Pictures of many villages of India - 'From threshold to door' in Hindi Book Reviews by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | भारत के बहुत से गांवों की तस्वीर - ’देहरी से द्वार तक’

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भारत के बहुत से गांवों की तस्वीर - ’देहरी से द्वार तक’

[ नीलम कुलश्रेष्ठ ]

लेखक विजय कुमार तिवारी जी का ये उपन्यास जीवन, दार्शनिकता व संस्मरण का संगम है।

मैं एक प्रखर समीक्षक विजय कुमार तिवारी जी के उपन्यास की समीक्षा लिखने की हिमाकत कैसे कर सकतीं हूँ ? इसे 'देहरी से द्वार तक' का परिचय समझें।

मैंने शीर्षक में लिखा है कि बहुत से गाँवों की, ये इसलिए लिखा है कि गुजरात के बहुत से गाँव बहुत समृद्ध हैं इनमें एक गाँव 'धर्मज 'है। एक बैंक ऑफ़ बड़ौदा अधिकारी  ने बताया था कि इस बैंक की यहां नौ शाखायें हैं। लोग इनमें सिर्फ़ रुपये जमा करने आते हैं। यहाँ दुनियां की सब सुविधाएं उपलब्ध हैं। हमें भारत के अधिकतर गाँवों की तस्वीर देखनी है तो वह इस उपन्यास में है।

इस उपन्यास के मूल में है चिंतनशील नायक वैभव की परिकल्पना जो समाज को यानी अपने गाँव को सच्चरित्र, सुखी व समृद्ध देखना चाहता है। उपन्यास की कहानी का आरम्भ सत्तर के दशक के आरम्भ का है जिन दिनों शराब गाँवों में नहीं पहुँची थी। खैनी, गांजा, बीड़ी, भांग लोगों का नशा थी। हरिया व वैभव दोस्त थे. यहाँ तक कि वैभव जब बच्चा था तो अपने दोस्तों से इसलिए अलग होता चला गया कि वे उल्टी सीधी हरकतें करते थे, बेईमानी करते थे। कहना चाहिए कि किसी भी समाज की कहानी है जिसमें किसी भी सच्चरित्र, ईमानदार व्यक्ति का दम घुटता है, वह अपनी ऊर्जा सृजन में लगाने लगता है। । बीच बीच में वैभव की जो गहरी दार्शनिकता, मुझे लगता है वह विजय जी की अपनी मानसिकता है। मैंने उनकी एक दो कहानियाँ पढ़ीं है, यही सज्जनता उनमें दिखाई देती है।

विजय जी ने सार्वभौमिक सत्य का वैभव का चरित्र गढ़कर एक चित्र बना दिया है। जो सज्जन हैं, प्रबुद्ध हैं, सबका भला चाहतें हैं उनका चालाक व दुष्ट लोगों के बीच में दम घुटता है। गाँव में इतना अंधविश्वास इतना है कि जितनी आबादी नहीं है उससे अधिक तो भूत, प्रेत, पिशाच व चुड़ैल की कथाएँ हैं.तभी कहा गया है 'साधु और शेर' हमेशा अकेले चलते हैं। यहाँ 'शेर' से तात्पर्य प्रबुद्ध भले जन से है। वैभव सोचता रह जाता है कि गाँवों में खाना पीना व ताज़ी हवा इतनी शुद्ध है लेकिन न वे साफ़ रहना चाहते, न गाँव को साफ़ रखना चाहते। गांववालों का मन इतना क्यों अशुद्ध है कि आपस में क्यों एक दूसरे से जलते हैं?तभी वैभव के बाबा कहा करते थे --

''तीरथ बसे सो देवानन, शहर बसे सो मानवा, 

गावां-गंवई भूतानन, टोला -टपरी दानवा। ''

गाँव में लोगों के टोले बनते हैं, चौपाल पर तेरी मेरी उसकी करते हैं, उनमें शक्तिशाली लोग सच ही दानव होते हैं। जिन्हें आज की भाषा में गाँव के दबंग [या शहर के बाहुबली भी ]कहते हैं। इन्हीं दबंगों का गाँवों में दबदबा रहता है। ऊपर से राजनीतिक पार्टियाँ अपनी चालबाज़ियों से यहाँ माहौल बिगाड़े रखतीं हैं। जगेसर बाबा पर उलटे सीधे कामों से अपार धन आ जाता है। उन जैसे पात्र जो गांव को अपने क़र्ज़ से दबाये रहते थे।

इस उपन्यास के शीर्षक का लक्ष्य मुझे वैभव के दोस्त के कथन में हरिया के कथन में दिखाई देता है जिसका पढ़ाई में दिल नहीं लगता। वह कलकत्ता के किसी गाँव वाले परिचित के यहां गाय भैंस का काम करने चला जाता है। वह कहता भी है, ''मुझे कोई भी काम करना है लेकिन गॉँव में नहीं रहना। ''यानी अपनी देहरी से दरवाज़े से निकल जाना और शहरों के संघर्ष से खोटे सिक्के सा शहरी देहरी के दरवाज़े से वापिस भी आ जाना. हम जानते हीं हैं हमारे गाँवों में यही होता रहता है। अधिकतर लोग शहरों में कोई काम करके वहीं बस जाते हैं।

गॉँव में एक धाकड़ स्त्री पात्र है लीला मैया। ये युवावस्था में बहुत ख़ूबसूरत थीं, पति की प्यारी, दो बच्चों की माँ लेकिन जल्दी ही विधवा हो गईं। बमुश्किल उन्होंने जीवन को जीने योग्य बनाया। अपने घर साफ़ सफ़ाई करने वाले के कहने पर एक नीम का पेड़ लगाया। वह कुछ खेती बाड़ी करके मज़बूत हुईं तो उनके बारे में कहानियां फ़ैलाने लगीं कि गाँव में कोई न मिले तो लीला मैया के घर चले जाओ। इस बात में कुछ सच भी था। अक्सर उन्हें लड़कियाँ भी घेरे रहतीं थीं जो उनसे उनकी युवा उम्र के किस्से चटकारे लेते हुए सुनतीं थीं। लीला मैया का बेटा गणेशी वैसा पढ़ लिख नहीं पा रहा था, जैसा वे चाहतीं थीं। गणेशी को उसे ये बात खूब समझ आ गई कि जो बाहर आता जाता रहेगा उतने लोग उसके साथ होंगे। तभी वह आस पास के गाँवों में ख़ूब पहचान कर लेता है। उसका राजनीतिक रुझान इतना है कि वह गाँव में सबसे पहले ख़बर लाता है कि प्रधान मंत्री बने हैं मुरार जी देसाई व पार्टी अध्यक्ष चंद्रशेखर। लीला मैया उसके इस रुझान से ख़ुश भी होती है सशंकित भी

हम कभी कभी उपरवाले का तिलिस्म देखते हैं कि यदि वह चाहे तो दुर्घटना के बाद किसी का बाल बांका भी नहीं हो सकता। ऐसा ही वैभव के भाई के साथ होता है। वह बरामदे सो रहा है बाहर लगा पेड़ टूटकर आधे बरामदे को तहस नहस कर देता है लेकिन जहाँ वह सो रहा है, वहां कुछ नुक्सान नहीं होता .महुया जैसे ही फूलने लगता है, बिच्छुओं की चहलकदमी शुरु हो जाती है। नायक को दो बार बिच्छु काटता है लेकिन दोनों बार वह बच जाता है।मेरे ख़्याल से ऐसी विचित्र बातों से उपरवाले पर श्रद्धा जागती है।

एक दृश्य का वर्णन करुँगी क्योंकि शहरी मन को ये एक नई बात लगी --'गाँव की बाढ़ में सब कुछ डूब गया है। वैभव देवालय की सीढ़ियों पर बैठा है, उसे नेवलों की चिंता हो रही है। अपने बेटों के लिए लड़की नहीं मिलती तो लोग लड़की के पिता को धन देकर लड़की प्राप्त करते हैं। ' एक शब्द 'बेटी बेचवा 'इधर के गाँवों में ऐसे लोगों के लिए प्रचलित है। इस उपन्यास में ऐसी बहुत सी बातें हैं जिनसे हमें गांव के विषय में नई जानकारियां मिलती चलतीं हैं।

विजय जी स्त्री व पुरुष के सम्बन्ध की व्याख्या ख़ूबसूरती से करते हैं, उन्हीं के शब्दों में -'नारी वह आश्रय है जहां पुरुष विश्राम पाता है और नई ऊर्जा प्राप्त करके जीवन को सुखी व आनंदप्रद बनाता है। '

उसी तरह वे ये भी समझते हैं -'शायद ही कोई औरत हो जो पूरी तरह सुखी हो। '

मैं मानतीं हूँ स्त्रियों का जीवन पुरुष से जटिल है लेकिन मेरा प्रश्न विजय जी से है -क्या हर पुरुष किसी न किसी कारण दुखी नहीं होता ?

काशी की बहू पहले तो लीला मैया से लड़ती है फिर सुलह होने पर उन्हें एक देवस्थान के विषय में बताती है। जहाँ वे अपने बेटे, बहू के साथ चल पड़तीं हैं।

गाँवों में, जंगल में आदिवासियों में व इस गाँव में कोई न कोई कुटिल ओझा के देवस्थान होते ही हैं। जहाँ लोग अपनी स्त्रियों को जिनके बच्चा नहीं होता या भूत चढ़ जाता है ऐसे स्थानों पर ले जातें हैं। बड़े मंदिर में बना ओझा का कमरा बहुत छोटा होता है इसलिए नि :सनतान स्त्री अकेले ही पूजा पाठ के लिए अंदर जा सकती है। मंदिर में भूत चढ़ी लड़की या स्त्री अचानक झूमने लगती है, उसके बाल बिखर जाते हैं, कपड़े अस्त व्यस्त हो जाते हैं। उसे होश ही नहीं हैं. वह धूल में लेटने लगती हैं। कभी रोती है, कभी हंसती है। बाबा उसे नीम की छड़ी से छूकर कभी मारते हैं, कभी ज़ोर से बाल खींचते हैं।

ये दृश्य देखकर आपको प्रेमचंद, संजीव जी या कुछ और लेखकों की कृतियाँ[ यहाँ तक की 'ओ माई गॉड 'जैसी फ़िल्में भी ]याद आ जायेंगी जो लोगों के अंधविश्वासों को समाप्त करने लिए लिखते लिखते ऊपर चले गए .ऐसे अंधविश्वासी शहर या गांव के लोग अपनी महा मूर्खता नहीं छोड़ रहे तो विजय कुमार तिवारी जी जैसे लोग कैसे अपने प्रयास छोड़ दें ?

इसमें हमें अच्छाई व बुराई का विश्लेक्षण हरिया व वैभव के जीवन की तुलना करके मिलेगा। इस उपन्यास लिखने का यही उद्देश्य मुझे लगता है। बचपन से बिगड़े हरिया का जीवन भी ऊटपटांग रहता है। कलकत्ता से लौटकर भी वह सुस्त रहता है. हरिया मेहनती नहीं ही इसलिए गाँव में काम धंधा नहीं जमता, लगता उसका दिल यहाँ नहीं लगता तो वह फिर घर से भाग जाता है महात्मा सन्तादास जी के पास। पहले वे उनका प्रवचन सुन चुका है। उनकी बातें सुनकर उसे लगता है कि साधुओं का जीवन कितना आनंददायी है कि बस पूजा अर्चना करो, थोड़ी गुरु सेवा करो और भक्तों के लाये भोग का आनंद लो। जब मंदिर में सन्तादास जी उसे हर समय काम में लगाये रखते हैं तो कुछ समय बाद वहां से भागकर अपने घर की देहरी के दरवाज़े से फिर अंदर घर में घुस जाता है। साधू बनना चाहता है लेकिन वहां की मेहनत से घबराकर भाग आता है। अपनी पत्नी को बीमार बताकर मायके भेज देता है। खेत में युवा मोहनी पर अपनी ताकत आजमाना चाहता है लेकिन वह अपने हँसिये से इसे धमका कर अपने को बचा ले जाती है. बात पुलिस तक पहुँच जाती है।

बचपन से ही जिस वैभव में धीरे धीरे न्रेतत्व का गुण पैदा होने लगता है। वह भजन गायन व भाषण प्रतियोगिता में पुरस्कृत होता चलता है। वह ज़िम्मेदार शिक्षक बन जाता है। उसे गाँव की और समस्याएं दिखाई देतीं है। वह समझने लगता है कि सरकार की फ़ाईल्स में भारत के गाँवों में नालों पर पुल बने हैं, सड़कें बनीं है, जो कहीं हैं ही नहीं। सरकार, प्रशासन और ग्राम पंचायत के लोग आपस में बंदर बाँट करके गाँव बर्बाद कर रहे हैं।

विजय जी को इस बात की बधाई कि उन्होंने ये विश्लेक्षण करके एक सन्देश देने का प्रयास किया है।

281 पृष्ठ के उपन्यास में आपको तरह तरह के बहुत से पात्रों से मिलना होगा जैसे गोबर, काशी, बली, सोना, शीतल, आराध्या, श्री बाबू, हरिया की हरकतों से तंग आये उसके पिता भोलानाथ । लीला मैया का नकारा सा लड़का गणेशी जीवन में जब कुछ और नहीं कर सकता तो राजनीति में तो कूद सकता है, सभापति पद का उम्म्मीददार होकर। बहुत से वोटर्स को वोट देने पहुँचने नहीं दिया जाया। तो वह जीतेगा या नहीं ? गाँव की राजनीति, घनघोर अंधविश्वास, आपसी वैमनस्य, कुटिलता जानने के लिए आपको ये उपन्यास पढ़ना चाहिये ।

पुस्तक -देहरी से द्वार तक

लेखक -विजय कुमार तिवारी

प्रकाशक -बिम्ब -प्रतिबिम्ब प्रकाशन

मूल्य -400 रुपये

समीक्षक -नीलम कुलश्रेष्ठ