चलते-चलते:
मैं बीस साल से एक डाक्टर साहब को दिखा रहा हूँ। मुझे लगता है उनकी आयु स्थिर हो चुकी है। बीस साल पहले मैंने उनको जैसा देखा था आज भी वे वैसे ही दिखते हैं,बुजुर्ग। बहुत कम बोलते हैं।सफेद कमीज पैंट उनका पहनावा है। स्वयं ही ईसीजी लेते हैं। नहीं तो आजकल अधिकांश डाक्टरों के यहाँ तकनीशियन ही ईसीजी लेते हैं। बीच में नाक से सुड़क-सुड़क भी करते हैं। कोई रोगी मजाक में बोल रहा था," बीस साल से डाक्टर साहब अपना जुकाम ठीक नहीं कर पाये हैं। रोगी को कैसे ठीक कर पायेंगे!" लेकिन मरीजों की भीड़ लगी रहती है। 2023 में उनका इस संसार से चला जाना मन को दुखी कर गया। लोग बताते हैं उन्हें कैंसर हो गया था। एक साल बहुत पीड़दायक गुजरा उनका।डाक्टर साहब के अस्पताल से लगभग 300 मीटर दूरी पर एक बुजुर्ग हरी सब्जियां बेचने आता है। वह भी पच्चीस साल से रंग-रूप में स्थिर लगता है। काया कमजोर दिखती है लेकिन चुस्त-दुरुस्त है। बीड़ियों का शौकीन है। हर समय होंठों में बीड़ी दबाये रखता है।और धुँआ उसके आँखों के सामने से उड़ता है।उसे पता है कि यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, लेकिन अब आदत बन गयी है।कुछ दूरी पर एक बूढ़ी महिला फल बेचती है, वह भी हर समय होंठों में बीड़ी दबाये मिलती है। बीच-बीच में चुस्कियां लेती है,बेफिक्र सी। उसकी आयु भी पिछले दस बरस से स्थिर लगती है। बुढ़ापा जैसे ठहर गया हो। इन तीन व्यक्तियों के विषय में सोचते- सोचते मेरा मन नैनीताल के पुस्तकालय पर ठहर कर जवान हो गया।पुस्तकालय में जाते समय एक कुत्ता मेरे साथ रहता था। जब मैं पुस्तकालय में घुसता था तो वह गेट के पास बैठ जाता था। और मेरे लौटने की प्रतीक्षा करता था। वह पुस्तक ज्ञान प्राप्त करने में जरा सा भी विश्वास नहीं करता था। किताबों की दुनिया से बेखबर लेकिन स्वामी भक्त था। युधिष्ठिर के साथ चलने वाले कुत्ते से उसकी तुलना नहीं कर सकता हूँ। युधिष्ठिर के साथ कुत्ता सशरीर स्वर्ग गया था। कहा जाता है द्वारपालों ने कुत्ते को जाने से मना कर दिया और युधिष्ठिर से कहा यदि तुम अपने सारे पुण्यों के फल कुत्ते को देने को तैयार हो तो वह स्वर्ग में सशरीर जा सकता है। युधिष्ठिर ने कहा," इसने यहाँ तक आने में मेरा साथ दिया है, मैं अपने समस्त पुण्यों का फल इसे देता हूँ।" कहा जाता स्वयं धर्मराज कुत्ते के भेष में युधिष्ठिर के साथ चल रहे थे।पुस्तकालय की स्वर्ग से तुलना तो नहीं कर सकते हैं लेकिन राह बताने में अवश्य सहायक होता है। जब में पुस्तकालय से निकलता था, अपने स्नेह में खोया वह मेरे पीछे-पीछे चल पड़ता था। हमारा प्यार लगभग अभिन्न बन चुका था। जब मैं अपने कालेज के पुस्तकालय के आगे खड़ा रहता था तो एक लड़की पुस्तकालय में घुसने से पहले झट से पीछे मुड़ती थी और मुझे ऐसा लगता था जैसे वह मुझे देखने के लिये ऐसा करती है। मन गदगद हो जाता था। लगता था काश समय यहीं पर रूक जाता! लेकिन समय ने थमने का नाम ही नहीं लिया। ऐसा सृष्टि में संभव भी नहीं है। समय ऐसा परिवर्तन लाया कि पुस्तकालय जल गया और मेरी आयु डाक्टर साहब जैसी स्थिरता भी नहीं ले पायी। अभी-अभी एक फोन आया मेरे एक परिचित का। उनकी आयु अस्सी साल है। बोल रहे थे," गाय चराने निकला हूँ,अयारपाटा के जंगल में जो टिफिन टोप के पास है।अपनी दुनिया में मस्त रहता हूँ। यह तनाव कम करने की मुझे बहुत अच्छी दिनचर्या लगती है।"फोन की बातें पूरी हुयी ही थी कि रेडियो पर सुनायी दे रहा था," चल अकेला,चल अकेला, तेरा मेला पीछे छूटा राही, तू चल अकेला----।" चल रहा था। लिफ्ट में गया तो दो गृह सहायिकायें अपने फोन में अपनी फोटो को विभिन्न मुद्राओं में देख कर खुश हो रही थीं। विज्ञान ने हमारे लिए एक अद्भुत आभासी दुनिया बना दी है। जिसमें हमारा बहुत समय व्यतीत होता है। हमारे पुराणों में भी बहुत अवसरों में आभासी घटनाओं का वर्णन मिलता है जिसे हम "माया" कहते हैं। पता नहीं, अब हम जीवन्त प्राकृतिक दृश्यों को इतने मनोयोग से देखते हैं या नहीं!
** महेश रौतेला