टीचर बनना है तो बन, यही ठीक है। लड़कियों को नौकरी करनी भी हो तो बस स्कूल तक। वहाँ ना कोई सवाल करता है, ना ज़्यादा देखने वाले होते हैं।"
फूल ने हिम्मत कर के पूछा,
"बाबा… आप मुझसे प्यार नहीं करते क्या?"
रम्मलन ने एक गहरी साँस ली। उसकी आँखों में कोई मुलायमियत नहीं आई।
"प्यार?" वो हँसा, "माँ-बाप की ज़िम्मेदारी होती है बच्चों को पालना… प्यार-वार फिल्मों में अच्छा लगता है। बेटियाँ बोझ होती हैं, जितनी जल्दी समझ ले, उतना अच्छा है।"
फूल का दिल जैसे किसी ने भींच लिया हो।
"पर मैं आपकी बेटी हूँ… आपकी नहीं होती क्या?"
"तू बेटी है, इसलिए तुझे पढ़ने दिया… पर ये मत समझ लेना कि तू हमारे सर पे सवारी करेगी," वह फिर से अख़बार में खो गया।
गायत्री पास ही खड़ी थी। उसकी आँखें नम हो गई थीं। वो कुछ कहना चाहती थी, पर जानती थी—यह घर अब सिर्फ़ शब्दों से नहीं, चुप्पियों से चलता है।
दोपहर में जब रम्मलन खेत से लौटा, तो पड़ोसी हरिया के सामने सीना चौड़ा कर कहने लगा,
"हमारी बेटी तो स्कूल में अव्वल आई है! हम तो ज़माने से आगे हैं—लड़की को खुली छूट दी है पढ़ाई की।"
हरिया ने सर हिलाया,
"भई वाह रम्मलन, तुम तो मिसाल हो गए गाँव के लिए!"
रम्मलन ने मुस्कराते हुए चाय का घूँट लिया, पर उस चाय में कभी बेटी की मेहनत का स्वाद नहीं होता था—सिर्फ़ अपने पुरुषत्व के दंभ का गर्म घूँट होता था।
शाम को फूल माँ के साथ रसोई में बैठी रोटी बेलने में मदद कर रही थी।
"माँ... बाबा से कैसे बात करूँ? मैं चाहती हूँ कि वो मुझसे वैसे बात करें जैसे पंडित जी अपनी बेटी से करते हैं।"
गायत्री ने उसका सिर सहलाया,
"हर बेटी को उसके पिता से प्यार नहीं मिलता, फूलवा। पर तू ऐसी बेटी बन, कि तेरा होना ही एक दिन उन्हें गर्व से भर दे।"
"पर माँ… बाबा आज भी बेटे की कमी को मुझे देख कर महसूस करते हैं।"
गायत्री की आँखों में एक चुप गुस्सा कौंधा,
"बेटे की कमी? एक माँ-बेटी के प्यार को क्या कोई बेटा पूरा कर सकता है? तुझे जन्म देकर मैंने अपना स्वाभिमान पाया है, और वो शायद कभी समझ नहीं पाएँगे।"
उसी रात रम्मलन फिर ताना मारते हुए बोला,
"एक काम की औरत होती तो बेटा देती। कम से कम मेरा नाम चलता!"
गायत्री कुछ कहने लगी, पर रम्मलन की आँखों में वही घृणा थी। वो चुप हो गई।
फूल ये सब सुन रही थी। उसकी किताब की पंक्तियाँ धुंधला गई थीं। अब उसे पढ़ाई के अक्षरों में सिर्फ़ समाज की कठोरता दिखती थी।
पर वो अब सीख रही थी—दीवारों से टकराना।
और एक दिन उन्हें गिराना भी।
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अध्याय 3: पहली बार प्यार
बरसात की नरम बूँदें देवलपरु की गलियों को भिगो रही थीं। गलुमोहर की टहनियाँ पानी से लदी हुईं झुकने लगी थीं, और गीली मिट्टी की सोंधी महक जैसे फूल के क़दमों के साथ चल रही थी। वो किताबों को आँचल से ढँके, कीचड़ से बचती हुई स्कूल से लौट रही थी।
तभी सामने से एक साइकिल की घंटी बजी।
"सावधान!"
किसी की तेज़ आवाज़ आई, और साइकिल से पानी के छींटे उसके पाँव और दुपट्टे पर पड़े।
"अरे सॉरी!" आवाज़ साइकिल से उतरते युवक की थी, जो भीगा हुआ था पर मुस्करा रहा था।
"मैंने आपको देखा नहीं… बारिश ने सब कुछ धुँधला कर दिया है।"
फूल ने पहले घबराकर देखा, फिर चेहरे पर हल्की चिढ़ के साथ बोली,
"किताबें गीली हो जातीं तो? इतने तेज़ क्यों चला रहे थे?"
वो युवक थोड़ा झेंप गया।
"गलती हो गई। वैसे… किताबें बच गईं ना?"
"हाँ," फूल ने आँचल हटाकर किताबों को देखा, "पर अगली बार ध्यान रखिएगा।"
"अगली बार?" उसने शरारत भरे अंदाज़ में दोहराया।
फूल को लगा जैसे उसके गाल गर्म हो गए। वो मुस्करा कर आगे बढ़ गई। पीछे से वो आवाज़ फिर आई,
"मैं शिवा हूँ। नए साइंस टीचर। और आप?"
"फूल। बस फूल," उसने जवाब दिया और तेज़ क़दमों से निकल गई।
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कुछ दिन बाद, स्कूल की लाइब्रेरी में
फूल एक किताब तलाश रही थी। रैक पर किताबें खंगालती रही लेकिन जो चाहिए थी, नहीं मिली।
"‘मानव शरीर का कार्यविज्ञान’ ढूँढ रही हो क्या?"
शिवा की आवाज़ पीछे से आई।
फूल ने चौंक कर देखा,
"हाँ… कैसे पता?"
"मैंने देखा था, तुम कल भी यही किताब ढूँढ रही थी। तुमने शेल्फ नंबर तो देखा नहीं… वो वहाँ है, पीछे की ओर।"
उसने इशारा किया।
फूल ने हल्के से मुस्कराकर कहा,
"आप लोगों को बहुत कुछ याद रहता है, है ना?"
शिवा ने हँसते हुए जवाब दिया,
"जो ज़रूरी लगे, वो याद रह जाता है।"
फूल ने किताब लेते हुए पूछा,
"तो मैं ज़रूरी हूँ?"
शिवा ने संजीदगी से कहा,
"शायद… क्योंकि तुम्हारे चेहरे पर जब तुम किताब पढ़ती हो, एक अलग ही चमक होती है। हर छात्र में वो नहीं दिखती।"
फूल कुछ पल चुप रही। उसकी आँखों में आत्मविश्वास की हल्की सी लहर दौड़ गई।
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कुछ दिन बाद, स्कूल की सीढ़ियों पर
शिवा फूल को अकेले बैठा देख पास आ गया।
"सब घर चले गए?"
"हाँ, मुझे रुकना था। आज बायोलॉजी की किताब वापस रखनी थी।"
"बायोलॉजी तुम्हें क्यों इतनी पसंद है?"
"क्योंकि…" फूल ने आसमान की ओर देखते हुए कहा,
"क्योंकि शरीर के अंदर की चीज़ें झूठ नहीं बोलतीं। वहाँ सब कुछ तय होता है—दिल धड़कता है, फेफड़े साँस लेते हैं… लेकिन इंसान का मन, वो… बहुत जटिल होता है।"
शिवा मुस्कराया।
"तुम सोचती बहुत हो।"
"सोचना ज़रूरी है। खासकर तब जब दुनिया बोलने नहीं देती," फूल ने धीमे स्वर में कहा।
शिवा गंभीर हो गया।
"तुम्हारे पापा… उन्हें तुम्हारे सपनों से दिक्कत है?"
फूल ने गहरी साँस ली।
"उन्हें मेरे सपनों से नहीं, मेरी पहचान से दिक्कत है। उनके लिए मैं बस एक बोझ हूँ… जिसे उठाया जा रहा है क्योंकि लोग क्या कहेंगे।"
"कभी किसी ने तुम्हें सुना?" शिवा ने पूछा।
फूल ने कहा,
"सिर्फ माँ। बाक़ी सबने तो बस आदेश दिए हैं।"
शिवा ने नरम स्वर में कहा,
"फूल… अगर चाहो, तो मैं सुनने के लिए हमेशा रहूँगा। बिना किसी शर्त के।"
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एक दिन शिवा ने फूल को एक किताब दी।
"ये क्या है?" फूल ने देखा, किताब पुरानी थी—कवर पर लिखा था ‘खुला आसमान’।
"इसमें वो सब है जो तुम महसूस करती हो, पर कह नहीं पाती।"
"और आप?" फूल ने पूछा।
"मैं तुम्हारे शब्दों को पहचानना चाहता हूँ… ताकि जब तुम चुप रहो, तो भी समझ सकूँ कि तुम्हारे भीतर क्या चल रहा है।"
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एक शाम, फूल माँ के पास बैठी थी।
"माँ… शिवा सर हैं न… वो अलग हैं। उनसे बात करके लगता है जैसे मैं किसी अपने से बात कर रही हूँ।"
गायत्री ने उसकी आँखों में देखा।
"क्या वो तेरे सपनों की इज़्ज़त करता है?"
"हाँ… और मेरी ख़ामोशियों की भी।"
गायत्री मुस्कराई।
"तो बस… दिल में बसाने से पहले दिल की सुन ले। अगर वो तुझमें इंसान देखता है, बेटी नहीं, लड़की नहीं—बस इंसान—तो वो अच्छा इंसान है।"
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धीरे-धीरे शिवा और फूल की मुलाकातें बढ़ने लगीं।
कभी स्कूल की सीढ़ियों पर बैठ कर बातें होतीं, कभी लाइब्रेरी में किताबों के पन्नों के बीच खामोशी बाँटी जाती, तो कभी मंदिर के बाहर संयोग से मुलाकात।
एक दिन शिवा ने पूछा,
"तुम्हें क्या लगता है—प्यार क्या होता है?"
फूल ने कहा,
"शायद… जब कोई तुम्हें बिना माँगे समझे, और बिना छुए तुम्हारे दिल तक पहुँचे।"
शिवा ने धीमे से कहा,
"तो शायद… मुझे तुमसे प्यार हो रहा है।"
फूल ने मुस्कराते हुए कहा,
"और शायद… मुझे भी।"
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लेकिन हर ख़ुशबू को कोई न कोई हवा जरूर छू जाती है…
फूल की आँखों में अब एक नई चमक थी—लेकिन कहीं दूर, किसी और की आँखों में बदली का साया गहराने लगा था।
अध्याय 4: आंधियों की आहट
गलुमोहर अब भी वैसे ही खिला था जैसे हर बार बसंत के आने पर खिलता था—लाल, उजला, जिद्दी। लेकिन इस बार फूल की आँखों में वो मासूम सुकून नहीं था। वहाँ अब एक अनजाना डर था, एक सतर्कता, जो हर बात पर चुप हो जाती थी।
उसकी चाल पहले जैसी निश्चिंत नहीं रही थी। वो अब शिवा से मिलते हुए चारों तरफ देखती थी, बात करते हुए शब्दों को तौलती थी, और मुस्कराने से पहले सोचती थी।
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एक दिन स्कूल के गलियारे में—
"फूल," शिवा ने पास आकर धीरे से पूछा,
"तुम कुछ दिनों से चुप-सी क्यों हो गई हो? पहले तो तुम खुद आकर बातें करती थीं। अब... जैसे हर शब्द पीछे हट जाता है।"
फूल ने नज़रें झुका लीं।
"नहीं, कुछ नहीं… बस पढ़ाई का दबाव है।"
शिवा ने उसकी आँखों में झाँककर कहा,
"तुम्हारे शब्द कुछ और कह रहे हैं, और तुम्हारी आँखें कुछ और। क्या तुम अब मुझसे कुछ छिपा रही हो?"
फूल ने गहरी साँस ली।
"नहीं शिवा… बस डरती हूँ। ये गाँव है… यहाँ लोग बातें बनाते हैं। मुझे डर है कि कहीं कोई बात बाबा के कानों तक न पहुँच जाए।"
शिवा ने उसके हाथ पर हल्का सा हाथ रखते हुए कहा,
"तो क्या हम इतना भी नहीं कर सकते कि कुछ सच बिना डर के जी सकें?"
फूल ने पहली बार उसकी तरफ सीधे देखा,
"हम जी सकते हैं… पर इस गाँव की लड़कियाँ सपनों की कसम नहीं खा सकतीं, क्योंकि उनके सामने हमेशा इज़्ज़त नाम का एक क़साई खड़ा होता है।"
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उसी रात—
फूल अपने कमरे में पढ़ रही थी। किताब के पन्नों के बीच एक चिट्ठी रखी थी—शिवा की लिखी हुई।
> "मैं तुम्हारे साथ एक नई ज़िंदगी की कल्पना करता हूँ, जहाँ तुम्हारे फैसले सिर्फ़ तुम्हारे हों। अगर तुम चाहो, तो मैं हर आंधी में तुम्हारे साथ खड़ा हूँ।"
फूल ने चिट्ठी को धीरे से सीने से लगाया।
"क्या सच में ऐसी ज़िंदगी मुमकिन है?" उसने खुद से पूछा।
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सुबह का वक्त—
रम्मलन कुछ कागज़ ढूँढते हुए फूल के कमरे में आ गया। किताबों के ढेर में वही चिट्ठी फिसलकर नीचे गिर पड़ी।
"ये क्या है?"
उसने चिट्ठी पढ़नी शुरू की और पल भर में जैसे आग भड़क उठी।
"कमबख़्त! मेरी इज़्ज़त मिट्टी में मिला दी!"
उसने चिट्ठी को फाड़ा और गुस्से में बड़बड़ाया।
फूल भाग कर कमरे में आई।
"बाबा… वो बस एक दोस्त है, एक शिक्षक। उसने कोई बुरा नहीं कहा…"
रम्मलन का चेहरा लाल हो गया था।
"शिक्षक? तू मुझसे मुँह छिपा कर इश्क फरमा रही है? यही सिखाया मैंने तुझे?"
फूल काँप रही थी।
"मैंने कभी कुछ छिपाया नहीं बाबा… बस, पहली बार किसी ने मुझे मेरे नाम से पुकारा… किसी की बेटी, किसी की ज़िम्मेदारी नहीं, सिर्फ़ 'फूल' समझा…"
रम्मलन ने एक झन्नाटेदार थप्पड़ फूल को मारा।
"शर्म नहीं आती? लड़कियों को पढ़ा दिया तो खुद को रानी समझने लगी?"
गायत्री दौड़ती हुई आई,
"राममिलन! मत मारो बच्ची को… वो मासूम है!"
रम्मलन ने गायत्री को घूरा।
"तू ही सिखाती है इसे! तेरे ही सपने हैं ना इसके अंदर? पहले खुद पढ़ने की ज़िद करती थी, अब इसे भी बिगाड़ रही है!"
गायत्री ने कहा,
"मैंने तो बस उसे जीना सिखाया है। अगर जीना गुनाह है, तो हाँ, मैंने उसे गुनहगार बनाया है।"
रम्मलन ने गायत्री को धक्का देकर दीवार से टकरा दिया।
फूल चीख उठी,
"पापा! मत कीजिए ऐसा! माँ को छोड़ दीजिए…"
रम्मलन की आँखों में अब इंसान नहीं, घाव था। और उस घाव को भरने के लिए उसने अपनों को ही कुचलना शुरू कर दिया था।
गायत्री दीवार से टिक कर ज़मीन पर बैठ गईं। उसकी साँसें तेज़ थीं, आँखें नम।
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रात में…
फूल माँ के पास बैठी रही। माँ की हथेली अपनी हथेली में थामे हुए उसने कहा,
"माँ… लगता है अब ज़्यादा दिन नहीं बचे… इस घर में, इस सोच में, इस ज़हर में।"
गायत्री ने उसे गले लगाया।
"अगर एक दिन तुझे जाना ही पड़े… तो डर मत। क्योंकि जब तू जाएगी, तेरे पीछे मेरी दुआएँ होंगी, और तेरे आगे तेरी लड़ाई।"
फूल ने सिर झुका कर कहा,
"माँ… मैं आपकी बेटी हूँ। हारना मेरी फितरत नहीं है।"
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लेकिन फूल नहीं जानती थी… कि आंधी सिर्फ़ झोंका नहीं होती, वो कभी-कभी पूरा जीवन उड़ा ले जाती है।
और वो आंधी… अब बस दरवाज़े पर थी।
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अध्याय 5: ख़ून की रेखा
आँगन में अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था।
गायत्री की निःशब्द देह वहीं पड़ी थी, आँखें अधखुली, साँसें थम चुकीं। उसका चेहरा शांत था… जैसे एक लंबी थकान के बाद अब उसे कोई चिंता नहीं।
फूल उसके पास बैठी थी। उसकी आँखें सूखी थीं, पर दिल चीख रहा था।
वो माँ के गले के नीले निशानों को देखती, फिर खुद की हथेलियाँ देखती—"क्या मैं कुछ कर सकती थी माँ?"
रम्मलन ने बाहर से दरवाज़ा बंद कर दिया।
"अब कोई बात नहीं निकलेगी। समझी?"
उसका स्वर ठंडा था, मानो उसने कोई भारी बोझ नहीं, सिर्फ़ कोई "गलती" सुधार दी हो।
फूल की आँखों में आग जल रही थी।
"आपने माँ को मारा… आपने अपनी ही बेटी को अनाथ बना दिया…!"
रम्मलन नज़रों से बचाता हुआ बोला,
"ज़्यादा ज़ुबान मत चलाओ! अगर किसी को पता चला कि ये सब 'इश्क-मोहब्बत' के चक्कर में हुआ, तो मेरी इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी।"
फूल उठ खड़ी हुई।
"आपकी इज़्ज़त… इज़्ज़त? जो माँ के शरीर पर उंगलियों के निशान छोड़ती है, जो बेटी के सपनों को कुचलती है, वो इज़्ज़त नहीं—वो डर है, जो आपने समाज की नज़रों में ओढ़ रखा है।"
रम्मलन ने झपट कर उसका हाथ पकड़ा,
"अगर किसी को कुछ बताया तो समझ लेना… अगला नंबर तेरा है।"
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अगली रात
गाँव के मंदिर में घंटी बजी थी, लेकिन फूल के मन में मौत का सन्नाटा था। उसने माँ की तस्वीर आँचल में रखी, वो चिट्ठी जो शिवा ने दी थी, और अपनी किताबें समेटीं।
"माँ… अब मैं भाग रही हूँ। पर मैं डरकर नहीं, जीने के लिए भाग रही हूँ। मैं आपके सपनों को बचाने के लिए भाग रही हूँ।"
रात के अंधेरे में वो खेतों के रास्ते गाँव की सीमा लाँघने लगी।
हर झाड़ी में उसे कोई परछाईं डराती थी, हर हवा के झोंके में उसे लगता कोई देख रहा है। लेकिन उसके पैर नहीं रुके।
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गाँव के कुएँ के पास
"सोचा था भागेगी?"
आवाज़ पहचानी हुई थी—रम्मलन।
हाथ में लोहे का एक धारदार औज़ार, चेहरे पर दहकता घमंड।
"माँ की तरह तुझे भी अपने मयार से बाहर जाने की आदत थी… अब दोनों को एक जैसी सज़ा मिलेगी।"
फूल काँप रही थी, लेकिन उसकी आँखों में डर नहीं था—गुस्सा था।
"आपने कभी माँ को समझा नहीं… और मुझे तो बस अपनी ज़िम्मेदारी समझते रहे। मुझे बेटी नहीं, बोझ समझा। मैं तो बस चाहती थी कि आप मुझसे एक बार प्यार से बात करें…"
रम्मलन ने गरजते हुए कहा,
"चुप कर! तू औरत होकर मुझसे बराबरी करेगी?"
"और आप मर्द होकर क्या साबित कर रहे हैं?" फूल की आवाज़ काँपी नहीं।
रम्मलन ने झपट कर फूल पर वार किया।
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उसका गुलाबी दुपट्टा लहू में भीग गया।
गर्दन से बहता ख़ून ज़मीन पर एक लाल रेखा बनाता चला गया।
फूल की आँखें आख़िरी बार आसमान की ओर उठीं—शायद माँ को देखने के लिए।
और फिर… सब कुछ शांत हो गया।
उसकी साँसें रुक गईं, पर हवा में अब भी उसकी आख़िरी दुआ तैर रही थी।
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अभी सुबह नहीं हुई थी। अंधेरा पसरा था, समय ठहरा हुआ था।
रम्मलन घर लौटा, खून से सना कपड़ा बदला, और अपने कुछ विश्वासपात्र साथियों को बुलाया—गाँव के वही दो-तीन लोग, जिनकी ज़ुबानों पर रोटियाँ समाज की चुप्पी से पकती थीं।
"कुएँ के पास लाश है। उसे अब कोई नहीं देखेगा। अगर किसी को भनक लगी, तो मेरा नाम डूबेगा। हमें सब कुछ खत्म करना होगा… आज की सुबह से पहले।"
वे सब अंधेरे में, बेमन से, बिना किसी भावना के फूल की नन्ही देह को उठाकर खेतों के पार पुराने श्मशान की ओर ले गए।
माँ की तस्वीर, फूल की किताबें, चिट्ठियाँ—सब जला दी गईं।
कोई आँसू नहीं, कोई मंत्र नहीं।
बस एक शरीर था, जो दुनिया से छुपा दिया गया।
अगली सुबह सूरज निकला, लेकिन उस आँगन में कोई उजाला नहीं था।
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शुभा होते-होते गाँव में खबर फैल चुकी थी।
"अरे सुना? फूल नहीं रही।"
"सुना है दिल का दौरा पड़ा… रात को ही जल गया सब।"
"बिचारी गायत्री… पहले वही, अब इसकी बिटिया…"
लेकिन इन बातों में कोई सच्चा दुःख नहीं था—बस रस्मी हमदर्दी थी।
गाँव की गलियाँ सामान्य थीं। बच्चे स्कूल जा रहे थे, खेतों में हल चल रहा था, मंदिर की घंटी वैसी ही बज रही थी।
जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
जैसे फूल नाम की कोई लड़की कभी इस गाँव में थी ही नहीं।
कोई आँगन में उसकी हँसी याद नहीं कर रहा था, न उसकी किताबों की गंध, न उसकी माँ की दुआएँ।
सबने आँखें मूँद ली थीं।
क्योंकि इस गाँव में "इज़्ज़त" नाम की चीज़ की कीमत एक बेटी की जान से ज़्यादा थी।
और फूल… मिट्टी बन चुकी थी।
लेकिन हवा में उसकी खुशबू अब भी थी।
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अध्याय 6: फूल की गवाही
मैं अब नहीं हूँ।
लेकिन मेरी कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती।
ना ही उस आँगन में, जहाँ मेरी माँ की साँसें छीनी गईं,
ना उस कुएँ के पास जहाँ मेरी गर्दन से बहता ख़ून ज़मीन पर एक रेखा खींच गया।
अब मैं हवा हूँ… धूप हूँ… वो चुप्पी हूँ जो हर लड़की की आँखों में पलती है।
मेरे पापा कहते थे—"इज़्ज़त बच गई।"
पर किसी बेटी को मारकर क्या इज़्ज़त मिलती है?
मुझे मारा गया… पर उससे भी बड़ा पाप ये था कि…
मेरा अंतिम संस्कार शाम और सुबह के बीच, अंधेरे की चुप्पी में कर दिया गया।
धर्म कहता है—सूरज के उगने से पहले किसी का शरीर अग्नि को नहीं सौंपा जाता।
क्योंकि ऐसा करने से आत्मा उलझ जाती है—जीवन और मृत्यु के बीच कहीं अटकी रह जाती है।
पर मेरी देह… चुपचाप जला दी गई… बिना मंत्र, बिना विदाई, बिना आँसू के।
माँ की गोद नहीं थी, और पापा के हाथों में सिर्फ़ घमंड था।
उनके कुछ साथियों ने—जिन्होंने कभी मेरा नाम तक नहीं पूछा—मेरी चिता सजाई, और जलाया… जैसे मैं कोई लड़की नहीं, बस कोई "बोझ" थी जिसे मिटा देना था।
ना कोई दीप जला… ना कोई शंख बजा…
बस राख उड़ती रही, और उसके साथ मेरे सपने, मेरी आवाज़… मेरा नाम भी।
गाँव जागा, पर किसी ने सवाल नहीं पूछा।
किसी ने नहीं कहा—"फूल कहाँ गई?"
जैसे मैं कभी थी ही नहीं।
लेकिन मैं पूछती हूँ…
क्या एक लड़की की साँसें इतनी सस्ती होती हैं कि उसकी मौत पर कोई आँसू भी ज़रूरी न समझे?
क्या किसी के जीने और मरने का हक़ बस इतना है कि वो किसी और की "इज़्ज़त" के नीचे दबा दिया जाए?
मैं मरी नहीं हूँ।
मैं हर उस लड़की में ज़िंदा हूँ—जो हँसती है, जो डरती है, जो सवाल पूछना चाहती है।
और जब तुम मेरी कहानी पढ़ो… तो याद रखना:
मुझे न रोने वाला कोई था,
न विदा देने वाला कोई…
मैं जल गई, लेकिन मेरी आत्मा नहीं…
वो अब भी भटक रही है—
क्योंकि मुझे विदा धर्म के विरुद्ध दी गई थी,
और न्याय मुझे कभी मिला ही नहीं।
अब सवाल तुम्हारा है—क्या तुम भी चुप रहोगे?
या मेरी तरह किसी और "फूलवा" को भी अधूरी विदाई दोगे?
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• जहाँ गलुमोहर फिर से खिला
कई साल बीत चुके हैं।
देवलपरु गाँव अब पहले जैसा नहीं रहा।
कच्ची गलियों की जगह पक्की सड़कें बन गई हैं।
मोबाइल टॉवर खड़े हो गए हैं, और स्कूल में लड़कियों की संख्या अब पहले से कहीं ज़्यादा है।
पर कुछ चीज़ें वैसी की वैसी हैं…
मंदिर के बाहर वही बूढ़ा बरगद अब भी खड़ा है,
और उसके ठीक सामने—वही पुराना गलुमोहर का पेड़।
हर साल गर्मियों में जब उसकी डालियाँ लाल हो जाती हैं,
तो लगता है जैसे फूल की मुस्कान लौट आई हो।
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एक दिन...
उसी पेड़ के नीचे दो छोटी-सी लड़कियाँ बैठी थीं।
एक के बालों में सफेद रिबन बँधा था, और हाथ में एक हिंदी की किताब थी।
"मैं बड़ी होकर क्या बनूँगी?"
उसने अपनी सखी से पूछा।
सखी ने मुस्कराकर कहा,
"जो बनना चाहे… वो बन जा!"
लड़की हँस पड़ी।
उसने किताब को सीने से लगाया और बोली—
"मैं फूलवा जैसी बनना चाहती हूँ—जो पढ़े, जो प्यार करे… और जो डरे नहीं।"
पास ही खड़ी उसकी माँ ने कुछ पल के लिए आसमान की ओर देखा।
उसकी आँखों में नमी थी… और हवा में एक धीमी फुसफुसाहट गूँजी—
> "मैं अब भी यहीं हूँ…
हर उस बच्ची में, जो सवाल पूछती है,
हर उस माँ में, जो अपनी बेटी को सपनों की इजाज़त देती है।"
फूल अब मिट्टी बन चुकी थी—
पर उसकी खुशबू अब भी हवा में थी।
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फूल की मौत एक अंत नहीं थी।
वो उन तमाम चुप औरतों की आवाज़ का बीज बन चुकी थी,
जो अब धीरे-धीरे अंकुर बनकर उग रही थीं।
कोई नहीं जानता कि उस बच्ची ने
फूल की कहानी कहाँ से सुनी थी।
पर इतना ज़रूर था—
जहाँ गलुमोहर खिला है…
वहाँ एक फूल फिर से जी उठा है।