पुस्तकालय में उस समय अच्छी- खासी भीड़ थी।
इश्यू काउंटर पर अतिव्यस्त होने के कारण सुधा मुझे पुस्तकालय में प्रवेश करते हुए नहीं देख पायी।
चपरासी द्वारा मैं ने ही उसे संदेश भिजवाया कि उस के निर्देशक के कमरे में मैं उस की प्रतीक्षा कर रहा था।
हाथ का काम निपटा कर सुधा जब वहां पहुंची तो छुट्टी देने के मामले में कठोर व कंजूस रहते हुए भी उस के निर्देशक ने उसे मेरे साथ जाने की अनुमति सहजता से दे दी।
“क्या बात है?” निर्देशक के कमरे से बाहर निकलते ही सुधा कांपने लगी।
“अभी बताता हूं,” लंबे डग भर कर मैं उस विशाल भवन से बाहर हो लिया।
“क्या हुआ?” सुधा लगभग भागती हुई सी मेरे पीछे चली आयी।
“सुबह गहरी धुंध थी। स्कूल जाते समय नमिता की स्कूटी पुल पर सामने से आ रहे ट्रक से जा टकराई,” अपने स्कूटर के पास पहुंच कर मैं ने अपना हाथ सुधा की पीठ पर धर दिया।
परिवार में जब भी कोई प्रमुख घटना घटती मैं इरादतन उसे सुधा के संग अपने उलझाव को प्रकट करने का हीला बना लेता। मेरी घनिष्ठता के संकेत संवेदनात्मक भी रहते और स्पृश्य भी।
सुधा का रंग सफ़ेेद पड़ गया परंतु वह तनिक भी रोयी अथवा चीखी नहीं।
“ट्रक उसे कुचल कर आगे चलता बना,” विचलित हो कर मैं ने अपना हाथ उस की पीठ से हटा लिया।
“कुचल कर?” सुधा ने आभासित शांति बनाए रखी।
“पता मिलते ही मैं बाबूजी को ले कर अस्पताल पहुंचा,” मेरी शोकग्रस्त छवि ही इस अवसर के लिए अधिक उपयुक्त थी, “ खून से लथपथ नमिता को देखते नहीं बन पा रहा था ……”
मैं ने जेब से अपना रुमाल निकाल कर अपना नाक ढांप लिया। आज कल की फ़िल्मों में भी फ़िल्म निर्देशक अपने पात्रों को रुलाई के दृश्यों में आंखों की बजाए नाक से बह रहे पानी को संभालते हुए दिखाते हैं।
“बाबूजी कहां हैं?” बहन का शोक भुला कर बहन पिता के प्रति चिंतित हो उठी।
“वह अस्पताल में सरकारी नियमों से उलझ रहे हैं। डाक्टर कहते हैं जब तक सारी नियमितताएं पूरी न होंगीं हम नमिता का शव उठाने न देंगे…....”
“ बाबूजी को इस समय अकेले नहीं छोड़ना चाहिए ,” सुधा अपनी देह की कंपकंपी को नियंत्रित करने में पूर्णतया असमर्थ रही।
“मैं जानता हूं,” मैं ने अपना स्वर कोमल,अति कोमल कर लिया, “इस समय तुम्हारा बाबूजी के पास रहना बहुत ज़रूरी है। इसीलिए तो इतनी दूर तुम्हें लिवाने चला आया…….”
“चलिए,” सुधा तुरंत मेरे स्कूटर की पिछली सीट पर बैठ ली।
सुधा की उपस्थिति में ग़ज़ब का ख़मीर था। ऐसा ख़मीर जिस के स्पर्श मात्र से मेरे जीवन का स्वाद बदल जाता।
“तुम अपना हाथ मेरी पीठ पर रख लो,” स्कूटर चलाते ही मैं ने सुधा से विनती की, “ऐसा न हो,तुम कहीं गिर जाओ । ”
“नहीं। मैं सीट के स्प्रिंग को कस कर पकड़े हूं। मैं गिरूंगी नहीं,” सुधा ने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया।
स्कूटर के सामने वाले शीशे में मैं ने स्पष्ट देखा,सुधा की आंखों से आंसुओं की अविरल धारा रास्ते भर बहती रही,परंतु प्रत्यक्ष में एक भी सिसकी,एक भी आह सुनाई न दी।
मैं उसी गुदगुदाहट से भर उठा जब मैं नमिता को जब- तब अपने आंसू अथवा क्रोध छुपा लेने के मूर्खतापूर्ण प्रयास करते हुए देखता था।
इस परिवार की लड़कियों को भ्रम नहीं तो क्या था जो समझतीं कि जब तक वे अपने विद्रोह अथवा व्यथा के तूफ़ान को अपने अंदर समेटे रहेंगी तब तक उनकी निरुपायता के रहस्य अक्षुण्ण बने रहेंगे………
………… परिवार से मेरा परिचय उन के पिता के माध्यम से हुआ था,जो उसी अखबार में एक पुराने कंप्यूटर आपरेटर थे जहां दस साल पहले मैं ने अपनी पहली नौकरी शुरू की थी।
परिवार में वे पांच लड़कियां थीं। दूसरे नंबर की नमिता को छोड़ कर सभी पिता के घर पर पड़ीं थीं।
सब से बड़ी, सुजाता, विधवा थी। छः वर्ष पहले उस के पति को दिल का जो दौरा पड़ा तो वह तुरंत चल बसा। सुजाता के ससुराल वालों ने शीघ्र ही उस पर स्पष्ट कर दिया कि अब उसे अपने तथा अपनी दोनों बेटियों के भरण- पोषण के लिए अपने मायके लौटना होगा।
तीसरे नंबर की वनिता का विवाह दहेज न देने के लोभ में एक ऐसे युवक से कर दिया गया था जो नौर्वे से केवल दस दिन के लिए भारत आया हुआ था। विवाह के चौथे दिन उस ने वनिता पर यह प्रकट कर दिया कि वह उस के साथ नौर्वे तभी जा पाएगी जब उस के बाबूजी उन दोनों की टिकटों का प्रबंध कर देंगे। जल्दी में एक ही टिकट का प्रबंध हो पाया था और उस पर वह लड़का नौर्वे लौट गया था। फिर जब पांच महीने तक उस लड़के ने वनिता की सुध न ली थी और उस को भेजे गए सभी पत्र, सभी संदेश,सभी कौल्ज़ निरुत्तर रहे थे और वनिता के ससुराल वालों पर दबाव डालने पर वहां से दो- टूक उत्तर मिला था : नौर्वे जा कर पता कीजिए तो मन मसोस कर अंततः वनिता ने अपने लिए फिर यहीं नौकरी ढूंढ ली थी। ऐसी परित्यक्ता का दूसरा विवाह भी अब असंभव ही था।
चौथे नंबर की कविता को भी दुर्भाग्य की तेज़ झोंका- भट्ठी ने न बख्शा था। जिस परिवार में अपने सामर्थ्य से बढ़ कर दहेज दे कर उसे ब्याहा गया था,उसे कविता फूटी आंख न सुहाई थी और उन के लोभ व अत्याचार से बचने के लिए वह पिता के घर लौटने पर विवश कर दी गई थी।
पांचवी सुधा थी जो अद्भुत लावण्य की स्वामिनी होते हुए भी पिता की साधन-विहीनता तथा भयार्तता के कारण जीवन- पर्यंत अविवाहित रहने के लिए बाध्य थी।
नमिता से मैं ने मजबूरी में शादी की थी। आठ वर्ष पहले। उसे तब हाल ही में एक सरकारी स्कूल में अध्यापिका की पक्की नौकरी मिली थी और उस के मासिक कोष को मैं अपनी सुविधानुसार तात्कालिक प्रयोग में लाना चाहता था। उन दिनों जिस कमरे में मैं किराए पर रहता था वह एकदम खाली था और मेरी तनख्वाह तब ऐसी न थी जो मुझे वृत्तिमूलक उपकरण शीघ्र उपलब्ध करा सकती। मेरे पिता कस्बापुर के एक दूरवर्ती और पिछड़े गांव के एक स्कूल के हेडमास्टर थे।तीन बहनों और दो भाइयों में मैं चौथे नंबर पर था। बचपन से ही मैं मेधावी और उपाय-कुशल रहा। बारहवीं तक अपने पिता वाले स्कूल में निःशुल्क पढ़ा और फिर एक कृपालु पुलिस अफ़सर के संरक्षण व सहायता से इस बड़े शहर की यूनिवर्सिटी व उस के छात्रावास में मैं दाखिला पा गया। पढ़ने के साथ-साथ एन.सी.सी., एन.एस.एस., हाकी, वाद-विवाद तथा गीत-संगीत में भी जम कर नाम कमाया।मेरे सभी सर्टिफ़िकेट तथा जन- संपर्क मेरे काम आए और अपने इस समाचार- पत्र में एक प्रमुख संवाददाता के रूप में स्थापित होने में मुझे अधिक समय नहीं लगा।
शादी करते ही इस शहर में मेरी जड़ें और मज़बूत हो गयीं।
घर में कुर्सियां आयीं। मेज़ आयीं। मेरी तनख्वाह बढ़ी। टेप- रिकार्डर आया। टेलिविज़न आया।
नमिता की तनख्वाह बढ़ी। नमिता के परिवार के पड़ोस में घर लिया गया ताकि आने वाले अनिल के पालन-पोषण में उस के परिवार की सेवाएं मिलती रहें। अनिल आया। अनिल का पालना आया।
मेरी तनख्वाह बढ़ी। खिलौने आए।
नमिता की तनख्वाह बढ़ी। दूसरा बेटा सुमित आया। पलंग आए।
मेरी तनख्वाह बढ़ी। एक और कमरा किराए पर लिया गया। सोफ़ासेट आया।
नमिता की तनख्वाह बढ़ी।मेरी स्कूटी आयी।
मेरी तनख्वाह बढ़ी।मेरा स्कूटर आया और मेरी स्कूटी नमिता के काम आने लगी।
नमिता के दाह के बाद भी कई दिनों तक पूरा परिवार शोकग्रस्त रहा।
उनका विषाद व विलाप इतना गहरा था कि मैं ने धैर्य रखने में ही अपनी भलाई देखी।
जब परिस्थितियां मुझे अनुकूल लगीं तो मैं ने नमिता के पिता को अपने कक्ष में बुलाया।
“बच्चों को अब मैं वापस घर पर लिवा लाना चाहता हूं,” बुढऊ जैसे ही मेरी सामने वाली कुर्सी पर बैठा, मैं ने भूमिका बांधी, “आखिर वे कब तक आप के पास बने रहेंगे?”
“अभी कुछ दिन और उन्हें वहीं रहने दीजिए,” बुढऊ तुरंत आंसू गिराने लगा।
“ये दिन बड़ी यातना के हैं,” मैं ने अपना हाथ माथे पर फेरा, “रसोई के खाली बर्तन मेरा मुंह ताकते हैं। धूल- सने कपड़े मुझे मुंह चिढ़ाते हैं और सूने कमरे मुझे काट खाने को दौड़ते हैं। सोचता हूं बच्चों के संग सुधा को भी विधिवत घर ले आऊं……”
“आप सुधा को ठीक से जानते नहीं,” बुढ़ऊ चतुराई पर उतर आया, “वह आप का घर- बार नहीं संभाल सकेगी।”
“आप उसे कहीं तो ब्याहेंगे ही न!” मैं ने बुढ़ऊ की दुखती रग छेड़ी, “किसी न किसी का घर-बार तो वह संभालेगी ही न!”
“सुधा बहुत ज़िद्दी है । कहती है मैं कभी ब्याह न करूंगी…..”
“उस की बात मानने की भूल कभी मत करिएगा,” मुझे अपनी झल्लाहट पर कड़ा नियंत्रण रखना पड़ा, “ हमारे हिंदू शास्त्रों में स्पष्ट निर्देश है - कन्या के पिता को कन्यादान करने पर ही सद्गति प्राप्त होगी।”
“मृत्यु के बाद जो दंड मुझे मिलेगा वह मैं सह लूंगा,” बुढऊ टस से मस नहीं हुआ, “परंतु ज़िंदगी रहते मैं सुधा की इच्छा के विपरीत कभी नहीं जाऊंगा …..”
“सुधा को मनाने का ज़िम्मा मेरा रहा,” मैं ने पैंतरा बदला, “आप के घर पर आज मैं शाम सात बजे आऊंगा और…… .”
“सुधा आप के लिए सर्वथा अयोग्य रहेगी, मैं जानता हूं। आप जैसे सुपात्र को रिश्तों की भला क्या कमी होगी? ऊंची कुर्सी पर बैठे हैं। मिनिस्टर क्या और अफ़सर क्या और भी कई बड़े से बड़े लोग आप को जानते- पहचानते हैं.. ..…”
“किंतु मैं जानता हूं सुधा मेरे लिए भी सही रहेगी,” मैं ने अपना आग्रह दोहराया, “और बच्चों के लिए भी……”
“सुधा बहुत ही लापरवाह और गैर- ज़िम्मेदार लड़की है,” बुढ़ऊ ने फिर आंसू गिराए, “मेरी नमिता सरीखी नहीं। जो पृथ्वी के समान थी। धीर, गंभीर और सहनशील……”
“नमिता का शोक मुझे भी कम नहीं,” मैं भी बुढ़ऊ के नाटक में सम्मिलित हो लिया, “किंतु जीवन हम से साहस मांगता है। धैर्य मांगता है …….”
“क्या करूं?” बुढ़ऊ का क्रंदन बढ़ चला, “मेरे पास अब धैर्य नहीं रहा…अंश- मात्र भी नहीं…नमिता ने मेरी बूढ़ी आंखों के सामने दम तोड़ा है…….”
“आप घबराइए नहीं,” अपनी कुर्सी से उठ कर मैं बुढ़ऊ के पास जा खड़ा हुआ और उस के दोनों कंधो पर मैं ने अपने हाथ टिका दिए, “मैं सदैव आप के साथ रहूंगा…..”
“मुझे एक हत्यारे का साथ नहीं चाहिए,” बुढ़ऊ ने तुरंत मेरे हाथ नीचे झटक दिए और कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।
“आप क्या कह रहे हैं?” मैं आश्चर्य से भर गया।
“आंखें मूंद लेने से पहले नमिता के होंठो ने ब्रेक शब्द बुदबुदाया था…..” बुढ़ऊ ने अपना वार जारी रखा।
“तो क्या हुआ?” मैं ने बुढ़ऊ को समझाने की चेष्टा की, “ ट्रक को सामने पाने पर नमिता ने स्कूटी की ब्रेक लगानी चाही होगी और वह विफल रही होगी……”
“वह इस लिए विफल रही क्योंकि घर के सौ काम निपटा कर जब वह हड़बड़ाहट में स्कूल के लिए निकली तो यह न देख पायी कि उस की ब्रेक से छेड़छाड़ की गयी थी। और अपने देहांत से पहले नमिता आप ही को दोषी बोल गयी है….. .”
नमिता का आरोप सही था परंतु मैं ने अपने होश- हवास कायम रखे।
“आप को ज़रूर सुनने या समझने में गलती हुई है,” मैं ने बुढ़ऊ को जबरन अपने अंक में ले लिया, “फिर भी मेरा यह सौभाग्य है जो आप ने अपनी गलतफ़हमी मुझ पर प्रकट की और उसे दूर करने का मुझे अवसर प्रदान किया।”
“मुझे क्षमा करें,” शायद मेरे कोमल, मृदु व धीमे स्वर ने बुढ़ऊ को छू लिया या शायद वह मेरे विरुद्ध कोई ठोस सबूत अथवा साहस नहीं जुटा पाया, “नमिता के वियोग ने मुझे विक्षिप्त कर दिया है । मैं कई बार अंट- शंट बकने लगता हूं।”
“इसी सप्ताह आप की सुविधानुसार किसी भी दिन एक सादे से समारोह का आयोजन कर लेंगे,” बुढ़ऊ की कांप रही देह को मैं ने अपनी बाहों की देक दी, “और बच्चे सुधा के साथ यथापूर्वक घर लौट आंएगे……”
“वे बच्चे तो देवपुरुष हैं,” बुढ़ऊ ने मेरी टेक अस्वीकारी, “उन्हें तो कोई भी बहला लेगा। आप जिस किसी से भी दूसरी शादी करेंगे,वे देवपुरुष उसी का दिल जीत लेंगे……”
बुढ़ऊ की दृढ़,अडिग नीति- घोषणा के सम्मुख घुटने टेकने पर मैं बाध्य रहा और अपनी मर्यादा बनाए रखने के लिए हांक दिया, “हां शादी के लिए मुझे प्रस्ताव तो कई आ रहे हैं,किंतु …….”
“आप बहुत समझदार हैं,” बुढ़ऊ अपने मुख पर विदा- मुद्रा ले आया, “आप अवश्य ही सही जगह पर ‘हां’ करेंगे ……..”
“फिर मिलेंगे,” बुढ़ऊ को मैं ने रोका नहीं।
उस समय उस का वहां से चले जाना ही बेहतर था।
मुझे एकांत चाहिए था…….
एकांत में मैं रोना चाहता था…….
सचमुच का रोना…….
जीवन ने क्यों मुझे समग्र व सर्वांगिक प्रेम से अलग- थलग व वंचित रखा ?
मेरे भीतर रहस्यमय उस ख़मीर की लालसा व अनुपस्थिति क्यों इतनी दुस्साध्य रही ?
यकीन मानिए,मैं शोक मनाना चाहता था……
नमिता के निमित्त नहीं……
केवल अपने हेतु…….