Dwaraavati - 15 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 15

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द्वारावती - 15

15

रात्रि भर गुल निद्रा से दूर रही। वह चिंतन करती रही किंतु चिंता से मुक्त नहीं हो सकी।
दूर चार बार शंखनाद हुआ। तारा स्नान का समय हो गया था। गुल उठी, कक्ष से बाहर आइ और स्नान के लिए समुद्र की तरफ़ जाने लगी।
“उत्सव, तुम्हें निंद्रा नहीं आइ?”
उत्सव ने गुल के मुख को देखा, थकी आँखों को देखा।
“गुल, मुझे तो रात्रि भर जागने का अभ्यास है। किंतु तुम क्यूँ नहीं सो पाई? कोई चिंता से ग्रस्त हो क्या?”
गुल ने मिथ्या स्मित करने का प्रयास किया, विफल रही।
“मिथ्या प्रयासों से सत्य को छुपाना भी नहीं आता तुम्हें।”
“मेरे तारा स्नान का समय हो गया है। तत पश्चात अनेकों काम होते हैं मुझे करने के लिए। क्या हम इन बातों पर अभी चर्चा ना करें तो?”
“मुझे तुम्हारी व्यस्तता का संज्ञान है। आने वाले प्रवासीयों के मर्गदर्शन का दायित्व मेरा होगा। उपरांत उससे महादेव की आरती तथा प्रसाद का कार्य भी मैं सम्पन्न कर लूँगा। तुम विश्राम कर लो।”
“प्रवासियों को तुम सम्भाल सकोगे?” गुल के प्रश्न में व्यंग भी था, आह्वान भी। उत्तर में उत्सव के अधरों पर स्मित था।
एक समय के पश्चात आज गुल ने तारा स्नान नहीं किया, प्रवासियों का मर्गदर्शन नहीं किया, भड़केश्वर महादेव की आरती नहीं की, प्रसाद नहीं लगाया। यह सब उत्सव ने किया। दोपहर हो गई। सूरज पूरे यौवन पर था। समुद्र की तरंगें उत्साह से भरी थी। विश्राम के पश्चात गुल प्रफुल्लित थी। किंतु अभी भी चिंता से मुक्त नहीं थी।
उत्सव शिला पर बैठा था, वही नि:स्पृह अवस्था में। गुल जाकर समीप गई, खडी हो गई।
‘इतना निर्लेप है यह व्यक्ति ! ना कल की कोई बात उसे विचलित कर रही है ना आनेवाले अज्ञात से चिंतित। वह जी रहा है तो वर्तमान में, केवल वर्तमान में। समय की प्रत्येक क्षण से वह आनंद प्राप्त कर लेता है। किसी भी स्थिति में उसे विषाद परास्त नहीं कर सकता। क्या कारण है इस अवस्था का? यह कौन सी अवस्था है? कैसे इस अवस्था को उत्सव ने पाया होगा? मैं भी यदि इस अवस्था को प्राप्त कर सकूँ तो? मुझे इस अवस्था को पाना है। क्या मैं इसे प्राप्त कर पाऊँगी?’
“अवश्य, गुल। यह सम्भव है। बस तुम्हें प्रयास करना है।” गुल के कानों पर यह शब्द पड़े। उसे
प्रतित हुआ कि उत्सव ने यह शब्द कहे हैं। गुल ने उत्सव को देखा। वह समुद्र के किसी बिंदु पर था।
‘तो क्या यह उत्सव ने नहीं कहे? तो किसने कहा होगा? जो भी हो किंतु इन शब्दों से मुझे सुख का अनुभव हो रहा है। मुझे प्रयास करना होगा।’
गुल ने उत्सव को देखा, शिला को देखा जिस पर उत्सव बैठा था।
‘मैं भी बैठ जाऊँ इस शिला पर? उत्सव के समीप? यह शिला इतनी तो विशाल है ही कि एक से अधिक व्यक्ति उस पर बैठ सके।’
‘ऐसा करने से तुम उत्सव के सामीप्य को पा सकोगी, गुल। सम्भव भी है की तुम्हें उसका स्पर्श भी हो। यही स्पर्श को तुमने कल अनुभव किया था ना?’
‘हां, मैंने तो किया था किंतु उत्सव ने नहीं। उसने मेरे हाथ को ऐसे पकड़ा था जैसे कोई निर्जीव वस्तु को पकड़ा हो। कोई प्रवाह नहीं था उस स्पर्श में। कितना शुष्क था वह स्पर्श।’
गुल ने विचारों को समेटा, समुद्र को देखने लगी।
“गुल, तुम कभी समुद्र के तट की भीगी रेत पर चली हो?” उत्सव के शब्दों से गुल का ध्यान टूटा।
“भीगी रेत पर? समय की एक नदी से पहले ….।” बोलते बोलते गुल रुक गई।
“तो क्या? आज चलते हैं। समय की उस नदी कदाचित कहीं मिल जाय।”
“उत्सव, यहाँ समुद्र का तट सीधा, सपाट नहीं है। यह कंदराओं से भरा है। हमें उन पर चलना होगा।”
“मुझे संज्ञान है कि इन कन्दराओं को पार करते ही सपाट तट आता है। उन पर चलते चलते समुद्र की तरंगों का स्पर्श भी होगा।”
“तुम्हें द्वारका के समुद्र तट का पूरा मानचित्र ज्ञात है।”
उत्सव हंस दिया, उठा और समुद्र की तरफ़ चलने लगा। गुल भी सहज उसके साथ हो गई। कई कन्दराओं को पार कर दोनों खुले समुद्र तट पर आ गए।
रेत भीगी थी। तरंगें उठती थी, तट पर शांत जो जाती थी। दोनों चलते रहे। एक तरंग ने गुल को भिगो दिया। पानी के स्पर्श से गुल रोमांचित हो गई। वह वहीं रुक गई। एक एक तरंग आती रही, गुल को स्पर्श करती रही।वह प्रसन्न थी। उत्सव उस प्रसन्नता के भावों को देखता रहा।
“उत्सव, तुम भी आ जाओ।” गुल ने उत्सव को आमंत्रित किया किंतु समुद्र की तरंगों की ध्वनि में उत्सव ने स्पष्ट नहीं सुना। गुल के हाथों के संकेतों से उत्सव उस आमंत्रण को समझ गया। वह जुड़ गया गुल के साथ।
सूर्य की दिनचर्या पूर्ण होने में समय अभी कुछ बचा था तब दोनों लौट आए। गुल की प्रसन्नता से उत्सव भी प्रसन्न था।
“उत्सव, आज कितने दिनों के पश्चात मैं प्रसन्न हूँ। मैंने स्वयं को इस प्रकार व्यस्त कर दिया था कि मैं हँसना भूल गई थी। प्रसन्न होना भूल गई थी।”
“नहीं गुल। यह सत्य नहीं है।”
“तो सत्य क्या है?”
“सत्य तो यह है कि मैंने तुम्हारे मुख पर समय समय पर स्मित देखा है, एक ऐसा स्मित कि जिसे यह संसार भुवन मोहिनी स्मित कहता है। वह स्मित उस व्यक्ति के मुख पर ही होता है जो भीतर से प्रसन्न हो। जो भीतर से दुखी हो उसके मुख पर ऐसा स्मित सम्भव नहीं।”
“ऐसा स्मित एक छलना भी तो हो सकती है।”
“स्वयं कृष्ण के अधरों पर यह स्मित सदैव देखा है।”
“तो क्या कृष्ण भीतर से प्रसन्न थे ऐसा तुम मानते हो?”
“अवश्य। कृष्ण से अधिक प्रसन्न जीव इस धरती पर कभी नहीं आया।”
“यह मिथ्या है।”
“कैसे?”
“कृष्ण के भीतर जो विषाद था, जो अवसाद था वह इतना अधिक था कि उसे छुपाने के लिए वह सारा जीवन उस भुवन मोहिनी स्मित को अधरों पर लिए फिरता रहा। उसका विषाद उस स्मित के पीछे ऐसे आवृत हो गया कि संसार को वह कभी नहीं दिखा।”
“कृष्ण के विषाद अनेक थे। जन्म से मृत्यु तक प्रत्येक क्षण विषाद से भरा था।”
“वह कृष्ण ही कर सकता है, विषाद को छुपाकर स्मित करना। और स्मित भी कैसा ? भुवन मोहिनी स्मित।”
गुल ने द्वारिकाधीश के मंदिर की दिशा में देखा, हाथ जोड़ दिए।
“गुल, तुम भी तो वही कर रही हो जो कृष्ण ने किया था। तुम्हारे इस भुवन मोहिनी स्मित के पीछे भी कोई गहन विषाद है।”
“नहीं ऐसा कुछ भी नहीं।” गुल ने वही परिचित भुवन मोहिनी स्मित किया।
“तुम्हारी यह चेष्टा मोहक है। तुमने कृष्ण से यह स्मित करना अच्छी भाँति सिख लिया है। किंतु विषाद को मैं देख चुका हूँ।”
“कृष्ण ने अपने विषाद को कभी किसी को नहीं कहा। वह स्वयं उसे सहता रहा। मृत्यु पर्यंत वह मौन धारण कर उसे आपने भीतर समाए जीता रहा।”
“युगपुरुष था, महानायक था वह। तुम नहीं। तुम कृष्ण नहीं हो, गुल।”
गुल को विषाद ने घेर लिया। वह मौन हो गई। उत्सव ने उस मौन को भंग करते हुए कहा, “मौन कभी किसी विषाद का उपाय नहीं हो सकता। आज तुम्हें सब कुछ कहना होगा।”
“क्या कहना होगा? किस बात में तुम्हारी रुचि है?”
“कई दिवसों से मेरे भीतर एक अपराध भाव जन्म ले चुका है। मुझे ज्ञात है कि मेरे यहाँ आने तक तुम एक सरल, सहज एवं प्रसन्न जीवन व्यतीत कर रही थी। मेरे आने के कुछ दिवस तक तुम एक ऋषि की अवस्था को धारण किए थी। किंतु पिछले कुछ दिवसों से तुम इस जीवन से भिन्न जीवन जी रही हो। कौन सा जीवन सत्य है? कौन सा जीवन दंभ है यह मैं नहीं जानता। किंतु यदि मेरे होने के कारण तुम्हारा जीवन अप्रसन्नता से भर जाता है तो मुझे यहाँ से विदाय होना चाहिए। मैं आज ही महादेव की संध्या आरती के पश्चात इस नगरी को छोड़कर चला जाऊँगा।”
“क्या कहा? छोड़कर जाना है? कहाँ जाओगे? क्या करोगे? तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर कहाँ पाओगे? तुम जिस उद्देश्य से यहाँ आए थे, मुझे मिले थे, उनका क्या होगा?”
“मैं नहीं जानता। प्रश्न कल भी थे, आज भी है। कल भी रहेंगे। किंतु विषाद सदैव नहीं रहना चाहिए। और यदि वह विषाद का कारण मैं हूँ तो ….।”
“नहीं उत्सव, तुम उसका कारण नहीं हो।”
“तो कौन है?”
“केशव।”
“केशव? अर्थात् कृष्ण। तुम मुझे भटका रही हो गुल।”
“मैं कृष्ण की बात नहीं कर रही। मैं केशव की बात कर रही हूँ। मेरे केशव की बात।”
“अर्थात् केशव कोई भिन्न व्यक्ति है जो कृष्ण नहीं है?”
“हां उत्सव। वह केशव है जो मनुष्य है, इस युग का मनुष्य। उस केशव के विषय में सुनना चाहोगे?”
“यदि उस केशव के साथ तुम्हारा जीवन जुडा है तो मुझे नहीं सुनना चाहिए।”
“क्यूँ?”
“क्यूँ कि ऐसा करने का अर्थ है मैं तुम में रुचि ले रहा हूँ। और ऐसा करना मोह होगा।”
“कृष्ण को राधा के बिना जान नहीं सकते उसी प्रकार केशव को गुल के बिना जान नहीं सकते।”
“तो मुझे दोनों से रुचि नहीं रखनी चाहिए।”
“किंतु मैं तुम्हें यहां से जाने नहीं दूँगी। तुम यहीं रुक जाओ।”
“तुम्हारे विषाद का क्या होगा? इस प्रकार तुम्हें अप्रसन्न भी तो नहीं देख सकता।”
“मैं प्रयास करूँगी कि मेरा विषाद कभी मेरे मुख पर ना आए। मैं प्रसन्न रहूँगी। देखो मेरे अधरों पर यह स्मित देखो। तुम जिसे भुवन मोहिनी स्मित कहते हो।” गुल ने वह स्मित किया।
“यह स्मित अवश्य ही भुवन मोहिनी स्मित है किंतु वह सहज नहीं है, अनायास नहीं है। जिसे करने में आयास करना पड़े वह नैसर्गिक नहीं होता, कृत्रिम होता है। यह स्मित भी कृत्रिम है।”
“तो मैं क्या करूँ?” गुल के सभी बांध तुट गए। वह क्रंदन करने लगी। उत्सव ने उसे नहीं रोका। गुल का क्रंदन स्वयं रुका।
“गुल, तुम भीतर से रिक्त नहीं हो। केशव तुम्हारे भीतर ही है।”
“क्या करूँ इस केशव का?”
“तुम्हें याद है, कुछ दिवस पूर्व तुमने मुझे कहा था कि मैं अपना सब कुछ समुद्र को समर्पित कर आऊँ। भीतर से रिक्त हो जाऊँ? मैंने यही किया था। तुमने मुझे कहा, मैंने किया। किंतु तुमने स्वयं को नहीं कहा। स्वयं ने नहीं किया। जब तक तुम भीतर से रिक्त नहीं हो जाती, तुम इस विषाद से घिरी रहोगी। तुम्हें केशव को भीतर से त्यागना होगा। क्या तुम यह कर सकोगी?”
“मैं वही तो करने वाली थी। किंतु तुमने मुझे रोक दिया।”
“मैंने? वह कैसे?”
“केशव के साथ जुड़ी मेरी तमाम स्मृतियों को जब तक मैं विस्मृत नहीं कर सकती तब तक वह मेरे भीतर ही रहेगा और मुझे विषाद रहेगा। मैं उन तमाम स्मृतियों को बाहर निकालना चाहती हूँ, किसी को बता दूँगी तब ही वह मेरे भीतर से निकल पाएगी। मैंने इस हेतु तुम्हें चुना किंतु ‘मैं तुम में रुचि नहीं लेना चाहता’ यह कर तुमने मेरे मार्ग को अवरुद्ध कर दिया। अब मैं किसे कहूँ? कैसे रिक्त हो सकूँ?”
“तुमने ही मुझे रिक्त किया है। यदि मैं तुम्हारी तथा केशव की गाथा सुनने लगा तो पुन: मैं इन सांसारिक बातों में उलझ जाऊँगा, मार्ग से भटक जाऊँगा। मेरी रिक्तता समाप्त हो जाएगी, मेरे भीतर पुन: यह सब कुछ घर कर लेगा। तुम इस समुद्र से कहो। वह सबकी सुनता है। वह कभी रिक्त नहीं होता। वह सब कुछ अपने भीतर ग्रहण कर लेता है।”
“उचित मार्ग सुझाया तुमने। वह तो साक्षी रहा है मेरा, मेरे जीवन की प्रत्येक क्षण का। मैं आज महादेव की आरती के लिए नहीं आऊँगी। तुम कर लेना।”
“तुम क्या करोगी तब?”
“मैं समुद्र के समक्ष जाऊँगी। उसे सब कुछ कह दूँगी। रिक्त हो जाऊँगी।” गुल समुद्र की तरफ़ जाने लगी। उत्सव उसे देखता रहा, संध्या आरती की प्रतीक्षा करने लगा।