मानव प्रभु की सर्वश्रेष्ठ कृति है। जिसे ईश्वर ने चिंतन और मनन की अद्भुत क्षमता दी हुई है। सूर्योदय की बेला में एक ओर ऊगते हुये सूर्य को देखना और दूसरी ओर श्मशान को देखना, मन में एक गंभीर चिंतन को जन्म देता है। संसार एक नदी है, जीवन है नाव, भाग्य है नाविक, कर्म है पतवार, तरंग है सुख, भंवर है दुख, पाल है भक्ति जो नदी के बहाव व हवा की दिशा में जीवन को आगे ले जाती है। नाव की गति को नियंत्रित कर, बहाव और गंतव्य की दिशा में समन्वय स्थापित करके जीवन की सद्गति व दुर्गति भाग्य, भक्ति, धर्म एवं कर्म के द्वारा निर्धारित होती है। यदि हमारे कर्म अच्छे हैं तो जीवन सद्गति की ओर अग्रसर होता है और यदि हमारे कर्म खराब हैं तो जीवन दुर्गति की ओर बढ़ता है।
जो व्यक्ति जीवन की खोज में निकला हो, अगर वह अपने भीतर सच्चा नही हो सकता है तो उसकी खोज कभी पूरी नही होगी। जो व्यक्ति परमात्मा को, जीवन के अर्थ को, जानने के लिए उत्सुक हो अगर वह अपने प्रति थोडा भी सच्चा नही है, तो उसकी खोज व्यर्थ ही चली जाएगी। सत्य की खोज का पहला चरण अपने प्रति सच्चा होना है। हम सत्य को जानने की आकांक्षा रखते हैं लेकिन आकांक्षा अकेली काफी नही है। हमें अपने भीतर असत्य की दीवारों को तोड़ना होगा जो हमने स्वयं खड़ी की है। मानव दिन रात अपने कर्म में व्यस्त रहता है और सदैव सुखी रहने की आकांक्षा करता है। वह यह नही समझता की सुखी और संपन्न जीवन की आकांक्षा में वह कई बार ऐसे कर्म करता है जो कि नैतिक मूल्यों में उसका पतन करके उसे गलत दिशा की ओर अग्रसर कर देते है। एक बार हमारे घर पर एक संत जी पधारे। उनके आशीर्वचनों से मेरा जीवन दर्शन के प्रति नजरिया ही बदल गया।
उन्होंने हमें एक वृत्तांत सुनाया कि एक बार एक नेताजी ने पूछा कि वे चाहते है कि उनकी मृत्यु के बाद भी उनके परिवार का भविष्य व्यवस्थित रहे। महात्मा जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि व्यक्ति केवल सोच सकता है, प्रयास कर सकता है लेकिन अंतिम निर्णय तो ईश्वर और भाग्य के हाथ होता है। तुम स्वयं अपना भविष्य नही जानते और दूसरों के भविष्य की चिंता कर रहे हो। यह दुनिया जब तक व्यक्ति जीवित है तब तक कुछ और होती है और उसकी आंख मुंद जाने के बाद कुछ और हो जाती है। यदि तुम इसका अनुभव करना चाहते हो तो कर सकते हो लेकिन वह बहुत कटु होगा। किसी प्रकार तुम प्रचारित कर दो और लोगों को यह विश्वास दिला दो कि तुम्हारी मृत्यु हो गई है।
नेताजी ने महात्मा जी की बात मानकर एक दिन नाव पर बैठकर नदी पार करते समय बीच में ही नदी में छलांग लगा दी। वे भीतर ही भीतर तैरकर चुपचाप इस प्रकार उस पार हो गए कि लोगों को लगा कि नेताजी नदी में डूबकर मर गए है। यह खबर सभी जगह फैल गई। उनके घरवालों को जैसे ही पता चला सबसे पहले वे उनकी उस तिजोरी की चाबियाँ खोजने लगे जिसमें उनके देश और विदेश में जमा करोडों रूपयों के कागजात थे। वे जनता को दिखाने के लिए तो रो रहे थे परंतु वे वसीयत और अन्य जरूरी जायदाद से संबंधित कागजात एवं बंटवारें के संबंध में आपस में लगे हुए थे। नेताजी के जो अनुयायी थे वे धीरे धीरे दूसरे नेताओं के चमचे बन गए। नेताजी जिस पद पर थे, अब उस पर कोई दूसरा नेता आसीन हो गया था और मन ही मन नेताजी के मरने से खुश हो रहा था। उनके न रहने के कारण ही यह पद खाली हो गया था और उसे प्राप्त हो गया था।
नेताजी का जो धन व्यापारियों के पास लगा हुआ था, उस पर उन्होंने चुप्पी साध रखी थी और उसे हडप लिया था। नेताजी ने अपने पद पर रहते हुए लोगों के काम करवाने की जो घूस ली थी, वे सभी लोग उन्हें भ्रष्टाचारी और हरामखोर बतलाते हुए मन ही मन बहुत प्रसन्न हो रहे थे। इस प्रकार किसी को भी न ही उनकी मृत्यु का दुख था और न ही कोई उनका अभाव महसूस कर रहा था। नेताजी चुपचाप वेश बदलकर जीवन का सत्य देख रहे थे। इससे उनकी आत्मा को बडा कष्ट हुआ और उनका हृदय परिवर्तन हो गया। वे महात्मा जी के पास पहुंचे और उनके चरण छूकर बोले कि मुझे जीवन की वास्तविकता का अनुभव हो गया है। अब मुझे अपने परिवार, मित्रों और तथाकथित शुभचिंतकों की वास्तविकता मालूम हो गई है। इतना कहकर वे अनजाने गंतव्य की ओर प्रस्थान कर गए एवं वापिस उस शहर में कभी नही आए।
महात्मा जी ने उन्हें समझा दिया था कि जीवन मे मृत्यु के उपरांत सकारात्मक, सृजनात्मक एवं रचनात्मक कार्य जो मानव जनहित में करता है वही याद रखे जाते है। उसका स्वयं का अस्तित्व मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है। सिर्फ अच्छे कर्मांे से ही उसका नाम स्मृति में रहता है।
इतनी कृपा दिखाना राघव,
कभी न हो अभिमान।
मस्तक ऊँचा रहे मान से ,
ऐसे हों सब काम।
रहें समर्पित, करें लोक हित,
देना यह आशीष।
विनत भाव से प्रभु चरणों में,
झुका रहे यह शीश।
करें दुख में सुख का अहसास,
रहे तन-मन में यह आभास।
धर्म से कर्म
कर्म से सृजन
सृजन में हो समाज उत्थान।
चलूं जब दुनियाँ से हे राम!
ध्यान में रहे तुम्हारा नाम।