“आंंटी,”पड़ोस की गुड्डी ने पुकारा।
मैं आटा सानती रही।
“आंटी, देखो कोई आया है।”
मैं ने आटे की थाली परे धकेल दी और अपने बिखरे बाल समेटती हुई बाहर की ओर लपक ली।
“अशोक? तुम?”दरवाज़ा खोलते ही मैं सन्न रह गयी।
“नंदिता!” अशोक ने मेरा नाम पुकारा तो एक बिजली मेरे पूरे शरीर को झकझोर गई।
“नमस्कार,” इधर देख रही पड़ोस के बच्चों की मां की दिशा में मैं ने अपने हाथ जोड़ दिए। वह अपने बरामदे में ताज़ा धुले कपड़ों को पूरे ज़ोर-शोर से छांटते- छांटते मेरी कमीज़ को घूरने लगी थी।
मैं दुपट्टा नहीं ओढ़े हुए थी।
“आओ,” मैं घर के अंदर मुड़ ली।
पड़ोस के तीनों बच्चे भी अशोक के साथ हो लिए।
“बैठो,” मैं अशोक को बैठक में ले गई।
अशोक अचकचा कर एक कुर्सी पर बैठ लिया। अचकचाया शायद इस लिए क्योंकि कुर्सियों पर धूल जमी हुई थी। पिछली शाम की आंधी घर भर में अपनी छाप छोड़ गयी थी।
पड़ोस के तीनों बच्चे अपने- आप बैठक भर में फैल गए।
मुझे बहुत गुस्सा आया।
“चलो,बाहर चलें,” मैं ने बच्चों से कहा।
“आंटी यह कौन है?” गुड्डी ने पूछा।
“जाओ। उधर जाओ।”
बच्चे फिर भी नहीं हिले।
“तुम नहीं बैठोगी?” अशोक ने पूछा।
मैं बैठने को हुई तो मुझे रसोई में गैस पर रखी सब्ज़ी का ध्यान आ गया। आलू जब तक ज़रूर गल गए होंगें।
“मैं अभी आई।”
और मैं बाहर चली आयी। बच्चे वहीं जमे रहे। सब्ज़ी बन चुकी थी। मैं ने गैस बंद कर दी और जल्दी से हाथ धोने लगी। सुबह से मैं ने अपना चेहरा तक नहीं धोया था। चेहरा धोने लगी तो ख्याल आया अशोक वहां बैठक में बच्चों के पास अकेला बैठा था।
मुझे अशोक पर ढेरों गुस्सा आया।क्यों वह बिना बताए यों अचानक चला आया था?
मुझे पता रहता उसे आना है तो मैं ठीक से कपड़े पहने रहती…..ठीक से बाल बनाए रहती…..घर की सफ़ाई किए रहती….फटे पर्दे उतार दिए होती….. तख्तपोश की चादर धो लिए होती….. गुथलियां बनी गद्दियां तथा उन के गिलाफ़ बदल दिए होती…..फटा लिनोलियम हटा दिए होती……
और वहां बैठा वह सब देख रहा होगा। आलमारी के टूटे शीशे को छिपाने के लिए उस पर लगा दो साल पुराना कैलेन्डर…..
दीवारों के छेद ढकने हेतु उन पर लगे तीन और कैलेन्डर…..जिन में दो पिछले साल के थे…...और…..
फिर मैं ने अपना चेहरा धोया नहीं……
सिर्फ़ दुपट्टा लेने दूसरे कमरे में चली गयी। आलमारी में एक ही दुपट्टा इस्त्री किए पड़ा था। वह नीले रंग का था और मेरे किसी भी कपड़े से मेल नहीं खा रहा था। न मेरे नाइट सूट के हरे पाजामे से,जो दो साल पुराना था। न ही एक साल पुरानी मेरी उस भूरी कमीज़ से,जिस के चटख नारंगी रंग के फूल मटिया चुके थे। न ही चार साल पुराने उस पीले स्वैटर से जो धूल,आटे और हल्दी से सना था। फिर भी अपने बालों की बेतरतीबी छुपाने के लिए मैं ने उसे सिर पर ओढ़ लिया।
जब बैठक में लौटी तो अशोक कुर्सी की बाहों पर हाथ धरे आलमारी के कैलेंडर की ओर देख रहा था। गुड्डी दूसरे कोने में एक कुर्सी पर बैठी पास रखी मेज़ पर पैर टिका कर किसी पत्रिका के पृष्ठ उलट- पुलट रही थी,मानो वह दूसरी कक्षा की जगह छठी में पढ़ती हो।उस के दोनों भाई अशोक की ओर टकटकी बांधे अन्य कुर्सियों पर बिछे पड़े थे।
“आंटी यह कौन है?” गुड्डी से एक साल छोटे बिल्लू ने पूछा।
“ तुम्हारी जाई तुम्हें डांटेगी। तुम सब अपने घर जाओ,” मैं ने अपनी खीझ प्रकट की।
“उसे पता है हम यहां हैं,” गुड्डी ने जवाब दिया।
“अच्छा छोटू,तुम यहां से उठो। मैं इस कुर्सी पर बैठूंगी,” अढ़ाई साल के छोटू को मैं ने बांंह से खींच कर उठा दिया।
तख्त अशोक की कुर्सी से कुछ दूर पड़ता था और हमारी बैठक में चार ही कुर्सियां थीं।
“आए हेट देम। दे आर सच्च पोस्ट्स,( मैं इन से घृणा करती हूं। बड़े लीचड़ हैं)”। मैं अशोक के पास वाली कुर्सी पर बैठ ली।
“डोंट गेट सो फ़्लसटर्ड ( तुम ऐसे घबराओ नहीं)।”
“बट आए डू हेट दीज़ डर्टी बरैट्स, (लेकिन मैं इन मैले- कुचैले बच्चों से करती हूं नफ़रत),” मैं भूल रही थी ,उस समय मैं भी उन से ज़्यादा साफ़ कपड़ों में नहीं थी।
“आंटी,देखो। छोटू आप के तख्त पर गंदे पैर ले कर चढ़ रहा है…”
“तुम कब आए?”अशोक का ध्यान मैं ने तख्त पर बिछी मैली चादर पर रखे जा रहे छोटू के मिट्टी से लिपटे पैरों से हटा देना चाहा।
“तुम घर में अकेली हो क्या?”
“हां।”
“तुम्हारी मां?”
“वह एक स्कूल में पढ़ातीं हैं। पांच बजे तक आ जाती हैं। बस आती ही होंगीं…”
“ओह! और तुम्हारा भाई?”
“वह एम्ज़ में पढ़ाई कर रहा है…”
“ओह! आए सी। और…”
“और मेरे पापा अपने क्लीनिक पर होंगें….”
या शायद न भी हों, मुझे ध्यान आया। इधर उन के मरीज़ कम होते जा रहे थे। उनका क्लीनिक एक छोटी तंग-सी दुकान थी और जब से उस के सामने एक नए डाक्टर ने बड़े- बड़े शीशों वाला अपना नया क्लीनिक खोला था, पापा कोई -कोई दिन अपना क्लीनिक सात बजे से पहले ही बंद कर दिया करते। फिर भी पापा शाम साढ़े सात बजे से पहले घर पर नहीं लौटा करते। एक दिन जब मैं एंम्पलौएमैंट एक्सचेंज से फिर निराश हो कर लौट रही थी,तो मैं ने पापा को कस्बापुर बाग में प्रवेश करते हुए देखा था, परंतु घर वह साढ़े सात के बाद ही आए थे।मैं ने उन से पूछा भी था,’पापा आज देर कैसे हो गई?’ तो उन्हों ने थके,ठंडे स्वर में कहा था, ‘आज पेशंट ज़्यादा थे।’ और तभी से मैं ने उन्हें घर की पुताई और दरवाज़ों का रोगन कराने के लिए तंग करना छोड़ दिया था।
“दे डू गार्ड यू,( ये तुम पर अच्छा पहरा रखते हैं)”, अशोक हंसा।
“कौन?”मैं चौंकी।
“दीज़ बरैट्स,” अशोक फिर हंस दिया।
बच्चे हमारी ओर ताके जा रहे थे।
“ओह! हाओ आए हेट देम! आए कांट ईवन टौक टू यू।( ओह! कितनी सख्त घृणा है मुझे इन से। मैं तुम से बात तक नहीं कर सकती।)”
“औव कोर्स यू कैन, (बिल्कुल। तुम बात कर सकती हो)”अशोक ने कहा,”क्या तुम जानती हो,मैं यहां अचानक क्यों चला आया? कल रात मैं ने वहां ‘लव स्टोरी’ फ़िल्म देखी और फिर मैं वहां रह नहीं सका। मेरे लिए तुम से मिलना बहुत ज़रूरी हो गया।”
“आंटी,यह कौन है?” गुड्डी ने अपने हाथ की पत्रिका कोने वाली मेज़ पर वापस टिका दी।
“ह्वाए डिड यू बरिंग देम हेयर?( तुम इन्हें यहां क्यों घसीट लाए?),”अशोक पर मैंने अपनी खीझ प्रकट की।
“ये वहां बाहर खेल रहे थे और मुझे यह सब देख कर यकीन न हुआ तुम यहां रहती होगी। इसीलिए तुम्हारा पता एक बार इन से ही पूछ बैठा..….”
“क्यों?..... यह सब क्या…..? क्या यह सब…...?क्या …...? क्या बुरा है यहां.….? सब ठीक ही तो है…...और कैसी जगह पर मुझे रहना चाहिए?” मैं तमकी।
“बाहर गेट खुला है,” तभी मां की आवाज़ हम तक चली आयी, “कोई आया है क्या?”
अशोक बाहर देखने लगा।
“मेरी मां आईं हैं….” मैं उठ कर बाहर चली आयी।
“कौन है?” मां ने धीरे से पूछा।
“वही। अशोक भार्गव…”
“वही?आए.ए.एस.?”
“हां….”
“और पड़ोस के तीनों बच्चे वहां धरना दे कर बैठ लिए हैं।”
“और तुम ने सुबह से कपड़े तक नहीं बदले। शक्ल देखी है अपनी?”
आलमारी से दुपट्टा निकालते समय मैं ने शीशे में झांका ज़रूर था पर जब वहां एक मैली,चिकनी आकृति उभर आयी थी तो मैं उस से नज़र चुरा कर बैठक की ओर भाग आयी थी।
“अब ठीक रहा न! किताबों में और खोयी रहा कर…..”
“मां,वह वहां अकेला बैठा है….”
“उसे कुछ खिलाया है या नहीं?”
“कहां? और खिलाती भी क्या?” मैं ने शिकायत की।
“ कब आया था?”
“अभी। कुछ देर पहले। मैं आटा सान रही थी। रसोई में सब वैसे ही पड़ा है। हां,सब्ज़ी ज़रूर तैयार हो गई है……”
“अब तू चाय का पानी रख दे। मैं उस के पास बैठती हूं। इस बीच तू कपड़े भी बदल ले।मैरून ग्लेज़ड कौटन का सूट पहन ले। और हां। ऊपर मेरा नया शाल ओढ़ना। अपने वाला पुराना नहीं।”
मां का वह शाल पिछले दो साल से ‘नया शाल’ के नाम से जाना जाता था।
गैैस पर चाय का पानी चढ़ाते समय मैं रोने- रोने को हो आयी। वह मैरून सूट पुराने स्टाइल का सिला था। पिछले छः माह से मैं अपने लिए कोई भी नया कपड़ा नहीं सिलवा पायी थी। और यह बात मुझे और भी चुभने लगती जब भी मैं वीणा से मिलती। हर बार वह नयी साड़ी में होती और मां से जब भी मैं इस बारे में कुछ बोलती, तो मां का यही जवाब रहता, फिर वीणा कमाती भी तो है न! तुम मेरी साड़ियां क्यों नहीं पहन लेती? कितनी ऐसी ही तो पड़ीं हैं! फिर मैं स्वंंय ही चुप कर जाती और वही अपनी कम घेरे वाली सलवारें और ऊंचाई में बहुत छोटी कमीज़ें पहन लेती।
मैरून सूट के ऊपर ‘नया’ शाल पहन कर बैठक में पहुंची तो बच्चे अब भी वहीं बैठे थे और मां अशोक से कह रहीं थीं, “बस, मानी ही नहीं।अब भूगोल से एम.ए. को नौकरी मिलनी आसान बात है भला? अब इस की एक सहेली है,उस ने अंगरेज़ी में एम.ए. किया था। उसे तुरंत एक कालेज में नौकरी मिल गयी। अब वह ऐश करती है……”
“मां वीणा रस्तोगी की बात कर रही हैं,” मैं ने अशोक को बताया। उधर लखनऊ में अशोक मेरे साथ वीणा को कई बार मिल चुका था। आए.ए.एस. में आने से पहले वह वहीं लखनऊ यूनिवर्सिटी के भूगोल विभाग में लेक्चरर रहा था।
“और फिर निंदी की आई भी सेकंड क्लास। हम तो यही सोचते थे, वह अपने भूगोल में अव्वल नंबर पर आएगी और इसीलिए अपने कस्बापुर से बाहर लखनऊ होस्टल में भेज रखा था,मगर पता नहीं क्यों यह वहां मन नहीं लगा पायी या फिर यों ही अपना समय फ़ालतू घूमने- फिरने में बरबाद करती रही…….”
“मां चाय का पानी खौल रहा होगा……”, मां पर मुझे बहुत खीझ आयी। मैं नहीं चाहती थी मेरी बेकारी के बारे में मां अशोक से कुछ और कहें।
मां जाते समय बच्चों को साथ ले गयीं।
“तुम्हारे रेन- बो कलर्ज़ कहां गए?” अशोक ने पूछा।
“कौन से?” मैं चौंक ली।
“वह नीला दुपट्टा….पीला स्वैटर….हरा पाजामे…..औंरंज- कम- ब्राउन कमीज़…..”
“बड़ी तीखी नज़र है!” मैं हंसी मगर दूसरे ही पल घबराहट से भर ली। अशोक ज़रूर जान लिया होगा इस कमरे में इतने कैलेन्डर क्यों टंगे हैं।
“तुम अपने आप में नहीं लगती। क्या बात है?”
“कुछ नहीं। यह सब ‘गुड बाए कोलंबस’ की वजह से हुआ। दोपहर तक उसे पढ़ती रही और फिर देर तक उस के बारे में तुुम्हें लिखती रही। मैं क्या जानती थी तुम आज आओगे? तुम ने लिखा क्यों नहीं?”
“बताया तो,मैं खुद नहीं जानता था आज मुझे यहां आना होगा। कल रात ग्यारह बजे तक नहीं। मगर जब ‘लव स्टोरी’ देखने के बाद मुझे नींद नहीं आयी तो मैं रेलवे-स्टेशन आ गया। तुम्हारे कस्बापुर की टिकट करायी। अपने डी.एम.को फ़ोन किया, मुझे ज़रूरी काम से घर जाना पड़ रहा है। पौने चार बजे गाड़ी यहां पहुंची । आधा घंटा तुम्हारा घर खोजने में लग गया और आधा…..”
“इतनी अच्छी पिक्चर है?”
“और रास्ते भर मैं सोचता रहा था,हम खूब बात करेंगे। तुम मुझे देख कर दंग रह जाओगी। खुशी से खिल उठोगी। खिलखिलाओगी— उसी तरह जब मैं तुम्हारे होस्टल आया करता था…....परंतु तुम ..…..तुम ……मुझे लगता है तुम अभी से बुढ़ा गयी हो……”
मैं कांपने लगी। मैं कांपती रही।
वह कहता रहा, “और मुझे लगता था तुम्हारी आंखें सदा विस्मय में डूबी रहती हैं….…सांसारिक बातों से, सांसारिक व्यवहारों से, सांसारिक समस्याओं से बिल्कुल अलग- थलग, निपट अनजान और बेलाग, अलमस्त-सा जीवन तुुम जीती होओगी.. …….और तुम्हारे आसपास लोग हर समय चहक- चहक उठते होंगे…….तुम्हें दुलारते रहते होंगे…..…और तुम ने उन के उमड़ते दुलार के अतिरिक्त और कुछ नहीं देखा होगा, कुछ नहीं जाना होगा। पर, तुम्हारी दुनिया तो एकदम भिन्न है……तुम यहां कैसे रह पाती हो? इस मीडियौक्रिटी से घिरी हुई……”
“तुम मेरे पापा से नहीं मिले हो। मेरी असली बैकग्राउंड वही हैं…….”
“कुछ भी हो,तुम्हारी मां तो…..”
“मां की बातों से तुम्हें गलत अंदाज़ा नहीं लगाना चाहिए। और फिर प्यार- दुलार क्या सुंदर कमरों और सुंदर कपड़ों ही में लिया- दिया जा सकता है? मां खुुद बहुत काम करती हैं और इसीलिए घर पर बेकार बैठी मैं उन्हें अच्छी नहीं लगती। और बहुत प्यार करती हैं मुझे। है तो यह छोटी बात मगर देखो। उन के स्कूल में एक जगह खाली थी। मगर वह मुझे वहां भेजने के लिए नहीं मानीं,हायर सैंकेंडरी स्कूल में तुम्हें नहीं पढ़ाना है।तुम्हें कालेज ही में पढ़ाना शोभा देगा। और कालेज में तो तुम जानते हो,अव्वल तो भूगोल विषय ही नहीं होता और अगर होता भी है तो वेकेंसी नहीं होती……”
कहते- कहते अकस्मात मुझे लगा मैं इन-बिन मां की तरह बात कर रही थी।और मैं चुप हो गयी।
“नहीं,नहीं। तुम समझती क्यों नहीं? तुम्हारी मौलिकता,तुम्हारी ताज़गी सब- कुछ नष्ट हो रही है।यह घटिया,बेसुरी ज़िंदगी तुम्हारे अनूठे व्यक्तित्व का गला घोंट देगी।”
“तुम्हें गलतफ़हमी है। आज मैं बेकार हूं। कल मुझे ज़रूर कोई नौकरी मिलेगी। अपने जीवन को मैं व्यर्थ कभी न जाने दूंगी। धीरे- धीरे मैं……”
“नहीं। ‘धीरे -धीरे’ कुछ नहीं होता। यह घटिया ज़िंदगी है ।यह बात -बात पर हीन भावना से ग्रस्त होने की मजबूरी …….यह गंदा पड़ोस……ये टूटी दीवारें …….ये मैले- कुचैले बच्चे…….ये तंग और ठंड से सिकुड़े कमरे……सहमे लोग……..इन सब से मैं दूर भाग आया था……..पीछे,बहुत पीछे छोड़ आया था वह चौखट। पर वह चौखट यों पीछा करेगी मेरा…….यों फिर उस घटिया, संकीर्ण निम्न मध्यवर्गीय जीवन से साक्षात्कार होगा……और वह भी तुम्हारे घर में…….कितनी बड़ी विडंबना है यह……”
“तुम यों बात करते हो,मानो यह सब स्थायी है……”
“नहीं। नहीं। इट इज़.. रिवोल्टिंग। रिवोल्ट। (यह विद्रोह पैदा करता है।करो विद्रोह। )।”
“रिवोल्ट? रिवोल्ट अगेंस्ट वौट? रिवोल्ट अगेंस्ट हूम ? (विद्रोह? कैसा विद्रोह? किस से विद्रोह?)
“अगेंस्ट दिस किलिंग मिडियौक्रिटी। आए हेट मिडियौक्रिटी,वेदर इट इज़ औव माइंड और औव मीन्ज़ ( इस दम- घोंटू मध्यवर्गीयता से। मुझे हर मध्यवर्गीयता से घृणा है। चाहे वह मानसिक हो या आर्थिक। )”
“लो,चाय लो,” मां ने बिस्कुट मंगवा लिए थे। बच्चों का हुजूम भी शायद बिस्कुट पा कर संतुष्ट हो गया था और घर से बाहर निकल गया था।
“इसे आए.ए.एस. की परीक्षा दे देने दीजिए,” अशोक ने मां से कहा।
“हुं !हुं !आए हेट आए.ए.एस.”
“क्यों?” मां चौंकीं।
“बस है नफ़रत,” अपने स्वर में मैं वितृष्णा ले आयी।
यही सवाल अगर किसी ने मुझे यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी या किसी सेमिनार में या कौफ़ी हाउस में पूछा होता,तो मेरे दिमाग में और मेरे मुंह पर इस के जवाब में हज़ार दलीलें आतीं।
“इस बार तो यह रह गयी। फिर भी मैं तो यही चाहती हूं कि नंदिता की शादी ही हो जाए। क्या सारी उम्र काम करती बिता देगी ?” मां बोलीं।
“अजीब बातें न करो,मां! कभी मेरी नौकरी के लिए इतनी बेताब लगती हो और कभी मेरी शादी के लिए इतनी उतावली…..”
“नंदिता तो पागल है,” मां ने फिर अशोक से कहा, “यही रट लगाए है कि पी.एच.डी. करूंगी। यह भी कोई बात हुई? बाइस वर्ष शादी के लिए अच्छी उम्र होती है……”
“वे बच्चे चले गए क्या,मां?”
“हां,चले गए,” मां ने मुझे घूरा और अशोक की ओर मुड़ लीं, “आप लोग कितने भाई- बहन हैं?”
मुझे जब तक नहीं पता था अशोक की तीन बहनें और दो भाई थे।
“और आप सब से छोटे हैं क्या?”
“जी नहीं,”अशोक एकाएक लाल हो आया, “मैं सब से बड़ा हूं और मेरे पिता जी भी पिछले साल से नहीं रहे…..”
“किसी बहन की शादी हुई है क्या?”
“मां,तुम ने गेट तो बंद कर दिया होता,” मैं शर्म से पानी- पानी हो रही थी।
“कर आती हूं,” मां रुष्ट हो आयीं।
“मैं चलूंगा,” अशोक एकाएक उठ खड़ा हुआ।
“अरे बैठिए,” मां बोलीं।
अशोक खड़ा रहा।
“अच्छा, आप के पास आए.ए. एस. के नोट्स तो होंगे। हो सके तो…..”
“मां,जब मुझे आए.ए.एस. करना ही नहीं है,तो नोट्स का क्या करूंगी?” मैं भी उठ खड़ी हुई।
“नहीं,नंदिता,इतनी ज़िद अच्छी नहीं होती।तुम अपने विषय मुझे लिख भेजना। तुम्हें नोट्स भेज कर मुझे खुशी ही होगी,”
अशोक ने मेरी ओर कातर दृष्टि फेंकी।
“अच्छा,देखूंगी……”
“आज क्या आप किसी काम से यहां आए थे?” मां ने अशोक को रोका।
“जी। मुझे यहां के डी.एम. के नाम अपने डी.एम. की एक गुप्त पत्रावली पहुंचानी थी,” अशोक ने सफ़ेेद झूठ बोला। वह अक्सर कहा करता, झूठ गढ़ो तो ऐसा गढ़ो कि सुनने वाला झट जान ले आप झूठ बोल रहे हैं।
“फिर कभी आना हुआ तो ज़रूर आइएगा। निंदी को आप की चिट्ठी की बहुत प्रतीक्षा रहती है……”
“ऐसा नहीं है।बिल्कुल नहीं है,मां…..”
“इधर आना तो कम ही होगा। मुझे दूसरा कैडर मिला है……”
मां भी उठ खड़ी हुईं।
“ही विल मैरी अ रिच गर्ल नाओ…..( अब वह किसी अमीर लड़की से शादी करेगा),” मुझे अपने एक प्रोफ़ेसर के वे शब्द याद हो आए जो उन्हों ने अशोक के आए.ए.एस. में चुने जाने पर मेरी ओर देख कर कहे थे।
“गुड बाए,” मैं ने बैठक का बाहर वाला दरवाज़ा खोलते हुए अशोक से कहा, “गौड ब्लेस यू…..औल्वेज़……”
“ऐसी विदा भी क्या? फिर नहीं मिलेंगे क्या?”
“तुम बेहतर जानते हो…..”
“ और तुम?” अशोक ने दरवाज़े पर पूछा।
“मैं कुछ नहीं जानती,” मैं ने कहा। हालांकि मैं जानती थी अशोक इस दरवाज़े पर शायद ही कभी लौटे —- और शायद कभी लौट भी आता,यदि पहले,बहुत पहले उस ने अपने बचपन का हर दिन, अपने कैशौर्य का हर पल एक ऐसे ही दरवाज़े को लांघ पाने की तमन्ना में न गुज़ारा होता।
“नमस्कार,” उस ने मां को हाथ जोड़े।
“नमस्कार,” मां के हाथ आपस में उलझ पड़े।
और अशोक मेरी ओर मुड़े बिना तेज़ कदमों से हमारे गेट से बाहर निकल लिया।