उस वर्ष हमारा दीपावली विशेषांक कहानियों पर केंद्रित था।
“दीपावली विशेषांक की कहानियों के साथ जाने वाले रेखांकन तैयार हो गए हैं,” हमारी ‘महिलाओं के लिए’ नाम की पत्रिका के संपादक मेरे कक्ष में ‘मेरी सलाह’ लेने आए थे।
हमारी प्रेस के आधुनिकीकरण होते ही मेरी प्रबंधकीय डिग्री व पटुता को देखते हुए मेरे पिता ने मेरे इस छब्बीसवें वर्ष ही में मुझे इस पत्रिका का ‘ सलाहकार ‘ नियुक्त कर रखा था ।
“कैसे चित्र हैं यह?” चित्र देखते ही मैं खीझा,” “एक भी स्त्री मुस्करा नहीं रही।”
“मजबूरी है,भैया जी । इस अंक में सभी कहानियाँ स्त्रियों की रहीं और ऐसी मनहूस रहीं कि किसी एक में भी कोई स्त्री मुस्करा नहीं रही,” संपादक मुस्करा दिए।
“न- न- न!” मैं ने उन रेखाचित्रों पर अपनी उंगलियां दौड़ाईं, “परेशान…उद्विग्न….
आंसू-सिक्त….विक्षिप्त…विरूपित….ये स्त्रियां नहीं चलेंगी….ये अशुभ लगतीं हैं…”
.”क्या बताएं,भैया जी!” संपादक हंसने
लगे,” अब इन कहानियों की विषय वस्तु ही ऐसी गंभीर और विकृत रही कि उन से मेल खाते हुए चित्रों में भी वही रोनी सूरतें लानी अनिवार्य हो गयीं ।”
“ इस करकट को हटाइए,” मेरा खून खौल उठा, “ अपने दीपावली विशेषांक का विषय हम बदल देंगे। उस के लिए कोई नया विषय लाएंगे….”
“ मगर कहानियों की घोषणा की जा चुकी है,भैया जी,” संपादक की हंसी लुप्त हो ली,” अब इन्हें तो प्रैस में जाना- ही -जाना है…..”
“ दीपावली विशेषांक में ये कहानियां हरगिज़ नहीं जा सकतीं। दीपावली अंक अब कहानी विशेषांक के स्थान पर हम आभूषण- विशेषांक रखेंगे।”
प्रत्येक वर्ष दीपावली के अवसर पर अपने परिवार की महिलाओं को नए आभूषण खरीदते/ बनवाते हुए मैं देखा करता था।
“मगर हमारे पास तो आभूषणों पर तनिक भी सामग्री नहीं,भैया जी।”
“कोई चिंता नहीं,” मैं मुस्करा दिया, “इंटर्नेट और ए.आई. से हम तमाम देशी- विदेशी आभूषण खोज सकते हैं। सामग्री मैं उपलब्ध करवा दूंगा,आप मुझे केवल दो हाथ खोज दीजिए। एक हाथ अंग्रेज़ी का हिंदी में अनुवाद करने वाला और दूसरा हाथ चित्र उकेरने वाला…..”
“और अगर ये दोनों काम एकहत्थे एक जन ही में मिल जाएं तो?”
“ किस में?”
“अपने आर्टिस्ट बाबू की बेटी का। उस का हाथ बहुत गुणी है। उस के बनाए हुए कुछ चित्र तो इनाम भी पा चुके हैं। संयोगवश उस की अंग्रेजी भी अच्छी है ।आजकल वह समाज- शास्त्र में एम.ए.कर रही है।”
“ उस आर्टिस्ट की बेटी?जो सही आदमी नहीं। हमारे बाबूजी को उस ने कैसे कैसे तो परेशान किया था!”
तीन माह पहले उस का हाथ हमारी प्रिंटिंग प्रैस के ट्रैडल में उलझ जाने से कट गया था जिस के फलस्वरूप हमारी प्रैस के बाकी सभी कर्मचारियों ने तब तक काम बंद रखा था जब तक मेरे पिता ने उन की दो शर्तें मान न ली थीं : उसे उस के अंतिम दिन तक उसे पूरी तनख्वाह देने के साथ साथ मुआवज़े के तौर पर उसे पचास हज़ार रुपए देने होंगे।
“ हम कौन उस लड़की को किसी स्थायी नौकरी पर रख रहे हैं? ” संपादक बोले,
“ अपनी द्विविधा में उस से काम लेंगे। मैं उसे जानता हूं। फिर अभी ज़ख्म भी ताज़ा है और फाहा भी। बिना ज़्यादा पारिश्रमिक लिए वह हमारा काम ज़रूर निपटा देगी। ”
“ठीक है। उसे कल यहां भेज दीजिएगा,” मुझे लालच हो आया।
लड़की का नाम आशा था । उस की पकड़ और समझ पैनी थी। मेरी छंटी हुई सामग्री को मेरे आदेशानुसार प्रस्तुत करने में उस ने ग़ज़ब की फ़ुर्ती और क्षमता दिखाई और देखते- देखते प्रचलित आकार के कपड़ों तथा विशिष्ट आभूषणों से सजी-संवरी स्त्रियां तैयार हो गयीं : मंगलदायक, सगुनी, स्त्री- सुलभ और अनिन्द्य।
यदि एक के पास किसी एक फ़िल्मी अभिनेत्री की दंतपत्ति अथवा मुस्कान रही तो दूसरी के पास किसी एक माॅडल का माथा अथवा नाक तो तीसरी के पास किसी एक नर्तकी की ठुड्डी अथवा आंखें।
अंक जब तैयार हो कर मेरे पास आया तो मैं ने आशा ही को बुलवाया।
“बैठो,” संयोग से उस समय मैं अपने कक्ष में अकेला था। इस से पहले आशा जब भी मेरे कक्ष में आती रही थी, मेरा कोई न कोई सहायक अनिवार्यतः मेरे कक्ष में उपस्थित रहा था।शायद मेरे पिता का आदेश अमल में लाने।
एक रखवाल की भांति मेरे पिता मुझे अपनी निगरानी में रखते हैं।
“बताइए,” अनमने ठंडे स्वर के साथ वह मेरे सामने वाली कुर्सी पर बैठ ली।
पहली बार मैं ने उसे अपनी पूूरी
नज़र में उतारा। वह आकर्षक थी। बिना किसी प्रसाधन के । बिना कान की बाली के । बिना चूड़ी के। खाली कलाई लिए सफ़ेद सलवार और सफ़ेद ही दुपट्टे के साथ उस ने हल्के पीले रंग की कमीज़ पहन रखी थी। एकदम साधारण । फिर भी एक आभा लिए थी।
“यदि मैं कहूं आज ही से तुुम्हें
हमारी इस पत्रिका में उपसंपादक की नौकरी पर रखा जा रहा है तो तुम क्या कहोगी?”
“ मेरा उत्तर ‘न’ में रहेगा।”
“ क्यों?” मुझे गहरा धक्का लगा।
“क्योकि स्त्रियोंं को लेकर मेरा दृष्टिकोण दूसरा है…..”
“कैसे?”
“आप की पत्रिका देश में सुघड़ गृहिणियां तैयार करने के चक्कर में उन्हें रिझाने- भरमाने के लिए गृह- सज्जा,मनोरम श्रंगार और कढ़ाई - बुनाई व स्वादिष्ट पकवान के आगे नहीं जाने देना चाहती। जब कि स्त्री के आकारगत रूप को संंवारने में मैं तनिक रुचि नहीं रखती l उस की आधारभूत स्थिति को समझने और सुधारने से सरोकार रखती हूं……”
“ मैं कुछ समझा नहीं। तुम क्या कहना चाहती हो?”
“ आप ने इस दीपावली विशेषांक के लिए चुनी गयी वे पूर्व- निर्धारित कहानियां और चित्र रद्द कर दिए थे……”
“ वे चित्र क्या तुम ने बनाए थे?”
“वे अठारह कहानियां थीं और मैं ने पच्चीस चित्र तैयार किए थे……”
“किंतु उन में कोई भी स्त्री सम्मोहक न थी । कोई भी मुस्करा नहीं रही थी….”
“आप ने वे कहानियां पढ़ी थीं?”
“हां,” मैं ने झूठ बोल दिया। मैं ने उन पर अपनी नज़र दौड़ाई तो थी ही,किंतु केवल उन की शब्द संख्या का अनुमान लेने की खातिर।
“रेखांकन आप उन से मेल खाते हुए चाहते थे अथवा बेमेल? उन कहानियों में क्या कोई एक भी मुस्कराने की स्थिति में रही?”
“नहीं,”मैं हँस पड़ा।
“स्त्री की मोहक मुस्कान आप जैसों के लिए या फिर आप की पत्रिका ही के लिए एक अनुकूल परिस्थिति हो सकती है किंतु वास्तव में स्त्री के पास मुस्कराने के लिए बहुुत
कुछ है नहीं….”
“ तुुम शायद ठीक कह रही हो,” मैं हड़बड़ाया,” मगर हमें अपनी पत्रिका के लिए वैसी स्त्रियां नहीं चाहिए थीं जिन में एक के आंसू उस की गर्दन पर पहुंच रहे थे तो दूसरी के गालों में धारियां बन कर उतर रहे थे…”
“ तेरे पिता कैसे हैं, लड़की?” तभी मेरे पिता मेरे कक्ष में चले आए।
“ दारुण विपत्ति में हैं,” एक झटके के साथ आशा अपनी कुर्सी से उठ कर उन के ऐन सामने जा खड़ी हुई— लगभग वही धृष्टता अपने स्वर में उतारती हुई,जो उन लोग के कर्मचारी यूनियन का नेता मेरे पिता के सम्मुख अपनी मांगें रखते समय प्रयोग में ले आया करता—--”शारीरिक दुख भी भोग रहे हैं और मानसिक आघात भी। एक चित्रकार के लिए अपना हाथ गंवाना बिल्कुल वैसा ही है जैसा एक धावक के लिए अपना पैर गंवाना या एक गायक के लिए अपनी आवाज़…...”
“पचास हज़ार गिन तो दिए हम ने,” मेरे पिता ताव खा गए, “ऊपर से बिना काम लिए उस की झोली में उस की पगार पहुंचा रहे हैं । और क्या चाहिए उसे? उस की खेती जा जोतें? या फिर अपनी प्रैस उस के नाम कर दें?”
“मैं अब चलूंगी,” आशा ने मेरी ओर देखा।
“मक्कारी कोई इन गरीब लोग से सीखे,” मेरे पिता फिर उबले,” बाप तुम्हारे ने मुझ से तो जो ऐंठा,सो ऐंठा ही। मगर अब जो वह तुझे मेरे बेटे पर डोरे डालने यहां भेज रहा है,उसे क्या कहा जाए!”
आशा ने मेरी ओर दोबारा देखा। उस की आंखों में अंगारे रहे।
लज्जित मुद्रा में मैं अपनी मेज़ पर अपनी उंगलियां बजाने लगा।
कैसी सत्य परीक्षा थी यह!
आशा चाहती तो वह आसानी से कह सकती थी, वह जब भी यहां आई थी, तो हमेशा मेरे बुलाने पर ही आई रही थी। न केवल यही, बल्कि उस ने तो हमारे इस दीपावली विशेषांक के लिए अपनी सेवाएं भी प्रदान की थीं। बिना कोई पारिश्रमिक तय किए।
किंतु उस ने ऐसा कुछ नहीं कहा।
चुपचाप मेरे कक्ष से बाहर हो ली ।
क्या वह जानती थी उस के ऐसा कहने पर उस पल के हड़बड़िया मेरे पिता मुझ पर अंधाधुंध हज़ार सवाल दाग देते जिन में से नौ सौ निन्यानवे के उत्तर मेरे पास नहीं रहे।
क्या उस की इसी लिहाज़दारी के कारण निर्निमेष उस की वे आंखें आज भी जब- तब मुझ पर अंगारे बरसाने लगती हैं ?
विशेषकर उस समय जब किसी रेस्तरां में अपनी मंगेतर के साथ मैं सुस्वादु पकवानों का बिल चुका रहा होता हूं….
या फिर उस समय जब मेरी मां तीन महीने बाद पड़ रही मेरी शादी की तारीख पर अपनी बहू को देने वाले वस्त्र तथा आभूषण मुझे दिखला रही होती हैं…..
स्त्री- सुलभ,मंगलदायक, सगुनी और
अनिंद्य…..
पूर्व विमर्शित योजना के अंतर्गत हमारा वह दीपावली आभूषण विशेषांक मेरे पिता ने दशहरे पर ही बाज़ार में विमोचित कर दिया।
तीन हज़ार अतिरिक्त प्रतियों के साथ।
हाथोंहाथ उसे बिकता हुआ देख कर उन्हों ने उस की पांच हज़ार प्रतियां और निकलवा दीं।वे भी तत्काल बिक गईं।
“शाबाश बेटे,शाबाश,” आह्लादित हो कर उन्हों ने मेरी पीठ थपथपाई, “हमारा नववर्षांक इस से भी ज़्यादा ज़ोरदार निकलना चाहिए…….”
“मगर मैं कुछ और सोच रहा था,” बहुत दिनों से अपने अंदर घुमड़ रहे रोष को मैं बाहर अपनी ज़ुबान पर ले आया—--- उस दीपावली विशेषांक को अंतिम रूप देते समय उन्हों ने सलाहकारों की सूची में मेरे द्वारा सम्मिलित आशा के नाम पर अपनी दरांती चला दी थी—- “मुझे अब इस पत्रिका की सलाहकार समिति में नहीं रहना है….”
“तुम्हारा नाम तो उस समिति से हटाया ही नहीं जा सकता,” मेरे पिता हंस पड़े, “हां तुम उस का काम छोड़ना चाहो तो बेशक छोड़ दो। उसे मैं चला लूंगा….”