the dream that came true in Hindi Short Stories by Sudhir Srivastava books and stories PDF | सपना जो सच हो गया

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सपना जो सच हो गया

लघु कहानी ***********सपना जो सच हो गया *******************     कुछ वर्षों पूर्व रमेश को एक साहित्यिक आयोजन में कवियों/कवयित्रियों को आमंत्रित करने की जिम्मेदारी दी गई। चूंकि यह आयोजन पहली बार हो रहा था और आयोजक मंडल के सभी सदस्य अनुभव हीन थे।यह अलग बात है कि रमेश की नये पुराने बहुत सारे रचनाकारों से संवाद होता था, यह सभी जानते थे। इसीलिए यह जिम्मेदारी उसे दी गई।         आयोजन के सिलसिले में रमेश ने अपने अनुजवत मित्र को आमंत्रित किया, तो उन्होंने दूरी ज्यादा होने से खेद प्रकट करते हुए उसी शहर की ( जिस शहर में आयोजन होना था) अपनी परिचित एक शिक्षिका/ कवयित्री का मोबाइल नंबर देते हुए संपर्क करने को कहा।       अगले दिन रमेश ने फोन किया। फोन कवयित्री के बेटे ने रिसीव किया। परिचय और कारण पूछने के बाद उसने अपनी माँ से बात कराई। कवयित्री महोदया ने बड़ी शालीनता से बात करने के बाद आने की सहमति दे दी। कार्यक्रम से दो दिन पहले उनका फोन आया कि आवश्यक कार्य हेतु आयोजन में शामिल न हो पाना संभव नहीं होगा, इसका मुझे भी बेहद अफसोस हो रहा है, पर मेरी विवशता भी है और मैं क्षमा चाहती हूँ। क्योंकि वो इसलिए पहले दिन बहुत खुश थी कि पहली बार उसे किसी धरातलीय कवि सम्मेलन का आमंत्रण मिला था। लेकिन रमेश को उसके बातचीत से लग रहा था कि वो कुछ विशेष परेशानी में है। वैसे भी उसने जिस आत्मीयता और सम्मान से दोनों दिन बातें की, उससे उसके संस्कारों का आभास मुझे हो रहा था।      रमेश ने जाने किस रौ में आकर उसे आश्वस्त किया कि वह चाहे तो बड़ा भाई समझकर अपनी परेशानी कह सकती है, शायद वो कुछ समाधान दे सके।       उसने भरोसा जताते हुए रमेश को विश्वास दिलाया कि आज नहीं, लेकिन लौटकर पूरी बात जरूर बताएगी। और उसने लौटकर बताया भी।     फिर तो बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ता गया। उसके बच्चे भी कभी-कभार बातचीत कर लेते थे। मेरी पत्नी से भी कुछेक बार उसकी आभासी बातचीत होने लगी थी।कुछ माह बाद रमेश जब उस शहर में दुबारा गया, तो इसकी सूचना उसे भी दी, उसने सस्नेह घर आने का फरमान सुना दिया, रमेश जाना भी चाहता था, लेकिन असमंजस के कारण नहीं गया, क्योंकि उसके साथ सात- आठ लोग और साथ में थे। जब वो इंतजार करते करते तक गई,  तब उसने फोन किया कि आप कहाँ हो? इतना दूर तो घर नहीं है, आपके रास्ते में है। यह और बात है कि तब तक रमेश उसके घर से लगभग 35-40 किमी. आगे आ निकल चुका था। रमेश ने क्षमा माँगते हुए फिर कभी आने का आश्वासन दे दिया। रमेश के उत्तर से उसे निराशा हुई। लेकिन रमेश ने उसके स्नेह आमंत्रण को पूरा सम्मान दिया और थोड़े दिनों बाद उसके घर गया। पहली बार आमने-सामने होंने पर उसने भी रमेश का बेझिझक पैर छूकर अपने बड़े भाई के रूप में सभी का परिचय कराया।     रमेश के कारण उसे कभी-कभार कवि सम्मेलनों/ काव्य गोष्ठियों में आसानी से शामिल होने का अवसर भी मिलने लगा। रमेश को जानने वाले उसे उनकी बहन होने की तरह ही पूरा मान सम्मान भी देते।     दोनों में पवित्र रिश्तों की आत्मीयता गहरे तक पैठ बना चुकी थी। इस बीच रक्षाबंधन का त्योहार आ गया। उसने रमेश को फोन कर राखी भेजने हेतु पता पूछा।तो रमेश ने उसे आश्वस्त किया कि वो परेशान न हों, वो खुद आकर उसके हाथों से राखी बंधवायेगा।यह सुनकर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। मन तो रमेश का भी था कि वो उससे राखी बंधवाये, मगर संकोच, डर और नारी सम्मान के कारण अपनी बात पहले कह नहीं पाया था। उसकी इस झिझक को उसने स्वयं ही दूर कर दिया।    रक्षाबंधन के दिन वो बार-बार फोन कर रमेश के आने की जानकारी लैती रही, जो उसकी आत्मीयता, खुशी का बोध कराने के लिए पर्याप्त था।जब रमेश उसके घर पहुंचा तो वह खुशी से रो पड़ी। रमेश ने उसके आंसू पोंछे और फिर उसने टीकाकर आरती उतारी और रमेश की कलाई पर राखी बाँधी। रमेश उसके लिए साड़ी लेकर गया था। जब रमेश ने उसे देकर उसके पैर छुए तो वह खुशी से रमेश से लिपटकर बोली - भैया आपके रुप में ईश्वर ने जो निधि दी है, उसे मैं हमेशा संभाल कर रखूंगी।फिर रमेश को खुशी -खुशी खाना खिलाया। रमेश वापस जाना चाहता था। लेकिन उसने रोक लिया और अपनी भाभी (रमेश की पत्नी, जिससे पहले भी उसकी बातचीत होती रही है) को फोन कर अपनी खुशी जाहिर की और मेरे रुकने की बात भी बता दिया।     अगले दिन सुबह वो स्कूल जाते हुए रमेश को बोलकर गईं।कि मेरे लौटने के बाद जाइएगा। वापस आते आते शाम हो गई और फिर वही मनुहार।अब इस समय क्या जाना, सुबह चले जाइएगा और अनन्त: उसकी जिद के आगे रमेश को हथियार डालने ही पड़े।इस तरह रमेश का वो सपना सच हो गया, जो उसने मन ही मन आत्मीय भाव पहली बार देखें थे। सुधीर श्रीवास्तव