सूनी हवेली - भाग - 5 in Hindi Crime Stories by Ratna Pandey books and stories PDF | सूनी हवेली - भाग - 5

Featured Books
  • રહસ્ય,રહસ્ય અને રહસ્ય

    આપણને હંમેશા રહસ્ય ગમતું હોય છે કારણકે તેમાં એવું તત્વ હોય છ...

  • હાસ્યના લાભ

    હાસ્યના લાભ- રાકેશ ઠક્કર હાસ્યના લાભ જ લાભ છે. તેનાથી ક્યારે...

  • સંઘર્ષ જિંદગીનો

                સંઘર્ષ જિંદગીનો        પાત્ર અજય, અમિત, અર્ચના,...

  • સોલમેટસ - 3

    આરવ રુશીના હાથમાં અદિતિની ડાયરી જુએ છે અને એને એની અદિતિ સાથ...

  • તલાશ 3 - ભાગ 21

     ડિસ્ક્લેમર: આ એક કાલ્પનિક વાર્તા છે. તથા તમામ પાત્રો અને તે...

Categories
Share

सूनी हवेली - भाग - 5

दिग्विजय ने घर के चौकीदार भोला काका को आवाज़ लगाते हुए कहा, "काका, अनन्या जी का सामान तांगे से उतारकर गेस्ट रूम में रखवा दो।"

भोला काका ने कहा, "जी साहब, मैं अभी रखवा देता हूँ।"

इसके बाद भोला ने अनन्या की ओर देखा और कहा, "अंदर आइए, मैं आपका कमरा दिखा देता हूँ।"

तब अनन्या और दिग्विजय दोनों हवेली में अंदर आए।

हवेली में अंदर आते ही सबसे पहले अनन्या की मुलाकात यशोधरा से हुई। यशोधरा भी किसी से कम नहीं थी। रईसी उसके भी चेहरे पर विद्यमान थी। उसे देखते ही अनन्या समझ गई कि यह तो दिग्विजय की पत्नी ही होगी।

उसने कहा, "नमस्ते मैम।"

यशोधरा ने नमस्ते का जवाब दिया और वह भी दिग्विजय की ही तरह अनन्या के बारे में सोचने लगी, वाह लगता है ऊपर वाले ने इसे बड़े आराम से सोच समझ कर बनाया होगा। वह सोच में पड़ गई कि क्या इतनी सुंदर बला को घर में रखना ठीक होगा? वह कहते हैं ना कि स्वर्ग में भी अप्सराओं ने ऋषि मुनियों की तपस्या भंग की है। एक मर्द की नीयत का कोई भरोसा नहीं होता कि वह कब कहाँ और कैसे किसी खूबसूरत हुस्न के जाल में फंस जाए। लेकिन यशोधरा को अपने पति पर पूरा विश्वास था। इसलिए अगले ही कुछ पलों में यशोधरा ने अपने अंदर से चिंता को गायब कर दिया। साथ ही उसने अपने आप से प्रश्न किया कि तुझे शर्म नहीं आती अपने पति के लिए मन में ऐसी दुर्भावना लाती है। वह तो अमृत के समान पवित्र हैं। उन पर किसी अप्सरा का जादू नहीं चल सकता।

यह सोच और यह विश्वास यशोधरा का था लेकिन दिग्विजय के अंदर तो अनन्या को देखने के बाद से ही उथल-पुथल मची हुई थी। अनन्या भी यहाँ के ठाठ बाट को देखकर अपने ख़ुद के सपने पूरे करने के ख़्वाब देख रही थी।

उसे अपने माता-पिता का संघर्ष याद आ रहा था। कितनी तकलीफ़ें उठाकर उन्होंने उसे पाला है। एक-एक निवाले के लिए तरसे हैं। उसका पूरा बचपन इस समय उसकी आंखों में दृष्टिगोचर हो रहा था। उसे पढ़ाने के लिए उसके पिता घनश्याम ने रेत और सीमेंट की न जाने कितनी बोरियों को अपनी पीठ पर लादा था। उसकी माँ रेवती सुबह से शाम तक लोगों के झूठे बर्तन साफ़ करती थी। यदि कभी किसी के घर से बचा कुचा बासा खाना मिल जाए तो उसे बड़े ही जतन से संभाल कर घर ले आती। वह ख़ुद भले ही भूखी हो पर उस खाने को उसे खिला देती थी। पाई-पाई जोड़कर उन्होंने उसे इस काबिल बना दिया ताकि उसे उनकी तरह वह सब काम न करना पड़े जो उन्होंने किए हैं। उसने तो अपने माता-पिता को पल-पल मरते देखा है। उनके छोटे-छोटे सपनों को टूटते देखा है और वैसे भी उन्हें उनके सपनों की कहाँ परवाह थी। उन्हें तो केवल एक ही सपना पूरा करना था, उसे पढ़ा लिखा कर अपने पैरों पर खड़ा करना। लेकिन भगवान के इस रुख से अनन्या को बचपन से ही उन पर भरोसा नहीं था। इस कारण उसे कई बार अपनी माँ रेवती की डांट भी खानी पड़ती थी। यहाँ आकर वह सोच रही थी कि उनकी आधी उम्र तो दुख तकलीफ में बीत गई लेकिन उनकी बची हुई ज़िन्दगी को वह खुशियों से भर देगी।

तभी दिग्विजय ने उससे कहा, "अनन्या आओ तुम्हें मेरे माता-पिता से भी मिलवाता हूँ।"

अनन्या तुरंत भूतकाल की गलियों से निकलकर वर्तमान में आई और उसने कहा, "जी सर"

उसके बाद वह दिग्विजय के माता-पिता और तीनों बच्चों से मिली।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः