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यह काफी अंडर रेटेड फिल्म रही, अभी जनवरी 25 में जी फाइव पर रिलीज हुई है। ट्रेलर सामान्य सा तो कुछ देखने का मन नहीं हुआ। फिर एक हफ्ते बाद किसी ने कहा कि फिल्म देखो अच्छी है। देखी दो चार मिनट तो सामान्य सी घर घर की कहानी। वही घर परिवार के काम करती स्त्रियां। तो नहीं देखी, फिर कुछ दिनों बाद कहां किसी ने की पूरी देखी?
तो फिर लगा कि क्या खास बात है इस बिना किसी स्टार वाली फिल्म में? तय किया कि पंद्रह मिनट देखता हूं नहीं जमी तो नहीं। पंद्रह मिनट, तीस मिनिट बीतने के बाद ऐसी स्थिति थी कि फिल्म पूरी किस मोड़ पर होगी यह तय करना मुश्किल।
कहानी, अभिनय और ट्रीटमेंट
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कहानी की खूबसूरती उसकी सिंपलिसिटी है। कुछ भी अखरने वाला नहीं। अच्छे डॉक्टर और उसके डीसेंट परिवार की जिंदगी, नई बहु का एडजस्टमेंट सब सलीके से। कोई भी आम फिल्मों जैसी बाधाएं नहीं। पूरी तरह हर दूसरे भारतीय परिवार की कहानी।लेकिन जो निष्कर्ष निकाला और उसके जिम्मेदार जो हालात थे, वह बेजोड़। आप कुछ कह नहीं सकते कौन अधिक दोषी है ? परिवार, हालात या फिर खुद स्त्री?
कहानी प्रारंभ होती है,
नायिका (सान्या मल्होत्रा)ऋचा, सामान्य परिवार की स्नातक और नृत्य में प्रवीण लड़की है। माता पिता की सहमति से एक डॉक्टर के डॉक्टर बेटे से अरेंज मैरिज हो जाती है। कोई दहेज आदि की बात नहीं और एक सामान्य काम से काम रखने वाला छोटा परिवार। बहु सहित कुल चार लोग बिल्कुल सामान्य भारतीय। घर के हाथ के पिसे मसाले, सिलबट्टे पर बनी चटनी, क्योंकि उसमें पौष्टिक तत्व होते हैं, और ऐसी ही छोटी छोटी बातें। डॉक्टर पति समय पर क्लीनिक और सासू मां कार्य करती और नई बहु धीरे धीरे खुशी से काम सीखती चलती। सब कुछ ठीक ठाक, जैसा आपके हमारे परिवार में होता है।फिर धीरे धीरे नई बहु को काम के लिए ट्रेंड किया जाता है।खामोश सास चुपचाप डॉक्टर ससुर के चप्पल से लेकर सुबह उठकर अजवायन के पानी का भी ख्याल रखती है।कंवलजीत सिंह ने ससुर की भूमिका बहुत सहजता से और बिना लाउड हुए निभाई है। विवाहित बेटी के बुलाने पर सास कुछ दिनों के लिए चली जाती है, बहु से पूछकर की तुम घर सम्भाल लोगी न?
सास के जाने की पहली सुबह से बहु खुशी और उल्लास से के करती है। अजवायन का गुनगुना पानी पर खास ग्लास में नहीं दे पाती। नाश्ता बनाना फिर चटनी मिक्सी में पीस दी तो चखते ही ससुर का मूड ऑफ।अगले दिन बिरयानी धीमी आंच पर कढ़ाई की जगह कुकर में पकाई तो ससुर बेटा खाना दही से खाते। कहीं कोई चिल्ला चिली नहीं, "यह जो कुकर में बना यह बिरयानी नहीं पुलाव हुआ न?दही होगा? उससे खा लेंगे।" बहु धीरे धीरे बुझती जाती है। पति रोज रात को मशीनी प्यार करता मानो कर्जा वसूल रहा हो। फिर एक नृत्य स्कूल में डांस टीचर के जॉब के लिए वह जाना चाहती है तो ससुर उसे आराम से रोकते हुए कहते हैं, " तुम्हारा नाम ऋचा डॉक्टर अनिरुद्ध कुमार है।तुम्हारी पहचान से खानदान की पहचान जुड़ी है बेटे जी।" बेहतरीन दृश्य है जब खुशी से हुलस्ती नायिका सारा घरेलू कार्य करके जा रही होती है इस दो घंटे के कार्य के लिए तो उसे मना कर दिया जाता है।वह धीरे से अपने चप्पल उतारकर अंदर चली जाती है।
दुखी होकर घर फोन करती है तो माता पिता कहते है कि घर के अनुसार ही चलो। धीरे धीरे सब ठीक होगा।
अपना क्लासिकल नृत्य का ओल्ड वीडियो वह देखती और सोचती रहती है। ऐसे कई दृश्य है जैसे, अपनी सहेली के घर डिनर टेबल पर जब सहेली का पति बर्तन आदि में मदद करता है तो उसका पति हेल्प के लिए उठता है । तब नायिका कह उठती है, "रहने दो, तुम घर पर भी जरा भी हेल्प नहीं करते।"
फिर रात को तमाम नाराजगी के बाद डॉक्टर पति को शरीर चाहिए।वह मन नहीं है , कल करें कहती है पर डॉक्टर साहब नहीं मानते। और मेरिटल रेप फिर दोहराया जाता है जो हिंदुस्तान के घरों में, अधिकांश स्त्रियों ने सहा है। किचन के सिंक के पाइप के लीकेज का जबरदस्त, सिंबॉलिक इस्तेमाल किया है संबंधों की रुकावट और बाधाओं को बताने के लिए।
आगे ऐसे ही कुछ घटनाक्रम हैं जब आम स्त्री टूट जाती है। पार्टी दृश्य इतना बेहतरीन और स्त्री के अरमानों के ताबूत में आखिरी कील सा लगता है। डॉक्टर पिता के बर्थडे पर घर में पार्टी है। सारा कार्य बहु कर रही। यह थोड़ा अधिक हो गया क्योंकि कोई अतिरिक्त मदद होनी चाहिए थी। फिर ड्रिंक्स, फिर शिकंजी की फरमाइश वह भी तीन अलग प्रकार की।
बहु का सब्र अब बांध तोड़ देता है। वह तुरंत किचन के ड्रेनेज पानी से ग्लास भर दे आती है।
कुछ देर में पिता पुत्र अंदर आते हैं और चिल्लाता है पति।
तो वह गंदे पानी से भरी बाल्टी उठाकर सारा पानी पति पर फेंक घर छोड़ चली जाती है अपने परिवार में।
कुछ दिन बाद उसके पिता कहते हैं डॉक्टर साहब से माफी मांग लेना सब ठीक हो जाएगा। पर वह नहीं जाती और मीटिंग में तलाक़ लेने का निर्णय सुनाती है।
बहुत सी स्त्रियां, लड़कियां यह भी समझौता करती हैं कि हम घर के सारे काम करके फिर आपकी अनुमति से नौकरी या हॉबी पूरी करेंगे। ऐसा लाखों नहीं करोड़ों कर रही, बीस तीस सालों से और वह निरंतर क्रूरता से पूरे घर का कार्य करतीं।जिसमें खाना बनाना
, टॉयलेट साफ करने से लेकर बच्चों को भी तैयार करना, नौकरी करने जाना, शाम को सजा संवरा मिलना। रात को पति की जब इच्छा हो उसे शरीर सौंपना भले ही स्त्री थकान और परेशानी से टूट रही हो। यह हिंसक, अमानवीय व्यवहार हर दूसरे घर में हुआ है और यह बात सभी महसूस करते हैं। कितनी विडंबना है हम कन्या, स्त्री को देवी मानकर पूजते हैं और उसी के साथ चारों दिशाओं, हर राज्य, शहर में ऐसा पारिवारिक क्रूरता का व्यवहार कर रहे हैं। वह कहेंगे, स्त्री सहमति से ही यह कार्य कर रही, न करे नौकरी हम खिला रहे हैं। दो वक्त का खाना और एक कोने के बदले में यह सब करना पड़ेगा?आप कुछ भी नहीं कर सकते और घुटते हुए जिंदगी जिएं या फिर ..? इसी सामंतवादी मानसिकता पर चोट करती है फिल्म मिसेज।क्यों स्त्री ही सारे समझौते, त्याग और अपने अरमान खत्म करेगी? पुरुष और परिवार के अन्य सदस्य नहीं, जरा भी नहीं? ऊपर से अन्य स्त्रियां उसे ही समझाती हैं कि , हमारे यह वैसे यह वैसे ।हमने तो यह यह किया। तुम्हे भी आदत डाल लेनी चाहिए।
फिल्म का आखिरी दृश्य है डॉक्टर परिवार में खाने ने गर्म गर्म फुल्के नई बहु परोस रही है और पिता कह रहे हैं, " कई बार पहला फुल्का फूलता नहीं है पर दूसरा फूलता है।"
उधर नायिका भी अपने शास्त्रीय नृत्य का स्कूल और अपना परफॉर्मेंस दे रही होती है।
फिल्म कई विचलित करने वाले सवाल उठाती है। उसके कोई युक्तिसंगत समाधान नहीं बताती।हो भी नहीं सकते।क्योंकि यह आप पर निर्भर करता है कि आप कितना सहन करते हैं? कितनी आप में क्षमता और आत्मविश्वास है? परिवार का सपोर्ट बहुत जरूरी है। खासकर लड़कों को और जिम्मेदार, मानवीय होना पड़ेगा। स्त्री को भी अपने जैसा ही माने न कि भोगवादी और यंत्रवत।
मेरी तरफ से फिल्म को चार स्टार । सभी को यह देखनी चाहिए।
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(डॉ.संदीप अवस्थी, कथाकार, आलोचक और मोटिवेशनल स्पीकर हैं।कई किताबें और जल्द फिल्मों को लेकर नई किताब आने वाली है।
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संपादक )