दरवाज़े पर ताला देख कर याद आया, मां अब नहीं हैं और घर की चाबियां मेरे स्कूल बैग में थीं। अपने उस सातवें साल तक पहुंचते- पहुंचते मैं काफ़ी कुछ सीख-समझ चुका था। खाना बनाने के सिवा।
पहला कमरा मेरा था। मां की बीमारी से पहले वह कमरा समान रूप से मां का और मेरा सांझा अंश रहा था। अपने शयनकक्ष की चाबी पापा अपने पास रखते।तब भी और अब भी।
अपने बिस्तर पर अपना बैग फेंक कर मैं रसोई में जा पहुंचा। खाने की मेज़ खाली थी। मेज़ के सुबह वाले कैैसेरोल और बर्तन धुले बर्तनों में मौजूद थे।
खाना बनाने वाली बाई आज नहीं आई थी क्या?
मां की बीमारी के ज़ोर पकड़ते ही पापा को चार बाइयों और एक नर्स का इंतज़ाम फ़ौरन करना पड़ा था। इधर मुंबई में कोई भी बाई दूसरी बाई का काम करना पसंद न करती थी। झाड़ू- पोंछे वाली बर्तन न मांजती और बर्तन मांजने वाली कपड़े न धोती और कपड़े धोने वाली खाना न बना पाती और खाना बनाने वाली और किसी का काम न छूती और मां की देखभाल के लिए रखी वह नर्स तो मानो सिर्फ़ दिखाने के लिए रखी गई थी।मां से ज़्यादा वह अपना ध्यान रखती थी। नहाने जाती तो दो-दो घंटे नहाती ही रहती। खाना खाने बैठती तो अपनी थाली में गर्म घी,अचार,टमाटर,पापड़ और मिठाई का टुकड़ा जुटा कर ही बैठती। मां के बाद तो वह पापा के लिए भी आंख का कांटा बन गई और फिर एक इतवार अपनी हाउसिंग सोसाइटी के चौकीदार के सामने वह उसे खड़ा कर दिए: इसे पहचान लो,पाटिल। हमारी बिल्डिंग में अब इसे दाखिल नहीं होने देना……
रसोई से मैं घर के स्टोर में जा दाखिल हुआ। मां की आलमारी की चाबी के साथ।
अपनी आलमारी का ऊपर वाला खाना मां मेरे लिए आरक्षित रखती रही थी। अपनी बीमारी के दिनों में भी वह मेरा जलपान मंगवाना न भूला करतीं बल्कि ऐन अपनी मृत्यु से तीन- चार दिन पहले जब उन की सांस उखड़ने लगी थी, उन्हों ने मेरे लिए क्या- क्या सूखा मेवा और क्या- क्या नमकीन और मीठा नहीं मंगवाया था और मेरे हाथों वहां टिकाया था। इस वचन के साथ कि अपना जलपान मैं नियम से ज़रूर ले लिया करूंगा और शाम के समय अपने कंप्यूटर या टी.वी. के आगे बैठते समय मैं उन में से कोई न कोई पैकेट अपनी बगल में रखता भी रहा था। यह अलग बात थी कि पैकेट खोलते समय मेरी रुलाई अक्सर छूट जाया करती और मां को दिया गया दूसरा वचन मैं निभा नहीं पाता, ‘मां के लिए मैं रोऊंगा नहीं क्यों कि उधर उस नई जगह पर पहुंचने पर मां की सारी दुख- तकलीफ़ दूर छिटक लेगी।’
दो साल पहले रसोई में दूध उठा रहे मां के हाथों से दूध के भगौने के अचानक छूटने से जो बीमारी उन्हें शुरू हुई थी,वह पौने दो सालों में उन के कंधों और पीठ पर से रेंगती हुई उन के पैरों तक जा पहुंची थी। जिस वजह से वह हिलने - डुलने के काबिल न रहीं थीं। अपने आखिरी चार महीने उन्हों ने घर के इस स्टोर में उस मुड़वां चारपाई पर बिताए थे जो उन की नर्स की चारपाई के साथ अब अपनी परतों में तहा दी गई थी,ताकि उन की जगह बनाने के लिए रसोई में खिसका दिए गए आटा, चावल और दालों के डिब्बे अपनी पूरानी जगह पर लौटाए जा सकें।
आलमारी खुलते ही मैं जान गया ,मेरे पीछे पापा ने उस दिन मां की चीज़ें छानी थीं। नीचे के खाने की मां की साड़ियां और बीच के खाने की मां की चिट्ठियां और डायरियाँ सब लापरवाही से ऊपर के खाने में गड्डमड्ड, बेतरतीब ठूंस दी थीं, और मेरी मठरी और बिस्कुट,मीठी पापड़ी और पिन्नी और मेवा और किशमिश उठा ली थीं। साथ में वे रुपए भी जो मां मेरे लिए छोड़ गई थीं।
मैं रोने लगा।गला फाड़ कर।धाड़ मार कर।
बिना किसी चेतावनी के पीछे से एक हाथ मेरे कंधे पर आन टिका।मैं ने पीठ घुमायी तो देखा बालों की टेढ़ी मांग काढ़े एक लंबी,छरहरी युवती वहां खड़ी थी। मंद-मंद मुस्कान लिए।
रसोई के उस स्टोर का एक दरवाज़ा हमारे तीसरे बाथरूम की तरफ़ खुलता था। ज़रूर कोई बाई बाथरूम का वह दरवाज़ा खुला छोड़ गई थी और यह युवती उसी रास्ते से मेरी रुलाई सुन कर यहां चली आई थी।
“भूखे हो?” उस ने अपना चेहरा मेरी ओर झुुकाया। हूबहू मां के अंदाज़ में।
“तुम्हें खाना बनाना आता है?” मैं रोना भूल गया।
“हां,” वह हंसी, “क्यों नहीं?”
उस के गाल ऊंचे और भरे-भरे थे। नाक नुकीली थी। ठुड्डी तीखी।और आंखें ऐसी थीं,मानो बादाम की गिरियां।
रसोई की ओर उस ने मेरे साथ कदम बढ़ाए तो मैं ने जाना वह सलवार- कमीज़ पहने थी जिस के लहरिएदार छापे की भूरी और पीली लहरें नितल से तल और तल से नितल हो कर एक-दूसरे से टकराने का आभास दे रहीं थीं।
फ़्रिज में अंडे और डबलरोटी मक्खन के साथ मौजूद थे।उस के हाथ सब से पहले मक्खन की ओर बढ़े। क्या वह जानती थी मेरे आमलेट के लिए मां हमेशा मक्खन ही इस्तेमाल करती थीं?
आमलेट बनते- बनाते उस ने मेरे लिए टोस्टर पर चार टोस्ट सेंक दिए।
“चलो,मेज़ पर चलो,” उस ने मुझे कहा और प्लेट मेरे आगे परोस दी। मेरी भूख की ताब तेज़ थी और मैं तत्काल प्लेट पर झपट लिया।
प्लेट खाली करने पर ही मैं जान पाया,वह जा चुकी थी।
दौड़ कर मैं ने सामने का दरवाज़ा टटोला।
वह अंदर से बंद था। ज्यों का त्यों। जैसा मैं ने उसे घर में दाखिल होने पर बंद किया था।
मैं स्टोर से बाथरूम की ओर लपका। वह दरवाज़ा भी मुझे अंदर से बंद ही मिला।
मुझे यकीन है, ज़रूर नींद ही में, मैं ने अपने को फिर स्टोर की आलमारी के सामने खड़ा पाया। पूरी की पूरी वह खुली थी और उस की हर चीज़ अपनी आकृति और अपने आकार के प्रसार में फड़फड़ा रही थी । अनुप्राणित। जैसे कार्टून फ़िल्मों में सभी चित्र स्फुरण रखते हैं। और मैं उन की ओर खिंचता चला गया मानो वहां कोई चुंबक लगा हो। जभी बीच वाले खाने से एक खाकी लिफ़ाफ़ा हवा के हिलोर की तरह वेग से मेरे हाथ में आ टिका। अगले पल लिफ़ाफ़े के भीतर से एक तस्वीर बाहर निकल आयी।
मेरी आंखें उस पर गड़ गयीं। तस्वीर उस युवती की थी। उसी लहरिएदार छापे की सलवार-कमीज़ में। जिस की भूरी और पीली लहरें नितल से तल और तल से नितल हो कर एक- दूसरे से टकरा रहीं थीं। बालों में भी वही टेढ़ी मांग काढ़े। और वही मंद-मंद मुस्कान लिए।
“आज बाई ने खाना नहीं बनाया?”
पापा की तेज़ आवाज़ मेरे अंधेरे कमरे के बाहर गूंजी।
“नहीं,” चौंक कर मैं बिस्तर से उठ बैठा।शाम को मेरा सोना पापा को कतई पसंद नहीं।
“तुम भूखे रहे क्या?” पापा ने मेरे कमरे की बत्ती आन जलाई।
“नहीं,” मैं ने कहा, “मगर यहां कोई और आई थी …….मुझे आमलेट और चार टोस्ट खिला कर चली गई…….”
“मंगल के दिन तुम ने अंडे खाए क्या?” पापा की आवाज़ में उनकी सख्ती शामिल हो ली, “कितनी बार तुम्हें टोका है मैं ने?”
“फ़्रिज में उस समय सिर्फ़ अंडे ही थे। कोई सब्ज़ी न रखी थी……”
“नामुमकिन। हमारे फ़्रिज में तुम्हें अंडे मिले? आज मंगल के दिन?”
“हां,पापा,” मैं ने कहा, “मैं सच कहता हूं । उस ने अंडे इसी फ़्रिज से निकाले थे और मेरे सामने उन्हें मक्खन में बनाए थे।”
“किस ने? तुम ने नाम पूछा उस का? पूछा,वह कहां से आई थी?”
“रुकिए। मैं अभी बताता हूं। अभी दिखाता हूं……”
मैं मां की आलमारी की ओर दौड़ लिया। खाकी वह लिफ़ाफ़ा मुझे आलमारी के बीच वाले खाने में अपनी ओर झांकता हुआ फ़ौरन मिल गया।
लिफ़ाफ़ा मैं ने वहां से उठाया और उस के अंदर की तस्वीर पापा के हाथ में ला थमाई, “यह आई थी…..”
“क्या बकते हो? यह तो अरुणा की पुरानी तस्वीर है……”
“मां की?” मैं हैरान हुआ। इस तस्वीर के माथे के अतिरिक्त मां के पास कुछ भी बचा न रहा था। मैं ने उन्हें जब भी देखा था,धंसी हुई आंखों और ढलकी गालों के साथ ही देखा था।
“जाओ। इसे वापस रख आओ। और खबरदार, ऐसा वाहियात मज़ाक मेरे साथ फिर कभी मत करना……”
“मैं सच कह रहा हूं,पापा,” अपनी सच्चाई के सबूत में वह तस्वीर मैं पापा के पास दोबारा ले गया, “यही कपड़े, यही आंखें,यही… …..”
“बको नहीं,” पापा ने एक तमाचा मेरी गाल पर जड़ दिया।
तमाचा ज़ोरदार था और मैं वहीं गिर पड़ा।
“यह बैल्ज़ पौःल्ज़ी है,” मूर्च्छा टूटने पर मैं ने स्वंंय को एक अजनबी डाक्टर के अस्पताल में पाया, “चेहरे के एक हिस्से का फ़ालिज। इस में इसी तरह एक पलक निर्जीव हो जाती है और आंख खुली रहने पर मजबूर रहती है। कान के पीछे से चेहरे की तरफ़ आने वाली नस काम नहीं कर पाती और……”
“अब क्या होगा?” पापा की आवाज़ में घबराहट चली आयी। लगभग वैसी ही घबराहट जब मां वाले डाक्टर ने मां की बीमारी बयान की थी, “आप की पत्नी मांसपेशियों के घुलने की उस लाइलाज बीमारी की शिकार हो गयी हैं, जिसे हम लोग ए.एल.एस., ऐम्योट्रौफ़िक लैटरल स्कलिरौसिस कहते हैं। इस में मरीज़ के हाथ-पैर की हरकत तो तेज़ी से बेहरकती में बदलती जाती है मगर दिमाग हर बात बखूबी सोचने- समझने के लिए बचा रहता है…….”
“ घबराइए नहीं,” मेरे वाले डाक्टर ने पापा से कहा, “आप ने अच्छा किया जो बच्चे को बिना देरी किए यहां लिवा लाए। चार- छः सप्ताह में यह बिल्कुल ठीक हो जाएगा। लेकिन उसे यहीं अस्पताल ही में रहना होगा। पूर्ण रूप से मेरी देख-रेख में। यहां उस की आंखों के दवा-दारू का प्रबंध किया जाएगा। चेहरे के विभिन्न व्यायाम करवाए जाएंगे। फ़िज़ियोथैरेपी होगी…..”
“धन्यवाद,” पापा सुबकने लगे।
आजकल मैं यहीं हूं।अस्पताल में।
रात में,दिन में,दोपहर में कभी भी तस्वीर वाली युवती मेरी आंख-ओट नहीं रहती…….
अपनी उसी लहरिएदार सलवार- कमीज़ में जिस की भूरी और पीली लहरें नितल से तल और तल से नितल होकर एक-दूसरे से टकराया करती हैं …….
टेढ़ी मांग काढ़े,दबे पांव वह मेरे पास आती है, बैठती है……..
कभी मेरे बाल सहलाती है ,तो कभी मेरी गाल…….
लेकिन पापा से उस का उल्लेख मैं कभी नहीं करता…….
और न ही कभी करने का इरादा ही रखता हूं……
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