कॉलेज का पहला दिन था। बारिश हल्की-हल्की हो रही थी, और कैंटीन की खिड़की से आती बूंदें जैसे किसी अधूरी कविता का हिस्सा लग रही थीं।
वहीं एक कोने में बैठा आरव, अपने चाय के कप में आँखें गड़ाए, सोच में डूबा था। वो पहली बार सिया को देख रहा था।
"उसकी हँसी... जैसे किसी पुराने ख्वाब से निकलकर आई हो," आरव ने मन ही मन सोचा।
वो चाहकर भी नज़रें हटा नहीं पाया। सिया हँसती थी, बात करती थी, दोस्तों के साथ मस्त रहती थी — और हर दिन उसके आस-पास बस एक नूर सा फैला रहता।
आरव की मोहब्बत खामोश थी — वो इश्क जो सिर्फ देखने भर से सुकून देता है, कुछ कहने की हिम्मत कभी ना कर पाए।
महीनों बाद लाइब्रेरी में एक मुलाकात
किताबों के ढेर में खोया आरव, अचानक सामने बैठी सिया से टकरा गया।
सिया ने मुस्कुराकर कहा, "तुम हर जगह दिख जाते हो... ये इत्तेफाक है या कुछ और?"
आरव ने धीमे से जवाब दिया,"शायद किस्मत का खेल है।"
सिया हँसी, और आरव फिर एक बार उसके उसी मुस्कुराहट में गुम हो गया।
फेयरवेल,एक अधूरी शाम
कॉलेज खत्म होने को था। सबने सपने बुन लिए थे। और आरव?
वो अब भी सिया को देखता था — दूर से।
वो जानता था, ये शायद आखिरी मौका है। लेकिन जब सिया उसके पास आई और बोली, "तुम हमेशा चुप रहते हो आरव, कभी कुछ कहते क्यों नहीं?"
आरव मुस्कराया, और बस इतना कहा, "कभी-कभी खामोशी भी बहुत कुछ कहती है..."
पाँच साल बाद वही बारिश, वही प्लेटफॉर्म
प्लेटफॉर्म नंबर तीन पर खड़ा आरव, आज भी बारिश में अकेला था। उसे नहीं पता था कि किस्मत ने आज उसके हिस्से कुछ खास लिखा है।
"आरव?" एक जानी-पहचानी आवाज़ आई।
वो पलटा और सामने सिया थी। थोड़ी बदली हुई, लेकिन मुस्कान वैसी ही। "इतने सालों बाद?" उसकी आँखों में हैरानी थी।
"शायद किस्मत को लगा कि अब मिलना ज़रूरी है," आरव ने कहा।
कुछ पलों की चुप्पी के बाद, सिया ने धीरे से पूछा — "क्या तुम अब भी वैसे ही... सोचते हो मेरे बारे में?"
आरव की आँखें भीग गईं। "मैंने कभी कहा नहीं... लेकिन हर दुआ में सिर्फ तुम्हारा नाम लिया..."
सिया मुस्कुराई — एक गीली, थकी हुई लेकिन सच्ची मुस्कान।
"तो चलो... इस बार किस्मत की बात मान लेते हैं," उसने कहा।
बारिश थम गई थी। दो अधूरी कहानियाँ, अब एक साथ पूरी होने चली थीं।
नई शुरुआत
सिया और आरव रेलवे स्टेशन से बाहर निकले। सड़कें अब भी भीगी हुई थीं, लेकिन दिलों में एक अजीब सी गर्मी थी — जैसे बरसों बाद कोई सर्दी पीछे छूट रही हो।
आरव ने उसके लिए छाता खोला। "अब भी बारिश से डरती हो?" "अब नहीं... जब साथ तुम हो," सिया ने मुस्कराकर जवाब दिया।
वे पास की एक छोटी सी कैफ़े में बैठे, जहाँ दीवारों पर किताबें थीं, और खिड़की के पास से बारिश की बूंदें टकरा रही थीं।
"तुम्हारे बिना सब अधूरा था, आरव," सिया ने कहा, "मैंने भी कभी नहीं कहा... लेकिन तुम्हारे जैसी खामोश मोहब्बत किसी ने नहीं की मुझसे।"
आरव कुछ नहीं बोला, सिर्फ उसकी हथेली थाम ली — जैसे हर वक़्त के लिए थाम ली हो।
कुछ महीने बाद, वही शहर, नई कहानी
सिया और आरव ने एक छोटा सा घर लिया, पुरानी किताबों और कॉफी के कपों से भरा हुआ। दीवार पर एक घड़ी थी, जो आरव की माँ की दी हुई थी, और एक खिड़की, जहाँ से हर शाम ढलती सूरज की किरणें उनके चेहरे को छूती थीं।
आरव अब एक स्कूल में पढ़ाता था — बच्चों को कहानियाँ सुनाता, और हर कहानी में सिया की परछाईं होती।
सिया एक लाइब्रेरी चलाने लगी — जहाँ किताबों से ज़्यादा उसकी मुस्कान बाँटती थी।
हर शाम वे साथ बैठते, चाय पीते, और बीते सालों की चुप्पियों को शब्दों में बदलते।
"क्या सोचते हो, अगर मैं उस दिन कुछ कह देती, तो क्या होता?" "शायद हम थोड़ा कम तड़पते, लेकिन तब ये प्यार इतना गहरा भी नहीं होता..."
और फिर...कभी-कभी मोहब्बत कह देने से नहीं, समझ लेने से मुकम्मल होती है। आरव और सिया ने एक-दूसरे की ख़ामोशियों को सुना, और उन्हीं में जीवन बुन लिया।
बारिश अब भी होती थी, लेकिन अब कोई भी अकेला नहीं भीगता था।
"खामोशियाँ भी कहती हैं..."
...और अब, कोई उन्हें सुनने वाला था।