kubja maid in Hindi Mythological Stories by Renu books and stories PDF | कुब्जा दासी

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कुब्जा दासी

कुब्जा मथुरा के राजा कंस के दरबार की एक कुबड़ी दासी थी। यद्यपि वह कुबड़ी थी, लेकिन सौन्दर्य की धनी थी। वह महल में प्रतिदिन फूल, चन्दन तथा तिलक आदि ले जाने का कार्य किया करती थी। जब भगवान श्रीकृष्ण कंस वध के उद्देश्य से मथुरा आये, तब उन्होंने कुब्जा का कुबड़ापन ठीक कर दिया। कुब्जा श्रीकृष्ण से प्रेम करने लगी थी, भगवान ने उसे अपना कार्य सिद्ध हो जाने के बाद उसके घर आने का विश्वास दिलाया और उसे विदा किया। कालांतर में कृष्ण ने उद्धव के साथ कुब्जा का आतिथ्य स्वीकार किया। कुब्जा के साथ प्रेम-क्रीड़ा भी कीं। कुब्जा ने कृष्ण से वर माँगा कि वे चिरकाल तक उसके साथ वैसी ही प्रेम-क्रीड़ा करते रहें।

'कुब्जा उद्धार' की कथा बड़ी ही रोचक और शिक्षाप्रद है। कंस की नगरी मथुरा में कुब्जा नाम की स्त्री थी, जो कंस के लिए चन्दन, तिलक तथा फूल इत्यादि का संग्रह किया करती थी। कंस भी उसकी सेवा से अति प्रसन्न था। जब भगवान श्रीकृष्ण कंस वध के उद्देश्य से मथुरा में आये, तब कंस से मुलाकात से पहले उनका साक्षात्कार कुब्जा से होता है। बहुत ही थोड़े लोग थे, जो कुब्जा को जानते थे। उसका नाम कुब्जा इसलिए पड़ा था, क्योंकि वह कुबड़ी थी। जैसे ही भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि उसके हाथ में चन्दन, फूल और हार इत्यादि है और बड़े प्रसन्न मन से वह लेकर जा रही है। तब श्रीकृष्ण ने कुब्जा से प्रश्न किया- "ये चन्दन व हार फूल लेकर इतना इठलाते हुए तुम कहाँ जा रही हो और तुम कौन हो?" कुब्जा ने उत्तर दिया कि- "मैं कंस की दासी हूँ। कुबड़ी होने के कारण ही सब मुझको कुब्जा कहकर ही पुकारते हैं और अब तो मेरा नाम ही कुब्जा पड़ गया है। मैं ये चंदन, फूल हार इत्यादि लेकर प्रतिदिन महाराज कंस के पास जाती हूँ और उन्हें ये सामग्री प्रदान करती हूँ। वे इससे अपना श्रृंगार आदि करते हैं।"

श्रीकृष्ण ने कुब्जा से आग्रह किया कि- "तुम ये चंदन हमें लगा दो, ये फूल, हार हमें चढ़ा दो"। कुब्जा ने साफ इंकार करते हुए कहा- "नहीं-नहीं, ये तो केवल महाराज कंस के लिए हैं। मैं किसी दूसरे को नहीं चढ़ा सकती।" जो लोग आस-पास एकत्र होकर ये संवाद सुन रहे थे व इस दृश्य को देख रहे थे, वे मन ही मन सोच रहे थे कि ये कुब्जा भी कितनी जाहिल गंवार है। साक्षात भगवान उसके सामने खड़े होकर आग्रह कर रहे हैं और वह है कि नहीं-नहीं कि रट लगाई जा रही है। वे सोच रहे थे कि इतना भाग्यशाली अवसर भी वह हाथ से गंवा रही है। बहुत कम लोगों के जीवन में ऐसा सुखद अवसर आता है। जो फूल माला व चंदन ईश्वर को चढ़ाना चाहिए वह उसे न चढ़ाकर वह पापी कंस को चढ़ा रही है। उसमें कुब्जा का भी क्या दोष था। वह तो वही कर रही थी, जो उसके मन में छुपी वृत्ति उससे करा रही थी।

भगवान श्रीकृष्ण के बार-बार आग्रह करने और उनकी लीला के प्रभाव से कुब्जा उनका श्रृंगार करने के लिए तैयार हो गई। परंतु कुबड़ी होने के कारण वह प्रभु के माथे पर तिलक नहीं लगा पा रही थी। श्रीकृष्ण उसके पैरों के दोनों पंजों को अपने पैरों से दबाकर हाथ ऊपर उठवाकर ठोड़ी को ऊपर उठाया, इस प्रकार कुब्जा का कुबड़ापन ठीक हो गया। अब वह श्रीकृष्ण के माथे पर चंदन का टीका लगा सकी। कुब्जा के बहुत आमन्त्रित करने पर कृष्ण ने उसके घर जाने का वचन देकर उसे विदा किया। कालांतर में कृष्ण ने उद्धव के साथ कुब्जा का आतिथ्य स्वीकार किया। कुब्जा के साथ प्रेम-क्रीड़ाएँ भी कीं। कुब्जा ने कृष्ण से वर मांगा कि वे चिरकाल तक उसके साथ वैसी ही प्रेम-क्रीड़ा करते रहें।

'श्रीमद्भागवत महापुराण' के अनुसार- श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण जब अपनी मण्डली के साथ राजमार्ग से आगे बढ़े, तब उन्होंने एक युवती स्त्री को देखा। उसका मुँह तो सुन्दर था, परन्तु वह शरीर से कुबड़ी थी। इसी से उसका नाम पड़ गया था ‘कुब्जा’। वह अपने हाथ में चन्दन का पात्र लिये हुए जा रही थी। भगवान श्रीकृष्ण प्रेमरस का दान करने वाले हैं, उन्होंने कुब्जा पर कृपा करने के लिये हँसते हुए उससे पूछा- "सुन्दरी! तुम कौन हो? यह चन्दन किसके लिये ले जा रही हो? कल्याणि! हमें सब बात सच-सच बतला दो। यह उत्तम चन्दन, यह अंगराग हमें भी दो। इस दान से शीघ्र ही तुम्हारा परम कल्याण होगा।" उबटन आदि लगाने वाली सैरन्ध्री कुब्जा ने कहा- "परम सुन्दर! मैं कंस की प्रिय दासी हूँ। महाराज मुझे बहुत मानते हैं। मेरा नाम त्रिवक्रा (कुब्जा) है। मैं उनके यहाँ चन्दन, अंगराग लगाने का काम करती हूँ। मेरे द्वारा तैयार किये हुए चन्दन और अंगराग भोजराज कंस को बहुत भाते हैं। परन्तु आप दोनों से बढ़कर उसका कोई उत्तम पात्र नहीं है।" भगवान के सौन्दर्य, सुकुमारता, रसिकता, मन्दहास्य, प्रेमालाप और चारु चितवन से कुब्जा का मन हाथ से निकल गया। उसने दोनों भाइयों को वह सुन्दर और गाढ़ा अंगराग दे दिया। तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपने साँवले शरीर पर पीले रंग का और बलरामजी ने अपने गोर शरीर पर लाल रंग का अंगराग लगाया तथा नाभि से ऊपर के भाग में अनुरंजित होकर वे अत्यन्त सुशोभित हुए। भगवान श्रीकृष्ण उस कुब्जा पर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने दर्शन का प्रत्यक्ष फल दिखलाने के लिये तीन जगह से टेढ़ी किन्तु सुन्दर मुखवाली कुब्जा को सीधी करने का विचार किया। भगवान ने अपने चरणों से कुब्जा के पैर के दोनों पंजे दबा लिये और हाथ ऊँचा करके दो अंगुलियाँ उसकी ठोड़ी में लगायीं तथा उसके शरीर को तनिक उचका दिया। उचकाते ही उसके सारे अंग सीधे और समान हो गये। प्रेम और मुक्ति के दाता भगवान के स्पर्श से वह तत्काल विशाल नितम्ब और पीन पयोधरों से युक्त एक उत्तम युवती बन गयी। उसी क्षण कुब्जा रूप, गुण और उदारता से सम्पन्न हो गयी। उसके मन में भगवान के मिलन की कामना जाग उठी। उसने उनके दुपट्टे का छोर पकड़कर मुसकराते हुए कहा- "वीरशिरोमणे! आइये, घर चलें। अब मैं आपको यहाँ नहीं छोड़ सकती। क्योंकि आपने मेरे चित्त को मथ डाला है। पुरुषोत्तम! मुझ दासी पर प्रसन्न होइये।" जब बलरामजी के सामने ही कुब्जा ने इस प्रकार प्रार्थना की, तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपने साथी ग्वालबालों के मुँह की ओर देखकर हँसते हुए उससे कहा- "सुन्दरी! तुम्हारा घर संसारी लोगों के लिये अपनी मानसिक व्याधि मिटाने का साधन है। मैं आपना कार्य पूरा करके अवश्य वहाँ आऊँगा। हमारे-जैसे बेघर के बटोहियों को तुम्हारा ही तो आसरा है।" इस प्रकार मीठी-मीठी बातें करके भगवान श्रीकृष्ण ने उसे विदा कर दिया। जब वे व्यापारियों के बाज़ार में पहुँचे, तब उन व्यापारियों ने उनका तथा बलरामजी का पान, फूलों के हार, चन्दन और तरह-तरह की भेंट-उपहारों से पूजन किया।