Shuny se Shuny tak - 89 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | शून्य से शून्य तक - भाग 89

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शून्य से शून्य तक - भाग 89

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“बेटा! मनु बहुत परेशानी में रह लिए, जानती हूँ कि जब तक आशी की कोई खबर नहीं मिल जाती तुम दोनों ही परेशान रहोगे लेकिन मुझे लगता है अब जीवन में कुछ बदलाव आना चाहिए—”अनिकेत की मम्मी ने एक दिन अनन्या, मनु और बहनों व अनन्या की मम्मी के सामने कहा| 

“सॉरी आँटी , मैं समझा नहीं----”क्या, कैसा बदलाव? मनु को कुछ समझ में नहीं आ रहा था| 

“बिटिया एक साल की होने लगी है, आशी को खोजने के लिए सारी कोशिशें कर लीं गईं हैं, अब ईश्वर पर छोड़कर बच्ची पर ध्यान दो| ”

“मतलब आँटी---”मनु और अनन्या दोनों के मुख से एक साथ निकला| 

“इस बच्ची का जन्म ऐसी परिस्थिति में हुआ था कि इसके आने की खुशी किसी से भी नहीं बाँटी गई थी| यह गलत है| अगर दीना भाई साहब होते तो क्या वे बच्ची के जन्म पर कुछ न करते? मैं समझती हूँ, वह समय कितना मुश्किल था लेकिन पूरी ज़िंदगी ऐसे ही रहोगे क्या? ”उन्होंने कुछ गंभीर स्वरों में अपनी बात सबके सामने परोस दी| 

“भाई, ठीक कह रही हैं मम्मी, बिटिया का कोई संस्कार भी नहीं हुआ| इसमें इसका क्या कसूर है भला? न छटी, न अन्नप्राशन और न ही नामकरण संस्कार हुआ| अब इसका जन्मदिन आ रहा है, उसमें बिटिया के सारे संस्कार होंगे| ”जैसे आशिमा ने अपना निर्णय सुना दिया था| 

लगता था जैसे आशिमा और मम्मी जी घर पर सब कुछ सुनिश्चित करके आईं थीं| रेशमा की तो बाँछें खिल गईं| खुश तो अनन्या भी हो गई थी, उसके चेहरे से स्पष्ट दिखाई दे रहा था, आखिर वह माँ थी लेकिन फिर भी उसके चेहरे पर एक झिझक सी थी| वह जैसे मनु का चेहरा पढ़ने लगी थी, न जाने मनु के भीतर की पीड़ा कितनी गहरी है ! 

“क्यों , ठीक कहा न मैंने अनन्या ? ”अनिकेत की मम्मी ने सीधे बिटिया की मम्मी से ही पूछ लिया| 

वह बेचारी कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थी, उसने चुप रहकर ही जैसे अपनी स्वीकृति दे दी थी| 

सच ही था बेचारी बच्ची इस परिवार में कुछ ऐसे आई थी मानो उसे कहीं से उठाकर या उधार लेकर आया गया हो ! अनन्या माँ थी, इस बात को महसूस करती थी लेकिन परिस्थिति व मनु की मानसिक दशा के बारे में सोचकर कुछ बोल नहीं पाती थी| 

“जी, आँटी—ठीक कह रही हैं आप| आप लोगों को जैसा ठीक लगे कर लीजिए| ”मन तो मनु का भी कुछ उल्लसित हुआ लेकिन क्षण भर के लिए ही| कुछ पलों के बाद वह फिर वैसा ही हो गया था---गुम-सुम सा---

“हम बूआ हैं, हमें अभी तक हमारे कंजूस भाई ने अपनी बेटी होने का कुछ नहीं दिया---”आशिमा ने जान-बूझकर वातावरण को हल्का करने के लिए कहा| 

“ठीक ही तो कह रही हैं आशिमा दीदी---क्यों अनु भाभी---”रेशमा ने भी बहन के सुर में सुर मिलाया| 

“बिलकुल ठीक कह रही हैं दोनों बहनें मनु---इनका अधिकार भी बनता है और तुम्हारा प्यार भी अपनी बहनों के लिए---”आशिमा की सास परिवार के वातावरण में अब खुशी की चमक देखना चाहती थीं| 

जब से दीना जी गए थे और इस बच्ची का जन्म हुआ था इस परिवार ने न तो कोई खुशी मनाई थी और न ही किसी की खुशी में शामिल होते थे| ऊपर से आशी के गायब हो जाने से और भी सब मन से खिन्न से हो गए थे जो स्वाभाविक था लेकिन जीवन को कब तक घसीटा जाए, उसको जीने के दिन कब तक आएंगे? प्रश्न गंभीर था| आना-जाना संसार का नियम है। न कोई किसी के साथ आया है और न कोई गया है फिर भी इंसान टूटने लगता है और अपने जीवन को कष्टकर बना लेता है| वह समझता सब है कि उसके हाथ में कुछ नहीं फिर भी नासमझ बनकर उदासी ओढ़ता-बिछाता है| 

“देखो, हम सब समझते हैं लेकिन जीवन ऐसे नहीं गुज़रता बेटा, रही आशी की बात, अगर वह दो/पाँच साल तक भी न आई तो तुम लोग बच्ची का जीवन उदास, खराब कर दोगे? ईश्वर पर छोड़ो, जैसे तुम्हें अचानक तलाक के पेपर्स मिले हैं, ऐसे ही किसी दिन आशी भी मिल जाएगी---अब ज्यादा टाइम नहीं है| प्लानिंग करो बच्ची के जन्मदिन की और उसकी खुशी मनाने की---”

“क्यों माधो---? तुम्हारे मालिक होते तो बिटिया के लिए कितने खुश होते और न जाने क्या-क्या कर देते| ”माधो कुछ ही देर पहले छोटे के साथ शाम का नाश्ता लेकर ऊपर ही आ गया था| 

आज रविवार था और सब इस समय अनन्या के कमरे में बैठे थे| अनिकेत की मम्मी तो लगभग हर रविवार को अनिकेत या आशिमा के साथ यहाँ आ जातीं| उनके पति भी कभी आ जाते थे लेकिन इनका आना तो निश्चित ही था| 

माधो पूरी बात तो नहीं सुन पाया था, उसे उसकी ज़रूरत भी नहीं थी| जो उसने सुना वह इस उदास वातावरण में प्रसन्नता फैलाने के लिए काफ़ी था| 

“बिलकुल ठीक है , इस बार खूब ज़ोर से जश्न मनाना चाहिए, शायद आशी बीबी के कानों तक इस जश्न की गूंज पहुँच जाए---”वह बहुत खुश हो गया था जबकि अपने मालिक और आशी बीबी की याद ने उसकी आँखों में आँसु भर दिए थे| 

“बताइए, क्या-क्या तैयारियाँ करनी हैं--? ”माधो ने आँखों में भरे आँसु चुपके से पोंछ डाले फिर भी सबने उसकी डबड़बाई आँखों को देख लिया था| 

“अभी काफ़ी समय है, पंद्रह दिन से भी ऊपर, तैयारी तो हो ही जाएगी| माधो! तुम सबसे पहले मेहमानों की लिस्ट देख लो----मैं समझती हूँ सब फ़ंक्शंस घर में ही हों जिससे यहाँ का वातावरण बदल सके और ज़िंदगी एक नए सिरे से जीनी शुरू हो सके| ”

“जी, ठीक है---”माधो ने आदर से आशिमा की सास से कहा| 

“हम तो भई शॉपिंग शुरू करते हैं, दीना अंकल थे तो कितनी शॉपिंग करवाते थे बिना किसी बड़े कारण के| ये तो हमारी बिटिया का पहला जन्मदिन है---| ”रेशमा खिल उठी थी | 

“देखिए, हम दोनों बिटिया की बूआ हैं, उसका नाम हम दोनों ही रखेंगे| बेचारी का अभी तक नाम ही नहीं रखा गया| 

मनु चुपचाप सबके चेहरों पर प्रसन्नता देखकर स्वयं भी प्रसन्न हो उठा था| उसकी प्रसन्नता कुछ धूप-छाँव जैसी थी| कभी आती तो कभी चली जाती| सबको ऐसा लग रहा था कि मनु कुछ कहना चाहता है लेकिन कह नहीं पा रहा है| वह जैसे हिचक रहा था| 

“क्या कहना चाहते हो मनु? ”अनिकेत की मम्मी यानि आशिमा की सास सरल किन्तु समझदार व संवेदनशील थीं और इन सब बच्चों पर अपना अधिकार समझने लगी थीं| “बोल दो न मनु, यहाँ सब तुम्हारे अपने ही हैं बेटा| ”वे मनु के अंदर की बात निकलवाना चाहती थीं|  “आँटी ! मैं बेटी का नाम आशी रखना चाहता हूँ---”उसने धीरे से कहा|