पुराने लोग जानते हैं, आज से पचास साठ साल पहले लोग बाग अपने बच्चों के मुंह से अपने को माता पिता नहीं कहलवाते थे । अपने पिता को चाचा और मां को चाची पुकारते।
मेरे चाचा डाक्टर थे और उन्हों ने अपना क्लीनिक अपने घर के निचले हिस्से में खोल रखा था।
क्लीनिक अच्छा चलता था लेकिन उन के वारे न्यारे के बावजूद घर में बेरौनकी रहा करती।
चाची अपना आधा समय नौकर चाकरों को चिल्लाहट देने में बितातीं और आधा समय चाचा से चिल्लाहट पाने में।
चाची को अपने बाल बहुत प्यारे थे।
उनके बाल थे भी बहुत अद्भुत। उनके घुटनों तक लंबे और इतने घने कि जब वह उन्हें खोलतीं तो लगता मानो मखमल की कोई चादर उनकी पीठ पर बिछ ली हो।
अपने बालों का वह ध्यान भी खूब रखतीं । घर के बागीचे में लगे मेंहदी के पेड़ से रोज़ ही ताज़ी पत्तियां तुड़वातीं, पिसवातीं, और लोहे की कड़ाई में उबाले गए आंवले के चूरन में मिलवातीं।
नहाने से पहले वह यह लेप रोज़ ही अपने बालों पर लगवाया करतीं।
उन्हें जानने वालियां अक्सर हंसतीं, ’अपने बालों को तुम यों पलोसती हो, मानो किसी बच्चे को पलोस रही हो……. .’
दिसंबर के उस रोज़ हुआ यों कि जैसे ही उन की नौकरानी रसोई से वह घोल गुनगुना करने के बाद उन के कमरे में ले जा रही थी कि उस से मैं जा टकराया।
उन दिनों मुझ पर पीलिया सवार था और चलते चलते मेरे कदम डगमगा जाया करते थे।
मेरे साथ हुई टक्कर में नौकरानी और मैं एक दूसरे पर गिरे ही गिरे, साथ ही वह घोल भी हम पर गिर गया।
अपने नित्यकर्म में विघ्न आया देख कर चाची अंगारा हो गईं और गुस्से में मेरी कमज़ोर हालत भूल बैठीं।
सीधी रसोई में धप्प धप्प लपकीं और एक चम्मच में लाल मिर्च भर लाईं । मेरे मुंह में वह अभी ठूंस ही रही थीं कि मेरे भले की फ़िक्र रखने वाला कोई एक नौकर नीचे से चाचा को ऊपर बुला लाया।
चाचा मुझे फ़ौरन अपने क्लीनिक ले आए ।
मुझे प्रकृतिस्थ करते समय वह बड़बड़ाए, ‘तेरी मां को भी यह चंडालिनी ऐसे ही लाल मिर्च खिलाया करती थी। मैं उसे आज ही यहां से बाहर निकाल फेंकूगा…..’
‘मेरी मां?’ अपनी उस बुरी हालत में भी मां के नाम से मेरे कान खड़े हो गए--मेरे प्रति चाची का व्यवहार बहुत रूखा था। चाचा के सामने वह मुझे बेशक दुलरातीं- पुचकारतीं लेकिन उन के ओझल होते ही मुझ से कन्नी काट लिया करतीं, ‘मेरी मां?’
‘कुछ नहीं, ’ अगले ही पल चाचा चौकस हो लिए, ’ कुछ नहीं।’
‘चाची मुझे प्यार नहीं करतीं, ’ मैं ने ज़िद पकड़ ली, ’ वह मेरी मां नहीं हैं ।नहीं हो सकतीं ।मैं अपनी मां से ज़रूर मिलूंगा….’
अब संयोग देखिए। उसी समय चाचा को कोई एक फ़ोन आया और उन्हों ने तत्काल अपना ड्राइवर बुलवाया और मुझे उसी हालत में ले कर निकल पड़े, ‘ ठीक है। तुझे तेरी मां से अभी मिलवा लाता हूं…..’
कार एक मानसिक अस्पताल पर जा रुकी।
रिसेप्शनिस्ट चाचा को सामने पाते ही चिल्लाई, ‘ प्रभा अपने आखिरी दम पर है, और एक ही रट लगाए है, मुझे अपने बेटे से मिलना है…..’
‘वह कहां है?’ चाचा अधीर हो उठे।
‘आप यहीं रुकिए, ’ जभी इधर आ रही एक डाक्टर ने उन्हें वहीं रोक दिया, ’ बच्चे को उसे पहले मिलने दीजिए। अकेले मिलने दीजिए। आप को देखेगी तो उस का प्रलाप फिर से शुरू हो लेगा…..’
अस्पताल के उस सेक्शन की डाक्टर ने मुझे देखा और अपनी उंगली अपने दांत तले बिठा बैठी, ’ तुम ही प्रभा के बेटे हो न? कैसा मातृमुखी बेटा प्रभा ने पाया है? हूबहू प्रभा की सूरत…..’
उस अस्पताल की वह रज़ाई आज भी मुझे याद है, जो उन्हें ओढ़ाई गयी थी। चेहरा छोड़कर उन की गर्दन से ले कर उन के पांव तक। आंखें उन की खुली थीं।
वैसी आंखें न मैं ने पहले कभी देखीं थीं।
न कभी बाद ही में कभी देखीं।
वे आंखें थीं या तड़प रही दो मछलियां।
अपने आप में पूरी-पूरी, एक- एक ज़िंदगी थामती हुईं– वह ज़िंदगी जो पल-पल उन से छूटती जा रही थी…..
‘चाचा ने मुझे बता दिया है, आप मेरी मां हैं, ’ मैं उन के पास जा पहुंचा।
उन्हों ने मेरी तरफ़ अपने हाथ बढ़ाए।
मैं ने उनके हाथ थाम लिए।दोनों बहुत ठंडे थे।
‘यह भी बताया, वही तुम्हारे पिता हैं?’ वह फुसफुसाईं।
बहुत धीमी रही वह फुसफुसाहट आज भी मेरे साथ है । मेरे साथ हमेशा रहेगी भी ।
रिसेप्शन रूम में लौटने पर मैं ने पाया, चाचा रो रहे थे।
उन के पास पहुंच कर मैं भी रोने लगा।
‘धीरज रखिए, ’ रिसेप्शन वाली डाक्टर बोली, ‘बल्कि एक तरह से अच्छा ही हुआ। उसे यहां रहने को पंद्रह साल होने जा रहे थे लेकिन उस की हालत तनिक न सुधर रही थी। उस के दिमाग का बिगाड़ रत्ती -भर न खिसक पाया था। इतने तो उसे बिजली के झटके दिए गए थे। कितनी ही दवाऐं खिलाईं गयीं थीं। कितनी ही बार बातचीत से उसे समझाने की कोशिश की गई थी। मगर तोते की तरह उस ने बारम्बार दोहराना नहीं छोड़ा, मेरे चाचा ने मुझे बर्बाद कर दिया, मेरी चाची ने मुझे बर्बाद कर दिया..….’
‘यह रही आप की रसीद, ’ तभी वहां की मेट्रननुमा एक स्त्री वहां आ पहुंची, ’ आप की आखिरी रसीद। आप विरले इंसान हैं सर, बहुत विरले। वरना आज के ज़माने में अपनी अनाथ और बलात्कार- पीड़िता भतीजी पर कौन चाचा उस पर इतना रुपया लगाएगा ?आप को हम हमेशा याद रखेंगे, सर।आप जैसा दयालु और परोपकारी जीव क्या रोज़ देखने को मिलता है?’
बाद में मैं ने जाना, मेरा जन्म उसी मानसिक अस्पताल में हुआ था। क्योंकि अपने प्रसवकाल में मां वहीं दाखिल थीं।
निस्संदेह उन्नीस सौ नवासी के लोकाचार को देखते हुए चाचा को वही मानसिक अस्पताल उपयुक्त लगा था । भाया था । वहां मां की चौकीदारी भी पक्की थी और मेरी खबरदारी भी।
और फिर मेरे होश संभालने से पहले ही वह मुझे अपने पास लिवा लाए थे।
कानूनी रूप से मुझे गोद लेने के लिए ।
निस्संतान चाची को संतान देने हेतू।
विधिवत संतान को गोद लेने का चाची के लिए यह दूसरा अवसर था। सोलह साल पहले भी उन्हों ने पति के साथ कानूनी रजिस्टर पर अपने दस्तखत दिए थे जब उनके जेठ-जेठानी के एक सड़क दुर्घटना में एक साथ परलोक सुधारने पर अनाथ उन की चौदह वर्षीया बेटी उन के घर लिवाई गयी थी।
चाची की लाल मिर्च खाने के लिए…..
चाचा द्वारा पीड़ित होने के फलस्वरूप
गर्भित होने के लिए……
एक नए इतिहास के साथ:
‘प्रभा नाम की पन्द्रह वर्षीया यह लड़की शित्सोफ़रेनिक है । बचपन ही से इसे बेहोशी के दौरे पड़ते रहे हैं । अपनी गर्भावस्था उस ने अपने किसी ऐसे ही दौरे के दौरान धारण की । जिस कारण यह अपने बलात्कारी का नाम नहीं जानती । घर में कर्मचारियों की बहुतायत रहने से परिवारजन के संदेह की सुई किसी एक पर टिकने की गुंजाइश भी नहीं रखती…’