किशोर अहले सुबह नेहरू गार्डन की ओर चल पड़ा। वह ज्यादा बातचीत पसंद नहीं करता, यही वजह है कि अक्सर अकेले ही निकल जाता है। आज नेहरू गार्डन जाने की खास इच्छा तो नहीं थी, मगर चारदीवारी की चुप्पी और चरमराते पंखों की आवाज़ से ऊबकर उठ खड़ा हुआ। पायजामा और टी-शर्ट धोने को रखे थे, सो जनाब जींस-कुर्ता पहनकर निकल गए। हाँ, निकलते वक़्त डायरी और बटुआ लेना नहीं भूले।
पंद्रह-बीस मिनट का फासला पैदल तय कर, नेहरू जी की मूर्ति को प्रणाम किया। गार्डन में नज़र दौड़ाई तो दूर एक कोने की खाली बेंच पर दृष्टि ठहर गई और अगले ही क्षण कदम उसी ओर मुड़ गए। वह उस बेंच पर जाकर बैठ गया, जहाँ सामने बैडमिंटन का मैच चल रहा था।
गार्डन में वही दृश्य थे जो अक्सर भारतीय सार्वजनिक पार्कों में होते हैं—तेज़ क़दमों से चलती महिलाएं, धीरे-धीरे टहलते नवयुगल, कहीं प्राणायाम करती टोली, तो कहीं राजनीतिक मामलों की एक ‘सार्वजनिक समिति’ बैठी थी जो हमेशा की तरह देश के ‘अति-महत्वपूर्ण’ विषयों पर चर्चा करती प्रतीत होती थी।
इन्हीं के बीच एक नवदंपत्ति झूले पर झूलते बच्चे का वीडियो रिकॉर्ड कर रहे थे। एक अनपढ़-से ग्रेजुएट झाड़ी से यूं ही पत्ते तोड़ रहा था मानो कोई आयुर्वेदिक औषधि तैयार कर रहा हो। एक सज्जन अपने पैर के अंगूठे से मिट्टी खोद रहे थे, शायद खेती सीखने की कोशिश कर रहे थे।
किशोर शांत था, एकांत में। उसे ये दृश्य दिख रहे थे, मगर इनमें कुछ भी नया नहीं लग रहा था।
वह अधीर मुद्रा में बैठा था। सामने बैडमिंटन खेलते लड़कों की शटल की "शट-शट" की आवाज लगातार आ रही थी। वह मूक साधना-सी दृष्टि टिकाए बैठा रहा। उसकी गोद में डायरी थी, जिसके ऊपर पर्स रखा था। तभी सामने से एक लड़के ने ज़ोर से रैकेट घुमाया और शटल मारते हुए अपने साथी से कहा, “यह कार्टून बना क्यों बैठा है?” और हँस पड़ा।
दूसरे खिलाड़ी ने जवाबी शटल मारते हुए कहा, “क्या पता, इंट्रोवर्ट होगा।”
“अच्छा…” कहते हुए उसने शटल को ज़ोर से मारा, फिर थोड़ा रुका, भौंहें तिरछी कीं और बोला, “कहीं किसी की याद में या इंतज़ार में बैठा होगा।” दोनों ज़ोर से हँसे, और इसी बीच शटल ज़मीन पर गिर गई।
किशोर ने इस बीच चप्पल उतार दी और पैर मोड़कर पलथी मार ली। डायरी और पर्स अपनी जगह बने रहे। वह गहरी सांस लेता और भीतर चला जाता... फिर यही क्रम दोहराता।
उधर राजनीतिक समिति की नज़र किशोर पर पड़ी। अनुमान लगने शुरू हुए,एक सदस्य ने सहजता से गहरी आवाज़ में कहा, “देखो, कितना शालीन और विनम्र लग रहा है, जैसे किसी गहरे विचार में डूबा हो।” तभी दूसरे सदस्य ने बात काटते हुए कहा, “विनम्रता नहीं, घमंड है उसमें! कैसे घूर रहा है, जैसे इसके बाप का गार्डन हो।”
तीसरे ने हँसी उड़ाते हुए कहा, “पार्क में जींस पहनकर कौन आता है... यह किसी और फिराक में है।”एक खीजते हुए सदस्य ने गाली देते हुए कहा, “बड़े नालायक और बदतमीज़ हैं आजकल के लड़के... मैं तो कहता हूँ, यह पक्का नशा करके बैठा है। देखो दाढ़ी भी बढ़ा रखी है...” सदस्यों ने गौर से देखा—दाढ़ी वाकई बढ़ी हुई थी और आँखें भी कुछ बड़ी-बड़ी लग रही थीं। सर्वसम्मति से किशोर को ‘नशेड़ी’ घोषित कर दिया गया और बहुमत से प्रस्ताव पारित हुआ।
एकांत में बैठा किशोर अनजान था कि बिना कुछ कहे या किए, वह कार्टून, इंट्रोवर्ट, प्रेमी, विनम्र, घमंडी, छिछोरा, और बदतमीज़ नशेड़ी बन गया। हालांकि, कुछ कबूतरों की कानाफूसी से कोयल कभी कौआ नहीं हो जाती। यह तो देखने वालों की नज़र थी, जिसने अधीर किशोर को इतने किरदार दे दिए।
किंवदंतियों में पारस पत्थर की कहानी भी कुछ ऐसी ही है—जिसके हाथ लगा, उसने अपनी समझ के मुताबिक उसकी कीमत लगाई। किसी ने उसे पत्थर समझा, किसी ने हीरा। मगर अंत में वह अमूल्य निकला। ठीक वैसे ही यह उनकी नज़र थी जिसने किशोर को अलग अलग देखा। जिसको जो दिखा उसने वह कह दिया मगर सत्य उन सभी अनुमानों से कोसों दूर था।
डायरी लेकर एकांत में बैठना किशोर की प्रकृति थी—जैसे औरों को खेलने, टहलने, हँसी-ठिठोली में आनंद आता है, वैसे ही किशोर को उसका एकांत सुकून देता था। मगर उस एकांत में वह अकेला थोड़ी था... उसकी डायरी भी तो थी उसके साथ... जो शायद काफी थी।