Shuny se Shuny tak - 55 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | शून्य से शून्य तक - भाग 55

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शून्य से शून्य तक - भाग 55

55===

जब ये लोग घर पहुँचे लगभग आठ बज गए थे| घर का सारा ‘हैल्पस्टाफ़’ आशिमा को देखकर खुश हो गया| दीना जी ने पहले से ही महाराज से कह दिया था कि आशिमा बिटिया की पसंद के व्यंजन ज़रूर बनाएं| आशिमा ने अपना वह बैग जिसमें सबके लिए गिफ्ट्स लाई थी, वह दीना अंकल के कमरे में रखवाया था| रेशमा उससे बातें कुरेद कुरेदकर पूछने की कोशिश कर रही थी| जितना आशिमा बता सकती थी, उसने बताया आखिर वह आशिमा की छोटी बहन थी, सहेली जैसी थी लेकिन सहेली नहीं थी| 

“खोल दे न दीदी---”रेशमा ने बचपने से कहा तो आशिमा ने उसे समझाया;

“आने दे न अंकल को और आशी दीदी को---सब साथ में बैठकर ही खोलेंगे न !”मनु भी उनकी प्रतीक्षा कर रहा था| 

“आज देर क्यों हो गई ? ”रेशमा ने कहा| 

“काम है, हो जाती है कभी-कभी---”मनु ने उत्तर दिया जबकि वह भी यही सोच रहा था और उन लोगों की प्रतीक्षा कर रहा था| 

“आज ही देर होनी थी---और दीदी तू खोल भी नहीं रही है बैग !!”उसने मुँह बनाकर एक बच्चे की तरह कहा| 

“अच्छा! एक बात बता, ये दीदी कब से कहना शुरू कर दिया तूने मुझे? ”आशिमा ने विषय बदलने के लिए पूछा| 

“अब शादी हो गई है हमारी बड़ी बहन की, दीदी तो कहना ही पड़ेगा न? ”उसने अब दादी माँ की तरह मुँह बनाकर कहा तो तीनों भई बहन हँस पड़े| 

“ओ! हमारी रिशु तो बहुत समझदार हो गई है !”आशिमा ने उसे फिर से अपने गले लगा लिया| 

परिस्थियाँ सबको समझदार बना देती हैं, तीनों ने अपने-अपने हिसाब से सोचा| 

दीना जी की गाड़ी का हॉर्न सुनाई दिया तो तीनों भागकर बॉलकनी में आ गए| उनके मुँह पर मुस्कान फैल गई| उन्होंने गाड़ी से निकलकर ऊपर देखा तो उनके चेहरे पर भी प्रसन्नता थिरक आई| 

“अंकल ! आइए न जल्दी---और दीदी कहाँ हैं----”रेशमा एक बच्चे की तरह बोली| 

उन्होंने हाथ हिलाए और जल्दी से अंदर की ओर चल दिए| 

दीना अंकल के ऊपर पहुंचते ही आशिमा उनसे चिपट गई, उसकी आँखों से आँसु बहने लगे, दीना अंकल की आँखों में से भी अविरल धार बहने लगी थी| मनु और रेशमा भी चुप थे| 

“हमारी बेटी खुश तो है? ”अंकल ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा| 

“जी अंकल, बहुत खुश हूँ—“उसने आँसु पोंछते हुए उत्तर दिया | 

“हूँ--लग तो रही है---”उन्होंने उसके सिर पर प्यार से टपकी सी लगाई| 

“मोटी हो रही है---“मनु ने कहा तो फिर सब हँस पड़े| 

“क्या भैया---”आशिमा ठिनकी| 

“नज़र मत लगाओ मनु हमारी बिटिया को---”दीना अंकल ने कहा और लाड़ से आशिमा को फिर से अपने से चिपटा लिया| वे जब भी आशिमा, रेशमा को अपने सीने से लगाते, उन्हें सहगल की याद आ जाती और कभी यह भी महसूस होता कि उनकी आशी क्यों अपने पिता के सीने से नहीं लग पाती है? वे स्वयं भी उसे अपने सीने से नहीं लगा पाते जैसे एक बड़ा सा पहाड़ उनके रिश्तों में अड़ा खड़ा हो| 

“चलो—चलो बताओ, हमारी याद इतनी शिद्दत से क्यों की जा रही थी? ”अंकल ने कहा तो आशिमा ने कहा;

“चलिए आपके कमरे में चलते हैं| ”आशिमा ने कहा तो तुरंत ही अंकल बोले;

“चेंज तो कर लें, वैसे भी डिनर का टाइम हो गया है---”

“आज बाद में अंकल, मैं कबसे इंतज़ार कर रही हूँ---”रेशमा छोटी बच्ची सी बन गई थी| 

“किसका? ”

“आप लोग आएं तो बैग खुले और हमें हमारी गिफ्ट्स मिलें---”

“यह बात है----”उन्होंने चुटकी ली| 

“लेकिन देखिए अब आप आए तो आशी दीदी नहीं आईं| कह तो रही थीं कि आशिमा आ जाएगी तो डिनर करेंगे साथ में—” रेशमा परेशान हो रही थी, उसका मन उन गिफ्ट्स में पड़ा था जो बहन के बैग में से उछलने को तैयार थीं लेकिन उस बैग को कोई खोले तो !

“मैंने काफ़ी देर तक उसका इंतज़ार किया लेकिन लगता है उसे आज काम ज़्यादा है| जब वह नहीं आई तो मैं आ गया| आ जाएगी तुम्हारी दीदी---चलो, चलो बेटा आशिमा खोलो बैग| ”उन्होंने कहा और आशिमा बैग खोलकर सबके उपहार दिखाने लगी| सबके मन में यही बात घूम रही थी कि आज जल्दी आ जाती आशी तो, सबके साथ बैठकर उसे भी कितना आनंद आता लेकिन वह आनंद में रहना चाहे, तब तो---| जब से ये बच्चे यहाँ रहने आए थे, दीना अपना सूनापन भूलने से लगे थे लेकिन आशी की बेरुखी उन्हें बहुत कचोटती थी| खैर---

आशिमा ने सबको उपहार दिए, सब बहुत प्रसन्न थे व उसकी और अनिकेत की पसंद की प्रशंसा कर रहे थे| माधो हर बात में इतना संवेदनशील हो जाता है, आशिमा ने ऊपर ही सबके साथ माधो को भी बहुत सुंदर टी-शर्ट और पैंट दी तो वह आँखों में आँसु भर लाया| 

“थैंक यू आशिमा बीबी---”उसने खुश होकर कहा| 

“रो क्यों रहे हो? पसंद नहीं आया? ”आशिमा ने उसे छेड़ा| 

“बेटा!सबके लिए कितना ले आई है, कुछ अपने लिए भी लिया या नहीं तुम लोगों ने—और मेरे लिए इतना मंहगा---”

“मेरे लिए भी तो---अरे रेशमा छोटी है उसके लिए ठीक था लेकिन---मेरे से तो छोटी है---”मनु ने कहा| 

पहले कैसे लड़ा करते थे भाई-बहन! मनु हमेशा माँ से शिकायत करता कि पापा, मम्मी को बेटियाँ ही प्यारी हैं| उसकी तो कोई वैल्यू ही नहीं है| बेशक सब बातें मज़ाक में होती थीं लेकिन भाई-बहनों की तू-तू, मैं-मैं में कैसा मज़ा आता था!मनु पीछे के दिनों में खो गया था| उसका ध्यान हट गया जब आशिमा ने कहा--

“अब बोर मत करिए, आप लोगों को पसंद तो आए न? ”आशिमा ने पूछा| 

“तुम खुद ही देखो, सब कितने खुश हो गए हैं---!!” दीना अंकल बोले| 

“तो अब नीचे जाकर भी खुशी बांटकर आती हूँ---मैं अभी आई---”

सब अपने उपहार देखकर प्रसन्न हो गए थे, सबके लिए उनकी पसंद की चीजें थीं| कुछ पैकेट्स हाथ में लेकर आशिमा फिर से बोली;

“आती हूँ, अभी नीचे जाकर---”घर के स्टाफ़ के लिए वह माधो के साथ भी भेज सकती थी किन्तु जानती थी कि उसके हाथ से लेकर सब अधिक प्रसन्न होंगे| 

“ये तो खोल दीदी---”रेशमा ने बंद पैकेट की ओर उसका ध्यान दिलाया| 

“नहीं, ये आशी दीदी का है। वे ही खोलेंगी इसे---”वह नीचे की ओर चल दी | 

टन-टन घंटाघड़ी ने नौ बजाए तो माधो ने पूछा;

“आज खाना नहीं खाना मालिक? महाराज इंतज़ार कर रहे हैं| ”

“आ जाती आशी भी तो---ज़रा फ़ोन तो लगाना माधो--”

“मैं लगाता हूँ---”मनु ने कहा| 

आशी का फ़ोन ‘आउट ऑफ़ रीच’था| 

‘कम से कम आशिमा की खुशी के लिए ही आ जाती’सोचते हुए मनु ने ऑफ़िस में फ़ोन लगाया| 

“हैलो---”नेपाली गार्ड था| 

मनु ने आशी के बारे में पूछा| 

“आशी मेमशाब तो नहीं हैं साब, वो तो कबकी निकल गईं शाब---उन्हें तो काफ़ी देर हो गई निकले हुए”| 

मनु ने फिर आशी के मोबाइल पर खोजने की कोशिश की लेकिन अब मोबाइल बंद आ रहा था| क्या कहता वह सबसे? मन ही मन में बहुत खिसिया रहा था, कभी भी आशी के साथ अपने भविष्य की कल्पना करके उसे पसीने आने लगते| 

“लगता है, किसी काम से निकल गई होगी---”मनु ने दीना अंकल को सांत्वना देने के लिए कह दिया| 

“ठीक है, माधो, जाओ खाना लगवाओ---”दीनानाथ ने कहा, दीना क्या अपनी बेटी की हरकतें समझते नहीं थे? लेकिन सब लोग सब समझकर भी चुप्पी साधना बेहतर समझते|