Emperor Bhoj Parmar in Hindi Biography by Mohan Dhama books and stories PDF | चक्रवर्ती सम्राट भोज परमार

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चक्रवर्ती सम्राट भोज परमार

सम्राट् भोज परमार पवार वंश के नवें राजा थे। परमार वंशीय राजाओं ने मालवा की राजधानी धारानगरी से आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था। भोज ने बहुत से युद्ध किए और अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की जिससे सिद्ध होता है कि उनमें असाधारण योग्यता थी। यद्यपि उनके जीवन का अधिकांश युद्ध क्षेत्र में बीता, तथापि उन्होंने अपने राज्य की उन्नति में किसी प्रकार की बाधा नहीं उत्पन्न होने दी। उन्होंने मालवा के नगरों व ग्रामों में बहुत से मंदिर बनवाए, यद्यपि उनमें से अब बहुत कम का पता चलता है। कहा जाता है कि वर्तमान मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल को राजा भोज ने ही बसाया था, तब उसका नाम भोजपाल नगर था, जो कि कालांतर में ‘भूपाल’ और फिर ‘भोपाल’ हो गया। राजा भोज ने भोजपाल नगर के पास ही एक समुद्र के समान विशाल तालाब का भी निर्माण कराया था, जो पूर्व और दक्षिण में भोजपुर के विशाल शिव मंदिर तक जाता था। आज भी भोजपुर जाते समय रास्ते में शिवमंदिर के पास उस तालाब की पत्थरों की बनी विशाल पाल दिखती है। उस समय उस तालाब का पानी बहुत पवित्र और बीमारियों को ठीक करनेवाला माना जाता था। कहा जाता है कि राजा भोज को चर्मरोग हो गया था, तब किसी ऋषि या वैद्य ने उन्हें इस तालाब के पानी में स्नान करने और उसे पीने का परामर्श दिया था, जिससे उनका चर्मरोग ठीक हो गया था। उस विशाल तालाब के पानी से शिवमंदिर में स्थापित विशाल शिवलिंग का अभिषेक भी किया जाता था। राजा भोज स्वयं बहुत बड़े विद्वान् थे और कहा जाता है कि उन्होंने धर्म, खगोल विद्या, कला, कोशरचना, भवननिर्माण, काव्य, औषधशास्त्र आदि विभिन्न विषयों पर पुस्तकें लिखी हैं, जो अब भी विद्यमान हैं। इनके समय में कवियों को राज्य से आश्रय मिला था। उन्होंने सन् 1000 ई. से 1055 ई. तक राज्य किया। इनकी विद्वता के कारण जनमानस में एक कहावत प्रचलित हुई—कहाँ राजा भोज, कहाँ गांगोय, तैलंगा। धार में भोज शोध संस्थान में भोज के ग्रंथों का संकलन है। भोज रचित 84 ग्रंथों में से इस समय केवल 21 ग्रंथ ही शेष हैं। भोज बहुत बड़े वीर, प्रतापी और गुणग्राही थे। इन्होंने अनेक राजाओं पर विजय प्राप्त की थी और कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था। इनकी सभा सदा बड़े-बड़े पंडितों से सुशोभित रहती थी। इनकी पत्नी का नाम लीलावती था, जो बहुत बड़ी विदुषी थीं। जब भोज जीवित थे तो कहा जाता था—
अद्य धारा सदाधारा सदालम्बा सरस्वती।
पण्डिता मण्डिताः सर्वे भोजराजे भुवि स्थिते॥
(आज जब भोजराज धरती पर स्थित हैं तो धारा नगरी सदाधारा (अच्छे आधार वाली) हैं, सरस्वती को सदा आलंब मिला हुआ है, सभी पंडित आदृत हैं।)

जब उनका देहांत हुआ तो कहा गया—
अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती।
पण्डिताः खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवंगते॥
(आज भोजराज के दिवंगत हो जाने से धारा नगरी निराधार हो गई है, सरस्वती बिना आलंब की हो गई हैं और सभी पंडित खंडित हैं।)

भोजप्रबंध में वर्णित ‘भोज की राज्यप्राप्ति’ की कथा के अनुसार भोज, धारा नगरी के ‘सिंधुल’ नामक राजा के पुत्र थे और इनकी माता का नाम सावित्री था। जब ये पाँच वर्ष के थे, तभी इनके पिता अपना राज्य और इनके पालन-पोषण का भार अपने भाई मुंज पर छोड़कर स्वर्गवासी हुए थे। मुंज इनकी हत्या करना चाहता था, इसलिए उसने बंगाल के वत्सराज को बुलाकर उसको इनकी हत्या का भार सौंपा। वत्सराज इन्हें बहाने से देवी के सामने बलि देने के लिए ले गया। वहाँ पहुँचने पर जब भोज को मालूम हुआ कि यहाँ मैं बलि चढ़ाया जाऊँगा, तब उन्होंने अपनी जाँघ चीरकर अपने रक्त से बट के एक पत्ते पर दो श्लोक लिखकर वत्सराज को दिए और कहा कि ये मुंज को दे देना। उस समय वत्सराज को इनकी हत्या करने का साहस न हुआ और उसने भोज को ले जाकर अपने यहाँ छिपा दिया। इसके बाद वत्सराज भोज का कृत्रिम कटा हुआ सिर लेकर मुंज के पास गया और भोज के श्लोक उसने उन्हें दिए, तब मुंज को बहुत पश्चात्ताप हुआ। मुंज को बहुत विलाप करते देखकर वत्सराज ने उन्हें असल हाल बतला दिया और भोज को लाकर उनके सामने खड़ा कर दिया। मुंज ने सारा राज्य भोज को दे दिया और आप पत्नी सहित वन को चले गए।

राजा भोज को इस असार संसार से विदा हुए करीब पौने नौ सौ वर्ष से अधिक बीत चुके हैं, परंतु फिर भी उनका यश भारत के एक सिरे से दूसरे तक फैला हुआ है। भारतवासियों के मतानुसार यह नरेश स्वयं विद्वान् और विद्वानों का आश्रयदाता था। इससे हमारे यहाँ के अनेक प्रचलित किस्से-कहानियों के साथ इनका नाम जुड़ा हुआ मिलता है। राजा भोज परमार वंश में उत्पन्न हुआ था। मालवे के परमार अपने को विक्रम संवत् के चलानेवाले प्रसिद्ध नरेश विक्रमादित्य का वंशज मानते थे। कहते हैं, भोज बहुत बड़े वीर, प्रतापी, पंडित और गुण-ग्राही थे। इन्होंने अनेक राज्यों पर विजय प्राप्त की थी और कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था। इनका समय 10वीं-11वीं शताब्दी माना गया है। रोहक इनका प्रधानमंत्री और भुवनपाल मंत्री था। कुलचंद्र, साढ़ तथा तरादित्य इनके सेनापति थे, जिनकी सहायता से भोज ने राज्यसंचालन सुचारू रूप से किया। अपने चाचा मुंज की ही भाँति वह भी पश्चिमी भारत में एक साम्राज्य स्थापित करना चाहते थे और इस इच्छा की पूर्ति के लिए इन्हें अपने पड़ोसी राज्यों से हर दिशा में युद्ध करना पड़ा। मुंज की मृत्यु शोकजनक परिस्थिति में हो जाने से परमार बहुत ही उत्तेजित थे और इसीलिए परमार भोज चालुक्यों से बदला लेने के विचार से दक्षिण की ओर सेना लेकर चढ़ाई करने को प्रेरित हुए। उन्हेंने दहाल के कलचुरी गांगेयदेव तथा तंजौर (तंच्यावूर) के राजेंद्र चोल से संधि की और साथ ही साथ दक्षिण पर आक्रमण भी कर दिया, परंतु तत्कालीन राजा चालुक्य जयसिंह द्वितीय ने बहादुरी से उनका सामना किया और अपना राज्य बचा लिया। सन् 1044 ई. के कुछ समय बाद जयसिंह के पुत्र सोमेश्वर द्वितीय ने परमारों से फिर शत्रुता कर ली और मालवा राज्य पर आक्रमण कर भोज को भागने के लिए बाध्य कर दिया। धारानगरी पर अधिकार कर लेने के बाद उसने आग लगा दी, परंतु कुछ ही दिनों बाद सोमेश्वर ने मालवा छोड़ दिया और भोज ने राजधानी में लौटकर फिर सत्ताधिकार प्राप्त कर लिया।

सन् 1018 ई. के कुछ ही पहले भोज ने इंद्ररथ नामक एक व्यक्ति को, जो संभवतः कलिंग के गांग राजाओं का सामंत था, हराया था। जयसिंह द्वितीय तथा इंद्ररथ के साथ युद्ध समाप्त कर लेने पर भोज ने अपनी सेना भारत की पश्चिमी सीमा से लगे हुए राज्यों की ओर बढ़ाई और पहले लाट नामक राज्य पर, जिसका विस्तार दक्षिण में बंबई राज्य के अंतर्गत सूरत तक था, आक्रमण कर दिया। वहाँ के राजा चालुक्य कीर्तिराज ने आत्मसमर्पण कर दिया और भोज ने कुछ समय तक उस पर अधिकार रखा। इसके बाद लगभग सन् 1020 ई. में भोज ने लाट के दक्षिण में स्थित तथा थाना जिले से लेकर मालवा समुद्रतट तक विस्तृत कोंकण पर आक्रमण किया और शिलाहारों के अरिकेशरी नामक राजा को हराया। कोंकण को परमारों के राज्य में मिला लिया गया और उनके सामंतों के रूप में शिलाहारों ने यहाँ कुछ समय तक राज्य किया। सन् 1008 ई. में जब महमूद गजनबी ने पंजाबे शाही नामक राज्य पर आक्रमण किया, भोज ने भारत के अन्य राज्यों के साथ अपनी सेना भी आक्रमणकारी का विरोध करने तथा शाही आनंदपाल की सहायता करने हेतु भेजी, परंतु हिंदू राजाओं के इस मेल का कोई फल न निकला और इस अवसर पर उनकी हार हो गई। सन् 1043 ई. में भोज ने अपने भृतिभोगी सिपाहियों को पंजाब के मुसलमानों के विरुद्ध लड़ने के लिए दिल्ली के राजा के पास भेजा। उस समय पंजाब गजनी साम्राज्य का ही एक भाग था और महमूद के वंशज ही वहाँ राज्य कर रहे थे। दिल्ली के राजा को भारत के अन्य भागों की सहायता मिली और उसने पंजाब की ओर कूच करके मुसलमानों को हराया और कुछ दिनों तक उस राज्य के कुछ भाग पर अधिकार रखा, परंतु अंत में गजनी के राजा ने उसे हराकर खोया हुआ भाग पुनः अपने साम्राज्य में मिला लिया।

भोज ने एक बार दाहल के कलचुरी गांगेयदेव के विरुद्ध भी चढ़ाई कर दी, जिसने दक्षिण पर आक्रमण करने के समय उसका साथ दिया था। गांगेयदेव हार गया, परंतु उसे आत्मसमर्पण नहीं करना पड़ा। सन् 1055 ई. में कुछ ही पहले गांगेय के पुत्र कर्ण ने गुजरात के चौलुक्य भीम प्रथम के साथ संधि कर ली और मालव पर पूर्व तथा पश्चिम की ओर से आक्रमण कर दिया। भोज अपना राज्य बचाने का प्रबंध कर ही रहा था कि बीमारी से उसकी आकस्मिक मृत्यु हो गई और राज्य सुगमता से आक्रमणकारियों के अधिकार में चला गया। उत्तर में भोज ने चंदेलों के राज्य पर भी आक्रमण किया था, जहाँ विद्याधर नामक राजा राज्य करता था, परंतु उससे कोई लाभ न हुआ। भोज के ग्वालियर पर विजय प्राप्त करने के प्रयत्न का भी कोई अच्छा फल न हुआ, क्योंकि वहाँ के राजा कच्छपघाट कीर्तिराज ने उसके आक्रमण का डटकर सामना किया। ऐसा विश्वास किया जाता है कि भोज ने कुछ समय के लिए कन्नौज पर भी विजय पा ली थी, जो उस समय प्रतिहारों के पतन के बाद वाले परिवर्तन काल में था। भोज ने राजस्थान में शाकंभरी के चाहमानो के विरुद्ध भी युद्ध की घोषणा की और तत्कालीन राजा चाहमान वीर्यराम को हराया। इसके बाद उसने चाहमानो के ही कुल के अनहिल द्वारा शालित नदुल नामक राज्य को जीतने की धमकी दी, परंतु युद्ध में परमार हार गए और उनके प्रधान सेनापति साढ़ को जीवन से हाथ धोना पड़ा।

भोज ने गुजरात के चालुक्यों (सोलंकी) से भी, जिन्होंने अपनी राजधानी अनहिलपट्टण में बनाई थी, बहुत दिनों तक युद्ध किया। चालुक्य सोलंकी नरेश मूलराज प्रथम के पुत्र चंमुदराज को वाराणसी जाते समय मालवा में परमार भोज के हाथों अपमानित होना पड़ा था। उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी बल्लभराज को इसपर बड़ा क्रोध आया और उसने इस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने भोज के विरुद्ध एक बड़ी सेना तैयार की और भोज पर आक्रमण कर दिया, परंतु दुर्भाग्यवश रास्ते में ही चेचक से उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद बल्लभराज के छोटे भाई दुर्लभराज ने सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ली। कुछ समय बाद भोज ने उसे भी युद्ध में हराया। दुलर्भराज के उत्तराधिकारी भीम के राज्यकाल में भोज ने अपने सेनापति कुलचंद्र को गुजरात के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा। कुलचंद्र ने पूरे प्रदेश पर विजय प्राप्त की तथा उसकी राजधानी अनहिलपट्टण को लूटा। भीम ने एक बार आबू पर आक्रमण कर उसके राजा परमार ढंडु को हराया था, तब उसे भागकर चित्रकूट में भोज की शरण लेनी पड़ी थी, जैसा ऊपर बताया जा चुका है, सन् 1055 ई. में थोड़े ही पहले भीम ने कलचुरी कर्ण से संधि करके मालवा पर आक्रमण कर दिया था, परंतु भोज के रहते वे उस प्रदेश पर अधिकार न पा सके।

राजा भोज से संबंधित अनेक कथाएँ हैं। अलबेरूनी ने अपने भ्रमण वृत्तांत में एक अद्भुत कथा लिखी है। वह लिखता है कि ‘मालवे की राजधानी धार में, जहाँ पर इस समय भोज देव राज्य करता है, राज-महल के द्वार पर शुद्ध चाँदी का एक लंबा टुकड़ा पड़ा है। उसमें मनुष्य की आकृति दिखाई देती है। लोक इसकी उत्पत्ति की कथा इस प्रकार बतलाते हैं’—“प्राचीनकाल में किसी समय एक मनुष्य कोई विशेष प्रकार का रासायनिक पदार्थ लेकर वहाँ के राजा के पास पहुँचा। उस रासायनिक पदार्थ का यह गुण था कि उसके उपयोग से मनुष्य अमर, विजयी, अजेय और मनोवांछित कार्य करने में समर्थ हो सकता था। उस पुरुष ने राजा को उसका सारा हाल बतलाकर कहा कि आप अमुक समय अकेले आकर इसका गुण आजमा सकते हैं। इस पर राजा ने उसकी बात मान ली और साथ ही उस पुरुष की चाही हुई सब वस्तुएँ एकत्रित कर देने की, अपने कर्मचारियों को आज्ञा दे दी। इसके बाद वह पुरुष कई दिनों तक बड़ी कड़ाही में तेल गरम करता रहा और जब वह गाढ़ा हो गया, तब राजा से बोला कि अब आप इस में कूद पड़ें तो मैं बाकी की क्रियाएँ भी समाप्त कर डालूँ, परंतु राजा की उसके कथनानुसार जलते हुए तेल में कूदने की हिम्मत न हुई। यह देख उसने कहा कि यदि आप इसमें कूदने से डरते हैं तो मुझे आने दीजिए, ताकि मैं यह सिद्धी प्राप्त कर लूँ। राजा ने यह बात मान ली। इस पर उस पुरुष ने औषधियों की कई पुड़ियाँ निकालकर राजा को दी और समझा दिया कि इस प्रकार के चिह्न न दिखाई देने पर वे अन्य पुड़िया तेल में डाल दें। इस प्रकार राज को समझा-बुझाकर वह पुरुष उस कड़ाही में कूद पड़ा और क्षण भर में ही गलकर एक गाढ़ा तरल पदार्थ बन गया। राजा भी उसकी बतलाई विधि के अनुसार एक-एक पुड़िया उसमें डालने लगा, परंतु जब वह एक पुड़िया को छोड़कर बाकी सारी पुड़ियाएँ डाल चुका, तब उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ कि यदि वास्तव में ही यह पुरुष अमर, विजयी और अजेय होकर जीवित हो गया, तो मेरी और मेरे राज्य की क्या दशा होगी। ऐसा विचार उत्पन्न होते ही उसने वह अंतिम पुड़िया तेल में न डाली। इससे वह कड़ाही ठंडी हो गई और वह घुला हुआ पुरुष चाँदी के उपर्युक्त टुकड़े के रूप में जम गया।”

भोज का साम्राज्य
उदयपुर की ग्वालियर प्रशस्ति में लिखा है कि सम्राट् भोज का राज्य उत्तर में हिमालय से दक्षिण में मलयाचल तक और पूर्व में उदयाचल से पश्चिम में अस्ताचल तक फैला हुआ था। इस संबंध में निम्न श्लोक इस प्रकार है— आकैलासान्मलयर्गिरतोऽस्तोदयद्रिद्वयाद्वा।
भुक्ता पृथ्वी पृथुनरपतेस्तुल्यरूपेण येन॥
कुछ विद्वानों का मत है कि सम्राट् भोज का राज्य लगभग संपूर्ण भारतवर्ष पर ही था। उसका अधिकार पूर्व में डाहल या चेदि, कन्नौज, काशी, बंगाल, बिहार, उड़ीसा और आसाम तक था। दक्षिण में विदर्भ, महाराष्ट्र कर्णाट और काँची तक तथा पश्चिम में गुजरात, सौराष्ट्र और लाट तक तथा उत्तर में चित्तौड़, साँभर और कश्मीर तक था। चंपू रामायण में भोज को विदर्भ का राजा कहा गया है और विदर्भराज की उपाधि से विभूषित किया गया है। भोज के राज्य विस्तार को दरशाता हुआ और एक श्लोक इस प्रकार है— केदार-रामेश्वर-सोमनाथ-सुण्डीर-कालानल-रुद्रसत्कैः।
सुराश्रयैर्व्याप्य च यः समन्ताद्यथार्थसंज्ञां जगर्ती चकार॥
इससे स्पष्ट है कि भोज ने अपने साम्राज्य के पूर्वी सीमा पर सुंदरबन स्थित सुंडिर, दक्षिणी सीमा पर रामेश्वर, पश्चिमी सीमा पर सोमनाथ तथा उत्तरी सीमा पर केदारनाथ सरीखे विख्यात मंदिरों का निर्माण तथा पुनर्निर्माण कराया था। भोज ने कश्मीर में कुंड भी बनवाया था। भोज के साम्राज्य विस्तार पर विद्वानों में थोड़ा मतभेद हो सकता है, क्योंकि भोज की साम्राज्य सीमाएँ विस्तीर्ण, किंतु थोड़ी अस्थिर रही। भोज का कश्मीर राज्य भी इतिहास में दर्ज है। विश्वेश्वरनाथ रेउ ने राजा भोज से संबंधित राज्यों की सूची में कश्मीर राज्य के विषय में लिखा है कि राजा भोज ने सुदूर कश्मीर राज्य के कपटेश्वर (कोटेर) तीर्थ में पापसूदन का कुंड बनवाया था और वह सदा वहीं के लाये हुए जल से मुँह धोया करता था। इसके लिए वहाँ का जल मँगवाने का पूरा-पूरा प्रबंध किया गया था। राजा भोज बहुत बड़े वीर और प्रतापी होने के साथ-साथ प्रकांड पंडित और गुणग्राही भी थे। इन्होंने कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था। ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे। सरस्वतीकंठाभरण, शृंगारमंजरी, चंपूरामायण, चारूचर्या, तत्त्वप्रकाश, व्यवहारसमुच्चय आदि अनेक ग्रंथ इनके लिखे हुए बतलाए जाते हैं। इनकी सभा सदा बड़े-बड़े पंडितों से सुशोभित रहती थी। इनकी पत्नी का नाम लीलावती था, जो बहुत बड़ी विदुषी थीं। राजा भोज ने ज्ञान के सभी क्षेत्रों में रचनाएँ की हैं। उन्होंने 84 ग्रंथों की रचना की है। उसमें से प्रमुख हैं—
• राजमार्तण्ड (पतंजलि के योगसूत्र की टीका)
• सरस्वतीकंठाभरण (व्याकरण)
• सरस्वतीकंडाभरण (काव्यशास्त्र)
• शृंगारप्रकाश (काव्यशास्त्र तथा नाट्यशास्त्र)
• तत्त्वप्रकाश (शैवागम पर)
• वृहद्राजमार्तण्ड (धर्मशास्त्र)
• राजमृगांक (चिकित्सा)
• विद्याविनोद
• युक्तिकल्पतरू—यह ग्रंथ राजा भोज के समस्त ग्रंथों में अद्वितीय है। इस एक ग्रंथ में अनेक विषयों का समाहार है। राजनीति, वास्तु, रत्नपरीक्षा, विभिन्न आयुध, अश्व, गज, वृषभ, महिष, मृग, अज-श्वान आदि पशु-परीक्षा, द्विपदयान, चतुष्पदयान, अष्टदोला, नौका-जहाज आदि के सारभूत तत्त्वों का भी इस ग्रंथ में संक्षेप में सन्निवेश है। विभिन्न पालकियों और जहाजों का विवरण इस ग्रंथ की अपनी विशेषता है। विभिन्न प्रकार के खड्गों का सर्वाधिक विवरण इस पुस्तक में ही प्राप्त होता है। सम्राट् भोज जहाँ कुशल प्रशासक और सेनापति था, वहीं विद्या प्रेमी और कवि भी था।

बल्लाल सेन द्वारा रचित भोजप्रबंध तो भोज द्वारा विद्वानों और कवियों के सम्मान एवं उन्हें पुरस्कार स्वरूप दिए गए दान की कथाओं से भरा पड़ा है। विल्हण ने अपने विक्रमांकदेवचरित् में लिखा है कि अन्य नरेशों की तुलना राजा भोज से नहीं की जा सकती। इसके अलावा उस समय राजा भोज का यश इतना फैला हुआ था कि अन्य प्रांतों के विद्वान् अपने यहाँ के नरेशों की विद्वत्ता और दानशीलता दिखलाने के लिए राजा भोज से ही उनकी तुलना किया करते थे। राजतरंगिणी में लिखा है कि उस समय विद्वान् और विद्वानों के आश्रयदाता क्षीतिराज (क्षितपति) और भोजराज ये दोनों ही अपने दान की अधिकता से संसार में प्रसिद्ध थे। विल्हण ने भी अपने विक्रमांकदेवचरित में क्षीतिपति की तुलना भोजराज से की है। उसमें लिखा है कि लोहरा का राजा वीर क्षीतपति भी भोज के ही समान गुणी था। सन् 1055 ई. में धारानगरी में चक्रवर्ती सम्राट् परमार भोज का निधन हो गया। उनकी शासनावधि 1010 से 1055 ई. मानी जाती है।