न जाने कौन सा क्षण था वह; जब मंदिर में पंडितजी की सुनी हुई एक बात, ब्रह्मवाक्य बनकर मेरे मन में ऐसे बस गई कि मैं उसे जीवन भर न भुला सकी। आज जीवन के तीसरे पड़ाव पर भी वह बात मेरे जीवन का मूल मंत्र बनी हुई है, वैसे ही; जैसे जीवन के तीसरे पड़ाव पर भी शिवलिंग पर जल चढ़ाने का नियम उसी तरह निबाह रही हूं जैसे पहली बार प्रारंभ किया था। उस समय परिवार में इस नियम के प्रति मेरे आस्मिक निर्णय पर माँ को आश्चर्य भी हुआ था, क्योंकि ऐसे धार्मिक कार्यों के प्रति न तो कभी मेरी दिलचस्पी रही थी और न कभी इच्छा। बहरहाल इस बात को मुझे 'सद्बुद्धि आ जाने वाली घटना’ समझकर अधिक प्रश्न नहीं हुए और मेरा यमुना किनारे बने मंदिर में जाने का क्रम शुरू हो गया। यूँ तो वह क्षण और बातें मैं कभी भूली ही नहीं थी लेकिन आज जाने क्यों; शिवन्या के मित्र का 'व्हाट्सएप स्टेटस' पढ़कर मेरे रोम-रोम में फिर से 'उसकी' यादों का दीया जलने लगा।
"क्या सोचने लगी माँ? बताओं न कैसा है, शिवा?" शिवन्या ने मुझे विचारों से उभार कर अपना सवाल दोहराया।
"बहुत सुंदर बिटिया, ‘पिक’ भी और ‘स्टेटस’ भी। पर ये इतना अच्छा स्टेटस कहाँ से पढ़कर लगाया उसने।" मैं अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाई।
"स्टेटस क्या माँ? शिवा तो बातें भी बहुत अच्छी करता है।" शिवन्या उत्साह से बताने लगी। "उसका कहना है, ये अच्छी-अच्छी बातें वह अपने पापा से सीखता है। सच माँ, बहुत अच्छे है
शिवा और सागर अंकल!"
"सागर. . .!" उसके शब्दों ने एकाएक मेरे दिल की धड़कन बढ़ा दी। किसी तरह ख़ुद पर नियंत्रण किया और ‘अच्छा-अच्छा अब ये प्रशंसा के ढोल मत बजा। जा, जाकर कल के एग्ज़ाम की तैयारी कर ले।’ कह कर मैंने शिवन्या को टाला। शिवन्या अपने कॉलेज के इस मित्र की चर्चा कई बार कर चुकी थी। उसकी बातों से लगता था जैसे वह मुझे शिवा के साथ अपने विवाह के प्रस्ताव के लिए मानसिक रूप से तैयार कर रही हो। इसमें कुछ गलत भी नहीं था। अपने पिता से अधिक वह अपने मन की बात मुझसे ही करती थी। लेकिन मैं शिवा और उसके परिवार के बारे में पूरी तरह जानने से पहले कोई हाँ-न या उसके पिता से कोई चर्चा नहीं करना चाहती थी। शिवन्या का ‘व्हाट्स एप्प स्टेटस’ अभी भी मेरी आखोँ के सामने था। "निश्चल प्रेम, शाश्वत ईश्वर का ही रूप है, और ऐसा प्रेम मिलन की परिधियों से कोसों दूर होता है।" शब्दों का यह आकर्षण धीरे-धीरे मुझे अपने अतीत की ओर खींच रहा था, और जाने कब ये शब्द मुझे यमुना किनारे बने उस मंदिर में ले गए, जहां से मेरी इस कहानी की शुरुआत हुई थी।
* * *
पंडितजी से हमारे परिवार के अच्छे संबंध थे। पूरे गांव की तरह हम भी उन्हेँ ‘बाबा’ के नाम से ही पुकारते थे। उनके यहां हमारा जाना अक़्सर होता था, और वहीं मैंने कुछ क्षण के लिए मंदिर में शंकरजी की पूजा करते हुए 'सागर' को पहली बार देखा था। हाँ, सागर नाम था उसका। देखने में सागर की तरह ही बाहर से शांत लेकिन भीतर एक तूफ़ान छिपाए हुए। गाँव की नदी पर बन रहे पुल के लिए एक इंजीनियर बन कर आया था गाँव में। माँ से ही सुना था कि नीचे का सर्वेंट रूम पंडित जी के कहने पर उनके परिचित को किराए पर दे दिया है रहने के लिए। 'आगे से उधर मत जाना' की बात भी सुना दी गई थी। और फिर करीब महीने भर तक तो जान भी नहीं सकी थी, कि वह सागर ही था। वह कब घर में आता कब चला जाता, कुछ पता नहीं था?
फिर एक दिन. . . सुबह का समय था जब पहली बार जाना, और देखा था इतने करीब से। उठने के बाद, कमरे की खिड़की के बाहर आंगन में कुछ खटर-पटर होते देख खिड़की को खोला तो उसे बाहर की ओर जाते देखा। पता नहीं; खिड़की खुलने की आवाज थी या मेरी उपस्थिति की आहट, लेकिन ठीक उसी समय उसने भी पलटकर देखा। कुछ देर तक जैसे समय थम गया था, वह मुझे और मैं उसे देखती रही थी। यह तो याद नहीं कि पहले किसने आँख झपकाई थी, लेकिन उसके बाद तो जैसे यह टाइम प्लानिंग ही हो गई थी कि जैसे ही मैं सुबह खिड़की खोलती, वह मेरी ओर ताकता नजर आता। अगले कई दिनो तक शायद यही चलता रहा, एक पलक भी झपकाएं बिना उसको देखना और फिर दूसरे दिन की प्रतीक्षा पर दिन का बीत जाना।
"वैसे यह बाबू, बहुत भला लड़का है, कोनो परेशानी नहीं होत है उसके रहने से।" एक दिन माँ ने घर में उसका जिक्र होने पर अपनी बात कही थी।
"हमने कोनो कोई नातेदारी निभानी है, बस किरायेदारी भले से कट जाए।" पिता ने अपनी आदत के अनुरूप जवाब दे मारा था माँ के सामने।
लेकिन जाने क्यों इन बातों से मन के किसी कोने में एक उमंग सी उठ गई थी, जैसे माँ ने नातेदारी की ही बात की हो। खैर, दिन बीत रहे थे; न कभी मेरा और सागर का सामना हुआ और न ही खिड़की से एक नजर का मिलना बंद हुआ। जैसा आमतौर पर होता है कि कोई भी अपरिचित जब कुछ पुराना हो जाता है, तो उसके प्रति चौकन्नापन सहज ही कम हो जाता है। ऐसा ही सागर के लिए भी हुआ। अब वह यदा कदा आंगन में भी नजर आ जाता लेकिन अब तक उसने कभी भी ऊपर की सीढियों पर कदम नहीं रखा था। लेकिन एक दिन. . . भरी दोपहरी का समय था, पिता शहर गए हुए थे और माँ गाँव की ही किसी पूजा में गई हुई थी। मैं अपने किसी कार्य में लगी थी, जब बाहर के दरवाजे पर घँटी बजी थी।
मैंने अंदर से ही पुकार कर पूछा था, 'कौन है बाहर' जवाब में सागर की आवाज आई थी। "मैं सागर।"
"आप, इस समय!" मैंने बाहर का दरवाजा खोलते हुए उसे सवालिया नजरों से पूछा था।
"जी। दरअसल थोड़ा अस्वस्थ सा लग रहा था, इसलिये जल्दी लौट आया।" कहते हुए सागर अपने कमरे की ओर चल पड़ा था।
"कहीं बुखार तो नहीं है, यदि कहें तो चाय बना देती हुँ, दवाई ले लीजिए।" जाने कौन सी भावना के चलते मैंने इतना बोल दिया था।
"जी दवाई तो ले चुका हुँ, हाँ चाय मिल जाए तो बेहतर होगा।" कहते हुए वह अपने कमरे में प्रवेश कर चुका था।
पहली बार घर में किसी बाहरी पुरुष के साथ इस तरह बात की थी। थोड़ी सी घबराहट भी थी, लेकिन फिर भी कुछ ही देर बाद मैं, एक कप चाय और कुछ बिस्किट लेकर उसके कमरे में थी। चाय का कप सीधे ट्रे से उसके हाथ में देने के प्रयास में ही मुझसे जरा सी चूक हो गई थी। हल्की कंपकपाहट और थोड़ी घबराहट के बीच कांपते हाथ से छलके कप की कुछ बूंदे चाय सागर के हाथों पर जा गिरी, और यही वह क्षण था, जब मेरा हाथ उसके हाथ पर रखा गया। एक क्षण में ही उसका मुझे निहारना अंतर्मन तक को हिला गया था। पता नहीं कुछ बूंद चाय की तपिश थी वह, या पहली बार किसी पुरूष के हाथ से छुए हाथ की ज्वाला। क्षण भर के लिए वह तपिश हाथ से होते हुए पूरे शरीर में दौड़ गई थी। मन कह रहा था कि समय थम जाए और लज्जा कह रही थी कि ग़लत है यह। शायद लज्जा ने उस तपिश को पीछे छोड़ स्वयं को बचा लिया था। हाथ छुड़ा अपने कमरे में लौट आई थी मैँ, लेकिन शायद वह तपिश तो एक इंजेक्शन की तरह थी जिसका प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा था। साथ ही बढ़ती जा रही थी, वह तपिश। पलकों से होने वाली शुरुआत अब हाथ की तपिश पर आ टिकी थी। पुस्तकों में दिखाई देने वाले शब्द प्रेम के प्रतीक लगने लगे थे। हर क्षण यही अनुभव होता कि शायद सागर मेरे सामने खड़ा है और उसकी आँखें मुझे निहार रही हैं उस दिन से न तो मन पढ़ाई में लग रहा था न किसी काम में। किसी न किसी बहाने से खिड़की पर जाती, नीचे देख लेती। कहीं… कोई नहीं दिखता लेकिन मन कहता, कि एक बार फिर से वही तपिश मिल जाये।
कहते हैं संस्कारों की शक्ति बहुत मजबूत होती है लेकिन हम इसे अपनी कामनाओं के वशीभूत कमज़ोर कर डालते हैं। यही तो हुआ था उस दिन। शायद मन में छिपी तपिश ने ही बड़ी ही ख़ामोशी से संस्कारों की जंजीर को काट डाला था। और फिर एक दिन. . .
"अरे आप आज जल्दी आ गए?" कमरे के दरवाजे पर सागर को देख हैरान हो गई थी मैं, घर में उस दिन मैं फिर अकेली थी।
"हाँ, वो आज साइट पर काम नहीं था। ये कुछ लाया था तुम्हारे लिए।" बहुत ही तत्परता से अपने शब्द कहते हुए उसने, हाथ में पकड़ी एक छोटी सी डिब्बी मेरी ओर बढ़ा दी थी।
"आप बैठिये न... चाय बनाऊं क्या? माँ नहीं है घर पर।" इतना सब कहते हुए मैं जानती थी कि वह माँ के बारे में अवश्य जानता होगा, नहीं तो वह दरवाजे तक कभी नहीं आता।
"नहीं, चाय रहने दो। बस इसे पहन कर देखो न एक बार।" दी हुई डिब्बी की ओर इशारा करते हुए उसने एक ही सांस में कह दिया था।
"क्या है ये?" कहते हुए मैं डिब्बी को खोलने में जुट गई, लज्जा जाने कहाँ छुप गई थी? कुछ नहीं बोला वह, बस देखता रहा।
आधुनिक डिज़ाइन की सुंदर सी सोने की चेन थी डिब्बी में। जाने उसने कब; माँ और मेरे बीच हुई, माँ के गले में पड़ी चेन की चाहत पर हुई बात को सुन लिया था। चेन को हाथों में लिए कुछ देर के लिए खो ही गई थी अपने आप में। चौंकी जब, जब वह मेरे हाथ से चेन लेकर बिल्कुल मेरे पास आ खड़ा हुआ था। मन कह रहा था कि वह अपने हाथों से चेन पहना दे मुझे, छू ले मुझे। एक बार फिर से उसी तपिश से जल उठे मेरा तन-मन। और चेतना कह रही थी, "मेघा. . . रोको उसे, वरना जल जाओगी।" मन जीत रहा था और चेतना हारती जा रही थी, और शायद मैं खुद भी तो यही चाहती थी कि हार जाए चेतना, हार जाए मेरा पूरा वजूद। उसके हाथ मेरे गले के इर्द गिर्द घूम रहे थे और उसकी सांसें मेरे अंतर्मन को मदहोश कर रही थी। न चाहते हुए भी उसका स्पर्श अच्छा लग रहा था। समय ठहर गया था और उसका स्पर्श अपनी सीमाओं को पार करने लगा था कि अचानक, दीवार पर लगी घड़ी के तीन बजे के घँटों ने चाबुक बनकर प्रहार किया था हम पर। जैसे एक झंझावात सा आ गया, एक बिजली सी कौंध गई और "नहीं, नहीं... नहीं!" कहता हुआ सागर कुछ ही क्षण में अपने कमरे में जा चुका था। और मैं उस तपिश के जलते रेगिस्तान में प्यासी ही अपने बिछौने पर ढह गई थी।
जाने कितने दिनों तक मेरे अंदर एक अंतर्द्वंद चलता रहा था। मन कहता, क्यों ठहर गया तूफान आते-आते और चेतना कहती; अच्छा हुआ जो तूफान नहीं आया, नहीं तो जाने क्या हो जाता? लेकिन यह अंतर्द्वंद की धारा तो सिर्फ़ मेरे अंदर थी। सागर, सागर तो इस धारा के एक किनारे पर कब का लग चुका था? इसका पता भी मुझे तब लगा था, जब महीना बदलने के साथ मेरी आँखों के सामने ही वह, सिर्फ कमरा ही नहीं बल्कि गांव भी छोड़कर चला गया।
यूँ ही कई दिन बीत गए और इसी अंतर्द्वंद और असमंजस की भावना के बीच, जब एक दिन 'बाबा' के पास जाना हुआ, तो बाबा ने सागर का लिखा पत्र मेरे हाथ में थमा दिया। मुझे ये जानकर आश्चर्य हुआ कि बाबा हमारे बीच की बात को पूरी तरह जानते थे। पत्र का एक-एक शब्द मेरे प्रश्नों का उत्तर दे रहा था।
“मेघा..., जानते हैं हमारे इस तरह जाने से तुम्हारे मन में जाने कितने प्रश्न आ रहे होंगे? लेकिन सच कहें, सब कुछ बताने का हमारे पास अवसर नहीं था। और अवसर मिलने पर कहने की हिम्मत भी कर पाते या नहीं, कह नहीं सकते। मेघा, प्रेम तो हमें तुमसे; पहली बार देखने पर ही हो गया था, और उस दिन तुम्हारे हाथ की चाय पीने के बाद तो ये निश्चय कर ही लिए थे कि अब अपने प्रेम की बात तुम्हें बता कर ही रहेंगे। और फिर एक दिन तुम्हारी और माँ जी की बात के बीच, तुम्हारी 'चेन' की इच्छा सुनकर ही हम चेन खरीद लाए थे। लेकिन उस दिन जो कुछ हुआ या होने जा रहा था, उस घटना ने हमें अंदर तक हिला दिया।
मेघा! हम तुमसे प्रेम करते हैं, और हमेशा करते रहेंगें, लेकिन हम तुम्हें इस प्रेम में कोई वचन नहीं दे सकते। और तुमसे कोई वचन लेना भी नहीं चाहेंगे, क्योंकि प्रेम का अर्थ किसी को बांधना नहीं होता। मेघा! हमारा मिलन होगा या नहीं, ये तो हम नहीं जानते लेकिन हम ये कभी नहीं चाहेंगें कि हमारे प्रेम की धारा कभी; किसी भी रूप में कलुषित हो। बस इस लिए उस दिन, उन क्षणों ने हमें अंदर तक डरा दिया था। हो सकता है तुम हमें ‘कायर और जाने क्या-क्या’ समझने लगी होगी; लेकिन एक बात जरूर कहना चाहेंगे, जिस दिन प्रेम और वासना का अंतर समझ जाओगी, उस दिन हमारे अन्तर्मन के प्रेम को भी जान जाओगी।
दोबारा मिलने की आस में. . .
सागर !
भरे दिल से, पत्र पढ़ती नम आँखों की नमी का पूरा रहस्य जाने कैसे बाबा ने जान लिया था। स्नेह से सिर पर हाथ रख, प्रेम से समझाने लगे। "बेटा, प्रेम हमेशा कुछ पा लेने का ही नाम नहीं होता। बेटा, निश्चल प्रेम तो शाश्वत ईश्वर का रूप होता है, और ऐसा प्रेम मिलन की परिधियों से कोसों दूर होता है। अपने अंतर्द्वंद की भावना को त्याग कर भगवान शिव की आराधना करो। प्रभु ने तुम्हारे लिए जो निश्चित किया होगा, वह अवश्य तुम्हे मिलेगा।"
समय की धारा; नदिया की उस धार की तरह होती है, जिसने कभी रुकना नहीं सीखा होता। घंटे दिनोँ में और दिन सप्ताह में बदलते चले गए। शुरू-शुरू में बाबा के पास आने वाले पत्र उसकी कुशलता और उसके मिलने की आस जगाते रहे, लेकिन जल्दी ही इनका सिलसिला टूट गया। और फिर एक दिन बाबा के पास आख़िरी पत्र भी आया हमेशा के लिए भूल जाने का। ऐसा लगा मानों बाबा ने मेरे लिए झूठ का एक आवरण तैयार किया था, शायद मेरी अपरिपक्व प्रेमाग्नि को शांत करने के लिये। लेकिन अब तक मैं अपनी सारी भावनाएँ, सारी इच्छाएँ भगवान शिव को अर्पित कर चुकी थी और मेरी प्रेमाग्नि एक आराधना में परिवर्तित हो चुकी थी। हाँ दिल के किसी कोने में सागर के लिए प्रेम भावना होते हुए भी एक अनचाही सी वितृष्णा जन्म ले चुकी थी, जिसने समय के साथ इसे मन की गहराई में छुपा दिया और मैं एक सामान्य स्त्री की तरह विवाह के बाद तन-मन से अपने पति के घर संसार में रच-बस गई।. . . .
* * *
"माँ यह हैं सागर अंकल, शिवा के पिता।" शिवन्या की आवाज से मैं फिर वर्तमान में लौट आई थी. . .। वह जाने कहाँ से ढूढंकर अपने कॉलेज-फंक्शन के फोटोग्राफ्स ले आई थी। फ़ोटो में अवार्ड लेते शिवा के पास खड़ा सागर मुस्करा रहा था, अब शक की कहीं कोई गुंजाइश नहीं थी। उसके करीब ही खड़ी थी; मुझसे कुछ ही बड़ी लेकिन एक सुंदर प्रौढ़ा स्त्री, शायद शिवा की माँ थी वह।
वर्षों बाद एकाएक सागर को, वो भी किसी और के पहलू में देख दिल कराह उठा। "क्या इस स्त्री के लिए सागर ने मुझे भुलाया था।
"माँ, सुंदर है न शिवा की ममा।”
"बहुत सुंदर, शिवन्या ये शिवा तुझसे थोड़ा ही बड़ा होगा न!" मैंने अपने मन के भाव छुपाते हुए पूछा, मानो सागर के विवाह का अंदाज़ा लगाना चाह रही थी।
"नहीं माँ, मुझसे तीन ही वर्ष बड़ा है वह, लेकिन क्यों...?"
"नहीं, कुछ नहीं, वैसे ज्यादा बड़ा नहीं लगता!" मैं गंभीर सोच में थी कि ये कैसे हो सकता है, क्या सागर गांव आने से पहले विवाहित था।
"माँ. . .!" एकाएक शिवन्या भी गंभीर हो गई। "तीन वर्ष का ही अंतर है हमारा, लेकिन क्या है कि तीन-चार वर्ष की उम्र में ही अपने पिता को खोने के दुःख ने बचपन से ही उसे इतना धीर-गंभीर बना दिया है।"
"क्या...? यह बात मुझे हतप्रभ करने वाली थी।
"हाँ माँ, सागर अंकल शिवा के चाचा हैं, उसके पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने उस दुःखद हालात में अपनी सारी इच्छाएं छोड़कर शिवा की ममा को. . .!"
शिवन्या अपनी बात कहे जा रही थी और मेरे मन में वर्षों से सागर के लिए जमी अनचाही वितृष्णा की बर्फ पिघलती जा रही थी। आज मैं समझ रही थी बाबा के ब्रह्मवाक्य के क्या मायने थे, सच में प्रेम हमेशा कुछ पा लेने का ही नाम नहीं होता। आज मैं सही अर्थोँ में सागर के अन्तर्मन के प्रेम को समझ गई थी. . . !
विरेंदर वीर मेहता