Nikki in Hindi Short Stories by Deepak sharma books and stories PDF | निक्की

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निक्की

यकीन मानो मेरी जिंदगी से तुम कभी गयी ही नहीं…..

तुम्हारे निकनेम ‘ निकितिश्ना ‘ से मैं ने ‘निक्की’ शब्द खींच निकाला है, ( जिस का तुम्हारी पंजाबी में ‘छोटी’ से अभिप्राय है )और उसे अपने ब्लॉग का नाम दे दिया है : निक्की ।

तुम्हारे संग अपने प्रेम- प्रसंग का समय मापूंगा तो उत्तर आएगा, कुल जमा तीन माह।

उन तीन माह का कैलेंडर से मेल मिलाऊंगा तो सामने आएंगे, सन 1970 के फ़रवरी, मार्च और अप्रैल।

उन दिनों अपनी आई.पी.एस. के अंतर्गत मैं अमृतसर की खुफ़िया पुलिस में तैनात था, जब फ़रवरी की दो तारीख़ को तुम्हारे सह- शिक्षा वाले स्नातकोत्तर कालेज में मुझे एक वाद- विवाद प्रतियोगिता में एक जज की भूमिका निभाने का निमंत्रण मिला था, जहां तुम राजनीति शास्त्र पढ़ातीं थीं।

तुम्हारे संग।

विषय समसामयिक था : समाजवाद बनाम क्रांतिकारी बदलाव।

प्रतियोगिता के निर्णय के अंतर्गत तुम्हारे साथ मेरा मतभेद हो गया था।

तुम उस लड़की को प्रथम पुरस्कार देना चाहती थीं जिस ने पूंजीवाद को निजी सम्पत्ति का वैध रक्षक बताया था और उस का सामना करने का एकमात्र उपाय सुझाया था: व्यवस्था पलट दो। जब कि मैं उस लड़के को प्रथम पुरस्कार देना चाहता था जिस ने समाजवाद के पक्ष में बोलते हुए सामाजिक न्याय एंव विधिपालन पर बल दिया था।

“ आप अपने को अपनी सरकार से अलग कर के देखिए, ” तुम मुझ पर झल्लायी थीं, ” यह एक बौद्धिक बहस है। सामाजिक समानता लाने के लिए हमें प्रयास करने ही होंगें। सामाजिक उत्थान एक मानवीय सरोकार है, उसे नज़र अंदाज करना निर्ममता होगी।”

“ मैं इसे धुंआ छोड़ने के इलावा कुछ नहीं मानता, ” मैं ने द्दृढ़ता से अपना सिर हिलाया था, ” थौमस कारलाइल का एक कथन है, दुख भोगते समय मनुष्य को अपना धुंआ स्वंंय उड़ा देना चाहिए। जब तक आप अपने धुंए को आग नहीं बना लेते, धुंआ छोड़ने से कुछ भला नहीं होने वाला…”

“ आप दुख भोगने वाले की बात कर रहे हैं, दुख भगाने वाले की बात नहीं। जो जानता है दुख उसे उस के शत्रु ने दिया है। प्रौंधों यही तो कहता है, जो कोई भी मुझे शासित करने के लिए मुझ पर हाथ डालता है, वह हर कोई एक अपहारी है और एक प्रजापीड़क है और मैं उसे अपना शत्रु घोषित करता हूं।”

जभी तुम्हारे कालेज की सांस्कृतिक सचिव विद्यार्थिनी ने मुझे स्टेज पर आमंत्रित किया था, प्रथम पुरस्कार विजेता का नाम घोषित करने के लिए ।

बिना तुम्हारी ओर देखे मैं स्टेज पर जा खड़ा हुआ था, “ मुझे प्रसन्नता है अपनी इस वाद- विवाद प्रतियोगिता के माध्यम से आपकी अनुशासन- प्रिय संस्था हमारे युवाजन के सम्मुख अपनी प्राथमिकताएं परिभाषित कर रही है ताकि समाज में पनप रहे विधिविरुद्ध

तत्वों को पराजित किया जा सके और प्रथम पुरस्कार उस प्रतियोगी को मिल रहा है जो अराजकता के नहीं, अनुशासन के पक्ष में रहा।”

एक झटके के साथ तुम उठ खड़ी हुईं थीं और हौल से बाहर निकल लीं थीं।

तुम्हारे कालेज से विदा लेते समय तुम्हारे प्रधानाचार्य से मैं ने तुम्हारा पता ले लिया था और उसी शाम तुम्हारे मकान पर पहुंच लिया था जिस का एक कमरा तुम ने किराए पर ले रखा था। अपने निजी वाहन से। उन दिनों मेरे पास रौयल एनफ़ीलड थी।

“आप की लड़की को मैं ने प्रथम पुरस्कार नहीं दिलाया तो आप मैदान छोड़ कर भाग निकलीं, ” मैं ने तुम्हें छेड़ा था। हांलाकि उस समय तुम्हारे कमरे में एक बैठक जमा थी। दो लड़के तुम्हें घेरे बैठे थे।

“यह सुरेश है, डाक्टरी की पढ़ाई कर रहा है…….(उस की आयु पच्चीस और तीस के बीच कुछ भी हो सकती थी ) और यह जगदीश है, एम.ए. में है (वह बाइस तेइस का रहा होगा) । दोनों मेरे कस्बापुर के हैं, ” तुम ने कहा था, ” इन के हाथ मेरी मां ने कुछ सामान भेजा है….”

और जब उन्हें मेरा परिचय तुम ने अपने कालेज के एक सहकर्मी के रूप में दिया था तो मेरा माथा ठनक लिया था।ज़रूर उन लड़कों का परिचय भी मुझे सही नहीं मिला था। यों भी उन के चेहरे मुझे कुछ जाने पहचाने तो लगे ही थे।कहीं मेरे दफ़्तर के किसी रजिस्टर में दर्ज रहे क्या?

मेरा संदेह विश्वास में बदल लिया था जब उन में से

बड़े वाले, सुरेश, ने मेरी आंखों में आंखें गड़ा कर मुझ से कहा था, ”जाने क्यों आप को देख कर ऐसा महसूस होता है मैं मर रहा हूं या फिर जल्दी ही मरने वाला हूं…..”

“ ऐसा क्या?” मैं चौंक लिया था। क्या वह भी मुझे चिन्हित करने के चक्कर में रहा?

”और मुझे यह महसूस हो रहा है आप बहुत होशियार हैं और यह भी कि यह होशियारी आप को देर तक ज़िंदा रखेगी, ” दूसरे लड़के, जगदीश, ने जोड़ा था।

“इन मूर्खों की धृष्टता पर मत जाइएगा, ” तुम घबराहट की हंसी हंस पड़ी थीं, ”इन्हों ने इधर तुर्गनेव का ‘फ़ादरज़ ऐंड सन्ज़’ पढ़ा है और यह बैजोरोव की नकल में बोल रहे हैं….”

“ अपनी निकितिश्ना के सामने दूसरी भाषाँऐ भूल जाते हैं क्या?” मैं हंसा था, "’फ़ादरज़ और सन्ज़’ मैं ने भी पढ़ रखी है।”

“आप ने ठीक जाना। मैडम हमारी निकितिश्ना हैं, ” पहले लड़के ने कहा था।

“झूठ, झूठ….” तुम्हारी घबराहट बढ़ गयी थी और तुम ने अपनी आंखें उन्हें तरेरी थीं। बैजोरोव और निकितिश्ना तुर्गनेव के 1862 में छपे उस उपन्यास के ऐसे दो मुख्य पात्र थे जिन्हें कथा-संसार के पहले काल्पनिक नाइलिस्ट माना जाता था।

“मगर सच हो भी तो बुरा क्या है, ” मैं फिर हंसा था, ” इधर अस्तित्ववाद और बोहेमियानियाई के साथ नाइलिज़िम (शून्यवाद) और एनार्किज़म ( अराजकतावाद) भी तो पुनर्जीवित किए जा रहे हैं…..”

“वह सब एक लंबी बहस का विषय है । आप आए भी तो किस समय? “ तुम तत्काल उठ खड़ी हुईं थीं, ”जब मैं बाज़ार जाने की तैयारी में रही। मां ने इन के हाथ वापसी में कुछ सामान मंगवाया है…..”

अगली शाम मेरी मोटर बाइक की आवाज़ मुझ से पहले तुम तक पहुंच ली थी और तुम अपने हाथ में दो किताबें लिए लिए मकान के पोर्टिको में मुझे मिली थीं, “ इस समय मैं आप को अपना समय दे न पाऊंगी। मैं टाउन हौल की लाइब्रेरी के लिए निकल रही हूं….”

“मेरे बाइक की सवारी चलेगी?” मैं ने तुम से पूछा था।

“यहां नहीं, ” तुम ने ‘ना’ में सिर हिला दिया था, ” बल्कि आप मुझे जब कभी भी मिलना चाहें तो मेरे कालेज आएं। मेरे कमरे पर नहीं। मेरे मकान मालिक को आपत्ति है….”

उस दिन के बाद तुम्हारे कमरे पर मैं कभी नहीं गया था।मोबाइल अभी आए नहीं थे और तुम्हारे पास अपना कोई लैंडलाइन फ़ोन भी नहीं रहा था।

मगर अपने कालेज पर तुम ने हमेशा मेरा स्वागत ही किया था : फ़िल्म के लिए, रेस्तरां के लिए, कौफ़ी हाउस के लिए, 

टाउन हौल की लाइब्रेरी के लिए।

और जब कभी भी मैं ने तुम्हें अपनी संगति देने के लिए अनुग्रह किया था, तुम ने सहर्ष अपनी स्वीकृति दे दी थी।

फ़िल्में तो हम ने ढेर सारी एक साथ देखी थीं। फ़िल्मों का तुम्हें खूब शौक रहा भी। विशेषकर अंग्रेज़ी फ़िल्मों का। लेकिन तुम्हें वे फ़िल्में ज्यादा पसंद आया करतीं जिन में एक्शन, मारधाड़, और चेेज़ , लंबी दौड़, रहा करतीं, जब कि मुझे रोमांस और प्रेम कहानियों वाली ज़्यादा पसंद आतीं ।

इस बीच मेरे गुप्तचर अपना काम करते रहे थे और उन्हों ने तुम्हारे कमरे के साथ जोड़ कर कुछ ऐसे नाम हमारे विभाग को दिए थे जिन्हें हमारी पुलिस कई माह से खोज रही थी।

यकीन मानो मुझे इस बाबत बाद में मालूम हुआ था।

तुम आज मुझे मिलतीं तो ज़रूर कहतीं, ’ द डॉग एट योर होमवर्क?’

तुम कहा करतीं थीं , मुझे मेरी सरकारी नौकरी ने ऐसे असंभव बहाने बनाने सिखा रखे थे जो दुनिया के सर्वाधिक अनगर्ल माने जाने वाले इस बहाने को भी मात कर देते थे : ‘द डॉग एट माए होम वर्क’ ( मेरे घर का नियत कार्य कुत्ते ने चबा डाला)।

मुझे तो बीस अप्रैल के दिन सचमुच दिल्ली से बुलावा आया था, जहां तत्काल पहुंच जाने का मुझे आदेश मिला था, ’ लंदन में हो रहे एक पुलिस ट्रेनिंग के सिलसिले में तीन महीने की अवधि के लिए भेजी जाने वाली हमारी टीम के एक सदस्य के रूप में तुम्हें कल ही लंदन के लिए रवाना होना होगा।’

और यह सच है, दिल्ली से तुम्हारे कालेज में तुम्हारे नाम पर ट्रंक कौल लगाने की मैं ने कई चेष्टाएं भी की थीं लेकिन सभी असफल रहीं थी और मैं हवाई जहाज़ में बैठ लिया था।

खिन्न और उदास।

और तीन महीने बाद जब अपनी ड्यूटी पर लौटा था तो सब से पहले तुम्हारे मकान पर ही गया था।

अपने जीवन का सब से बड़े झटके और सदमे का सामना करने।

कमरा खाली हो चुका था।

तुम्हारे मकान मालिक ने बताया इस बीच अपने कालेज से त्यागपत्र दे कर तुम अपने कस्बापुर लौट गयी थीं। हां, जाते समय अपने विवाह का निमंत्रण- पत्र ज़रूर छोड़ गयी थीं। कहना न होगा, उस निमंत्रण- पत्र पर तुम्हारे साथ दूल्हे के रूप में उसी सुरेश की तस्वीर रही, जो उन्हीं दो लड़कों में से एक था जो उस वर्ष की दो फ़रवरी को मुझे तुम्हारे कमरे में मिला था।

तुम्हारे कस्बापुर के पते पर अपने विभाग द्वारा पता लगाने पर जाना अपने पति के साथ अब तुम विदेश में बस गयी थीं। स्थायी रूप में।

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