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आशी के मन में कितना ऊहापोह था, यह तो वही जानती थी लेकिन उसे इस स्थिति में फँसने के लिए कहा किसने था? कब से पिता उसके आगे-पीछे घूमते रहे थे लेकिन उसकी ज़िद्दी ‘न’ मज़ाल था जो ‘हाँ’में बदलने का एक भी संकेत देती हो |
अब दीना जी के पास अपनी बेटी से अधिक ज़िम्मेदारी सहगल के बच्चों की थी | मनु को यदि कोई सहारा मिल जाता तो वह अपनी संवेदना साझा कर सकता लेकिन आशी ! उसको समझाना आसान ही नहीं, असंभव था | आज इस नीरव वातावरण में भी आशी अपनी बीती हुई ज़िंदगी के पृष्ठों को पलट रही है, उसे पलटते रहना ही होगा जब तक वह अपने मन का छलछलाता बर्तन पूरा उंडेल न देगी| कितना भी प्रयास कर लिया जाए, कितना धन लेकर घूमते फिरें, बीता हुआ कल, गुज़रे हुए लम्हे कोई वापिस नहीं ला सकता | जीवन की सच्चाई मालूम होने के बावज़ूद भी इंसान अपने जीवन को कैसे फिसल जाने देता है ! कलम फिर आगे सरकने लगी और वह पीछे चलने लगी---
सेठ दीनानाथ जी एक बेटी के पिता की हैसियत से मनु के साथ उस घर का जायज़ा लेने लगे थे | वे यहाँ बेटी आशिमा के विवाह की बात करने आए थे | बांद्रा में स्थित एक एपार्टमेंट में हॉल, तीन बैड-रूम्ज, किचन जिसमें चारों ओर खासी बड़ी बॉलकनी थीं, उसमें लटके रंग-बिरंगे फूलों के पौधे!सुंदर, मनभावन वातावरण ! चारों ओर उनकी दृष्टि घूम रही थी| अनिकेत ने अपने माता-पिता को बुलाकर उनका परिचय करवाया | भट्टाचार्य जी व उनकी पत्नी शिक्षित, सौम्य व मधुर स्वभाव के थे | उन्हें इस प्रकार से सेठ जी व अपने बेटे के बॉस का आना अच्छा तो लगा लेकिन अजीब भी लगा| किसी को कुछ भी पता नहीं था, एक प्रकार से वे भौंचक भी हो गए थे| दीना जी उनकी असहज स्थिति को समझ रहे थे उन्होंने मि.भट्टाचार्य से स्पष्ट रूप से सारी बात बता दी| कुछ देर बात करने के बाद अनिकेत के माता-पिता कुछ सहज हो सके|
“शायद आपने डॉ.सहगल का नाम तो सुना ही होगा---उनके ही बच्चे हैं—ये मनु, उनका बेटा और दो बेटियाँ। जिनमें बड़ी आशिमा है---मैं उसके लिए ही आपके अनिकेत का हाथ मांगने आया हूँ| ”
“जी, बिलकुल, मुंबई के प्रसिद्ध डॉक्टर ! लेकिन उनके साथ जो हुआ वह तो बहुत ही दुखद घटना थी| हर अखबार, टी.वी चैनलों, रेडियो ने उस दुर्घटना को कवर किया था| पूरी मुंबई में एक सफ़ल डॉक्टर के रूप में उनका नाम था| मैं जानता हूँ उनके हॉस्पिटल में सभी प्रकार की सर्जरी व ट्रीटमेंट होते हैं| एक बार अनिकेत को लेकर भी वहाँ हमारा जाना हुआ था, इसका निमोनिया बिगड़ गया था| कई दिन वहाँ एडमिट रहा यह---”भट्टाचार्य जी ने उदास स्वर में कहा| वे जैसे पीछे कहीं खो से गए थे, अपनी ही रौ में बहे जा रहे थे|
अनिकेत की मम्मी ने पति को इशारा किया कि सेठ जी की बात तो सुन लें---
“हाँ, मैं सुन रहा हूँ, वो दिन याद आ गए जब हम लोग उनके हॉस्पिटल में अनिकेत को लेकर गए थे---”
अनिकेत के पिता ने विनम्र स्वर में कहा;
“सेठ जी, देखिए आप अच्छी तरह से सोच लीजिए, हमारे घर में बिटिया को इतनी सुविधाएं तो नहीं मिल पाएंगी जितनी सुविधा की वह आदी होगी| बस हम तो आशिमा बेटी को बिटिया का प्यार ही दे सकेंगे| हमारी बेटी अपने घर गई है तो अब जो भी अनिकेत की पत्नी होगी वह हमारी बेटी ही होगी| हम आप लोगों जैसे बड़े लोग नहीं हैं, आपने हमारे घर में आकर जो सम्मान हमें दिया है उसके लिए हम आपके आभारी हैं| ”
“बड़ा, छोटा कहाँ होता है संबंधों में भट्टाचार्य जी? हम बेटी के लिए आपके सुयोग्य बेटे का हाथ मांगने आए हैं, देखा जाए तो हम आपसे कुछ मांगने आए हैं, बड़े तो आप होंगे यदि हमारी प्रार्थना स्वीकार कर लेंगे| ”मनु दीना अंकल की बातें सुनकर सोच रहा था कि बड़ों का जीवन में होना कितना ज़रूरी है| मैं तो इस प्रकार से बात ही नहीं कर पाता|
“तब भी सेठ जी आप हमें अपनी बेटी देंगे, झोली तो हमारी भरेगी---”उन्होंने मुस्कराकर कहा| अनिकेत आप लोगों की कितनी प्रशंसा करता है!हमारा तो सौभाग्य होगा यदि हमारे परिवार में बेटी आशिमा शामिल हो जाए| ”
इसी बीच अनिकेत की माँ उठकर अंदर चली गईं थीं और कुछ ही देर में घर के सेवक के साथ कॉफ़ी के साथ कई प्रकार के व्यंजन लेकर फिर से सबके साथ आ बैठी थीं| वे शिक्षित, सभ्य, सरल स्वभाव की सद् गृहणी थीं जिनके चेहरे पर सुंदर मुस्कान थिरक रही थी| उन्होंने बहुत मनुहार से सबको व्यंजन खिलाए| दीनानाथ व मनु पूरे परिवार की सादगी से बहुत प्रभावित थे| उन्होंने भट्टाचार्य जी से विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर कहा;
“भट्टाचार्य जी !यह आप लोगों का बड़प्पन है कि बेटे के माता-पिता होकर भी आप इतनी सरलता और सहजता से इस बात को ले रहे हैं| आप बेटी आशिमा को देख लें और अनिकेत और आशिमा भी एक-दूसरे से मिलकर अपने विचारों का आदान-प्रदान कर लें, उसके बाद ही आगे बढ़ना ठीक रहेगा| ”
अनिकेत से भी पूछा गया कि कहीं उसकी कोई ‘गर्ल फ्रैंड’तो नहीं है? उसने विनम्रता से अपना सिर ‘न’में हिलाया| यदि बात आगे बढ़नी है तो आशिमा व अनिकेत को एक दूसरे से मिलने की, एक दूसरे को समझने की ज़रूरत है| अभी तक उन लोगों ने एक दूसरे को देखा तक नहीं था| यह तो यूँ ही हवा में तीर चलाने का अवसर लिया गया था| दीना जी ने कहा;
“भट्टाचार्य जी! बस, यह समझ लीजिए कि मेरी ही बेटी है आशिमा---ये सभी बच्चे मेरे हैं| मेरे घर से ही सब शुभ कार्य होंगे और मैं ही इन दोनों बेटियों का कन्यादान करुंगा| ”कहते हुए उनका गला रुँध गया था|
“हम दोनों परिवार हमेशा एक ही रहे हैं, आपको जो भी कहना हो कृपया मुझसे कहिएगा, मनु तो अभी बच्चा है| ”
“भाई साहब !अब तो यह ‘कन्यादान’ शब्द बंद हो जाना चाहिए| हम स्त्रियाँ क्या दान करने की कोई वस्तु हैं? हम अपने घर बेटी को लेकर आएंगे, दान की हुई किसी वस्तु को नहीं| बस दोनों एक-दूसरे से बात कर लें, इनके विचार मिलने जरूरी हैं| ”अनिकेत की मम्मी ने सहजता से कहा|
दीना जी और मनु को उनके विचार सुनकर बड़ी तसल्ली हुई| आजकल के ज़माने में जब दिखावा फैलता जा रहा है, भट्टाचार्य जी का परिवार बिलकुल सहज व सीधा-सादा था|
अनिकेत और आशिमा को मिलवाने का दिन व कार्यक्रम पक्का कर लिया गया| दीना जी की कोठी पर भट्टाचार्य जी के परिवार को डिनर पर आमंत्रित किया गया| यहाँ पर आज डॉ.सहगल के तीनों बच्चों के साथ आशी भी थी, वह उपस्थित रही, यह बहुत बड़ी बात थी, सबको बहुत अच्छा लगा|