Dwaraavati - 75 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 75

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द्वारावती - 75


75
                                    

“मैं मेरी पुस्तकें अभी प्रकाशित नहीं करवाना चाहता। मुझे वह लौटा दीजिए।”
“क्यों? क्या हो गया?”
“मुझे प्रतीत हुआ है कि कुछ लिखना छुट गया है। मैं उसे लिखना चाहता हूँ। जब तक मैं वह लिख ना लुं तब तक वह पुस्तकें अपूर्ण रहेगी। मैं उसे पूर्ण करना चाहता हूँ। कृपया मुझे वह सब लौटा दें।”
“ठीक है, जैसी आपकी इच्छा। मेरी कामना है कि आप शीघ्र ही इन्हें पूर्ण कर हमें इन्हें प्रकाशित करने का अवसर प्रदान करेंगे।” 
प्रकाशक ने हस्तप्रतें लौटा दो।
अपनी पुस्तकों की हस्तप्रतें लेकर उत्सव गंगा के उस तट पर गया जहां उसने कालिन्दी से बांसुरी सुनी थी। उसे बांसुरी की उसी धुन का स्मरण हो गया। उसे वह अनुभव पुन: होने लगा। 
वह धीरे धीरे गंगा की तरफ़ बढा, भीतर गया, सभी पुस्तकें उसने गंगा के प्रवाह में बहा दी।
“तेरा तुझ को अर्पण।” गंगा को प्रणाम कर वह तट पर आ गया।
चलते चलते किसी उत्तरवाहिनी के एक बिंदु पर जाकर वह रुक गया। जब मनुष्य जो कर रहा है उस कार्य करते करते रुक जाय तो विचार प्रारम्भ हो जाते हैं। उत्सव के विचार भी प्रारम्भ हो गए।
‘मैंने मृत्यु की सभी गाथाएँ गंगा में बहा दी किंतु इससे आगे क्या? मुझे क्या करना चाहिए? क्यों करना चाहिए? कैसे करना चाहिए? कोई मार्ग क्यों नहीं दिख रहा? कुछ भी समझ नहीं आ रहा है।’ उसके मन में प्रश्न उठ रहे थे, अनेक विचार भी चल रहे थे। ऐसे विचार जिसका एक दूसरे से सम्बंध था भी, नहीं भी। उत्सव ने उन विचारों को नियंत्रित करने का प्रयास नहीं किया। उसे आने दिया।
‘यह गंगा इतनी डरी सी क्यों है? कितना धीरे धीरे बह रही है। जैसे कोई उसे बलात् धकेल रहा हो। वह अपनी इच्छानुसार नहीं बह रही। किसी विशाल बोज के नीचे दबी हुई लग रही है।’
वह गंगा के समीप गया, “हे गंगे, तुम तो उत्तरवाहिनी हो ना? क्यों? क्यों तुमने अपनी सहज दक्षिणवाहिनी गति का इस स्थान पर त्याग कर दिया? समग्र जगत को मोक्ष देने हेतु? मोक्ष? 
तुम जन जन को मोक्ष देने के उत्तरदायित्व के निरर्थक भार तले अपना मूल चरित्र खो बैठी हो। अपने साथ मृत व्यक्तियों की राख लिए, अस्थि लिए तुम उत्तर की तरफ़ बह रही हो। क्यों? किसने दिया तुम्हें यह दायित्व? या स्वयं स्वीकार लिया है तुमने? यह मनुष्य तो स्वार्थी है। तुमने उसे अपने जल से जीवन दिया किंतु मनुष्य ने मृत होकर भी तुम्हें मोक्ष नाम के दायित्व से बांध रखा है। और तुम, बिना किसी विरोध के इस दायित्व का वहन किए जा रही हो। युगों से ! 
क्या तुमने कभी विरोध करने की इच्छा, विद्रोह करने की इच्छा की? क्यों नहीं की? करोड़ों व्यक्तियों की अस्थियाँ लेकर तुम उत्तर दिशा में जाति हो जहां स्वर्ग होता है ऐसा माना जाता है। यह बताओ कि आज तक तुमने कितने व्यक्तियों की अस्थि को स्वर्ग तक पहुँचाया? कदाचित किसी को नहीं। 
तो यह दम्भ कैसा? क्या तुम इस दम्भ को त्याग नहीं सकती? क्यों इस अनावश्यक भार को वहन कर रही हो? त्याग दो इस दम्भ को। विद्रोह कर दो, एक बार । केवल एक बार। पश्चात यह मनुष्य कभी तुम्हें ऐसे किसी अनावश्यक दायित्व में बांधने का साहस नहीं करेगा। बस, तुम साहस कर दो, एक बार। केवल एक बार। क्या है इतना साहस तुम में?”
“मुझ में नहीं है किंतु क्या तुम में है यह साहस?”
“मुझ में? कैसा साहस? बात तुम्हारे साहस की हो रही है।”
“तुम में, उत्सव तुम में? मेरी बात कर रहे हो किंतु अपनी बात भी कर लिया करो।क्या तुम में साहस है मेरे इस तट को त्यागने का? नहीं ना? तुम ही तो मेरे तट पर जीवन से मुक्ति के लिए ही आए हो ना? तुम अपनी इस मनसा को त्यागने का साहस रखते हो? यदि साहस है तो मेरे इस तट को त्याग कर दिखाओ। अन्यथा व्यर्थ उपदेश मुझे ना सुनाओ। तुमसे कहीं अधिक ज्ञानी मेरे तट पर रह चुके हैं।”
उत्सव ने जो शब्द सुने उसे पकड़ने के प्रयास में उसने सभी दिशाओं में देखा। कोई नहीं था। 
“कौन कह रहा है यह सब? मेरी अंतरात्मा या स्वयं गंगा?”
“तुम अपना ज्ञान मुझे ही दे रहे थे ना? तो मेरे अतिरिक्त तुम्हें उत्तर कौन दे सकता है? मैं ही बोल रही हूँ, गंगा। उत्तरवाहिनी गंगा । मोक्षदायिनी गंगा। मोक्ष के दायित्व से थकी हुई गंगा।”
“हे मां गंगे। मुझे क्षमा करो। मन की व्याकुलता में मैं ना जाने क्या क्या कह गया ! मैं मार्ग से भटक गया हूँ। मुझे मार्ग दिखाओ।” उत्सव ने गंगा को नमन किया।
“मार्ग ही तो दिखाया था मैंने। तुमने उस संकेत को समझा कहाँ है?”
“कब? कहाँ? कैसा मार्ग? कैसा संकेत?”
“मैं स्वयं तो मनुष्य रूप धारण नहीं कर सकती। किंतु मैं किसी मनुष्य के माध्यम से तुम्हें मार्ग दिखा चुकी हूँ। वही मेरा संकेत भी है।”
“आप? आप स्वयं?” उत्सव विचारने लगा। स्मरण करने का विफल प्रयास करता रहा।
“कुछ समय पूर्व मैंने ही तुम्हें बांसुरी सुनाई थी, वत्स।”
“बांसुरी? आपने? वह तो … कालिन्दी थी।”
“उसे मैंने ही तुम्हारे पास भेजा था।”
“तो वह आपका संकेत था?”
“और नहीं तो क्या?”
“किंतु ….।.” उत्सव रुक गया। 
“किंतु से आगे भी कुछ बोलो, उत्सव। मैं तुम्हारे मन के सभी संशय को निरस्त कर दूँगी। कहो, उत्सव कहो।”
“मैं मान लेता हूँ कि कालिन्दी ही आपका संकेत है। किंतु वह तो कृष्ण भक्त है। गीता पढ़ती है। जीवन की बातें करती है। स्वयं जीवन से भरपूर है। वह इस मृत्यु नगरी काशी में क्या कर रही है? वह यहाँ कैसे?”
“वह तुम्हें मार्ग दिखाने आइ थी। तुम इस मृत्यु नगरी में हो तो उसे भी यहाँ ही आना पड़ेगा ना?”
“ओह। किंतु उसने क्या संकेत दिया? कौन सा मार्ग दिखाया? मुझे कुछ स्पष्ट नहीं हो रहा है।”
“अरे मूर्ख। संकेतों को समझने का ज्ञान भी रखो। केवल शास्त्रों का ज्ञान होना पर्याप्त नहीं होता है।”
“मेरी सहायता करो।” उत्सव ने हाथ जोड़ विनती की।
“उस युवति का नाम ही संकेत है। स्मरण है वह नाम?”
“कालिन्दी।” 
“इस नाम से क्या संकेत मिलता है, उत्सव? अब तुम स्वयं सोचो, समझो। इससे आगे मैं तुम्हारी सहायता नहीं करूँगी।”
उत्सव ने गंगा के प्रवाह को देखा। वह बह रहा था। उसमें से उत्पन्न हुए सभी शब्द शांत हो गए थे। अब केवल उसके बहने का निनाद ही शेष था वहीं।
उत्सव विचार करता रहा, संकेत को समझने का प्रयास करता रहा। 
‘अब जो भी करना है, मुझे स्वयं करना होगा। गंगा ने तो अपनी बात रख ली। और अब मौन हो गई। मुझे संकेत का अर्थ निकालना होगा, मार्ग ढूँढना होगा।’
“कालिन्दी …, कालिन्दी …., कालिन्दी।” कालिन्दी के नाम का जाप करता हुआ उत्सव गंगा के तट पर चलता रहा, चलता रहा, चलता रहा।
एक अंतराल के पश्चात वह सहसा रुक गया। उत्सव के मन में एक चेतना प्रकट हो गई। तन में नई ऊर्जा प्रवाहित हो गई। 
“ओह। कालिन्दी के पास जाने का संकेत दिया है उसने। कालिन्दी अर्थात् यमुना। यमुना अर्थात् मथुरा, वृंदावन, व्रज, नंद, बरसाना, गोवर्धन। अर्थात् कृष्ण ! ओह, कृष्ण । कृष्ण। तुमने मुझे बुलाया है। यदि यही नियति है तो मैं आ रहा हूँ तेरे द्वार पर, कृष्ण।”
उत्सव ने मथुरा जाने का निश्चय कर लिया। मथुरा अर्थात् कृष्ण। कृष्ण अर्थात् जीवन। अर्थात् आनंद। कृष्ण से जुड़ने पर आनंद भी, जीवन भी। अखंड आनंद, अनंत आनंद। उत्सव के मन में उमंग का संचार होने लगा।