सनातन अवतार आस्था एव दर्शन-
सनातन में अवतारों कि अवधारणा युग सृष्टि कि दृष्टि दृष्टिकोण के निर्धारण के लिए निश्चित उद्देश्यों के परिपेक्ष्य ही उद्धृत है ।ब्रह्मांड का नियंता परब्रह्म स्वंय सृष्टि के कल्याणार्थ जन्म जीवन की श्रेष्ठतम काया मानवीय स्वरूप में आता है और उद्देश्य के अनुसार निश्चित मानदंडों कि स्थापना के बाद पुनः अपने मूल अस्तित्व में समाहित हो जाता है ।सनातन में अवतारों की इसी अवधारणा के अंतर्गत प्रथम अवतार मत्स्य के रूप मे सृष्टि कि संरचना संवर्धन के लिए वर्णित है तो दूसरा कच्छप अवतार नकारात्मक एव सकारात्मक शक्तियों के समन्वय को परिभाषित करने के लिए जो सागर मंथन एव युग को चौदह बहुमूल्य रत्नों के साथ विष भी मिला तीसर्रे अवतार को दानवीय प्रवृत्ति से पृथ्वी को सुरक्षित करने के लिए हुआ सनातन के अवतारों की अवधारणा के प्रथम तीनो अवतार ब्रह्मांड के दो महत्वपूर्ण अवयव प्रकृति एव प्राणि के सापेक्ष हुए जो ब्रह्म को विभिन्न काया में अवस्थिती को स्प्ष्ट करती है अर्थात ईश्वर अंश कि आत्मा को हर प्राणी में दृष्टिगत कराते मत्स्य ,कच्छप ,एव बाराह अवतार सनातन के अवतारों कि अवधारणा के सत्यार्थ है ।चौथा अवतार प्रकृति और प्राणि के समन्वय शक्ति को परिभाषित करता है जिसमे नारायण ने आधा सिंह एव आधा मानव के संयुक्त विग्रह के साथ भक्त बालक प्रहलाद की रक्षा के लिए अवतरित हुए नारायण का नरसिंह अवतार पूर्व में तीनों अवतारों से अलग पिता पुत्र के सम्बन्थों की वास्तविकता को परिभाषित करने के लिए हुआ था ।पांचवा अवतार श्री नारायण का तब हुआ जब देवतावों को प्रह्लाद के पौत्र बलि जो सात्विक एव दानवीर थे से भय कि अनुभूति होंने लगी और देव शक्तियों को प्रतीत होने लगा कि प्रह्लाद कि सात्विक पीढ़ी सदैव ही शक्ति सत्ता का केंद्र बन जाएगी जो मूल रूप से दानवीय वंशज है ऐसे में देव शक्तियों का अस्तित्व ही समाप्त होने की ओर बढ़ने लगेगा देवताओं के राजा इंद्र की व्यकुलता ने श्री नारायण के पांचवे अवतार कि पृष्टभूमि बनाई तब श्री नारायण ने पूर्ण मानव काया में वामन के रूप में राज बलि का उद्धार किया और अपने धाम लौट गए।सनातन में वर्णित प्रथम पांचों अवतार निश्चित उद्देश्यों के परिपेक्ष्य में संदर्भित है एव उद्देश्य पूर्ति के उपरांत अवतार अपने मूल अस्तित्व ब्रह्मांड नियंता ब्रह्म में समाहित होंना अवतारों की अवधारणा के सत्य का सनातन सत्यार्थ है।।भगवान परशुराम जी का अवतार दर्शन--- प्रथम चिरंजीवी भगवान परशुराम भगवान परशुराम जी का ही है भगवान परशुराम जी के अवतार का उद्देश्य था क्रूर शासन से सिसकती व्यथित मानवता की मुक्ति भगवान परशुराम जी का जन्म भार्गव कुल ऋषि जमदग्नि एव चन्द्र वंशी माँ रेणुका के संयोग से हुआ था पिता कुल प्रभाव के कारण भगवान परशुराम मुर्दन्व विद्वान पण्डित शास्त्र ज्ञानी थे माता कुल के प्रभाव से युद्ध मे निपुण एव महान योद्धा जो मूलतः क्षत्रिय गुण थे ।कुल--भगवान परशुराम सप्तर्षि जमदग्नि और रेणुका पांचवे सबसे परशुराम छोटे पुत्र थे जमदग्नि के पिता का नाम ऋचिका था ऋचिक के पिता का नाम भृगु के पुत्र थे भृगु के पिता का नाम च्यावणा था ।ऋचिका धनुर्विद्या युद्धकला में अत्यंत निपुण थे महर्षि जमदग्नि भी कुशल योद्धाओं में थे ।।भगवान परशुराम के जन्म एव क्षत्रियआचरण कि पौराणिक कथा---कन्नौज के गाधि नामक राजा राज्य करते थे उनकी गुणवती रूपवती सुंदर कन्या थी जिसका नाम सत्यवती था सत्यवती का विवाह गाधि ने भृगु नंदन ऋचीक से कर दिया पुत्र ऋचीक और सत्यवती के विवाह के बाद महर्षि भृगु ने अपने पुत्रवधु का आशीर्वाद दिया और वर मांगने के लिए कहा अपने श्वसुर को अति प्रसन्न देखकर सत्यवती ने उनसे अपनी माता के लिए पुत्र के वरदान कि याचना किया।पुत्रवधु कि याचना पर महर्षी भृगु ने सत्यवती को दो चरु एक पात्र में देते हुए पुत्रवधु सत्यवती से पुत्री जब तुम्हारी माँ ऋतुस्नान करने के बाद तुम्हारी माँ पुत्र कि कामना से पीपल का आलिंगन करे एव तुम गूलर का आलिंगन करना फिर मेरे द्वारा दिए चारु को सावधानी से अलग कर अलग अलग सेवन करना।सत्यवती की माँ को ऐसा विश्वास था की महर्षि भृगु ने अपनी पुत्र वधु को उत्तम पुत्र के लिए विशेष चरु दिया है इसी भ्रम में सत्यवती की माँ ने अपना चरु पुत्री के चरु से बदल लिया इस प्रकार सत्यवती ने माँ एव माँ ने बेटी सत्यवती के चरु को ग्रहण कर लिया जिसे महर्षि भृगु ने अपनी योगशक्ति से देख लिया तब पुत्रवधु सत्यवती से बोले पुत्री तुम्हारी माता ने दिग्भ्रमित होकर तुम्हारे साथ छल किया है और तुम्हारा चरु स्वंय ग्रहण कर लिया है और अपना चरु तुम्हे तुम्हे ग्रहण करने के लिए विवश कर दिया अतः अब तुम्हारी संतान ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय जैसी होगी और तुम्हारी माता कि संतान क्षत्रिय होते हुए भी ब्राह्मणों जैसी महर्षि भृगु के वचन सुनते ही सत्यवती ने श्वसुर महर्षि भृगु से विनती किया कि उसकी संतान ब्राह्मणों जैसा आचरण करे भले ही मेरा पौत्र क्षत्रियों जैसा आचरण करने वाला हो पुत्रवधु की विनती को स्वीकार करते हुए कहा एवमस्तु समय आने पर सत्यवती ने जमदग्नि को जन्म दिया जमदग्नि बहुत तेजस्वी और ज्ञानवान मुनि महर्षि थे ।जमदग्नि का विवाह प्रसेनजित कि कन्या रेणुका से विवाह हुआ जिससे पांच पुत्रो का जन्म हुआजिनके नाम क्रमशः रुक्मवान,सुखेण,वसु,विश्वानस, एव पांचवे सबसे छोटे परशुराम।भगवान परशुराम जी का जन्म स्थान--परशुराम जी के जन्म स्थान के विषय मे कई तर्क एव मत पौराणिक एव ऐतिहासिक तथ्यों तर्कों के आधार पर दिए जाते है जिसमे सत्य एव प्रासंगिक प्रामाणिक तथ्य सत्य यही है की परशुराम जी का जन्म इंदौर जनपद के जानपाव पर्वत पर हुआ था। जानपाव कि विशेषताएं-1-जानपाव पर्वत से साढ़े सात नदियों का उद्गम होता है।2- इनमें से कुछ नदिया यमुना एव नर्वदा में मिलती है।3- जानपाव को ऋषि जमदग्नि की तपोभूमि के रूप में जाना जाता है।4- जानपाव में जमदगेश्वर एव परशुराम जी का मंदिर है।5- प्रत्येक वर्ष कार्तिक एव क्वार महीने में जानपाव में मेले का आयोजन किया जाता है।जन्म स्थान के विषय मे कुछ अन्य मत--1- कुछ मतों के अनुसार परशुराम जी का जन्म मध्यप्रदेश वर्तमान छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के कलचा गांव में हुआ था।।2- एक अन्य मत के अनुसार परशुराम जी का जन्म हिमांचल के रेणुका जी मे हुआ था।3- एक अन्य मतानुसार परशुराम जी का जन्म शाहजहांपुर के जलालाबाद में हुआ था।उपरोक्त तीनो मतों के संदर्भ में को प्रामाणिक साक्ष्य नही प्राप्त है अतः परशुराम जी का जन्म जानपाव पर्वत इंदौर पर हुआ था प्रमाणिक एव सत्य है।भगवान परशुराम जी की जन्म तिथि एव विशेषताएं--भगवान परशुराम का जन्म बैशाख शुक्ल पक्ष कि तृतीया को हुआ जिसे अक्षय तृतीया के नाम से जाना जाता है जिसे ग्रामीण भाषा मे आक्खा तीज भी कहते है पौराणिक मान्यताओं के अनुसार अक्षय तृतीया को दस महत्वपूर्ण शुभ संयोगों एव घटनाओं के कारण अति शुभ तिथि माना जाता है। अक्षय तृतीया अबूझ मुहूर्त को होता है को हुआ सनातन पुराणों में अक्षय तृतीया के महात्म्य में जिन महत्वपूर्ण दस घटनाओं का वर्णन किया गया है उनमें -1- अक्षय तृतीया को ही रावण के सौतेले भाई कुबेर राज को खजाना मिला था।।2- अक्षय तृतीया को ही सुदामा जी अपने सखा श्री कृष्ण से मिलने द्वारिका पहुंचे जिससे उनकी दरिद्रता समाप्त हुई ।( यह घटना अक्षय तृतीया को द्वापर युग मे भगवान परशुराम के जन्म के हज़ारों वर्ष बाद हुई)3- महाभारत कि रचना वेदव्यासजी जी ने द्वापर में भगवान परशुराम जी के जन्म के हज़ारों वर्ष बाद अक्षय तृतीया से शुभारंभ किया।।4- अक्षय तृतीया को ही सतयुग एव त्रेता का शुभारंभ एव द्वापर का समापन हुआ था।।5- अक्षय तृतीया को ही आदिकवि शंकराचार्य जी ने कनक धारा की रचना की थी।।6- अक्षय तृतीया को ही ब्रह्मांड का महायुद्ध महाभारत का समापन हुआ था।।7- अक्षय तृतीया को ही बद्री नाथ के कपाट खुलते है।।8- अक्षय तृतीया को ही भगवान जगन्नाथ के रथ के निर्माण का कार्य प्रारंभ होता है।।9- ऋषभदेव जी ने अक्षय तृतीया को ही तेरह महीनों के कठिन उपवास का पारण इक्षु गन्ने के रस से किया था।।10- अक्षय तृतीया को ही गंगा का पृथ्वी पर आगमन हुआ था।।11- भगवान श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया कि अक्षय तृतीया को व्यक्ति रचनात्मक सांसारिक जो भी कार्य करेगा उसका उंसे पुण्य फल प्राप्त होगा।।12- अक्षय तृतीया को बांके बिहारी जी के श्री विग्रह चरणों के दर्शन होते है।।अक्षय तृतीया को अविवाहित के लिए वैवाहिक शुभ मुहूर्त होता है।अक्षय तृतीया को शुभ कार्य--(क)अक्षय तृतीया को नव गृहनिर्माण ,गृहप्रवेश ,नवव्यवसाय , नूतन प्रतिष्ठान नव कार्य शुभारंभ के लिए अत्यंत शुभ मंगल माना जाता है।।(ख)अक्षय तृतीया के दिन स्वर्ण आभूषण आदि को क्रय करना अत्यंत शुभ एव धन धान्य के लिए शुभ मंगल माना जाता है।।(ग)अक्षय तृतीया को दान पितरों के दर्पण को अत्यंत फलदायी माना जाता है।।(घ) अक्षय तृतीया को अविवाहित के लिए वैवाहिक शुभ मंगल मुहूर्त अति शुभ मंगलकारी होता है।।अक्षय तृतीया के दिन त्रेता युग मे हैयग्रीव भगवान परशुराम का जन्म हुआ था जिसके बाद आने वाले युग समय काल मे अक्षय तृतीया को महत्वपूर्ण युग कल्याणकारी एव शुभ घटनाएं सृजित हुई।भगवान परशुराम कि शिक्षा--भगवान परशुराम कि प्रारंभिक शिक्षा पिता जमदग्नि एव दादा ऋचीक द्वारा प्रदान किया गया भगवान परशुराम को शस्त्रों कि दीक्षा मामा राज ऋषि द्वारा प्रदान किया गया भगवान परशुराम को शस्त्र एव शास्त्रों में पारंगत एव निपुण थे।भगवान परशुराम ने भगवान शंकर की बहुत कठिन तपस्या किया और भगवान शंकर को प्रशन्न किया भगवान शंकर परशुराम जी की तपस्या से प्रसन्न होकर परशुराम जी से पूछा तुम्हे क्या चाहिए तब परशुराम जी बोले है महादेव यदि आप मेरी सेवा तपस्या साधना से प्रसन्न है तो मुझे शस्त्र विद्या में निपुणता का वरदान दे एव दिव्यास्त्र प्रदान करने की कृपा करें तब भगवान शंकर ने अपनी कुल्हाड़ी फरसा प्रदान करते हुए सर्वश्रेष्ट योद्धा बनने का वरदान दिया।भगवान परशुराम कलरिपट्टू की उत्तरी शैली वदक़्क़न कलरी संस्थापक आचार्य के रूप मे जाने जाते है। वदक़्क़न कलरी अस्त्र शस्त्रों कि प्रमुखता कि शैली है।पितृभक्त--गन्धर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख हवन के लिए गंगा तट गयी ऋषि जमदग्नि पुत्र रेणुका आसक्त हो गयी और गंगा तट पर ही रुक गयी जिसके कारण बिलंब हो गया जिसके कारण पति महर्षि जमदग्नि के हवन का समय व्यतीत हो गया जिसके कारण पति मुनि जमदग्नि क्रोधित हुए और पत्नी रेणुका के आर्य आचरण विरोधी एव मानसिक व्यभिचार के लिए दण्ड स्वरूप अपने सभी पुत्रो को माता का वध करने का आदेश दिया लेकिन किसी ने पिता कि आज्ञा पालन का दुस्साहस नही किया अंततः मुनि जमदग्नि ने अपने सबसे छोटे पुत्र परशुराम जी को माता का शिरोच्छेद करने का आदेश दिया पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम जी ने पिता कि आज्ञा का पालन करते हुए बिना किसी प्रश्न तर्क के माता रेणुका का वध करने ज्यो ही आगे बढ़े माता को बचाने एव रक्षा में भाईयों ने उनका मार्ग रोकने कि कोशिश किया तब परशुराम जी ने भाईयों समेत माता रेणुका का शिरोच्छेदन कर वध कर डाला पुत्र परशुराम जी से मुनि जमदग्नि अति प्रसन्न होते हुए बोले पुत्र मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ तुमने मेरी आज्ञा का पालन किया बिना किसी सोच विचार संसय भय भ्रम के किया अतः तुम वरदान मांगो पिता की प्रसन्नता एव वरदान मांगने के लिए आदेशित करने पर परशुराम जी ने तब परशुराम जी ने पिता जमदग्नि से भाईयों एव माता को पुनर्जीवित करने एव पूरी घटना क्रम उनके स्मृति से मिट जाने का वरदान मांग लिया पिता जमदग्नि ने कहा एवमस्तु माता रेणुका एव सभी भाई जीवित हो गए और उन्हें परशुरामजी द्वारा किए जाना वाला वध प्रकरण स्मरण नहीं था।(श्रीमद्भागवत पुराण)वैदिक संस्कृति एव परमार्थ ही परशुराम सत्यार्थ-भगवान परशुराम जी का मुख्य कार्य पृथ्वी पर वैदिक संस्कृति का प्रचार प्रसार कर स्थापित करना था पुराणों के अनुसार अधिकतर गाँव भगवान परशुराम जी द्वारा ही बसाए गए है उन्होंने एक वाण से समुद्र को पीछे धकेल दिया जिससे वर्तमान के गुजरात से लेकर केरल तक समुद्र पीछे चला गया और नई भूमि का निर्माण हुआ जो कोंकण, गोआ ,केरल आदि क्षेत्र है यही कारण है की यहाँ भगवान परशुराम की विशेष पूजा अर्चना होती है।।सतयुग में भगवान परशुराम-भगवान परशुराम का जन्म सतयुग एव त्रेता के संधिकाल में हुआ था परशुराम जी द्वरा सतयुग में जन्म लेने के बाद एव शिक्षा ग्रहण करने के बाद भगवान शिवशंकर कि कठिन एव घनघोर तप करने के उपरांत अपने कर्म सर्वप्रथम उन्होंने एक उत्कृष्ट समर्पित शिष्य होने के कारण गुरु शिष्य कि वैदिक परंपरा से ही युग का युग मे शुभारंभ किया उनके शिष्य अकृतवर्ण पृथ्वी एव युग मे उनके प्रथम शिष्य थे--अकृतवर्ण-- भगवान परशुराम जब भगवान शिव शंकर कि कठिन तपस्या करके उनसे दिव्यास्त्रों का वरदान प्राप्त करने के उपरांत घने जंगलों के रास्ते शीघ्रता से लौट रहे थे तभी उन्हें गुफा से किसी के कराहने की आवाज सुनाई दी तब भगवान परशुराम गुफा के उस स्थान पहुंचे जहां से कराहने कि आवाज आ रही थी उन्होंने देखा कि बालक पर बाघ ने आक्रमण कर दिया है भगवान परशुराम ने तुरंत उस बाघ को मार दिया बाघ योनि से मुक्त श्रापित बाघ ने गंधर्ब का रूप धारण कर लिया और भगवान परशुराम के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करके चला गया बाघ के आक्रमण से घायल बालक भगवान परशुराम के चरणों पर सर झुकाते हुए बोला ऋषिवर आप कि कृपा से अब मैं अकृतवर्ण बन गया हूँ जिसका अर्थ (अकृत अर्थात न सुरक्षित होना । वरण- घाव ) अतः मैं अब आपका साथ कभी नही छोडूंगा और भगवान परशुराम का शिष्य बनकर रहने लगे।भगवान परशुराम ने अकृतवर्ण को शस्त्र शास्र की शिक्षा दिया अकृतवर्ण भगवान परशुराम के प्रथम शिष्य थे।अकृवर्ण एक प्रकार से भगवान परशुराम कि छाया या प्रतिनिधि के रूप मे एक उत्तम शिष्य की जिम्मेदारियों का निर्वहन किया।1- अकृतवर्ण ने ही पांडवों को वनवास के दौरान भगवान परशुराम की महिमा का वर्णन सुनाया(महाभारत वन पर्व अध्याय 115 से 118)2- महाभरत के उद्योग पर्व के अध्याय 83 के अनुसार जब भगवान श्रीकृष्ण हस्तिनापुर पुर जा रहे थे तब उनकी भेंट अकृतवर्ण से हुई थी।3- महाभारत के उद्योग पर्व के ही अध्याय 173 के अनुसार दुर्योधन को कौरव वंश का इतिहास बताया था।4- अम्बा शाल्व भीष्म विचित्रवीर्य द्वारा अपमान के साथ ठुकराए जाने के बाद अपने नाना होतरवाहन के परामर्श पर अम्बा भगवान परशुराम के पास गई और उसने अपनी व्यथा अकृतवरण को सुनाया अम्बा की व्यथा को सुनकर अकृतवर्ण ने उसकी सहायता के लिए भगवान परशुराम को सहमत किया (उद्योग पर्व महाभारत श्लोक 9)5- अकृतवर्ण ने परशुराम भीष्म युद्ध मे सारथी की भूमिका का निर्वहन किया था।6- अकृतवर्ण उन महान ऋषियों में सम्मिलित थे जो धर्म युद्ध कुरु क्षेत्र की युद्ध भूमि में वाण शय्या पर लेटे थे।।(महाभारत अनुशासन पर्व श्लोक 8 अध्याय 26)7- अकृतवर्ण के ज्ञान एव तप का वर्णन परशुराम शिष्य के रूप में श्रीमद भगवत के स्कंध 12 में भी किया गया है।।गूगल से साभार पौराणिक विश्वकोश वेट्टम मणि कि प्रकाशित पुस्तक के अंश।।भगवान परशुराम का क्रूर अन्यायी अत्याचारी शासकों के पराक्रम --हैहववंशाधिपति कार्तवीर्य अर्जुन(सहत्रार्जुन) भगवान दत्तात्रेय कि घोर एव कठिन तपस्या किया भगवान दत्तात्रेय ने प्रसन्न होकर वरदान स्वरूप सहस्त्र भुजाएं प्रदान किया एव किसी के द्वारा पराजित न होने का वरदान दिया।ऋषि वशिष्ठ के श्राप के कारण सहत्रार्जुन कि मति मारी गयी और वह आखेट करते वन में जमदग्नि मुनि के आश्रम पर सेना पंहुचा मुनि जमदग्नि ने सहत्रार्जुन का सेना सहित स्वागत राजसी बैभव के साथ किया जिसे देख सहत्रार्जुन को बहुत आश्चर्य हुआ जब उसे सत्यता ज्ञात हुआ की यह चमत्कार तो मुनि को देवराज इंद्र द्वारा दिए जाने वाले कपिला कामधेनु का है तब उसने मुनि जमदग्नि से कपिला कामधेनु कि मांग यह कहकर किया मुनि कपिला का आश्रम में क्या काम इसे तो राजा के यहां होना चाहिए मुनि जमदग्नि द्वारा इन्कार किए जाने पर सहत्रार्जुन ने बल पूर्वक कपिला कामधेनु छीन लिया जब यह घटना घटी तब परशुराम जी आश्रम में नही थे वापस आने उन्हें जब वस्तु स्थिति की जानकारी हुई तब उन्होंने सहत्रार्जुन कि भुजाएं काट दी और उसका वध कर डाला।पिता सहत्रार्जुन के वध से कुपित उसके पुत्रो में ध्यानमग्न ऋषि जमदग्नि का वध कर दिया पति के वध से दुखी पत्नी रेणुका ने पति कि चिता के साथ सती हो गयी ।प्रतिशोध कि क्रोध से क्रोधित कुपित परशुराम जी ने महिष्मति नगरी पर आक्रमण कर दिया और उस पर अपना अधिकार कर लिया इसके बाद एक के बाद एक सहत्रार्जुन के प्रतिशोध में आए क्रूर आतताई राजाओं का इक्कीस बार संघार किया और उनके रक्त से अपने पिता का तर्पण किया हैहववंशियो के रक्त से पंचक क्षेत्र में पांच रक्त सरोवर बन गए।ऋषि ऋचीक ने परशुराम जी को ऐसे घोर प्रतिशोध से रोकने के लिए समझाया जिसके बाद परशुराम जी ने अश्वमेघ यज्ञ किया और सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी ऋषि कश्यप को दान में दे दिया और स्वंय इंद्र के समक्ष अस्त्र शत्रो का त्याग कर दिया और सागर द्वारा उचिष्ट भूभाग महेंद्र गिरी पर आश्रम बना कर तपस्या करने लगे।शुभदेवता विनायक एव परशुराम जी का मिलन एव संयोग--भगवान शिव शंकर द्वारा कैलाश पर अपने अंतःपुर में प्रवेश करने के बाद परशुराम जी उनसे मिलने आए द्वार पर गणेश जी खड़े थे परशुराम जी भगवान शिव शंकर से मिलने के लिए हठ करने लगे गणेश जी एव परशुराम जी मे विवाद बढ़ गया गणेश जी ने परशुराम जी को अपनी सूंड़ में लपेट कर तीनो लोको का भ्रमण कराते हुए पटक दिया गया जिससे क्रोधित परशुरामजी ने गणेश जी पर अपने फरसे से जिसे भगवान शिव शंकर जी ने ही प्रदान किया था प्रहार कर दिया जिसके कारण गणेश जी का एक दांत टूट गया वह बहुत जोरो कि वेदना से चिल्लाने लगे जिस पर क्रोधित माता पार्वती ने परशुराम जी के वध तक करने के ज्यो ही खड़ी हुई भगवन शिव शंकर ने उन्हें समझाया आप माता पार्वती के क्रोध को शांत किया तभी से भगवान गणेश को एकदंत के नाम से भी जाना जाता है।।त्रेता और भगवान परशुराम जी--त्रेता युग मे भगवान परशुराम कि उपस्थिति कि महत्वपूर्ण घटना विदेहद्वारा पुत्री जानकी के विवाह हेतु भगवानशिवशंकर के धनुष के भंग कि शर्त रखी और भगवान द्वारा भगवान शिव शंकर के धुनष को भंग किए जाने के बाद भगवान परशुराम जी द्वारा स्वंयवर में पहुँचना और भगवान राम एव भगवान परशुराम का मिलन ही प्रमुख है।शिवभक्त एव समर्पित शिष्य--भगवान परशुराम भगवान शिवशंकर के शिष्य तो थे ही आराध्य भी थे यह संयोग ही है की भगवान परशुराम के आराध्य और गुरु दोनों ही भगवान शिव शंकर ही थे जब विदेह कि प्रतिज्ञा और जानकी स्वयंवर में भगवान राम द्वारा शिव धनुष भंग किया गया और इसकी जानकारी परशुराम जी को हुई तब क्रोधित रौद्र के रूप में आकाश मार्ग से मिथिला पहुंचे और क्रुद्ध वाक द्वंद उनका भगवान राम से हुआ अंत मे भगवान परशुराम जी ने नारायण श्री हरि का धनुष शारङ्ग भगवान राम को देते हुए कहा राम यह धनुष स्वंय परब्रह्म नारायण श्री हरि का है आप इस पर प्रत्यंचा चढ़ाओ जिससे मेरा संदेह दूर हो भगवान राम ने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और वाण किस दिशा में छोड़ना है परशुराम जी से पूछा परशुरामजी ने कहा पूरब दिशा में जिससे मेरे सभी संचित पुण्य समाप्त हो जाय ऐसा कहते हुए स्वंय महेन्द्रगिरि तपस्या करने चले गए।(रामचरित मानस के अनुसार)वाल्मीकि रामायण के अनुसार भगवान राम ने परशुराम जी का पूजन वंदन किया और परशुराम जी भगवान राम कि परिक्रमा करने के उपरांत महेन्द्र गिरी तपस्या करने चले गए।द्वापर और भगवान परशुराम जीकि महाभरत के धर्मयुद्ध में महत्वपूर्णभूमिका--कुरुक्षेत्र के महाभारत युद्ध को देखा जाय तो प्रतिज्ञाओं का धर्म युद्ध रूपमें ही प्रासंगिक एव प्रमाणिक सिद्ध होता प्रतीत होता है ।सर्वप्रथम गांधारी द्वारा अंधे पति धृतराष्ट्र के कारण स्वंय आंखों पर पट्टी बांधे जाने कि प्रतिज्ञा तो गांधारी के पिता द्वारा कुरुवंश को समाप्त करने की प्रतिज्ञा और अपनी अस्थियों को द्रुत क्रीड़ा का पासा बनाना द्वापर युग मे जन्मे ईश्वर के परम भक्त एव प्रतिज्ञा पराक्रम पुरुष पिता कि प्रसन्नता के लिए आजीवन ब्रह्मचारी रहने की वसु देवब्रत भीष्म कि प्रतिज्ञा एव किसी नारी या शिखंडी पर अस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा भगवान श्री कृष्ण द्वारा महाभारत के युद्ध मे अस्त्र न उठाने कि प्रतिज्ञा भगवान श्री कृष्ण कि प्रतिज्ञा खंडित करने कि एक और भीष्म प्रतिज्ञा द्रोपदी द्वारा केश खुले रखने और दुर्योधन दुःशासन के रक्त से केश धोने की प्रतिज्ञा भीम द्वारा सौ भाई कौरव का बध कर उनकी छाती का लहू लाने की प्रतिज्ञा साक्षी बना अर्जुन द्वारा सूर्यास्त तक जयद्रथ वध की प्रतिज्ञा गुरु द्रोणाचार्य द्वारा किसी पांडव महारथी के वध कि प्रतिज्ञा एव द्रुपद को बराबर बनाने की प्रतिज्ञा अनादि अनंत प्रतिज्ञाओं के धर्म युद्ध कुरुक्षेत्र कि भूमि का निर्माण अतित की महत्वपूर्ण घटनाओं के से निर्धारित होता जा रहा था जिसमे नारायण के छठे अवतार सप्त चिरंजीवीओ में आस्वस्थामा, बलि, व्यास ,हनुमान,विभीषण, कृपाचार्य एव परशुराम में भगवान परशुराम एव हनुमान कि अपत्यक्ष भूमिका बहुत महत्वपूर्ण भूमिकाएं धर्म युद्ध को धर्म के विजय कि तरफ ले जाती है ।हनुमान जी शिव के ग्यारहवें रुद्रांश है तो भगवान परशुराम नारायण के छठे अवतार दोनों ने ही पूर्णावतार द्वापर के भगवान श्री कृष्ण के सहायक के रूप में कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध में कार्य किया एव धर्म युद्ध के अप्रत्यक्ष कारक कारण भी बने भगवान परशुराम के तीन महत्वपूर्ण शिष्यों ने कुरुक्षेत्र के धर्म युद्ध मे प्रत्यक्ष भाग लिया एव युद्ध भूमि तक की पूरी प्रक्रिया से जुड़े रहे--द्वापर एव भगवान परशुराम जीद्वापर युग मे विशेषकर महाभारत केमहा युद्ध मे सनातन के पौराणिक ग्रंथों के अनुसार सप्त चिरंजीवी में सेप्रथम चिरंजीवी परशुराम जी का बहुत महत्वपूर्ण अप्रत्यक्ष उपस्थिति है उनके शिष्य द्रोणाचार्य, भीष्म ,कर्णका प्रत्यक्ष भागीदारी एव उपस्थिति थी शिखंडी,दृष्टद्युम्न, द्रोपदी, आदि का प्रदुर्भाव भगवान परशुराम के शिष्यों से ही हुआ था कर्ण बहुत विशिष्ट पात्र भी भगवान परशुराम से जुड़ा हुआ है वैसे सप्त चिरंजीवीओ मेंहनुमान जी अप्रत्यक्ष रूप से अर्जुन के रथ के ध्वज में सवार थे तो आश्वस्थामा ,व्यास,कृपाचार्य महाभारत कि सम्पूर्ण घटनाओं से जुड़े पात्र है कुल सात सनातन चिरंजीवीओ में पांच प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से महाभारत काल के महत्वपूर्ण परिवर्तनकारी युद्ध से जुड़े हुए है जिसमें हनुमान जी एव परशुराम जी अप्रत्यक्ष रूप से उपस्थित है।1-गुरुद्रोणाचार्य( गुरु द्रोण)---गुरु द्रोण भारद्वाज के एव अप्सरा घृतिका के पुत्र थे एव अस्त्र शस्त्र की शिक्षा उन्हें युग के सर्वश्रेष्ठ गुरु स्वंय नारायण के छठे अवतार भगवान परशुराम द्वारा दी गयी थी कृपाचार्य ने अपनी बहन कृपी का विवाह द्रोणाचार्य से किया गुरुकुल में द्रुपद एव द्रोणाचार्य साथ साथ पढ़ते थे दोनों में स्वभाविक मित्रता थी शिक्षा के बाद द्रुपद अपने राज्य के राजा हुए और द्रोणाचार्य कुरुवंश के कुलगुरु पांडवों एव कौरवों को शिक्षा दिया।आस्वस्थामा जो द्रोणाचार्य का सप्त चिरंजीवियों में एक चिरंजीवी पुत्र थाबचपन मे द्रोणाचार्य बहुत आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे थे उसी समय आस्वस्थामा का जन्म हुआ अश्वत्थामा जब दूध के लिए जिद्द करता तब माँ कृपी उंसे चावल के आटे का घोल पिलाती पति द्रोणाचार्य को ताने मारते कहती तुम्हारी हैसियत एक गाय तक की नही है कम से कम द्रुपद नरेश जो आपके सखा है उनसे ही एक गाय मांग लाते जिससे कम से कम बेटे अश्वत्थामा को दूध तो मिल जाता पत्नी के तानों से तंग आकर द्रोणाचार्य अपने बचपन के मित्र द्रुपद के पास एक गाय मांगने गए और बोले मित्र तुम्हारी हमारी बचपन गुरुकुल से ही मित्रता है मुझे पुत्र आश्वस्थामा के लिए एक गाय कि आवश्यकता है अतः तुम मुझे एक गाय दे दो इतना सुनते ही द्रुपद ने क्रोधित होकर अपमान करते हुए कहा द्रोणाचार्य मित्रता बराबर वालो के साथ होती है मैं राजा हूँ और तुम मामूली ब्राह्मण जिसकी एक गाय तक रख सकने की हैसियत नही है बचपन कि मित्रता का कोई महत्व नही होता है द्रोणाचार्य बचपन के मित्र द्वारा अपमानित होने के बाद बोले कोई बात नही द्रुपद जब मैं बराबर हो जाउंगा तब पुनः आऊंगा और वापस लौट आते है।द्रुपद से अपमानित होकर द्रोण कृपाचार्य के पास अपमानित शोक से कुछ दिनों एकांत में एक दिन कुरुवंशी बालक गेंद क्रीड़ा कर रहे थे उसी दैरान उनकी गेंद कुंए में गिर गईं बालको को गेंद के लिए परेशान देख द्रोणाचार्य ने अपने वाण विद्या कौशल से कुरुवंशी बालको कि वाण कुंए से निकाल दी कुरुवंशी बालको ने पूरी घटना को जब पितामह भीष्म से बताया तब पितामह भीष्म स्वंय मिलने द्रोणाचार्य के पास गए और उनके शस्त्र शास्त्र ज्ञान से प्रभावित होकर उन्हें कुरुवंशी बालको की शिक्षा के लिए गुरु नियुक्त किया।कौरवों और पांडवों की शिक्षा पूर्ण होने पर कौरव एव पांडवों द्वारा गुरुदक्षिणा मांगने के लिए प्रार्थना करने पर गुरु द्रोणाचार्य ने द्रुपद को बंदी बनाकर लाने कि गुरुदक्षिणा मांग लिया कौरव द्रुपद को बंदी नही बना सके पुनः अर्जुन एव पांडवों ने द्रुपद को पराजित कर बंदी बनाकर गुरु द्रोण के सामने प्रस्तुत कर देते है गुरु द्रोण द्रुपद का आधा राज्य लेकर उसे क्षमादान देते हुए कहते है की द्रुपद अब हमारी मित्रता बराबरी कि हो गयी है इस अपमान से आहत द्रुपद द्रोणचार्य के अंत के लिए चिंतित रहने लगता है और इस परिपेक्ष्य में निरंतर प्रयास करता रहता है।द्रुपद नरेश गुरु द्रोण से बदला लेने के प्रतिशोध में घुटता रहा और तत्कालीन ऋषियों और विद्वानों से द्रोण वध करने योग्य पुत्र की इच्छा से यज्ञ करने का अनुरोध किया लेकिन सभी ऋषियों और विद्वानों ने स्प्ष्ट रूप से उसकी इच्छा पूर्ति हेतु यज्ञ करने से मना कर दिया ।घूमते घूमते द्रुपद नरेश एक दिन कल्माषि नगर पहुचे और वहाँ ब्राह्मण समाज की बस्ती में कश्यप गोत्र के दो ब्राह्मण भाई उपयाज और याज रहते थे द्रुपद नरेश ने उपयाज से अपनी इच्छा व्यक्त किया लेकिन उपयाज ने उसकी इच्छा के अनुरूप यज्ञ कर सकने में अपनी असमर्थता जताई किंतु द्रुपद नरेश बिना हताश निराश एक वर्ष तक निःस्वार्थ भाव से उपयाज की सेवा किया उसकी सेवा भावना से प्रसन्न होकर उपयाज ने बड़े भाई याज से यज्ञ कराने का अनुग्रह करने को कहा जिसे याज ने स्वीकार कर लिया इस प्रकार याज ने द्रुपद कि मनोकामना के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया यज्ञ कि अग्नि कुंड से कवच कुंडल के साथ दिव्य बालक उतपन्न हुआ तद्पश्चात सुंदर कन्या ने जन्म लिया ।ब्राह्मणों द्वारा अग्नि कुंड से उतपन्न पुत्र का नाम दृष्टद्युम्न और कन्या का नाम द्रोपदी रखा गया।इस प्रकार परशुराम शिष्य द्रोण के साथ धर्मयुद्ध महाभारत के चार प्रमुख पात्रों स्वंय पांचाल नरेश द्रुपद ,दृष्टद्युम्न, एव द्रोपदी का प्रदुर्भाव हुआ।2- देवब्रत भीष्म--भगवान परशुराम के दूसरे शिष्य द्वापर युग के अतिमहत्वपूर्ण योद्धा देवब्रत भीष्म जिन्हें द्वापर युग का महान योद्धा भक्त एव पिता भक्त होने का गौरव प्राप्त है ।देवब्रत भीष्म को पिता शांतनु से ऐच्छिक मृत्यु का वरदान प्राप्त था अखंड ब्रह्मचारी और पिता कि इच्छा एव प्रसन्नता के लिए आजन्म ब्रह्मचारी रहने कि कठिन प्रतिज्ञा द्वापर के महाभारत युद्ध कि भूमि कुरुक्षेत्र की आधार पृष्टभूमि थी भगवान परशुराम के परम प्रिय शिष्यों में से एक थे ।भगवान परशुराम ने किसी क्षत्रिय को शिक्षा न देने की प्रतिज्ञा किया था फिर भी उन्होंने देवब्रत भीष्म को अपना शिष्य स्वीकार किया और उन्हें अस्त्र शस्त्र कि महत्वपूर्ण शिक्षा प्रदान किया इसके पीछे कारण बहुत स्प्ष्ट थे देवब्रत को शिक्षा के लिए स्वंय भीष्म कि माता गंगा लेकर गयी थी दूसरा कारण कि देवब्रत क्षत्रिय पिता शांतनु एव ब्राह्मण माता गंगा के पुत्र थे स्वंय भगवान परशुराम ब्राह्मण ऋषि पिता जमदग्नि एव चन्द्रवंशीय क्षत्रिय माता रेणुका की संतान थे भगवान परशुराम यही प्रमुख कारण था जो देवब्रत को अस्त्र शत्र की शिक्षा देने में भगवान परशुराम कि प्रतिज्ञा बाध्यता नही बनी।हस्तिनापुर में विमाता सत्यवती से जन्मे विचित्रवीर्य एव चित्रांगद के अयोग्यता एव क्षत्रिय पिता एव मस्त कन्या (मल्लाह ) कन्या सत्यवती से जन्मे पुत्रो को कोई क्षत्रिय अपनी कन्या देना नही चाहता था साथ ही साथ अयोग्य एव बलहीन होने के कारण किसी स्वयम्बर में भाग नही ले सकते थे जिसके कारण विवाह कि विकट समस्या खड़ी हो गयी उसी समय काशी नरेश ने अपनी तीन पुत्रियों अंबा अम्बे अम्बालिका का स्वयंबर रखा भीष्म ने सभी राजाओं को पराजित कर अम्बा अम्बे अम्बालिका को अपने रथ पर बैठा कर हस्तिनापुर ले आए अम्बे और अम्बालिका से क्रमशः विचित्र वीर्य और चित्रांगद का विवाह हो गया अम्बा ने कहा की वह शाल्व नरेश से प्रेम करती है और उसने स्वंयम्बर में वरमाला साल्व नरेश के गले मे डाला था अब जब आपने जबरन सभी राजाओं को परास्त कर मेरा अपहरण किया है तो आप मुझसे विवाह करे अम्बा के ऐसा कहने से देवब्रत भीष्म ने अम्बा को आजीवन ब्रम्हचारी रहने कि अपनी प्रतिज्ञा से अवगत कराते हुए अम्बा को साल्व नरेश से विवाह करने हेतु कहा अम्बा पुनः जब शाल्व नरेश के पास गई तो वह अम्बा का परिहास उड़ाते हुए कहा तुम्हारा अपहरण भीष्म ने किया है और तुम्हे जबरन अपने रथ पर बैठाया जिसके कारण तुम मेरे विवाह के योग्य नही रही अतः मैं विवाह नही कर सकता शाल्व से अपमानित होकर घूमते फिरते अपने नाना के पास पहुंची उसके नाना ने बताया की भीष्म भगवान परशुराम के शिष्य है अतः उंसे भगवान परशुराम के पास जाना चाहिए एव अपनी व्यथा के साथ भीष्म को उससे विवाह के लिए बाध्य करने के लिए निवेदन करे अम्बा अपने नाना का परामर्श मानकर भगवान परशुराम के पास गई और सारा अपने साथ हुए अन्याय को बताया और न्याय के अनुसार भीष्म से विवाह करने के लिए भीष्म को गुरु होने के नाते आज्ञा देने की बात कही अम्बा की व्यथा सुनकर भगवान परशुराम ने भीष्म को बुलाने के लिए संदेश भेजा लेकिन भीष्म को जब वास्तविकता कि जानकारी हुई तब उन्होंने गुरु के समक्ष न जाना ही उचित समझा भीष्म के न आने पर भगवान परशुराम स्वंय अम्बा को लेकर भीष्म के पास गए और भीष्म को अम्बा से विवाह करने का गुरुवत आदेश दिया गुरु का आदेश सुनकर भीष्म ने अपनी आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा बताई और विनम्रता पूर्वक गुरु का आदेश मानने से इन्कार कर दिया तब क्रोधित होकर भगवान परशुराम ने भीष्म को युद्ध के लिए ललकारा युद्ध कि शर्त यह थी कि यदि भीष्म पराजित हो जाते है तो उन्हें अम्बा से विवाह करना होगा दोनों में भयंकर युद्ध इक्कीस दिनों तक हुआ अंत मे भीष्म ने पाश्र्वपास्त अस्त्र का प्रयोग ज्यो ही करना चाहा समस्त देव गणों ने भीष्म को ऐसा करने से रोका क्योकि पार्श्वपास्त के प्रभाव से शत्रु युद्धभूमि में निद्रा में चला जाता है और युद्व भूमि में निद्रा पराजय मानी जाती है अन्तत भगवान परशुराम ने अपने प्रिय शिष्य भीष्म से पराजय स्वीकार किया परशुराम के पराजित होने के बाद अम्बा ने भगवान परशुराम एव भीष्म दोनों के समक्ष प्रतिज्ञा लिया कि जब तक वह भीष्म का काल नहीं बन जाती तब तक वह जन्म पर जन्म लेती जावेगी और वह भगवान शंकर कि घनघोर कठिन तपस्या करने लगी अंत मे प्रसन्न होने पर भीष्म के गुरु भगवान परशुराम के गुरु भगवान शिव शंकर ने अम्बा को अपने अर्धनारीश्वर स्वरूप में द्रुपद नरेश कि संतान का वरदान दिया अम्बा ने ही द्रुपद नरेश के शिखंडी पुत्र के रूप मे जन्म लिया था।।कर्ण-- द्वापर युग में महाभारत काल का एक और महत्वपूर्ण व्यक्तित्व कर्ण था कर्ण अविवाहित कुंती एव सूर्य देव के संयोग से कवच कुंडल के साथ जन्मा था लोकलाज के भय से कुंती ने कर्ण को लकड़ी के संदूक में बंद कर नदी में बहा दिया नदी में बहते बहते हुए बालक के रुदन का आवाज राधा दम्पति ने सुनी तो नवजात को घर लाए और लालन पालन शुरू किया जब कर्ण शिक्षा ग्रहण करने के योग्य हुआ तब वह भगवान परशुराम के पास शिक्षा प्राप्त करने का अनुरोध यह जानते हुए किया कि भगवान परशुराम सिर्फ ब्राह्मणों को ही शिक्षा देते थे अतः कर्ण ब्राह्मण वेश में उनके पास शिक्षा के लिए गया और अपना परिचय एक ब्राह्मण युवक के रूप में दिया भगवान परशुराम ने कर्ण की बात मान लिया और कर्ण को शिक्षा देने लगे कर्ण की शिक्षा पूर्ण ही होने वाली थी कि एक दिन भगवान परशुराम और कर्ण शस्त्र अभ्यास करते करते थक कर एक बृक्ष के नीचे थकान दूर करने के लिए बैठे कुछ देर बाद भगवान परशुराम को नींद आ गयी और वे अपना सर कर्ण के गोद मे रखकर गहरी निद्रा में सो गए तभी एक कीड़ा कर्ण के जांघ के नीचे से उसके जंघे को काटता हुआ जिसके कारण रक्त श्राव होने लगा जंघे के ऊपर पहुंचा असह वेदना के वावजूद कर्ण ने गुरु कि निद्रा बाधित न हो इसलिये शांत भाव से बिना विचलित हुए बैठा रहा जब रक्त कि गर्माहट का अनुभव भगवान परशुराम ने किया तब उनकी निद्रा टूटी निद्रा टूटते ही उन्होंने कर्ण की ओर आश्चर्य भरी दृष्टि से देखा और क्रोध से बोले की इतनी सहनशीलता ब्राह्मण में हो ही नही सकती अतः तुम ब्राह्मण नही हो तुम तो क्षत्रिय पुत्र हो तुमने मुझे झूठ बोला और ब्राह्मण वेश में मुझसे शिक्षा प्राप्त किया है अतः मैं तुम्हे श्राप देता हूँ कि जब भी तुम्हे मेरे द्वारा सिखाई विद्याओं कि विशेष आवश्यकता होगी तभी मेरे द्वारा सिखाई गयी विद्या भूल जाओगे यही श्राप कर्ण के अंत का कारण भी बना महाभारत युद्ध के सत्रहवें दिन जब कर्ण के रथ का पहिया पृथ्वी में धंस गया और वह उसे निकालने लगा तभी अर्जुन ने उस पर दिव्यास्त्र का प्रयोग किया जिससे उसकी मृत्यु हुई जबकि अर्जुन के दिव्यास्त्रों की काट कर्ण के पास थी जिसे वह भूल गया था।।भगवान परशुराम और कलयुग- कल्कि पुराण के अनुसार परब्रह्म नारायण श्री हरि के चौबीसवें कल्कि अवतार में भगवान कल्कि के गुरु होंगे और भगवान कल्कि अवतार को भगवान शिव शंकर कि तपस्या कर अस्त्र शस्त्र एव दिव्यास्त्रों को प्राप्त करने का मार्गदर्शन करेंगे।।भार्गव परशुराम एव रघुवंशी राम--1-परशुराम जी का जन्म सतयुग एव त्रेता के संधि काल मे हुआ था राम अवतरण त्रेता युग मे हुआ था त्रेता युग ही मात्र ऐसा युग है जिसमे नारायण श्री हरि के दो अवतारों का वर्णन सनातन ग्रंथो में है प्रथम भार्गव गोत्री जमदग्नि सूत परशुराम जिनका जन्म के साथ नाम सिर्फ (राम )ही था भगवान शिवशंकर द्वारा अपना प्रिय अस्त्र कुल्हाड़ी (फरसा) दिए जाने के बाद नाम परशुराम हो गया जबकि सूर्यवंसी दशरथ नंदन भगवान राम का नाम राम ही था।2- भगवान परशुराम पांच भाई रुक्मवान,सुषेण,वसु,विश्वावसु परशुराम थे जबकि भगवान राम, भरत, लक्ष्मण शत्रुघ्न भी चार ही भाई थे।3- भगवान परशुराम एव राम दोनों ही अनन्य शिवभक्त थे परशुराम जी तो भगवान शंकर के भक्त एव शिष्य दोनों थे ।( रामचरित मानस के अनुसा भगवान श्री राम ने कहा शिव द्रोही मम दास कहवा तेहि नर मोहि सपने नही भावा)4- परशुराम जी एव दशरथ नंदन राम दोनों ही पितृ भक्त थे परशुराम जी ने पिता कि आज्ञा मानकर अपनी माता रेणुका एव चारो भाईयों का वध तक कर डाला और पिता कि प्रसन्नता से वरदान पाकर पुनः उन्हें जीवित करा दिया ।दसरथ नंदन राम ने पिता द्वारा विमाता कैकई को दिए गए वरदान को आज्ञा मानक चौदह वर्षों के लिए वन चले गए हालांकि बाद में जिस पिता के वरदान को आज्ञा मानकर वन गए उन्होंने अनेको बार पुत्र राम को वन जाने से मना करते हुए अपनी आज्ञा की अवहेलना के लिए याचना तक की और पुत्र राम वियोग में ही दसरथ जी ने प्राणों का त्याग किया।5- परशुराम जी को न्याय का देवता माना जाता है जबकि दसरथ नंदन श्री राम जी को मर्यादा का देवता।6-भगवान परशुराम ने धर्म कि स्थापना के लिए आसुरी प्रवृत्ति का नाश कियाजिसमे हैहव वंशीय शासक राजा थे।भगवान राम ने मर्यादाओं की स्थापना के लिए असुरों का नाश किया जिसमे पुलस्ति कुल का रावण लंकाधिपति था।7-हैहव वंशी सहत्रार्जुन द्वारा जबरन मुनि जमदग्नि से कपिला कामधेनु गाय बलपूर्वक छिनने एव आहत करने पर परशुराम जी ने सहत्रार्जुन का वध किया प्रतिशोध में सहत्रार्जुन पुत्रो ने मुनि जमदग्नि का वध किया तब परशुराम के पराक्रम के युग का सूत्रपात हुआ।भगवान राम के वनगमन के समय रावण कि बहन सुपर्णखा ने राम लक्ष्मण के समक्ष क्रमश विवाह प्रस्ताव रखा इनकार करने पर कुपित सुपर्णखा कि दानवी प्रवृत्ति के कारण लक्ष्मण द्वारा उसका नाक कान काटे जाने से एव उसके द्वारा भाई रावण को उकसाने एव रावण द्वारा माता सीता के हरण से राम रावण युद्ध एव रावण कुल कि समाप्ति हुई।8- परशुराम जी ऋषिकुल में जन्मे थेजिनके पास ना तो कोई राज्य था ना ही वो राजा ही थे उनके पास था तो पुश्तेनी आश्रम हैहववंशी क्रूर शासकों से पृथ्वी को भार मुक्त कराने के बाद उन्होंने जीता हुआ राज्य एव पृथ्वी ऋषि कश्यप को दान में दे दी।भगवान राम अयोध्या के सूर्यवंसी इक्ष्वाकु कुल में राजकुमार के रूपहुआ था भगवन राम ने भी कृषकिन्धा का राज्य सुग्रीव और लंका का राज्य विभीषण को दे दिया।।9- भगवान राम का जन्म चैत्र मास के शुक्ल पक्ष कि नवमी तिथि को मध्य दिवस में हुआ था पुनर्वसु नक्षत्र एव कर्क लग्न में हुआ था उस समय अभिजीत मुहूर्त के साथ साथ पांच ग्रह अपने उच्चतम स्थान पर थे।परशुराम जी का जन्म बैशाख शुक्ल पक्ष कि तृतीया को मध्य रात्रि को हुआ था।भगवान राम का अवतार त्रेता युग मे हुआ था जबकि भगवान परशुराम का अवतार सतयुग के एव त्रेता के संधि काल के मध्य मे हुआ था।10-भगवान परशुराम एव राम दोनों ही नारायण श्री हरि के क्रमशः छठे एव सातवे अवतार है ऐसा ही सनातन कामत विश्वास है ।दोनों ने ही अपने काल समय कि नकारात्मक आसुरी शक्तियों को पराजित कर पृथ्वी को भार मुक्त किया दोनों के अवतार अवतरण के काल समय परिस्थितियों में बहुत समानता थी ।निष्कर्ष--आदरणीय डॉ प्रोफेसर एस पी त्रिपाठी द्वारा जी गोरखपुर जिनके मार्गदर्शन में सनातन ब्रह्मसभा का गठन है एव जिसके द्वारा प्रत्येक वर्ष महामना मदनमोहन मालवीय एव परशुराम जी की जयंती का आयोजन किया जाता है ।आयोजन में ब्राह्मण राजपूत एव सभी वर्ग एव धर्मो के विद्वत अपने अपने विचार प्रस्तुत करते है ।मैं भी नियमित तौर पर बहुत वर्षों तक इस आयोजन में सम्मिलित होता रहा हूँ ।एक बार परशुराम जयंती के आयोजन में प्रोफेसर डॉ एस पी त्रिपाठी अपने उदगार में बताया कि जब उनके द्वारा सनातन ब्रह्म सभा के तत्त्वाधान में परशुराम जयंती का प्रथम बार आयोजन किया जा रहा था तब परशुराम जी का कोई फ़ोटो पूरे गोरखपुर में नही मिला तब उन्हें लखनऊ से फ़ोटो मंगाना पड़ा।समाज मे पता नही यह भ्रम कब से और कहाँ से आ गया कि परशुराम जी क्षत्रिय द्रोही थे यही भ्रम कलयुग में परशुराम जी के अवतारिय गरिमा को समाप्त करता है।सनातन के अवतार दर्शन में तीन अवतार बिभिन्न प्राणियों के है मत्स्यावतार, कच्चप अवतार, बाराह अवतार जबकि चौथा अवतार आधा नर आधा सिंह का था तो पांचवे से आठवें अवतार पूर्ण मानुष्य के रूप में हुए जिसमें वामन और परशुराम अवतार ऋषियों के कुल में हुए और राम का अवतार सूर्यवंसी इक्षाकु वंश में हुआ आठवां पूर्णअवतार चंद्रवंशी यदुकुल में हुआ और लालन पालन यादव कुल में हुआ यही सनातन धर्मग्रंथों कि पौराणिक सत्यता है ।ब्रह्म निर्विकार एव सर्व हिताय ही अवतरित होता है और आसुरी प्रवृत्तियों से पृथ्वी को भार मुक्त करता है यही कार्य सभी अवतारों द्वारा किया गया है तो कहीं न कही भगवान परशुराम की महिमा गरिमा को विकृत यह कहकर किया गया है कि वह क्षत्रिय कुल द्रोही थे जबकि वह तो परब्रम्ह के ही छठे अवतार थे ब्रह्म पक्षपात नही करता वह तो समूर्ण सृष्टि के कल्यार्थ ही अवतारित होता है अतः भगवान परशुराम का सृष्टि के प्रथम चिरंजीवी रूप में अवतरण एव सभी युगों में उनकी सनातन ग्रंथो और पुराणों के अनुसार उन्हें ब्रम्ह के अवतरण के सत्यार्थ के रूप में स्थापित करती है यहाँ तक की भगवान कल्कि के गुरु के रूप में भी वह युग परिवर्तन के कारक कारणों में विद्यमान रहेंगे तो सतयुग से त्रेता के युग परिवर्तन काल मे क्रूर दमनकारी अन्यायी शासकों से पृथ्वी को भार मुक्त किया तो द्वापर में भगवान श्री कृष्ण ने अधर्म को धर्मयुद्ध से समाप्त कर नए युग का संदेश दिया जिसमें उन्हें स्वंय अपने वंश कि आहुति तक देनी पड़ी।अवतार का सत्य ही यही है--यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत अभ्युत्थान अधर्मस्य तदामन्यमसृजाह्म परित्राणाय साधुनाम विनायास दुस्कृता धर्मसंस्थसपनार्थय सम्भावनि यूगे यूगे।।नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश।।