Devotee Sri Shobha in Hindi Biography by Renu books and stories PDF | भक्त श्री शोभा

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भक्त श्री शोभा

सन्त-सेवा परायणा श्रीशोभा जी अपने देवर-देवरानी के साथ रहती हुई निरन्तर भजन-साधना में लगी रहती थीं। इनका देवर तो इनकी भक्ति-भावना से सन्तुष्ट था, परंतु देवरानी कुढ़ा करती थी। एक बार देवर ने एक जोड़ा सोने का कंकण बनवाया और शोभाजी को ही रखने के लिये देकर स्वयं परदेश चला गया। इनकी देवरानी को भला यह कब सहन होने लगा। वह शोभा को तो कुछ नहीं कह सकी, परंतु अवसर पाकर शोभा के पास रखा हुआ कंकण उसने चुरा लिया और पृथ्वी में गाड़ दिया। श्रीशोभा जी तो सदा सन्त-सेवा और सत्संग में पगी रहती थीं, कंकण की ओर से उनका ध्यान ही हट गया था, अतः कंकण चोरी की उन्हें जानकारी ही नहीं थी। जब देवर परदेश से आया और कंकण मांगा, तब ये कंकण लेने गयीं, परंतु देखा तो कंकण नदारद था। इससे शोभाजी को बड़ा संकोच हुआ। इन्होंने देवर से सही-सही बात कह दी कि मैंने तो अमुक स्थान पर रखा था, परंतु बीच में मुझे उसे सँभालने का ध्यान नहीं रहा, आज देखा तो कंकण वहाँ नहीं मिला। देवर चुप लगा गया। परंतु देवरानी कब चुप बैठने वाली थी। वह तो अपने पति का कान भरने लगी कि रोज साधुओं को बुला-बुलाकर हलवा-पूरी खिलाती हैं। एक जाते हैं तो दो साधु आते हैं। उनकी सेवा में खूब पैसा खर्च होता है। आप निश्चय मानिये इन्होंने कंकण बेंचकर साधुओं को खिला दिया है। देवरानी का यह झूठा आरोप सुनकर श्रीशोभा जी को बड़ा दुःख हुआ। इन्होंने भगवान् से प्रार्थना की कि 'प्रभो! यह झूठा कलंक आप दूर करो।' प्रभुकृपा से शोभाजी जब सोकर उठीं तो कंकण को खाट पर पाया। इन्होंने तुरंत देवर को बुलाकर कंकण देकर सन्तोष की साँस ली। जब यह बात इनकी देवरानी को मालूम हुई तो उसने भी पृथ्वी खोदकर देखा तो कंकण वहीं पर गड़ा मिला। तब तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने उस कंकण को भी लाकर अपने पति को दे दिया और अपने कपट की बात सुनाते हुए श्रीशोभाजी से क्षमा-प्रार्थना की। उसी समय एक चमत्कार और हुआ, वह यह कि जब इनकी देवरानी ने पहला कंकण लाकर दिया तो भगवद्दत्त कंकण अदृश्य हो गया। तब तो देवर-देवरानी दोनों ही इनके चरणों में नतमस्तक हो गये और उपदेश लेकर स्वयं भी सन्त-सेवामें लग गये।
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सन्त-सेवा परायणा श्रीशोभा जी अपने देवर-देवरानी के साथ रहती हुई निरन्तर भजन-साधना में लगी रहती थीं। इनका देवर तो इनकी भक्ति-भावना से सन्तुष्ट था, परंतु देवरानी कुढ़ा करती थी। एक बार देवर ने एक जोड़ा सोने का कंकण बनवाया और शोभाजी को ही रखने के लिये देकर स्वयं परदेश चला गया। इनकी देवरानी को भला यह कब सहन होने लगा। वह शोभा को तो कुछ नहीं कह सकी, परंतु अवसर पाकर शोभा के पास रखा हुआ कंकण उसने चुरा लिया और पृथ्वी में गाड़ दिया। श्रीशोभा जी तो सदा सन्त-सेवा और सत्संग में पगी रहती थीं, कंकण की ओर से उनका ध्यान ही हट गया था, अतः कंकण चोरी की उन्हें जानकारी ही नहीं थी। जब देवर परदेश से आया और कंकण मांगा, तब ये कंकण लेने गयीं, परंतु देखा तो कंकण नदारद था। इससे शोभाजी को बड़ा संकोच हुआ। इन्होंने देवर से सही-सही बात कह दी कि मैंने तो अमुक स्थान पर रखा था, परंतु बीच में मुझे उसे सँभालने का ध्यान नहीं रहा, आज देखा तो कंकण वहाँ नहीं मिला। देवर चुप लगा गया। परंतु देवरानी कब चुप बैठने वाली थी। वह तो अपने पति का कान भरने लगी कि रोज साधुओं को बुला-बुलाकर हलवा-पूरी खिलाती हैं। एक जाते हैं तो दो साधु आते हैं। उनकी सेवा में खूब पैसा खर्च होता है। आप निश्चय मानिये इन्होंने कंकण बेंचकर साधुओं को खिला दिया है। देवरानी का यह झूठा आरोप सुनकर श्रीशोभा जी को बड़ा दुःख हुआ। इन्होंने भगवान् से प्रार्थना की कि 'प्रभो! यह झूठा कलंक आप दूर करो।' प्रभुकृपा से शोभाजी जब सोकर उठीं तो कंकण को खाट पर पाया। इन्होंने तुरंत देवर को बुलाकर कंकण देकर सन्तोष की साँस ली। जब यह बात इनकी देवरानी को मालूम हुई तो उसने भी पृथ्वी खोदकर देखा तो कंकण वहीं पर गड़ा मिला। तब तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने उस कंकण को भी लाकर अपने पति को दे दिया और अपने कपट की बात सुनाते हुए श्रीशोभाजी से क्षमा-प्रार्थना की। उसी समय एक चमत्कार और हुआ, वह यह कि जब इनकी देवरानी ने पहला कंकण लाकर दिया तो भगवद्दत्त कंकण अदृश्य हो गया। तब तो देवर-देवरानी दोनों ही इनके चरणों में नतमस्तक हो गये और उपदेश लेकर स्वयं भी सन्त-सेवामें लग गये।