Nobody is mine in Hindi Moral Stories by sharovan singh books and stories PDF | कोई मेरा नहीं

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कोई मेरा नहीं

कोई मेरा नहीं. . .

कहानी / शरोवन

 

 

 

'मैं किसका हूँ?'

पता नहीं.

कौन मेरा है?

है ही नहीं.'

किसी शायर के समान उपरोक्त पंक्तियों की दिल पर चोट मारने वाली, पत्थरों जैसी विचारधाराओं की एक लंबी-सी पागलों समान जानलेवा लहर ने जब अपनी एक ज़ोरदार कसरत-भरी टक्कर मारी तो अपने ख्यालों में गुम बैठे हुए रंजन के दिल-ओ-दिमाग की सारी कड़ियाँ उसके दिमाग की कोख तक हिल गईं. उसे लगा कि, जैसे अचानक ही किसी ने उसे उठाकर बड़ी बे-दर्दी से किसी पहाड़ी से नीचे फेंक दिया है. इस प्रकार कि, उसके बदन का पोर-पोर  अपने ही स्थान पर कम्पन करने लगा है.

घबराते हुए रंजन अपने उलझे हुए विचारों से निकल कर होश में आया. चारों तरफ एक दृष्टि से निहारा और आस-पास देखते हुए सामने देखने लगा. सन्ध्यां डूबी जा रही थी. दूर क्षितिज के किनारों पर सूर्य की रश्मियाँ अपना दम तोड़ते हुए, सागर की विशाल लहरों पर किसी मुसब्बर की दिल तोड़ने वाली बिगड़ी हुई तस्वीरें बना रही थीं.

सागर के तट पर जगह-जगह बैठे हुए लोग, हाथों में हाथ पकड़कर टहलते हुए युगल अब जैसे नदारद हो चुके थे. शहर की तमाम विद्दयुत बत्तियां मुस्करा रही थीं. यही सब नज़ारे देखते हुए रंजन ने अपनी स्थिति पर ध्यान दिया. सोचा और विचारा, फिर मन में ही उसने अपने आप से पूछा,

       'क्या लेखक-कलाकार का मन ऐसे ही सोचता, विचारता है? सोचते हुए वह कहीं से कहीं जाकर भटकने लगता?'

      अपने दिमाग में यह प्रश्न आते ही रंजन स्वयं पर ही मुस्करा उठा. फिर मन में ही कहा कि, 'क्या किसी बहेलिये के समान बे-जुबान मगर चालाक कौओं जैसे पक्षियों को अपने जाल में फंसाने की नाकाम कोशिशें किये फिरता है?'

रंजन की अपने जॉब से कल की छुट्टी थी और उसके अगले दिन रविवार था. एक साथ दो दिन की छुट्टियां साथ मिल जाने का मतलब किसी सरकारी कर्मचारी के लिए जैसे पैरिस की यात्रा के समान होता है. इसीलिये वह अपने शहर से दूर इस सागर तट पर आ गया था. सोचा था कि, अपने इस समय में मिले हुए एकांत का वह भरपूर लाभ उठाएगा और बिलकुल खुद को तन्हा बनाकर केवल प्रकृति की रूपछटा से मुलाकात और बातें करेगा. मगर यहाँ तो बिलकुल उसके सोचे हुए कार्यक्रम  के विपरीत हो गया था. वह सागर के नीले पानी  की खुबसूरती को देखते-देखते अपने-आप में उलझ गया था  और इस खुबसूरती की जगह पर जिस माहौल में वह रहता था, उसके बद्सूरत वातावरण को देखने लगा था.    

थोड़ी देर और अपने ही स्थान पर बैठने के पश्चात रंजन उठा और अपने उस कमरे में आ गया जो उसने दो दिन के लिए किराए पर लिया था. दोपहर में उसने भरपूर लंच कर लिया था, इसलिए अभी शाम को भूख भी नहीं लग रही थी. वह बिस्तर पर आकर बैठ गया. होटल के कमरे में, होटल की तरफ से रखी हुई कॉफ़ी, कुछ स्नैक, कोला जैसा ड्रिंक और वहीं पर रखे हुए सिगरेट के पैकेट को देखकर वह अपने स्थान से उठा और सिगरेट के पैकेट में से एक सिगरेट निकालकर अपने होठों से लगा ली. फिर जलाने के लिए उसने जैसे ही लाइटर उठाया,  तुरंत ही उसके कानों में किसी के टोकने जैसी कड़कती हुई गंभीर आवाज़ आई,

'तुमसे कितनी ही बार कह चुकी हूँ. सिगरेट मत पिया करो. इससे स्वास्थ खराब होता है. अपने आप को देखो, कितने तो दुबले हो तुम?'

सोचते ही रंजन ने होठों से सिगरेट निकाल कर फेंक दी और अपना सिर पकड़कर बैठ गया.

 थोड़ी ही देर में विचारों, सोचों और ख्यालों में डूबी पिछली यादों की लहराती हुई वायु उसके कानों में चुपचाप गुनगुनाने लगी. . .'

. . . जब होश संभाला तो एक दिन उसे महसूस हुआ था कि, मेरे माता-पिता दोनों ही आपस में बात नहीं कर रहे हैं. ध्यान आया तो याद आ गया कि, परसों शाम की चाय के वक्त सहसा ही बात करते हुए मेरे माता-पिता के स्वर कठोर और कटीले हो चुके थे. किसी बात पर आर्गुमेंट होते-होते दोनों ने चाय पीना बंद कर दिया था और पापा उठकर, कहीं बाहर चले गये थे. फिर जब वे गई रात देर से आये और दरवाज़ा खटखटाया तौभी मां ने उठकर दरवाज़ा नहीं खोला था. मैं जानता हूँ कि, वे भी जाग रहीं थीं. नींद उनकी भी आँखों में नहीं थी. तब मैंने ही उठकर द्वार खोला था. द्वार खुल जाने पर पापा घर में आये. उन्होंने अपनी सायकिल खड़ी की. बाथ रूम गये. हाथ-पाँव धोये. गर्मी के दिन थे, उन्होंने अपनी चारपाई उठाई और घर के पीछे वाले आंगन में जाकर लेट गये.

मेरे माता-पिता में खूब जम कर झगड़ा होता था. कहा-सुनी हो जाती थी. इसकदर कि दोनों ही एक-दूसरे को एक पल के लिए भी बर्दाश्त नहीं कर पाते थे. जब आपस में बोलते थे तो घर के माहौल में जैसे चाँद-सितारे आँख-मिचौली खेलते नज़र आने लगते थे और जब लड़ते थे तो लगता था कि, जैसे सारी दुनियां का दिन-भर चमकने वाला सूरज हमेशा के लिए बुझ गया है और सारा घर एक अजीब से सन्नाटों   के साथ किसी बुरी मनहूसियत का शिकार हो गया है. घर के बाहर-अंदर कहीं भी चैन नहीं. मुझे यह सब देखकर क्रोध आता था तो घर के अंदर पले हुए प्यारे 'डॉग' को लात मार देता था. सगे-सच्चे दूध की चाय मिल जाए इसलिए मामा ने दो बकरियां पाल रखीं थीं. अक्सर उनका दाना-पानी मैं ही देता था. मुझे देखते ही वे मिमियातीं तो मैं खिसियाते हुए उन्हें भी डांट देता. कहता,

'चुप करो. दिमाग मत खराब किया करो मेरा. दिखता नहीं है तुमको सागर में जलजला आ चुका है''

तब बड़-बड़ करता हुआ, भुनभुनाते हुए, मैं भी बाहर निकल कर दोस्तों के पास चला जाता, 

'क्या नाटक बाजी होती रहती है, मेरे घर में?'

अपने जिगरी दोस्त से इस बारे में ज़िक्र करता तो वह यही कहता था कि,

'यह तो हर घर की कहानी है. हर जगह रोज़ ही ड्रामा होता है. तू क्यों अपने सिर 'टेंशन' लेता है?'

इतना भर कहकर वह भी जैसे अपनी-मेरी मित्रता की औपचारिकता को पूरा कर देता था.

मेरे मां-बाप में यह लड़ाई-झगड़ा तब से हो रहा था, जब मैं आठवीं ज़मात में था. तब इतना समझता नहीं था. लेकिन अब जब कॉलेज में ग्रेजुएट होने जा रहा था, तब समझने लगा था और तब इस बात को सोचने पर मुझे विवश होना पड़ा था कि, आखिरकार मेरे मां-बाप यूँ लड़ते-झगड़ते क्यों हैं? क्या सबब हो सकता है? घर में केवल तीन प्राणी रहते हैं. मैं और मेरे मां-बाप. फिर भी दोनों में बनती नहीं है क्यों? मेरी मामा, पापा से पन्द्रह साल छोटी थीं. मेरे नाना ने, मेरी मां का इतना बड़ा उम्र का फासला देख कर  भी मेरे पापा से उनका विवाह कर दिया था. मिशन में आने से पहले पापा सरकारी नौकरी किया करते थे. शायद मेरे नाना ने यही सबसे बड़ी खूबी मेरे पापा में देखी होगी?

उस समयकाल में, गाँव वासी इसी तरह से रिश्ते तय कर दिया करते थे. लड़के के पास खेत हो या फिर सरकारी नौकरी हो. पर यहाँ तो पापा के पास दोनों ही तरह के सिक्के थे. खेत भी और सरकारी मुलाजिम भी. गाँव वासियों को और क्या चाहिए होता था? लड़का कमाऊ होना चाहिए, बस और कुछ भी नहीं. मेरी मामा को इस ब्याह की वेदी पर स्वाहा करने के लिए.  

यह सोचकर और भी बुरा लगता था कि, पापा मेरे पादरी थे. गैर-मसीहियों के लिए वे चर्च के पवित्र पादरी थे. घर में वे अपनी दुआ करना, बाइबल पढ़ना नियमित रखते थे. मामा रात में सोने से पहले बाइबल जरूर पढ़ती थीं. फिर भी दोनों में यह तना-तनी क्यों?

 रही मेरी,  तो मैं क्यों इस झमेले में पड़ता? मैं जवान, सजीला, आकर्षित युवा था. बाइबल पढ़ना तो बहुत दूर की बात थी. कभी भूल से चर्च की इबादत में भी नहीं जाता था. फिर मुझे क्यों उनकी दुआ बन्दिगी से क्या लेना-देना? कभी-भी पारिवारिक प्रार्थना आदि मेरे यहाँ नहीं होती थी. कुछेक लोगों ने इस बाबत मुझसे  पूछा तो मैंने मना कर दिया और कहा कि,

'हमारे घर में सबकी अपनी-अपनी दुनियां है. अपना समय है. हम तीनों आज़ाद हैं. कुछ भी करो. कहीं भी जाओ, लेकिन रात को आठ बजे से पहले ही घर आ जाओ. यही सबसे बड़ी आज्ञा और नियम है मेरे घर का. इस दस्तूर का मैं बखूबी पालन किया करता हूँ.'

यही उपरोक्त मेरा जबाब होता था और मेरा मित्र चुप रह जाता था.

बस यही एक उपरोक्त सुल्तानी नियम था, जैसे किसी सुलतान के राज्य में नियम था कि, हरेक शाम आठ बजे नगर की शहरपनाह के फाटक बंद कर दिए जाएँ और पहरेदार लगा दिए जाएँ. ठीक यही मेरे घर में भी था. जब से मैंने जाना, खानदानी नियम ही होगा कि, परिवार का हरेक जन आठ बजे शाम तक घर के अंदर हो जाना चाहिए.

मेरे मां-बाप, दोनों ही साथ रहते हुए भी अलग-अलग. पति-पत्नि होते हुए भी घर के अंदर उनका व्यवहार अनजान-अपरिचितों जैसा. बंजारों जैसे घर के अंदर कभी दो चूल्हे और कभी एक. एक ही छत के नीचे रहते हुए कभी कोई आहट नहीं, कोई चहल-पहल नहीं, जैसे न दिखने वाली आत्माओं का बसेरा; कोई भी दृश्य नहीं. प्यासी मानव जीवन की भटकती हुई साँसों की कराहटें, जैसे कोमा में पड़े हुए जीव. और इन सबके मध्य मैं एक तन्हा-तन्हा-सा, परेशान, अपने ही आपसे बगाबत करता हुआ. जैसे मेरे ही हरे-भरे शकरकंद के खेतों में किसी ने बकरों को चौकीदारी पर तैनात कर दिया है?  

मेरे घर के इस असंतुष्ट वातावरण के जानने पर तब लोग आपस में ही बतियाते, फुस-फुससाते हुए बात करते,

'पक्का शैतान का बसेरा लगता है, इसके घर में? देखो तो कितना परेशान रहने लगा है यह अब?'

 नियमित रूप से एक बार फिर से झगड़ा हुआ दोनों में. इतना अधिक कटीला और असहनीय कि, मुझे ही फिर कहना पड़ गया कि,

'जब नहीं बनती है आप दोनों में तो फिर अलग-अलग रहा करिये.'

मेरी तरफ से यह बात सुन कर सहसा ही दोनों चुप. सन्न-से रह गये दोनों. मानों दोनों के ऊपर व्रजपात हो गया हो? बड़ी देर तक दोनों बुतों से खड़े रह गये. काफी देर के बाद मामा बोलीं,

'मैं तो अलग हो जाऊं अभी, लेकिन तू किसके पास रहेगा?'

'?'- इस बार अपनी बारी पर मैं चुप. 

किसी प्रकार तब दोनों चुप हो गये. लगा कि, जैसे दोनों के सिर पर से कोई तूफानी हवा की सरसराहट गुज़र गई है. उसके बाद फिर काफी समय तक दोनों में कोई झगड़ा नहीं हुआ. कोई भी विवाद नहीं. दोनों फिर से एक हो गये. एक चूल्हा जलने लगा. दोनों साथ बैठकर खाने लगे. पापा मछली पकड़कर लाते. उन्हें साफ़ करते और मामा उन्हें बड़े प्यार से बैठकर बनाती. कहीं से भी मक्का के आटे का इंतजाम करके उसकी रोटियाँ बनातीं. साथ में चावल भी उबाल लेतीं. उस समय मैंने भी जाना था कि, 'माछोर झोल' के साथ मक्का की रोटी और मोटे चावल का साथ होता है. इतना अधिक कि, खाने में कोई भी एक चीज़ खत्म होकर रहेगी.

मैंने ग्रेजुएशन पूरा कर लिया. मिशन ने मेरी पढ़ाई देखकर मुझे एक बार और दो वर्षों के लिए बजीफा मंजूर कर दिया. मैंने पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए दाखला ले लिया था. लेकिन अब तक मेरे घर का रवैया अभी तक वैसा ही चल रहा था. पापा-मामा की तकरार और 'आर्गुमेंट', दोनों के अंदर एक अजीब-सा चिड़-चिड़ापन अभी तक समाप्त नहीं हो सका था. बात-बात पर उनका झुंझलाना, एक दूसरे पर दोषारोपण करना, आपस में तकरार करते-करते किसी भी एक का क्रोधित और नाराज़ होते हुए घर से बाहर निकल जाना, सचमुच उनका आये दिन का मानो सामयिक नाटक बन चुका था. मैं सोचता था कि, ऐसा करना उनका सचमुच उनकी दिनचर्या का दैनिक कार्यक्रम बन गया था और अब किसी को भी उनका समझाना निरर्थक ही होगा. वैसे भी मनुष्य की कोई भी पुरानी आदत से छुटकारा दिलाना बहुत कठिन होता है. मामा-पापा का आपस में यह उनका तकरारी जीवन बन चुका था. ऐसा लगता था कि, जैसे इसी तरह से दोनों के रहने की आदत और रिवाज़ बन चुका था. बगैर झगड़ा किये हुए, एक दूसरे पर दोषारोपण किये बगैर, और आपस की  तकरार बिना दोनों में से किसी को जैसे चैन ही नहीं पड़ता था? अपने गाँव की भाषा में कहा जाए तो, 'बिना झगड़ा किये हुए दोनों में से किसी की भी रोटी हज़म नहीं होती थी.

मेरे कॉलेज में क्रिसमस की छुट्टियां हुईं और दो सप्ताह के लिए कॉलेज बंद हो गया. मैं खुशी-खुशी घर गया. दोनों ने मेरा दिल-ओ-जान से स्वागत किया. क्रिसमस के दिन थे. पापा यूँ भी बड़े दिन के कार्यक्रमों में व्यस्त हो चुके थे. घर में हर दिन कोई-न-कोई मेहमान आता था और खा-पीकर चला जाता था. यूँ तो मेहमानों के लिए अच्छा ही खाना मामा बनाती थीं, फिर भी वह इन दिनों एक-से-अच्छा-एक स्वादिष्ट भोजन मेरी पसंद का बनाती थीं. उनका कहना था कि, बच्चा बाहर रहता है. न जाने वहां यह सब उसे खाने को मिलता भी है या नहीं? इसी बात को ध्यान में रखते हुए वे मुझे खाने और भोजन के मामले सभी तरह से संतुष्ट कर देना चाहती थीं.

एक दिन मामा घर में कोई विशेष वस्तु बना रही थीं. उन्हें देशी घी की आवश्यकता पड़ी, पर जब उन्होंने डिब्बा देखा तो उसमें पर्याप्त नहीं था. उन्होंने पापा से तुरंत लाने को कहा तो वे एक दम से उन पर गरज पड़े. वे बोले,

'अभी कल ही तो सारा सामान लाकर रखा है. कल क्यों नहीं बताया था? मेरी शाम की मीटिंग शुरू होने में मात्र पन्द्रह मिनिट रह गये हैं. कल ला दूंगा.'

पापा ने अपनी मजबूरी बतायी तो मामा भी भड़क गईं. फिर उनका शुरू हो गया वही पुराना कार्यक्रम जिसमें एक-दूसरे पर दोष लगाना जैसे पहला नियम था. मैं वैसे भी दो सप्ताह के लिए आया था. अपने मां-बाप का वही पुराना रवैया देखकर घर से बाहर आकर, नीम के पेड़ के सहारे जाकर खड़ा हो गया. वहां पर खड़े हुए मुझे अभी मुश्किल से दस मिनिट ही हुए होंगे कि, कभी मेरे साथ-साथ हाई स्कूल तक पढ़ने वाला राजेश मेरी तरफ आता हुआ दिखाई दिया. यूँ तो मैं पहले ही उससे मिल चुका था. लेकिन जब वह मेरे पास आकर खड़ा हो गया तो मैंने उसको हलो बोला. वह मेरी शक्ल को बड़े ही गौर से देखते हुए बोला,

'सब ठीक तो है. यहाँ अकेला क्यों खड़ा है?'

'यूँ ही.'

'यूँ ही. . .मतलब?'

'क्या?'

'तेरी शक्ल से नहीं लगता है?' उसने कहा तो मैंने जबाब दिया,

'अरे छोड़ भी, इन बातों को?'

'?' - तब वह चुप हो गया.

लेकिन कुछेक पलों के बाद उसने अपनी जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला. एक सिगरेट अपने होठों से लगाते हुए उसने पूछा कि,

'ले सिगरेट पिएगा? मैंने सुन रखा है कि, तूने सिगरेट पीना छोड़ दिया है. अगर छोड़ दी है तो मत पीना, नहीं तो फिर से आदत पड़ जायेगी.'

मैंने कुछेक पल सोचा और पैकेट में से एक सिगरेट निकाल कर अपने होठों से लगा ली. उसने सिगरेटें जलाई और हम दोनों उसका धुंआ उड़ाने लगे. अभी सिगरेट पीते हुए दो मिनिट ही हुए होंगे कि, राजेश को उसका छोटा भाई बुलाने आया तो वह मुझे वहीं अकेला छोड़कर, 'एक्स क्यूज मी' कहकर चला गया. मैं उसे जाते हुए देख ही रहा था कि, अचानक से मेरे पीछे से, मुझे टोकती हुई आवाज़ सुनाई दी,

'अच्छा ! यहाँ नीम के पेड़ की आड़ में चुपचाप धुंआ उड़ाया जा रहा है?'

'मैंने चौंक कर अपने पीछे देखा तो हताश-सा रह गया. मेरे सामने मीता खड़ी हुई मुझे अपनी खा जाने वाली आँखों से घूर रही थी. उसकी आँखों में छिपे क्रोध के लाल-लाल डोरे देखकर मेरे अचानक ही होश उड़ चुके थे. मैं कुछ कहता इससे पहले ही वह मुझे डांटती हुई बोली,

'लगता तो यही है कि, होस्टल में रहकर तुम फिर से पीने लगे हो. छोड़ी नहीं है? फिर से आदत ड़ाल रखी है?'

तब बड़ी ही हिम्मत करते हुए मैंने उसको समझाते हुए कहना चाह कि,

'नहीं ऐसा नहीं है. वह...वह... तो राजेश.. .राजेश ने. . .'

'यह वह...वह...क्या लगा रखी है? तुमसे कितनी ही बार कह चुकी हूँ. सिगरेट मत पिया करो. इससे स्वास्थ खराब होता है. अपने आप को देखो, कितने तो दुबले हो तुम?'

'अच्छा अब नहीं पियूंगा कभी. यह लो फेंक दी है मैंने.'

'तुम नहीं सुधरोगे कभी भी. मुझे मूर्ख मत बनाया करो.'

इतना कहते हुए वह जाने लगी तो मैंने उसे रोकना चाह. अपनी जगह से ही बोला,

'मीता? रुको तो. प्लीज... मीता ...?

'मुझसे बात मत करो.'

यह कहते हुए वह चली गई और मैं निराश-सा जंगल में किसी हिलते हुए सरकंडे की तरह वहीं खड़ा रह गया. यही सोचकर तसल्ली कर ली कि, अब वह तब तक नहीं आयेगी, जब तक कि, उसका सारा गुस्सा नहीं उतर जाएगा.

लेकिन दूसरे ही पल मैं हैरान रह गया. वह मेरे मेरे पीछे ही चुप खड़ी थी. न जाने कब लौट आई थी या फिर गई ही नहीं थी.

मैं चुपचाप उसे देखने लगा तो वह बोली,

'ऐसे क्या देखते हो?'

मैंने साहस करके उससे सवाल किया,  

'तुम क्या मुझे ही हर समय वाच करती रहती हो?'

'हां.' वह बड़े ही अधिकार से बोली.

'तुम बड़ी ही निर्भयशील हो?'

'क्या मतलब?'  

'तुमको ज़रा भी डर नहीं लगता ?'

'क्यों डर किस बात का? और अगर डरूँगी तो तुम्हें कैसे सुधार पाऊँगी?'

'अच्छा एक बात पूछ सकता हूँ मैं तुमसे?'

'?'- मीता ने मुझको एक बार गंभीर होकर, बड़े गौर से देखा, फिर बोली,

'क्या जानना चाहते हो मुझसे?'

'क्यों सुधारना चाहती हो मुझे? क्यों इसकदर परवा करती हो मेरी?'

'अच्छा ? अब यह भी बताना पड़ेगा मुझे तुमको? तुम इतने बच्चे तो नहीं हो? ना ही बे-समझ, जो मेरे हाव-भाव को न समझ सको?'

'चलो ! अब समझने की कोशिश करने लगूँगा मैं.'

'हां ! ज़रा जल्दी ही. कहीं यह साथ चलता हुआ कारवाँ  न गुज़र जाए और तुम गुबार देखते ही रह जाओ?'

सच में कारवाँ अपनी ही गति से आगे निकल गया. धूल उड़ती रही और हम गुबारों की धुंध में ही कहीं खो गये. एक दिन मेरे पापा का झगड़ा किसी बात पर मीता के पिता से हो गया. कोई विभागीय बात थी. मेरे पापा मीता के पिता से भिड़ गये. साथ में काम करने वालों ने दोनों ही को समझाया. दोनों समझ तो गये, फिर भी मन-मुटाव बना ही रहा. दूरियाँ बढ़ गईं थीं. मीता के परिवार और मेरे पापा-मामा के मध्य बात-चीत बंद हो चुकी थी. दोनों ही परिवारों के बीच मतभेद हो गये. इसका असर और प्रभाव चाहे किसी पर ना भी पड़ा हो लेकिन हम दोनों झुलस चुके थे. अपनी हसरतों पर मजबूरियां का कफ़न डालकर सदा के लिए जलकर ख़ाक हो चुके थे.

मीता ने मेरे घर आना बंद कर दिया था. मुझे समझाना उसने छोड़ रखा था. मेरे सामने भी आना उसने छोड़ दिया था. जब कभी भी वह मिल जाती थी तो केवल हां, हूँ, और न में ही उत्तर देती थी. मामा-पापा दोनों का तनावयुक्त रवैया,  मीता की बे-मुरब्बत पलायनता तथा अपनी हसरतों पर बिना बजह बरसती आग देख कर मैं खिन्न मन से, क्रिसमस से पहले ही वापस हॉस्टल लौट गया. झूठ से बहाना बना दिया था कि,

'कॉलेज की स्टडी की बात है. अगर नहीं जाऊँगा तो मेरी बहुत बड़ी हानि हो सकती है. क्रिसमस तो ज़िन्दगी में बहुत आयेंगे, फिर कभी आ जाऊँगा.'   

मां-बाप को शक तो हुआ, लेकिन वे कह कुछ नहीं सके थे. उन्होंने शायद बाद में सोचा होगा कि, उन दोनों के बे-मेल व्यवहारों का प्रभाव लड़के पर जरुर ही पड़ा है. वह कहता तो कुछ भी नहीं है, फिर भी उसकी भेद-भरी चुप्पी कुछ तो एहसास करा ही देती है. मां तो शायद समझ चकी थी कि, लड़का उनके हाथों से बहुत वर्षों पहले ही निकल चुका है. मीता ने क्या सोचा होगा और क्या सोचकर उसने मेरी तरफ से अपनी पलायनता का ये कठोर फैसला लिया हो? शायद यही कि, ऐसे घर को अपनी ससुराल बनाने से उसे क्या फायदा जहां पर हर समय ज़रा-ज़रा सी बात पर अखाड़े सजते हों? इन अखाड़ों का उपहास उड़ाया जाता हो? इन्हें देखने के लिए तमाशबीनों के खुलेआम मजमें लग जाते हों?

इन्हीं बातों को याद करते हुए, अपने भूतकालीन अतीत को बार-बार दोहराते हुए, अपनी चैन-शान्ति की खोज करते हुए जीवन के दो दशक और बीत चुके हैं. मीता अपना घर बसाकर किसी दूसरे शहर में चली गई है. वह अपने तीन बच्चों और पति के साथ सुखी परिवार में व्यस्त हो चुकी है. पापा-मामा का स्वर्गवास हो चुका है. मैं भी अपने शहर, अपने घर से कोसों दूर आकर रहने लगा हूँ. रह रहा हूँ या जी रहा हूँ? कुछ पता नहीं. शायद अपनी उम्र ही पूरी कर रहा हूँ?

मेरा शहर, मेरा घर, जिनकी जगाहों की हवाओं में सांस लेकर मैं बड़ा हुआ. जिस जगह की धूल-मिट्टी में लोट-लोटकर मैं मजबूत हुआ था, वह आज वीरान और सूनसान पड़ा हुआ है. वहां की हरेक दीवार और आंगन में सन्नाटों के बसेरे हैं. उसके चारों तरफ घास और झाड़ियाँ उग आई हैं. रात की मनहूस खामोशियों में शाम होते ही, उसकी दीवारों से अबाबीलें और चमगादड़ चिपकने लगते हैं. रातों में कीड़े-मकोड़ों और झींगरों का अलाप सुनाई देने लगता है. आज उस बचपन के घर में झूठे से कोई रहने वाला भी नहीं है.  

आज मेरे पास धन-दौलत, रुपया-पैसा, बढ़िया मकान, कार, बैंक-बैलेंस और सम्मान आदि सब कुछ है, लेकिन जो मैं चाहता था, जो मुझे दिल से प्यारा था, जिसे मैं अपना समझता था और जो मेरी पसंदें थीं, वही सब कुछ इस जग ने मुझसे बे-हद बेदर्दी और अन्याय से छीना है. मेरे परिवार के असंविधानिक पारिवारिक नियमों के कारण जो कुछ भी हुआ और जो भी मिला उसका सबसे अधिक प्रभाव मुझ पर ही पड़ा है. मैं हार गया. रस्में जीत गईं. ज़माना आगे निकल गया. मैं पीछे रह गया. सब जुड़ गये. मैं टूट गया. वह छूट गये. मैं उलझ गया.

दुनियां की बड़ी भारी भीड़ में सब एक साथ दिखाई देते हैं, लेकिन मैं अकेला हूँ. नितांत अकेला. मेरे आगे कोई नहीं. मेरे पीछे भी कोई नहीं. कोई मेरा नहीं. मैं किसी का नहीं.  

-समाप्त.