main to odh chunriya - 52 in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | मैं तो ओढ चुनरिया - 52

Featured Books
  • నిరుపమ - 10

    నిరుపమ (కొన్నిరహస్యాలు ఎప్పటికీ రహస్యాలుగానే ఉండిపోతే మంచిది...

  • మనసిచ్చి చూడు - 9

                         మనసిచ్చి చూడు - 09 సమీరా ఉలిక్కిపడి చూస...

  • అరె ఏమైందీ? - 23

    అరె ఏమైందీ? హాట్ హాట్ రొమాంటిక్ థ్రిల్లర్ కొట్ర శివ రామ కృష్...

  • నిరుపమ - 9

    నిరుపమ (కొన్నిరహస్యాలు ఎప్పటికీ రహస్యాలుగానే ఉండిపోతే మంచిది...

  • మనసిచ్చి చూడు - 8

                     మనసిచ్చి చూడు - 08మీరు టెన్షన్ పడాల్సిన అవస...

Categories
Share

मैं तो ओढ चुनरिया - 52

 

मैं तो ओढ चुनरिया 

 

52

 

 

ये मामू मुझे बहुत प्यार करते थे । पिछले पंद्रह बीस साल से वे हमारे साथ रह रहे थे । हर रोज बर्फी और रबड़ी का दोना मेरे लिए आता रहा । हर साल जैसे ही नतीजे आते , वे हर रोज काम से लौटते ही पिताजी से पूछते – रवि आज पपले की किताबें नहीं खरीदी । इस बीच मजूरी के पैसे मिलते तो गत्ते , अबरी और किरमिच खरीद लाते । जिस दिन किताबें घर आती उनकी काम से छुट्टी हो जाती । माँ लाख कहती , काम पर चले जाओ , जुम्मे को जिल्दें बंध जाएंगी पर मामू न मानते । सुबह से ही काम में जुट जाते , आटे में नीला थोथा डाल कर लेई तैयार की जाती । गत्ते काटे जाते । किताबों की सिलाई की जाती । शाम तक सारी किताबों की जिल्दें बंध जाती । उन्हें ईंटों के नीचे दबा कर एक कोने में रख दिया जाता । फिर पुरानी कॉपियों से खाली कागज निकाले जाते और उन्हें इकट्ठा करके रफ कापियां बनाई जाती । किताबें दो दिन ईंटों के नीचे दबी रहती फिर मामू किताबों को नजाकत से उठाते , कपड़ा लेकर दुलार से उनका मुँह पोंछते और एक एक किताब मुझे पकङाते जाते । किताबें सजीली हो उठती ।

इसी तरह दिवाली से पहले पतंगी कागज और चमकीले कागज खरीदे जाते । बांस छीले जाते । उनसे कंदील बनाते । कश्ती के आकार के । लालटेल के आकार के और उनमें सुंदर पतंगी कागज की झालर लगाई जाती । दिवाली से दो दिन पहले ही ये कंडील छत पर , दरवाजे पर टांगे जाते । बीच में दिया झिलमिलाता रहता । मैं हैरान होकर मामू का चेहरा देखती रहती । मामू कितने अच्छे कलाकार हैं ।

अब मामू छुट्टी वाले दिन घर का एक एक कोना चमकाने लग जाते । सुबह एक कोना पकड़ लेते , शाम तक भूतों की तरह धूल में लथपथ हो जाते पर उनकी तसल्ली न होती । अगले जुम्मे को वे फिर सफाई कर रहे होते ।

और अब तो यह शादी का घर था तो मामू का सफाई अभियान जोर शोर से चल रहा था । शादी के दिन से करीब बीस दिन पहले वे रस्सियां और पतंगी कागज खरीद लाए और उनसे झंडियां बनाने लगे । झंडियां रस्सी पर चिपकाई जाती फिर सूखने के लिए फैला दी जाती । शाम को मंझले मामा आए । उन्होंने ये झंडियां देखी तो बोले – मामू जितनी बन गई , बहुत हैं । और मत बनाना ।

मामू ने प्रश्नसूचक नजरों से उनका चेहरा देखा ।

वो पुरानी चुंगी पर मेरा दोस्त है न ओम प्रकाश, वही ओमी बिजली की दुकान वाला , उसने कहा है , सारी डैकोरेशन वह करेगा । उसने उन दो दिन का कोई साहा नहीं पकङा ।

पिताजी ने सुना तो बोले – वह तो बहुत महंगा पड़ेगा । इतना खर्चा फालतू का हो जाएगा ।

आप अपनी मर्जी से जितना मन करे , पैसे दे देना । जब हों तब दे देना । वह कोई पैसा नहीं मांगेगा ।

पिताजी का मन नहीं माना । अगले दिन शाम को वे ओमी मामा से मिलने उसकी दुकान में जा पहुँचे ।

सुन भाई किशन कह रहा था कि रानी की शादी में सजावट तू कर रहा है । मेरे पास बजट कम है तो हिसाब से ही सजावट करना ।

पैसों की बात कहाँ से आ गई जीजा जी । मेरी भांजी की शादी है । वह सजावट करूंगा कि पंजाब वाले आँखें फाड़े देखते रह जाएंगे । समझ लूंगा कि दो दिन सामान कहीं नहीं गया । आप कोई चिंता मत करो । बाकी खर्चे देखो । ये मुझे करने दो । पिताजी फूल से हल्के होकर निश्चित भाव से घर लौटे ।

माँ आजकल रोज रजाइयों के गिलाफ , खेस , तकिए के गिलाफ धोने मे लगी थी । शादी से चार पाँच दिन पहले सारा घर धुल पुछ गया । रात को मोहल्ले वाली औरतें गीत गाने आने लगी । हर रोज हल्दी उबटन लगा कर मुझे तेल चढाया जाता । मेरा बाहर जाना बंद हो गया । दो दिन पहले महताब बुआ परिवार समेत आ पहुँची । शाम तक बाकी रिश्तेदार भी आ गये । खूब रौनक हो गई । नाच गाना , लड्डू मिठाई का दौर चलने लगा ।

बारात आने में दो दिन बाकी थे कि एक दिन पहले अभी दिन निकला भी न था कि सुबह सुबह दरवाजे की कुंडी बजी । अभी कुछ लोग सोये थे , कुछ जागे । ये इतनी सुबह सुबह कौन आ गया । अभी तो छ भी नहीं बजे । जाकर देखा गया तो दरवाजे पर मेरे छोटे देवर अपने जीजा के साथ खङे थे ।

जी बताइए हमें कहाँ आना है , हम तो तीस लोग आ गये हैं । अभी गाड़ी से उतरे हैं । बाकी लोग अभी स्टेशन पर ही हैं ।

सब हैरान परेशान हो गये । शादी तो कल रात की है और बारात दरवाजे पर आ भी गई । जो बारात घर बारात ठहराने के लिए तय किया गया था वह तो कल शाम को मिलना था । और इस घर में तो पहले ही रिश्तेदार भरे हुए थे पर अब क्या किया जाय । अभी कितने काम बाकी हैं । चौक पूरने हैं । सजावट होनी है । टैंट लगने हैं । बिजली की झालर लगनी हैं । यह तो बहुत बडी समस्या हो गई । अब गाँव होता तो और बात थी । यह शहर था जहां धर्मशाला , बारात घर पहले से बुक करवाने पड़ते थे । वह भी महीना भर पहले । मौके पर तो कोई जगह मिलने की संभावना न के बराबर थी ।

आखिर छोटे मामा ने पिताजी को अपने घर की चाबी पकङाई , लो भाऊ बारात को वहाँ ठहरा दो । पिताजी एक दो लोगों को लेकर मामा के घर गये । सब लोगों को वहीं बुला लिया गया । वहाँ चूल्हे पर नहाने के लिए पानी गरम किया गया । बाजार से छोले पूरी लाकर सबको नाश्ता करवाया गया । फिर पिताजी हलवाई के पास गये । उसे अचानक आ पङी इस विपदा के बारे में बताया तो वह भी हैरान रह गया – इतने साल हो गये थे उसे शादी ब्याह का काम करते । हमेशा बारातें लेट हो जाती थी । कभी कभी चार घंटे भी । घराती इंतजार में हाथ बांधे खड़े रहते थे । वक्त से पहले आने वाली बारात वह पहली बार देख रहा था । वह भी घंटा दो घंटे नहीं पूरे सैंतीस घंटे पहले । खैर उसने रोटी बनाने के लिए एक आदमी जैसे तैसे जुटा दिया । राशन दोबारा मंगवाया गया । सारा सामान और उस आदमी को मामा के घर पहुँचा दिया गया ।

पता चला – ये लोग जिंदगी में पहली बार रेल पर सवार हुए है । इतना ही पता था कि सहारनपुर बहुत दूर है । पर कितना इसका कोई अंदाजा नहीं था । ऊपर से डर था कि थक जाएंगे तो बारात कैसे चढेंगे । इसलिए गाड़ी में सवार हो गये । एक ही दिन तो पहले आए हैं । कोई न जी बीत जाएगा । आप चिंता न करो । नाश्ता करके नहा धो कर बङे लोग तो सो गये । बाकी लोग कुछ हरिद्वार चले गये तो कुछ मसूरी घूमने । जो रह गये उन्हें मामा ने टैक्सी कर दी थी । वे सहारनपुर शहर घूमते रहे ।

 

 

 

बाकी फिर ...