माँ से मायका .... पिता से पीहर, और भी न जाने कितने ही नाम हैं – बाबुल के आँगन के | वह आँगन जहाँ वह चिड़िया – सी चहकती है और एक दिन अपने पिया का आँगन महकाने के लिए उसी आँगन को छोड़कर चली जाती है | जो आँगन कभी उसकी किलकारियों से गूँजा करता था, कभी उसकी नटखट – सी शरारतों से मुस्कुराया करता था, कभी उसकी अल्हड़ – सी अठखेलियों से खिल जाया करता था, कभी उसकी मासूमियत से भर जाया करता था, आज वही आँगन उसे पराया लगने लगा है |
माँ और पिता से ही ‘पीहर तथा मायका’ शब्द बने हैं | पीहर – पिता का घर, दूसरे शब्दों में कहें तो अपनी संतान की सारी पीड़ा हरने वाले पिता का घर | मायका – माँ का घर जहाँ माँ का प्यार भरा आँचल अपनी संतान के सारे कष्टों को समेट लेता है | माता - पिता के रहने तक पचपन में भी दिल के किसी कोने में बचपन जीवित रहता है |
हर साल बच्चों से ज्यादा मुझे छुट्टियों का इंतज़ार रहता था | मम्मी – पापा पहले से ही पूछना शुरू कर देते थे कि कब आ रही है ? अबकी बार तो कुछ दिन रुकेगी ना ? मुझे भी मम्मी – पापा से मिलने का इंतज़ार रहता था | दूर रहने के कारण साल में मुश्किल से एक - दो बार ही जाना हो पाता था वो भी गरमी की छुट्टियों में ही थोड़ा समय बिता पाती थी | सारा परिवार इकठ्ठा हो जाता था | दोनों भाई, भाभियाँ, भतीजे – भतीजी और जीजी | भाभियाँ रसोई का काम सँभाल लेती थी, मैं और जीजी बाकी का काम निपटा लेते थे | फिर सब बैठकर गप्पे मारा करते थे | कभी – कभी मम्मी चूल्हे पर रोटियाँ बनाती थी तो हम सारे चारों तरफ़ घेरा बनाकर खाने बैठ जाते थे | सच में आज भी वो दिन भुलाए नहीं भूलते | पापा के साथ बैठकर साल भर की इकट्ठी की हुई बातों की पोटली खुलती तो मम्मी कहती कि दुनिया की बेटियाँ माँ से बतलाती हैं और मेरी बेटियाँ अपने पापा से ही बतियाती हैं | मम्मी की इस शिकायत में भी प्यार का अहसास होता था | पापा हम दोनों बहनों के हाथ में पूरी पेंशन थमा देते थे तो मम्मी अपनी संदूक खोलकर सामने रख देती थी |
मायके में जाकर एक ऐसा सुकून मिलता था जो शायद कहीं और नहीं मिल सकता था | वापस आते समय पापा सिर पर हाथ फेरते हुए कहते – “बिटिया ! सदा खुश रहो !” पापा सिर पर हाथ रखते थे तो लगता था कि इस दुनिया में मुझसे ज्यादा सुरक्षित कोई और है ही नहीं | मम्मी अपनी बाँहों में समेटकर जब गले लगाती हैं तो लगता है कि मुझसे अधिक सुखी और कोई नहीं है |
माँ का आँचल तो आज भी है जो हर पल अपनी ममता लुटाने के लिए तत्पर रहता है | माँ आज भी छुट्टियों में मेरे आने का इंतज़ार करती है | पर .... पता नहीं क्यों ? अब मुझे कहीं एक खालीपन – सा लगता है जो अंदर ही अंदर मुझे कचोटता है | अब मायके में उतना दिल नहीं लगता | पहले जहाँ मैं मायके में ज्यादा दिन रुकने के लिए अपने पति से लड़ती थी वहीँ अब मम्मी के रोकने पर भी नहीं रुक पाती | पहले पापा का घर हक से अपना लगता था जहाँ हर कोने में यादें बसी थी लेकिन अब दो दिन का मेहमान बनकर लौट आना होता है | भाई – भाभी मम्मी का खूब ध्यान रखते हैं लेकिन पापा के जाने से मम्मी के जीवन में जो खालीपन और एकाकीपन आया है उसकी कमी कोई पूरी नहीं कर सकता |
कहते हैं ना कि पिता ‘रोटी, कपड़ा और मकान है |” अब पैरों के नीचे ज़मीन तो है लेकिन सिर पर छत नहीं है | पिता अकेले नहीं जाते | अपने साथ बचपन, चंचलता और खिलखिलाहट साथ ले जाते हैं और पीछे छोड़ जाते हैं सागर से भी गहरी रिक्तता जिसे संसार की कोई भी दिलासा कभी नहीं भर सकती |
उषा जरवाल ‘एक उन्मुक्त पंछी’
गुरुग्राम (हरियाणा)