Dwaraavati - 44 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 44

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द्वारावती - 44



44

तभी मंच पर गुल आ गई। उसे देखकर मंच अधिक अनियंत्रित हो गया। 
गुल बोली, “नमो नम: सर्वेभ्यो।” गुल के शब्दों से सभा शांत होने लगी। 
“यदि आप आज्ञा दें तो केशव के स्थान पर मैं श्लोकगान करूँ?” गुल निर्णायकों के प्रतिभाव की प्रतीक्षा करने लगी। उनके लिए यह स्थिति अपेक्षित नहीं थी। वह विचलित हो गए, सभा भी। सभा से अनेक ध्वनि आने लगे। कोई पक्ष में तो कोई विपक्ष में अपना अपना मत प्रकट करने लगे। सभा पुन: अनियंत्रित होने लगी। निर्णायक गण आपसी चर्चा के उपरांत भी कोई निर्णय नहीं कर सका। सभा अधिक अनियंत्रित हो गई। 
सहसा एक निर्णायक खड़े हुए तथा सभी को शांत रहने का संकेत करने लगे। सभा ने उस पर ध्यान नहीं दिया। वह गुल के समीप आ गए। 
वह बोले, “ सज्जनों एवं सन्नारियों, कृपया शांत हो जाइए।” शब्दों के प्रभाव से समुदाय धीरे धीरे शांत होने लगा। वह आगे बोले, “हमें एक निर्णय करना होगा। उसमें आप सभी का सहयोग आवश्यक है। क्या आप हमारा साथ देंगे?”
सभा पूर्णत: शांत हो गई। 
“बेटी, क्या नाम है तुम्हारा?”
“मेरा नाम गुल है।”
“तुम कौन से गुरुकुल की छात्रा हो?”
“मैं किसी भी गुरुकुल की छात्रा नहीं हूँ।”
“क्या तुम ब्राह्मण हो?”
“नहीं।”
“क्या तुम हिन्दू हो?”
“नहीं।”
“तुम छात्रा नहीं हो, तुम ब्राह्मण नहीं हो, तुम हिन्दू नहीं हो, तुम पुरुष नहीं हो। तो तुम श्लोक गान कैसे कर सकती हो?”
“क्यों नहीं कर सकती?”
“अर्थात तुम्हें श्लोक गान आता है। कहाँ से सीखा तुमने यह?”
“यहाँ के गुरुकुल से।”
उसने द्वारका गुरुकुल के आचार्य की तरफ देखा। उनकी उस द्रष्टि में जो प्रश्न था, स्वत: स्पष्ट था। आचार्य ने अपने मुखभावों से उत्तर दिया जो भी स्वत: स्पष्ट था। 
“ठीक है, यह बताओ कि तुम्हारे गुरु कौन है? क्या नाम है उनका?”
उस प्रश्न ने गुल को चिंतित कर दिया। कुछ विचार के पश्चात उसने गुरुकुल के आचार्य की तरफ देखा। आचार्य ने अपना मुख घूमा लिया, द्रष्टि नीची कर ली। उन मुद्राओं का अर्थ गुल ने समझ लिया। वह भग्न हो गई। 
“बेटी, अपने गुरुजी का नाम कहो।” प्रश्न की पुनरावृति की गई। 
गुल कुछ क्षण विचारती रही। उसने इधर-उधर द्रष्टि घुमाई, केशव कहीं नहीं था। गुल ने दूर सागर की तरफ देखा। उसे व्योम में एक पताका दिखी। 
‘यह तो भड़केश्वर महादेव जी की पताका है। वह मेरे गुरु बनेंगे। वह सभी के गुरु हैं तो मेरे भी गुरु ही है।’ उसके मन में एक चेतना का संचार हुआ।
 वह प्रसन्न होते हुए बोली, “मेरे गुरु वहाँ है। वह मेरे गुरुजी की पताका है।” गुल ने पताका की तरफ अंगुली निर्देश किया। 
“वहाँ? वह तो भगवान शिव के मंदिर की पताका है। क्या तुम्हारे गुरु उस मंदिर में रहते हैं?”
“हाँ।”
“क्या नाम है उनका?”
“शिवशंकर।” 
“अर्थात?”
“आज से, इसी क्षण से मैं स्वयं भगवान शिव को मेरे गुरु बनाती हूँ।”
“देवों के देव महादेव आपके गुरु हैं?”
“जी। वही मेरे गुरु है।” गुल ने उस पताका को नमन किया। 
“तुम परिहास कर रही हो, गुल।”
“नहीं। मैं सत्य कह रही हूँ।”
“भगवान शिव तुम्हारे गुरु कैसे हो सकते हैं?”
“क्यों नहीं हो सकते?”
“वह तो पत्थर का शिवलिंग मात्र है। वह कैसे किसी को विद्या एवं ज्ञान प्रदान कर सकते हैं?”
“इसी पत्थर के शिव लिंग की आप पुजा, अर्चना तथा आराधना करते हो। क्यों?”
“वह हमारे देव हैं।”
“अभी तो अपने इसे पत्थर कहा। अब देव कह रहे हो। कहो देव है या पत्थर?”
“देव ही है।”
“पत्थर देव क्यों है?”
“क्यों की वह जगत चेतना का स्रोत है।”
“इसी कारण वह मेरे गुरु भी है।”
“तुम सुंदर तथा अकाट्य तर्क रखती हो। कहाँ से सीखा यह गुण?”
“मेरे गुरु महादेव से।”
गुल के ऊतर से वह हंस पड़े। सभा में भी हास्य व्याप्त हो गया। कुछ क्षण पूर्व सभा में जो गांभीर्य था वह लुप्त हो गया। 
निर्णायक दुविधा में पड गए, ‘अब क्या करें?’ 
तभी किसी ने कहा,, “इस बिटिया को श्लोक गान की अनुमति दी जाए।” पूरी सभा ने उसका समर्थन किया। 
निर्णायक निर्विकल्प हो गए, “ ठीक है, गुल। तुम अपना गान कर सकती हो।” वह अपने स्थान पर बैठ गए। 
गुल ने ह्रदय की गहनता से ‘ओम्’ का उच्चार किया। ‘ओम्’ के नाद से सभा शांत हो गई, स्थिर हो गई। गुल को सुनने के लिए उत्सुकता व्याप्त हो गई। गुल गाने लगी – 
मनोबुध्यहंकार चित्तानि नाहम न च श्रोत्रजिव्हे न च ध्राणनेत्रे।
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायु: चिदानंदरुप: शिवोहम शिवोहम।। 1 ।।
गुल के स्वर में दिव्यता थी, एक संमोहन था जिसमें पूरा सभागृह प्रवाहित होने लगा। 
गुल ने दूसरा श्लोक पढ़ा।
न च प्राणसंगयौ न वै पंचवायु: न वा सप्तधातु: न वा पंचकोश:।
न वाकपाणिपादम न चोपस्थापायु चिदानंदरुप: शिवोहम शिवोहम।। 2 ।।
न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्यभाव:।
न धर्मो न चार्थों न कामो न मोक्ष: चिदानंदरुप: शिवोहम शिवोहम।। 3 ।।
न पुण्यम न पापं न सौख्यम न दु:खम न मंत्रो न तीर्थों न वेदा न यज्ञ ।
अहम भोजन्म नैव भोजयम न भोक्ता चिदानंदरुप: शिवोहम शिवोहम।। 4 ।।
न मे मृत्युशंका न मे जातीभेद: पिता नैव मटा नैव न जन्म: ।
न बंधुर्न मित्र्म गुरुनैव शिष्य: चिदानंदरुप: शिवोहम शिवोहम।। 5 ।।
अहम निर्विकल्पो निराकार रूपो विभूत्वाच सर्वत्र सरवेद्रियानाम । 
चासंगत नैव मुङ्क्तिर्न मेय: चिदानंदरुप: शिवोहम शिवोहम।। 6 ।।
गुल ने तीसरा, चौथा, पांचवा तथा अंतिम श्लोक पढ़ा। गान सम्पन्न किया। वह रुकी। 
सभागार स्थिर था। गान सम्पन्न होने के उपरांत भी कुछ क्षण तक स्थिर ही रहा। गुल के गान के संमोहन से निकलने में सभी को समय लगा। गुल वहाँ से जाने लगी। तभी निर्णायकों का संमोहन टूटा। बोले,
“एक निमिष के लिए रुको, गुल।” वह रुक गई। 
“क्या तुम्हें ज्ञात है कि अभी अभी जिन श्लोकों का तुमने गान किया वह क्या है?”
“जी, उसे निर्वाण षट्कम कहते हैं। आदि शंकराचार्य की यह रचना है।”
“उत्तमम। गुल, तुम इतना ज्ञान रखती हो तो यह भी कहो कि इन मंत्रों का अर्थ क्या है? क्या तुम्हें इसका संज्ञान है?”
“जी, अवश्य।”
“तो किसी एक मंत्र का अर्थ कहो।”
“आप जो कहें उस मंत्र का अर्थ कहूँगी।”
“चौथे मंत्र का अर्थ कहो।”
“मैं पुण्य, पाप, सुख, दु:ख से विरक्त हूँ। ना मंत्र हूँ, ना तीर्थ हूँ, ना ही ज्ञान हूँ, ना ही यज्ञ हूँ। ना मैं भोजन हूँ ना मैं भोग का अनुभव हूँ ना ही भोक्ता हूँ। मैं तो शुध्ध चेतना हूँ। मैं अनादि, अनंत शिव हूँ।”
“क्या यह अर्थ, यह ज्ञान, यह समज तुम्हें अपने गुरु भगवान शिव से ही प्राप्त हुआ है?”
“यही तो मुझ पर शिव की कृपा है।” 
“अदभूत, अदभूत। ऐसा स्वर, ऐसा ज्ञान, ऐसी विरक्ति आज से पूर्व हमने कभी नहीं देखि। मैं शिव शिष्य गुल को वंदन करता हूँ।” निर्णयाक ने दो हाथ जोड़ अभिवादन किया। 
“नमो नम:। मेरी एक प्रार्थना है।”
“कहो।”
“मुझे इस प्रतियोगिता के प्रतिस्पर्धी के रुप में ना समझें। मैं भी ऐसी किसी भी प्रतियोगिता में विश्वास नहीं रखती।”
“ ‘मैं भी’ से क्या तात्पर्य है तुम्हारा? क्या अन्य कोई भी यही विचार रखता है?”
“केशव भी यही विचार रखता है। यही कारण है कि वह इस मंच को, इस प्रतियोगिता को छोड़ गया।”
गुल के मंत्रोच्चार के प्रवाह में सभागार केशव को भूल गया था वही सभागार अब केशव को खोजने लगा। वह वहाँ नहीं था। 
सभा ने अपनी कार्यवाही आगे बढाई। विजेताओं के नाम घोषित किए गए। पुरष्कार दिये गए। समापन हो गया। किन्तु ना तो गुल को, ना तो केशव को इसमें रुचि थी। दोनों वहाँ से जा चुके थे।