Swayamvadhu - 6 in Hindi Fiction Stories by Sayant books and stories PDF | स्वयंवधू - 6

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स्वयंवधू - 6

वृषा को नहीं पता कि एक छोटा सा दाग एक लड़की के जीवन और उसके परिवार की छवि को नष्ट करने के लिए किस तरह पर्याप्त होता है। मैंने वो रात बेचैनी में बितायी।
स्टडी रूम में, मैं गहरे विचारों में खोया हुआ था। तभी दाईमाँ आई।
"तुमने उसे अंगूठी क्यों नहीं पहनाई?", उन्होंने गुस्से से पूछा,
"आप जानती है ना उसका मतलब?", मैंने जवाब दिया,
वह नाराज़ थी, "सवाल पर सवाल मत पूछो! आप एक लड़की के साथ ऐसा कैसे कर सकते हैं?",
('आप'?)
इसका कोई मतलब नहीं बनता, "आपका क्या मतलब है दाईमाँ? क्या मैंने कुछ गलत किया है?",
"हाँ, तुमने किया!",
"क्या? ऐसा नहीं है कि मैं किसीके साथ घर बसाने वाला हूँ। वो कभी ऐसी जगह के करीब नहीं पहुँच सकती जहाँ मैं अपनी चीजें उसे सौंप सकूँ। अगर कायल ने उसके हाथ में अंगूठी देख ली तो दूसरे दिन उसकी लाश मिलेगी।",
"तो तुम्हारे माफिया होने का क्या फ़ायदा जब तुम अपनी नियती की भी रक्षा नहीं कर सकते?", उनकी आवाज़ में निराशा साफ झलक रही थी,
"वो मेरी नियती नहीं है!", मैंने चिल्लाकर कहा,
"तुम बिना जाँचे कैसे कह सकते हो?!", वह भी अपना पक्ष बिना रुके रख रही थी,
"अब मुझे उसके हाथों को छूने पर किसी भी तरह के बिजली के झटका महसूस नहीं होती इसलिए इसकी जाँच की ज़रूरत नहीं।", मैंने भी अपना कमज़ोर पक्ष रखने की कोशिश की,
"जब तुमने अभी तक प्रयास ही नहीं किया है तो तुम इतना आश्वस्त कैसे हो सकते हों? समझदारी से सोचों कि वह क्या करने में सक्षम है और तुम क्या करने में सक्षम हों। इस बार भी अपने पैर पीछे मत खींचो।", कह दाईमाँ मुझे आराम करने को कह वहाँ से चले गई।
थककर मैं सोफे पर लेट गया और इस बच्चे को सुरक्षित रखने और अपना वादा निभाने के लिए नियम और कानून बदलने के बारे में सोचने लगा।
सोचते-सोचते मैं सो गया... अगली सुबह मैं मेरे फोन की घंटी बजने से जागा। मैं हड़बड़ाकर उठा। चादर मेरे पास से फिसली, मैंने उसे आश्चर्य से देखा और कॉल उठाया, "हम्मम?",
"सर, समीर सर का आदेश है आप शाम तक ऑफिस आ जाये।”, काम से एक जूनियर ने उस आदमी का संदेश मुझे दिया,
(एक दिन का भी इंतज़ार नहीं कर सकता?) मैं यह कहना चाहता था लेकिन मैं उसकी कांपती आवाज़ महसूस कर रुक गया, यह उसकी गलती नहीं थी।
"उसे बता देना कि मैं जब पहुँचूँगा तब रिपोर्ट करूँगा।",
“यस सर।”,
तभी मुझे एक मेसेज आया, "इस दौड़ में दो पक्षी मारे गए और पचास कीड़े मरने के लिए छोड़ दिए गए।",
मैंने सरयू को फोन कर, "इन पक्षियों और उनके कीड़ों का ख्याल रखना। और मेरे बगल में एक कमरा तैयार करो।",
हम हमेशा की तरह काम कर रहे थे। मुझे प्यास लगी और कॉफी पीने की इच्छा हुई। तभी मैंने उसे बिना बताए बाहर जाते देखा। (क्या मैं उसके प्रति बहुत नरम हूँ?) जब मैंने सोचा कि मुझे और अधिक सख्ती दिखानी होगी, तभी वह धुंधले पानी का गिलास लेकर आई, औ"कृपया इसे पी लीजिए।", उसने मुझे पीने के लिए कहा,
गिलास की ओर इशारा करते हुए उसने कहा, "इसे पी लीजिए।",
मैंने पूछा, "यह क्या है?",
उसने मुझे अविश्वास से देखा, "नींबू पानी। क्या हुआ?",
बिना उत्तर दिए मैंने वह पानी पी लिया। कुछ देर बाद वह प्लेट लेकर आई।
"क्यों?", मैंने पूछा,
उसने मेरी सारी चीज़ें एक तरफ़ कर दिया और कहा, "दाईमाँ बहुत परेशान है कि आपने सुबह से कुछ नहीं खाया। वह आपको लेकर बहुत चिंतित है इसलिए कुछ खा लीजिए भले ही आप कुछ खाना ना चाहो।",
मुझे नहीं पता कि मैंने उसकी बात क्यों सुनी और उसका परोसा हुआ खाना क्यों खाया?
कुछ दिनों तक उसे देखने के बाद मैं समझ पाया कि ऊसकी माँ इतनी चिंतित क्योंकि थी। वह काम में उतनी अच्छी नहीं है, लेकिन जब उसे काम समझ में आ जाए तो वो डर कर सही काम गलत कर देती है। ऊसमे आत्मविश्वास की भयंकर कमी है। पर वह घर के कामों में निपुण है।
(क्या हर महिला ऐसा करती है?मुझे उसके लिए कुछ करना होगा।)
मैंने दिन का पहला भोजन शाम को खाया जो मेरे लिए बिल्कुल सामान्य था। वे इसे इतना बड़ा मुद्दा- "क्यों बना रहे हैं?", मेरे विचार फिसल गए,
"क्या?", दिन का अपना आखिरी काम करते हुए उसने पूछा।
(कल अंततः! मुझे वहाँ हर चीज़ से डर लगता है।)

अगली सुबह हमने मुख्य भूमि के लिए प्रस्थान किया। हम ढाई घंटे के सफर के बाद मुख्य भूमि पर उतरे। पूरे समय मैं वृषा के साथ थी और उनके निर्देशों का पालन करती रही, कौन जानता था कि मेरी पहली उड़ान प्रथम श्रेणी में होगी। हम हवाई अड्डे से बाहर निकले। जैसे ही हम हवाई अड्डे से बाहर निकले मुझे प्रदूषण के तड़के के साथ मुख्य भूमि की ठंडी का मज़बूती से अनुभव हुआ।
वहाँ एक काली कार हमारा इंतज़ार कर रही थी। दाईमाँ आगे बैठी और मुझे वृषा के साथ पीछे बैठना पड़ा। मैंने सोचा कि हम उनके घर जा रहे थे लेकिन हम एक होटल में रुके। बोर्ड पर लिखा था, 'होटल हील'।
मैं सोच रही थी कि हम यहाँ क्यों थे? वृषा ने मुझे बाहर आने के लिए कहा। मैं बाहर निकली, उनके साथ-साथ चल रही थी। हम अंदर गए, वह विशाल था। वहाँ हम होटल के रेस्तरां में गए और वहाँ वृषा ने मेरी मुलाकात एक अनुभवी महिला से कराई। मैंने वृषा की ओर देखा कि 'वह क्या कर रहे है?' उनके आँख ने केवल इतना कहा 'ज़्यादा दिमाग मत चलाओ!', मुझे नहीं पता कि उनका क्या मतलब था।
*उसका मतलब था 'मैं हूँ!'

फिर उसने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे अपने पीछे आने को कहा। मैंने असहजता से वृषा को देखा।
उन्होंनेे कहा, "यह मोनिका है। उसके नेतृत्व का पालन करो साथ ही अपने निर्णय का सम्मान करना।",
यह पहली बार था जब मैंने उसे इतना भावशून्य देखा। मैंने कुछ नहीं कहा बस उनका अनुसरण किया। हम गली से गुज़रे। वहाँ उसने बातचीत शुरू की, "हाय! मैं मोनिका हूँ, मेकअप आर्टिस्ट। जैसा मिस्टर बिजलानी ने कहा था मैं तुम्हें एक मेकओवर देने जा रही हूँ।",
(मेरी राय पूछे बिना?), "नहीं धन्यवाद!",
मैंने उसे मना करने कि कोशिश की लेकिन मेरा सामाजिक कौशल उस विशाल सामाजिक कौशल के सामने एक सूक्ष्म जीव से भी बत्तर था। आखिर में मुझे उनके साथ कमरे में जाना पड़ा और उनके कहे अनुसार मैंने व्हाइट टॉप के साथ लाइट ग्रीन कलर की जैकेट और प्लाजो पहनना पड़ा। मैं कपड़े बदलकर बाहर कमरे में आई। अब बारी थी मेकअप की। मैं इसके बारे में निश्चित नहीं थी क्योंकि काजल के अलावा मैंने कभी भी किसी भी तरह का मेकअप ना देखा ना किया। यह मेरा पहला मौका था।
'मुझे उस पर पूरा भरोसा है।', वृषा ने मुझसे यही कहा था। वहाँ उसने मुझे बताया कि कैसे वृषा ने उन्हें ऐसे सौंदर्य प्रसाधन लाने को कहा जिसमें कोई भी रसायन ना हो जिससे मुझे एलर्जी हो जाए और यहाँ मुझे भी नहीं पता कि मुझे ऐसे किसी चीज़ से एलर्जी थी। उन्होंने पहले मेरे हाथों पर उत्पादों का परीक्षण किया और उन्हें मेरे चेहरे पर लगाया गया। उसके बाद जूतों का समय आया। उन्होंने मुझे फ्लैट से लेकर वेजेज हर तरीके के जूते पहनाए पर उन्हें संतुष्टि नहीं मिली तो अंत में उन्हें उसके लिए फोन करना पड़ा। इस पूरे समय उन्होंने मुझे खुद को देखने की इजाज़त नहीं दी आई और मुझे फिर वृषा के पास ले गई।
वहाँ वृषा अकेले बैठे थे, दाईमाँ वहाँ नहीं थी। मैं भीड़ से गुज़री और उनके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गयी।
मैं उसने गुस्से में पूछा, "आखिर आपने लगा क्या रखा है?",
वो अपने मोबाइल में व्यस्त, "क्या?",
"वृषा फोन नीचे रखिए और मेरी तरफ देखिए।",
"....",
उन्होंने मेरी तरफ नहीं देखा। मैं उनके जवाब का इंतजार कर रही थी लेकिन वह अपने फोन में कुछ ज़्यादा ही व्यस्त थे तो मैंने उनका फोन लिया और अपने पास रख लिया।
उन्होंने मेरी तरफ देखा और टिप्पणी की, "क्या तुम घबरा रही हो?", वे मेरा मज़ाक उड़ा रहे थे,
"हाँ, मैं घबरा रही हूँ!", मैंने दो तीन गहरी साँसें लीं और कहा, "सुबह से मैं कुत्ते की तरह आपका हर निर्देशों का पालन कर रही हूँ! अचानक मुझे अपना पहनावा बदलने के लिए कहा गया, चेहरे पर वज़न डाल दिये गया। आखिर चल क्या रहा है? और आपको मेरे बारे में मुझसे ज़्यादा कैसे पता है? पता नहीं मैं कैसे दिख रही हूँ? लोग मुझे घूरे जा रहे है और ये चश्मा!",
चश्मा मेरे बाल में फंस गई, मैंने बालों को अपने चश्मे से निकालने की कोशिश की और वह जड़ से बाहर आ गए, "आउच!", कही पोनी टेल बिगड़ी तो नहीं?
इस सारी गड़बड़ी में वृषा मुझे मुस्कुराते हुए देख रहे थे। यह उसका सामान्य स्वभाव था। उन्होंने मेरा
मज़ाक उड़ाया, सिर थपथपाया, अपना फोन लिया और एक सैंडविच का ऑर्डर किया।
"तो अब मुझे इस प्यारे से कुत्ते बच्चे को खिलाना चाहिए।",
"मेरी तुलना कुत्ते से मत करिए!", सैंडविच आ गया और बहुत बड़ा था,
मैंने आधा सैंडविच वृषा को परोसा, उन्होंने अपने लिए कॉफ़ी का ऑर्डर दिया।
शुरू से ही मुझे महसूस हुआ कि सभी की निगाहें हम पर थीं। यह डरावना था! मैंने उनसे पूछने की कोशिश की, "वृषा, सबकी नज़रे आप पर क्यों है?",
वृषा खाते हुए, "अपने खाने पर ध्यान दो।", मेरे पास उनकी बाते मानने के अलावा कोई और चारा नहीं था। यहाँ आने के बाद से वे कुछ अजीब हो गए? मुझे नहीं मालूम। (मैंने यहाँ आने के पहले कुछ क्यों नहीं सोचा! अंजान लोग, अंजान वातावरण।)
मैं खा रही थी, तभी मोनिका वहाँ आई और मुझसे इन्हें पहनने के लिए कहा। यह ऊँची हिल्स थी! मैंने अनिच्छा से इसे पहना, लोंगो कि नज़रे मुझे छेदी जा रही थी। इन चक्कर में मैं पट्टी नहीं बांध पा रही थी। तब वृषा ने मेरी कुर्सी अपनी ओर खींची और पट्टी बांधने में मेरी मदद की।
"चलकर देखो।", मोनिका ने कहा,
"पर मैंने कभी इतनी लंबी हिल्स नहीं पहनी।", (खैर छोड़ो मेरी सुनने वाला कौन है!) मैं अपने असंतुलित पैरों को संभालते हुए उठी। पहले ही कदम में मेरे पैर लड़खड़ा गए और मैंने अपना संतुलन खो दिया। मैं सफेद टाइल वाले फर्श को अपने पास आते देख रही थी, जब मुझे लगा कि मैं इसे बहुत बुरी तरह गिरने वाली थी, मैं रुक गयी। मुझे अपनी कमर पर कुछ कसा हुआ सा महसूस हुआ। यह वृषा थे, उन्होंने मुझे मुँह के बल गिरने से बचाया, फिर खड़ा होने में मदद की। मोनिका मेरे लिए चिंतित थी।
मैंने कहा, "मुझे ऊँची हिल्स पहनने का अनुभव नहीं है, माफ कीजिएगा।",
उन्होंने उल्टे वापस मुझसे माफी माँगी, "नहीं! मुझे माफ कीजिएगा! मैंने तुम्हारी पसंद-नापसंद पर ना ध्यान देते हुए तुम्हें स्टाइल करती गई।",
मैं अपराधबोध महसूस कर, "नहीं आं-मोनिका जी आपका धन्यवाद मुझे इतने सुंदर बदलाव देने के लिए। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।", (हालाँकि मुझे नहीं पता कि मैं कैसी दिख रही पर दिल से धन्यवाद।)
"तुम इन्हें उतारो, मैंं कुछ और आरामदायक जूतें लाती हूँ।", मोनिका वहाँ से जा रही होती थी कि वृषा ने यह कहते हुए उन्हें रोक दिया, "रहने दो मोनिका। आपने अच्छा काम किया। तुम्हारे आने वाले फैशन शो के लिए बेस्ट ऑफ लक।", वह उन्हें धन्यवाद देकर चली गई।
फिर वे मेरी ओर मुड़े, मैंने उनकी ओर आँखें गड़ाकर आशा व्यक्त की कि वे मेरी सहायता करें, लेकिन उन्होंने कहा, "यह तुम्हारी अपनी बात ना कहने की सज़ा है और मेरे मार्गदर्शन का पालन ना करने का। अब चलो।",
मैं उनके पीछे चल रही थी लेकिन, ना तो मैं उनकी गति पर चल पा रही थी और ना ही ठीक से चल पा रही थी। मैं फिर से फिसल गयी तो उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया और चलने लगे। मुझे नहीं पता कि वृषा ने मेरी असहजता देखी या नहीं, लेकिन उन्होंने मुझे कार तक पहुँचने में मदद की। उस वक्त भी मुझे नज़रे हमारी ओर ही महसूस हो रही थी। जब हम कार में बैठे तो मुझे अपने टखनों में तेज़ दर्द महसूस हुआ। मैंने उस पर नज़र डाली, उसका तंग पट्टा मेरे टखनों को काट रहा था। पहले तो यह कोई बड़ी समस्या नहीं लगी लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया दर्द बढ़ता गया। वहाँ मैंने पट्टी खोलने की कोशिश की लेकिन वह खुली नहीं। (मैं कितनी भी कोशिश करूँ यह बाहर नहीं आ रहा!)
यातायात के बाद, कार बाईं ओर मुड़ी, जिसमें शानदार घरों की एक श्रृंखला थी जो अपनी अनूठी विशेषताओं और ग्लैमर बिखेर रही थी। अगर दी होती सबकी फोटो खींचने लगती और हर कमी पर इंगित करने लगती।
थोड़ी दूर जाकर हम एक गेट के सामने रुके। 'मर्यादा'? वृषा के घर का नाम था? वह जो कर रहे थे उससे यह बिल्कुल उलट था। (क्या विरोधाभास है।) वहाँ हम बड़ी आलिशान बंगले के सामने रुके।
हम एक लंबे रास्ते से गुजरे और मुख्य दरवाज़े के सामने रुके। इस भूमि पर अन्य इमारतें भी थीं, लेकिन कुछ दूरी पर, ताकि सामने से दिखाई ना दें।
"हम पहुँच चुके हैं।", उन्होंने बताया,
दर्द में मैं कार से बाहर निकली। मुझे पैर में कुछ गर्म पानी सा महसूस हुआ। मैंने अपना पैर देखा, उसमें से खून बह रहा था। मैं जो भी कदम उठाती थी, वह पीड़ादायक था। यदि वृषा मुझे चलने में सहायता ना करते तो मैं एक कदम भी आगे नहीं चल पाती लेकिन इस बार उन्होंने मेरे पैरों से बहते खून पर ध्यान ही नहीं दिया। मैंने उनसे धीमी गति से चलने को कहा लेकिन उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी।
वे पहले अंदर गए। मैंने अपने जूते उतारने की कोशिश की लेकिन उन्हें उतारना बहुत दर्दनाक था। किसी तरह मैं स्ट्रैप हटाने में कामयाब रही लेकिन मेरे पैर खून से लथपथ थे।
"क्या? खून!", तभी दाइमाँ चिल्लाती हुई आई। मैं चौंक गई। वो जल्दी अंदर गई, मैं उनके पीछे धीरे-धीरे चलकर जा रही थी। जैसे मैं चौखट के पार दो कदम रखे वहाँ दाईमाँ, वृषा और किसीको लेकर आई। मैं सीधा बराबर चलने की कोशिश कर रही थी तभी वृषा ने मुझे उठाया और अंदर सोफे पर बिठा दिया। वे चिढ़े हुए लग रहे थे।
"तुमने इस बारे में कुछ क्यों नहीं कहा?", उन्होंने डांटा,
मैं डर गयी, "वह-वह मैंने कोशिश की लेकिन आपने नहीं सुना।",
"कब?", वृषा ने पूछा,
"...कार में सब शुरू हुआ। पता चला...बाहर जब हम उतरे। और आपने कहा था ना कि यह मेरी सज़ा है।", मैंने बहुत धीरे से कहा,
"क्या यह तंग था?",
मैंने हाँ में सिर हिलाया, "आह!", क्रीम लगाते समय वे थोड़े रूखे थे। मेरी दर्द भरी हल्की चीख के बाद वे धीमे हो गए, कुछ मिनटों के बाद मेरे वृषा ने पट्टी बांधना खत्म किया। यह बहुत अधिक था, इसने मेरे टखने से लेकर तलवे तक को ढक लिया था।
"अगली बार जब तुम दर्द में हो तो इसे ज़ोर से कहो। चाहे दूसरे कुछ भी कहें। ठीक है?", उन्होंने उदास होकर कहा,
मैंने हाँ में सिर हिलाया।
चोट लगने का एक फायदा था दाईमाँ का लाड वृषा से हट इस वृषाली पर आ गया और वह उन्हें डांटने लगी।
वहाँ चमकते लोग आने लगे। वह सभी लड़कियाँ थी। वृषा फिर भावशून्य हो गए। सब कुछ शांत हो गया। तब वृषा ने गम्भीरता से कहा, "मेरे पीठ पर चढ़ जाओ।",
"मै-मैं कैसे?!", मैं हड़बड़ा गयी,
दाईमाँ ने कहा, "बच्चे चढ़ जाओ।",
तभी बगल वाले आदमी ने कहा, "इसकी होंठ?",
वृषा मेरे सामने पीठ कर बैठ गए, "चढ़ जाओ।", मैं वृषा के पीठ पर चढ़ गई।
हम ऊपर गए।
"वाह! यह मिस्टर बिजलानी थे या उनकी सस्ती कॉपी?", उनमे से एक लड़की ने कहा,
"तुम हमेशा की तरह काफी यादृच्छिक हो।", उस आदमी ने कहा,
इस बार बेडरूम की व्यवस्था द्वीप के समान ही थी, लेकिन अब मुझे बालकनी का उपयोग करने की अनुमति थी जो वृषा के बेडरूम के ठीक बगल में थी। वे मुझे मेरे कमरे में ले गए और बिस्तर पर बिठा दिया।
उन्होंने पूछा, "दर्द?",
मैंने जवाब दिया, "वास्तव में हाँ, मेरे पैर में दर्द कम होने के बाद मुझे अपने होठों में खुजली महसूस हो रही है।",
उन्होंने मेरी ओर देखा, "सरयू कुछ कॉटन पैड लाओ और राधिका को वीडियो कॉल पर रखो।",
वह आदमी अचानक कही से आया और उसने वही किया जो वृषा ने पूछा। उन्होंने मेरा चेहरा धीरे से पोंछा। वीडियो कॉल पर डॉक्टर ने मेरा चेहरा देखा और कहा, "मरहम लगा दो जो मैंने दाईमाँ को दिया था।",
दाईमाँ अंदर आई,
फिर वृषा ने वह क्रीम माँगी। दाईमाँ ने दिया।
सब कुछ के बाद वह हँसी और बोली, "अब मैं बिना तनाव के जा सकती हूँ।"
कहाँ जाना है? अचानक?
वह मुस्कुराई और वृषा से पूछा, "क्या तुम इस बूढ़ी महिला के जाने से पहले यह आखरी इच्छा पूरी कर सकते हों?",
वृषा हिचकिचाए। वह मेरी तरफ घूमी, मैं वृषा की तरफ। वह दबाव में आ गए। उन्होंने गहरी साँस ली और कहा, "वृषाली अपना हाथ बढ़ाओ।",
मैंने अपना सीधा हाथ बढ़ाया। उन्होंनेे मेरे हाथ में एक डिब्बा रख दिया। दाईमाँ नाराज़ थी, "वृषा, मैंं नहीं चाहती तुम इतनी महत्वपूर्ण चीज़ का मज़ाक उड़ाओ।",
वह आदमी जिसे वृषा ने सरयू कहा था वो बोले, "इस स्वयंवधू प्रतियोगिता में एक मुख्य शर्त यह है कि एक लड़की को यह अंगूठी पहनने में सक्षम होना चाहिए। इस बात की जाँच करने की ज़िम्मेदारी दाईमाँ की है।",
मैंने बिना देर किए कहा, "मैं- अभी कोशिश करूँगी।",
मैंने बक्सा खोला और अंगूठी निकालने की कोशिश की लेकिन वह फँसी हुई थी। तब वृषा ने उसे मुझसे ले लिया और बक्से से बाहर निकाल लिया। मैंने उनसे लिया तभी वो वृषा को चिढ़ाते हुए कहा, "क्या तुमने किसी वधू को अपनी अंगूठी खुद पहनते देखा है?",
वृषा ने मेरे हाथ से अंगूठी लिया और आराम से पहना दिया। अंगूठी ढीली थी और महँगी भी लग रही थी इसलिए मैं उसे उतारने गयी पर वो मेरे हाथ में अटक गया। मेरे लाख कोशिश के बाद भी वो नहीं निकली। दाईमाँ ने कहा, "इसे ऐसे ही रहने दो।",
उन्होंने कहा आराम करो और चले गए। पर आराम कैसे करूँ?! मेरी रिंग फिंगर में रिंग अटक गई थी और मैं आराम करूँ कैसे? कौन ऐसे आराम कर सकता है? मुझे इस सारे रक्त-स्राव और तनाव से चक्कर आने लगे, इसलिए मैंने कपड़े बदलने और थोड़ी देर आराम करने का निर्णय लिया।

शाम को-
शाम के छह बजे भी बाहर उजाला था। घर वहाँ अब तक रात हो चुकी होगी। मम्मा खाना बना रही होंगी और डैडा दुकान में होंगे।
'खट-खट' दरवाज़े में दस्तक हुई। दरवाज़ा खुला, वा अंदर आए। मैं दर्द के कारण चल नहीं सकती थी इसलिए वृषा मुझे सात बजे नीचे ले गए।
नीचे में कोई नहीं था बस दो-तीन लड़कियाँ वहाँ दाईमाँ के साथ थी। वृषा ने मुझे सोफे पर बैठाया। दाईमाँ मेरे पास आई और बॉम्ब फोड़ दी!-
उन्होंने मुझे कुछ चाबियाँ दीं और कहा, "वृषा और 'मर्यादा' का ख्याल रखना।",
मैं वृषा की तरफ घूमी, वे गंभीर लग रहे थे। मैंने पूछा, "कैसे? मेरे मतलब-क्या यह स्वयंवधू के लिए ज़रूरी है?",
किसी ने ना कुछ नहीं कहा ना व्यक्त किया। उन्होंने बस मेरी आँखों में देखा और कहा, "यहाँ सरयू के अलावा मैं केवल तुम पर ही भरोसा कर सकती हूँ।", बस इतना ही और मुझे यह ज़िम्मेदारी लेने के लिए मज़बूर होना पड़ा।
दाईमाँ और वृषा कुछ देर बात करने चले गए और बाकी लोग भी चले गए। मैं इस आदमी के साथ रह गयी थी।
फिर उसने बात करना शुरू किया, "क्या वृषा सच में हमेशा तुम्हारी बात सुनता है?",
मैं चुप रही। उन्होंने कहा, "शर्मिंदा मत हो। मैं सब कुछ जानता हूँ। मैं उसे दस साल की उम्र से जानता हूँ। वह कठोर दिख सकता है लेकिन वह दयालु है। बात बस इतनी है कि उस आदमी को यह नहीं मालूम कि क्या कहना चाहिए और कैसे करना चाहिए।",
मैं उनसे पूरी तरह सहमत थी लेकिन फिर भी मैं उस आदमी के खिलाफ कुछ नहीं कह सकती जिसके हाथ हमेशा मेरे गर्दन पर हो।
तभी उन्हें अचानक याद आया, "ओह! मैंने अभी तक अपना परिचय नहीं कराया ना? मैं हेड बटलर और वृषा के बचपन के दोस्तों में से एक हूँ।", उन्होंने अपना परिचय दिया पर मैं बटलर में अटक गयी।
"क्या बटलर अभी भी मौजूद हैं?", मैंने पूछा,
वे एक क्षण तक मुझे घूरते रहे और हँसे, "नहीं, यह ना सामान्य है, ना असामान्य।",
मैंने अपना परिचय देने की कोशिश की लेकिन वे पहले से ही मेरे बारे में जानते थे।
उन्होंने पूछा, "क्या वृषा ने तुम्हें परेशान किया है?",
मैं हिचकिचाकर कहा, "नहीं। उन्हें जो दिया जाता है वो खा लेते है। वे मूडी है पर मेरा मज़ाक उड़ाने से कभी नहीं चूकते।", मैंने फिर घबराहट में सब कुछ उगल दिया। मैं खुद पर शर्मिंदा थी।
तभी अचानक एक लड़की कहीं से प्रकट हुई। इसने मुझे बहुत डरा दिया! मुझे लगभग दिल का दौरा आ गया।
"मेरे बिना क्या चल रहा है?", वह वही थी जो कुछ क्षण पहले दाईमाँ के साथ थी।
उसने मेरे बाल एक झटके में खोल दिए और मेरे बालों को इधर-उधर कर देखने लगी और टिप्पणी दे रही थी, "तुम बाल खुले रखा करो या पहले की तरह पोनी टेल बाँधा करो। ओह! यह निशान कैसा? और...",
मैं इस अचानक हमले से इतना डर गया कि वहीं जम गयी। जब वह खेल रही थी तो सभी नीचे आने लगे, वृषा और दाईमाँ भी आ गए। आठ बज चुके थे, डिनर का समय हो गया था मतलब मुझे भी जाना होगा, पर कैसे?
वृषा के बटलर ने अपना हाथ आगा किया। मैं उनका हाथ पकड़कर धीरे-धीरे चलकर जा रही थी।
वृषा ने मुझे आते देखा, वे भी आकर मुख्य सीट के बगल वाली सीट पर बैठ गए। मैंने सोचा कि वे दाईमाँ को सम्मान दे रहे थे, लेकिन वह बैठी नहीं, बल्कि वह वृषा को खाना परोस रही थी। बाकि सब भी आराम से थे। मैं रुकी, बटलर जी भी रुक गए, "क्या हुआ?",
"क्या यह घर वृृषा का है?", मैंने पूछा,
"हाँ, उसी का है?", उन्होंने कहा,
"कोई और बड़ा?",
"नहीं...क्यों?",
मैंने कुछ नहीं कहा बस बैठ कर खाना खाया। रात के खाने के बाद सभी लोग वैसे ही चले गए। फिर मैंने वृषा से पूछा, "आप यहाँ क्यों बैठे हो?", वृषा हैरानी से मेरी तरफ देख रहे थे। दाईमाँ सामने से आकर पूछा, "तुम्हारा मतलब क्या है, वृषाली?",
मैंने पूछा, "क्या वृषा परिवार का मुखिया नहीं है?",
उन्होंने सहमति जताते हुए कहा, "हाँ।",
तब मैंने पूछा, "तो फिर आप दूसरी तरफ क्यों बैठे हैं?",
कोई जवाब नहीं।
तभी बटलर जी ने मेरे पीछे एक तस्वीर दिखाते हुए कहा, "वह इस घर की असली मालकिन हैं और इसकी दादी जिन्होंने इसके लिए यह घर छोड़ा था। सम्मान दिखाने के लिए उन्होंने यह जगह खाली छोड़ी थी।",
फिर दाईमाँ ने कहा, "उन्होंने कहा था कि 'मुझे सम्मान देने के लिए इसे अपना समझकर इस्तेमाल करो और इसे बदनाम मत होने देना।' और 'किसी को भी अंदर मत आने देना।' ये उनके अंतिम शब्द थे।",
वृषा की आँखें फैली हुईं थी।
"वह बहुत सुंदर थी और तस्वीर में अब भी उनकी आभामंडल है। वह अवश्य ही अद्भुत रही होगी! लेकिन आपके दादाजी कहाँ हैं?",
दाईमाँ ने कहा, "वे पचास की वर्ष में हमें-आ स्वर्ग सिधार गए।", दाईमाँ रोने की कगार पर लगी,
"दाईमाँ आप ठीक है-आह!", मैं दाईमाँ को पूछ रही थी तभी वृषा ने टेबल पर अपना हाथ ज़ोर से पटका। डर के मारे मेरी दिल की धड़कन तेज़ हो गयी।
"वृषा?", दाईमाँ हाथ देखने गई,
उन्होंने सख्त नज़रो से पूछा, "अपने आप को समझाओ!",
"म-मैं...", मैं कुछ भी कहने में सक्षम नहीं थी,
"वृषा उसे डराना बंद करो!", दाईमाँ परेशान थी कि किसके पास जाए।
मैने अंदर में डरते हुए कहा, "ज-जैसे उन्होंने कहा कि वे चाहती थी कि आप इसे अपना समझ उपयोग करें, ना कि किसी और का समझकर।",
"हम्म?", वे मुझे घूरते रहे,
"...इसे दूसरे से मिले उपहार की तरह ना समझें। यह एक अधिकार और आपको दिया गया प्रेम है। इसे अपना बनाकर संजोकर रखे। अपनी दादी को दिल पर हाथ रखकर याद कीजिए, आपको जवाब और प्यार मिल जाऐगा।", मैं इतना डर गयी कि मैंने उनसे नज़रें हटा लीं।
वहाँ एकदम सन्नाटा था, तभी एक लकड़ी की कुर्सी से चरमराहट की आवाज़ आई। वृषा ने मुझे अपने ऊपर उठा लिया और चेतावनी दी कि मैं कोई आवाज़ ना करूँ। उन्होंने मुझे अपने कंधे पर उठाया, बिस्तर पर पटक दिया, दवाइयाँ मुँह पर फेंक दी और चले गए। मैं बस अपराध बोध में रातभर रोती रही।
"वह बहुत उपद्रवी था! दाईमाँ, क्या आपको नहीं लगता कि वृषा अब अधिक अभिव्यंजक हो गया है?", सरयू ने पूछा,
"मुझे पता है। सरयू, वृषाली की अपनी छोटी बहन की तरह ध्यान रखना और...", दाईमाँ ने बटलर साहब को हर एक विवरण समझाया।

अगले दिन सुबह-सुबह-
मैं परेशान और नींद से जागी, फिर भी नीचे जाना चाहती थी। मैं लड़खड़ाते नीचे गई और दाईमाँ को जाते साथ गले ला दिया। दाईमाँ ने भी मुझे गले से लगा लिया।
"दाईमाँ आपका जाना ज़रूरी है?", मेरी आवाज़ रोनी हो गयी,
उन्होंने मुझे पुचकारते हुए कहा, "बच्चे, मेरे भी दूसरी ज़िम्मेदारियाँ है।",
मैंने बात समझते कहा, "आपका धन्यवाद माता। इन कुछ दिनों में ही सगी माँ की तरह देखभाल की और नए वातावरण में ढलने में सहायता की। क्या आप नाश्ता खाकर जाएँगी?",
"अगर मेरी बच्ची चाहेगा तो, हाँ।", उन्होंने मेरे आँसू पोंछते हुए कहा,
"तो मैं आपके लिए झटपट नाश्ता बना लूँगी।",
दाईमाँ मना करती रही पर मैं उन्हें अपना आभार प्रकट करना चाहती थी। तो मैंने ढेर सारी सब्जियाँ डाल चीला बना लिया और वक्त बचने पर बटलर जी और एक शेफ की मदद से मोतीचूर के लड्डू बनाने लगी और दो घंटे बाद सब तैयार। मैंने उन दोंनो को धन्यवाद देकर बाहर सबके साथ खाने गई। वृषा मुखिया को जगह पर बैठे थे और मुझे उनके बगल जगह दी गई। खाने के बाद दाईमाँ के जाने का वक्त आ गया।
जाते-जाते उन्होंने कहा, "वृषाली अपना ख्याल रखना और मैं वृषा की सारी ज़िम्मेदारी तुम पर छोड़कर जा रही हूँ, उसका ध्यान रखना। बच्चा याद रखना, ज़रूरत पड़ने पर अकेले मत तड़पना वृषा और सरयू पर तुम निर्भर हो सकती हो। जैसे मैंने वृषा को पाला है वैसे सरयू को भी पाला है, तुम सरयू को अपना बड़े भाई की तरह समझ उसपर भरोसा कर सकती हो। और सबसे महत्वपूर्ण बात अपना भी ख्याल रखना मत भूलना!",
"जी।", मैंने दिल से उनकी बाते याद रखी।
"और तुम इसे अपनी छोटी बहन की तरह सम्मान से रखना और सबका ध्यान रखना। अपना भी ध्यान रखना।", उन्होंने सरयू जी से कहा,
"जी दाईमाँ और आप अपना ध्यान भी रखना।", सरयू जी ने वादा किया,
फिर वो दो लड़कियों के पास गई, "तुम दोंनो भी अपना ख्याल रखना और ज़्यादा शरारत मत करना। साक्षी, दिव्या की शरारतों को तुम ही संभाल सकती हो। उसे नियंत्रण में रखना।",
अंत में वो वृषा के पास गई। उनसे कहा, "वृषा सबकी ख्याल रखना और आराम करना मत भूलना।", दाईमाँ ने उन्हें कुछ ज़्यादा नहीं बोला। अब उनके जाने का समय आ गया था। उन्होंने हम सबको गले लगाया और कहा, "मैं इन लड्डुओं का भरपूर आनंद लूँगी। तुम सब साथ रहो, खुश रहो।", कह वो गाड़ी में बैठ गयी।
वृषा और सरयू जी ने उन्हें कार में बिठाया। कार में बैठकर वो कुछ बाते कर रहे थे तभी कुछ लड़कियाँ उनपर हँसी और उनका अनादर कर रही थी। उनमें से एक लड़की ऐसा लग रहा था कि मुझे गुस्से से घूर रही हो। उसी वक्त एक बिल्ली, पता नहीं कहाँ से मुझपर झपट्टा मारा, मैंं डरकर बगल हुई और 'धम!' दीवार से जा टकराई और मेरा पैर फिर मुड़कर वापस उसी अवस्था में पहुँच गया। कही-कही से खून टपकने लगा।
वो लोग हँसकर मुझे बेवकूफ कह वहाँ से चले गए। जाते-जाते एक ने मुझे घूरकर देखा जैसे मैं कोई गंदगी थी।
"तुम अब बिल्ली से भी डरने लगी?", वृषा ने डांटते हुए मेरे पैर को देखा, "तुमसे ज़्यादा सतर्क बच्चे होते है।", फिर मेरे पैरों की मरहम पट्टी हुई।
दस बज चुके थे और जल्द ही खाने का समय हो जाएगा इसलिए वृषा ने मुझे वहीं बैठकर काम करने को कहा। मुझे काम देना तो ठीक था, लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि आपको कम से कम पानी पीने की अनुमति देनी चाहिए थी! यहाँ कोई दिख भी रहा। मेरा गला प्यास से खून जा रहा था।
उसी वक्त वो लड़की बिल्ली के बच्चे के साथ मेरे पास आई। वह मेरे पास बैठ गई, "मैं दिव्या, दो साल से मिस्टर बिजलानी को जानती हूँ, और 'स्वयंवधू' की प्रतियोगी भी। लगता है तुम किसीको ढूँढ रही हो?",
(कितनी चमक!) मेरी आँखे धुंधली हो गयी। अमीरी ऊर्जा मेरे बर्दाश्त से बाहर थी।"न-नहीं!", (उप्स! मेरी आवाज़ थोड़ी ज़ोर हो गयी।)
"तो क्या तुम वाकई इस शो में सातवीं प्रतिभागी हो?", वह ऊर्जा से भरी थी,
"आ-आ",
"हाँ?", उसका चेहरा मेरे बहुत करीब था,
"शो?", (मैं अपना अकेला और खामोश जीवन वापस चाहती हूँ! जहाँ मेरे जीने मरने से भी फर्क नहीं पड़ता!!)
यह पहली बार था जब मुझे वृषा की इतनी याद आ रही थी।
"तुम्हारा इस नई दुनिया में स्वागत है।", उसने यह कहने का मतलब क्या था? 'नई दुनिया' का आख़िर क्या मतलब था!
वहाँ वृषा आए, "दिव्या! अतिश्योक्ति मत करना।"
"आउच! यह बहुत कठोर था मिस्टर बिजलानी!", ऐसा लग रहा था कि उसे वृषा को चिढ़ाने में मज़ा आ रहा था,
वहाँ सरयू आए और उसे ले गए। उसने उस बिल्ली के बच्चे को छोड़ दिया। वह वृषा कि ओर गया। (प्यारी!)
वृषा ने उसे खोद में उठा लिया।
"प्यारी है...", मेरा मुँह फिसल गया-
"है तो।", वृषा ने उसे मेरी ओर किया, "पकड़ना चाहोगी?",
मैंने हिचकिचाते हुए उसे छुआ, वो झट से मेरे पास आ गई। वृषा मेरे पास बैठ गए।
"इसने मुझे मार ही डाला था। सो क्यूट!", मैं बिल्ली के बच्चे के साथ घुल-मिल रही थी,
उन्होंने पूछा, "तुमने दवा लगाई?",
"कौन सी?", मैंं बिल्ली के साथ मस्त थी,
"होंठ पर दवाई लगाई?",
"मैं भूल गई।", मैं उसके साथ खेलने में व्यस्त हो गई। अचानक वृषा मुझपर गुस्सा करने लगे,
"तुम!", वह नाराज़ लगे,
उन्होंने मुझसे बिल्ली ले ली, "हा?", मैं उलझन में थी।
"पहेली को यहाँ से ले जाओ!", उन्होंने इसे अपने एक सहायक को सौंप दिया,
"सरयू उसके कमरे से दवाइयाँ ले आओ!", उन्होंने गुस्से में कहा,
मैंने सोचा कि फिलहाल अपना मुंँह बँद रखना ही सबसे अच्छा विकल्प होगा। उन्होंने मेरे माथे और होंठों पर फिर से दवाएँ लगाईं।
"बेकार मत घूमो।", उन्होंने कहा कि, "और जब तक तुम पूरी तरह ठीक ना हो जाओ, खाना मत पकाना।"
"लेकिन यह लगभग ठीक हो गया, -फिर भी मैं आपकी बात से सहमत हूँ, सहमत हूँ।", मुझे भी लगा अब मुझे बचाने वाला कोई नहीं था इसलिए मैं भी सहमत हो गयी।