religion and constitution in Hindi Magazine by नंदलाल मणि त्रिपाठी books and stories PDF | धर्म औऱ संविधान

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धर्म औऱ संविधान

धर्म और संविधान--

व्यक्ति समाज और राष्ट्र कि जीवन पद्धति आचार,
व्यवहार ,संस्कृति ,संस्कार उस राष्ट्र समाज कि धार्मिंक पहचान होती है या मानी जाती है ।

धर्म भाव भावना यूँ कहें आस्था है जो किसी भी व्यक्ति को जन्म के साथ मानव समाज में उसको परिभाषित किया जाता है।

धर्म जीवन मूल्यों सिद्धान्तों आदर्शों के प्रति आस्थावान समर्पित भाव को जन्म देता है धर्म जीवन मूल्य है तो संविधान शासन शासक कि वह व्यवस्था का डंडा या दंड व्यवस्था है जो व्यक्ति समाज को भय से जीवन मूल्यों और आदर्शो को समाज तदुपरांत राष्ट्र का आचरण निर्धारित करने में सहायक होता है ।

धर्म और संविधान दोनों का ही कम से कम एक लक्ष्य सामान है दोनों का ही उद्धेश्य समाज के लिये योग्य ,सक्षम ,स्वस्थ और उपयोगी नागरिको बनाना ।

दूसरा दोनों का उद्देश्य यह होता है कि मानवीय मूल्यों का छरण ना हो और व्यकि के व्यक्तित्व का विकास हो और मजबूत समाज राष्ट्र कि बुनियाद बन सके।

तीसरा दोनों का ही मूल उदेशय यह होता है कि मनुष्य में उसकी जीवन पद्धति संस्कृति संस्कारों के आधार पर एक दूसरे में भेद विभेद या बैमंश्व या द्वन्द ना हो और सामाजिक स्तर पर समानता समरसता बनी रहे जो सभ्यताओ और मूल्यों के विकास के लिए अनिवार्य है।

धर्म आस्था विश्वास का भाव है जो उसके मतावलंबियों के लिये है संविधान अपनी सीमाओं के समघ्र समाज के विकास के अर्थ आधार के स्वरुप मैं स्वयं को निरूपित करता है जिससे कि उसकी सीमाओ के अंतर्गत सभी धर्म और सांप्रदायिक संतुष्टि और पोषण के दायित्व का निर्वहन कर सके।

सम्पूर्ण विश्व में जितने भी धर्म , संप्रदाय है या उसके प्रति जितने लोग भी आस्थावान है या यूं कहे मतावलम्बी है एक सिद्धान्त पर सर्व संमत रहते है कि क़ोई धर्म संप्रदाय प्राणी मात्र को प्रेम सेवा छमाँ करुणा शांति का मार्ग दिखाते हुये परस्पर सौहार्द को बनाये रखने कि शिक्षा देता है।

संविधान इसेअपनी मूल राष्ट्रिय अवधारणा मानता है जहाँ तक ऐतिहासिक तथ्य प्रमाणिकता और साक्ष्य के साथ यह स्वीकार किया जाता है कि सनातन धर्म कि उत्पत्ति का कोई प्रमाण नहीं है ना ही उसका क़ोई प्रवर्तक है समय समय पर वह अपने अतित्व के लिये संघर्ष अवश्य करता रहा है ।

आज भी अपने सत्य सार्थक और अनंत स्वरुप में मौजूद है
विश्व इतिहास में पहला धर्म प्रवर्तन जैन धर्म ईसा छ सौ वर्ष एवं आज से लगभग छब्बीस सौ वर्ष पूर्व हुआ उसके लगभग डेढ़ सौ वर्षों बाद बुद्ध धर्म प्रवर्तन हुआ दोनों ही धर्मो के प्रवर्तक सनातन धर्म से ही थे तीसरा प्रवर्तन आज से लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व जीजस क्राइस्ट द्वारा क्रिश्चियन धर्म का प्रवर्तन किया गया और लग्भग पंद्रह सौ साल पूर्व इस्लाम धर्म का प्रवर्तन हुआ लगभग छ सौ वर्ष पूर्व गुरुओ ने सिक्ख धर्म कि स्थापना कि इन ऐतिहासिक तथ्यों पर ना तो कोई भेद है ना मतभेद है।

जैन धर्म बुद्ध धर्म और सिख्ख धर्म के प्रवर्तक मूल रूप से सनातन धर्म में पैदा होकर उसकी विसंगतियों को आधार बना उनका समन करते नए धर्म का प्रवर्तन कर धार्मिक मानवीय मूल्यों का निर्धारण कर ईश्वरीय अवतार के रूप में जाने पहचाने गए।

सभी धर्मो में क्रिश्चियन, जैन, बौद्ध , सनातन, सिक्ख धर्म में एक मामले में समानता है कि ये सभी करुणा छमाँ दया प्रेम सेवा और मानवीय मूल्यों के सिद्धांत का पोषण और संरक्षण करते है ।

इस्लाम् सम्पूर्ण समर्पण को स्वीकार करता है मतलब मजहब है तो इंसान का वजूद है जो कट्टरता और और क्रूरता को जन्म देता है यही कारण है कि इस्लाम अपने इसी समर्पण या यु कहे धार्मिक वचन वद्धता से विश्व समुदाय से अलग थलग पड़ता जा रहा है।

धर्म उन्माद नहीं उत्साह है जीवन मूल्यों का संचार है धर्म क्रूरता नहीं धर्म करुणा का भाव है धर्म घृणा नहीं मानवीय घनिष्ठता का सिद्धांत है ।

संविधान में प्रवर्तक और प्रवर्तन नहीं होता समय समय पर आवशयकता परिस्थितियो की जरूरतों के अनुसार परीवर्तन मानवीय मूल्यों कि रक्षा विकास के लिये होता रहता है।

ऐसा धर्म में भी होता है धर्म भी विकास और सभ्यता के मध्य समन्वय बनाये रखने लिये परिस्थिति परिवेश काल समय के अनुसार परिवर्तन आवश्यक होता है ।

स्पष्ट है कि धर्म और संविधान एक दूसरे कि आत्मा मन शारीर कहना उचित होगा।

अब प्रश्न यह उठता है कि धर्म से राजनीती या राजनीति में धर्म इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर है कि कर्तव्यों दायित्वों के बोध के धर्म का सिद्धान्त है राज निति या राज्य निति।

राजनीती में नेता और नेतृत्व में आस्था प्रधान होती है और नेतृत्व वही है जिसकी निति निर्देशन में जनमानस समाज कि आस्था हो और राष्ट्र का सम्पूर्ण कल्याण हो।
विल्कुल स्पष्ट है कि धर्म शासन की रीढ़ है जो मर्यादाओ और सिद्धान्तों पर आश्रित होती है मगर धर्म ही संविधान कि अवधारणा है जो सत्य है क्योकि धर्म भी किसी के सापेक्ष नहीं होता है और संविधान भी धर्म न्याय को अपने आत्म बोध कि संस्कृति मानता है ।

यहाँ अंतर सिर्फ इतना है कि संविधान धार्मिक सिद्धान्तों को आवशयकता अनुसार स्वीकार करता है जिससे कि मानवीय मूल्य और संवेदनाओ के मध्य धर्म और संविधान कि वैधानिकता विश्वसनीयता कायम रहे।

धर्म संविधान को दृष्टि दिशा दे सकने में सक्षम है दिशा निर्देश नहीं जैसा कि सरियत के नाम पर इस्लाम में है।

भारत जैसे देश में जहाँ हज़ारों भाषाए लाखो जातिया उप जातिया सैकड़ों धर्म ना जाने कितने धर्मानुयायी है।

उत्तर प्रदेश में एक धर्मिक प्रितिनिधि या मुखिया को शासन का मुखिया बना कर सही निर्णय लिया गया उत्तर स्पस्ट हैं विलकुल सही और सार्थक साहसी और मजबूत इरादों का सम्पूर्ण विश्व को धर्म और राजनीती के समन्वय कि सार्थकता का महत्व्पूर्ण सिद्धान्त भारत द्वारा ही प्रतिपादित किय जाना है ।

यदि महात्मा ने सम्पूर्ण मानवता को सत्य अहिंसा का सिद्धान्त दिया ,भगवान बुद्ध ने अहिंसा परमोधर्म का सिद्धान्त विश्व को दिया, प्रभु ईसा मसीह ने प्रेम छमा करुणा सेवा का अमूल्य खजाना दिया, तो निश्चित ही आदित्य ,सूर्य, दिनकर, दिवाकर भास्कर , रबी,अपने नए काल कलेवर में उदय उदित होकर विश्व राजनीती को नई दिशा दृष्टि और सार्थक सिद्धान्त देने जा रहा है।

धन्य है वह आधार या बुनियाद प्रेरणा जिसने एक नए सिद्धान्त के प्रयोग कि परिकल्पना कि और सहस जुटाया यहाँ अगर क़ोई कही से आशंका है तो सिर्फ विकृत मानसिकता के छद्म धर्म निरपेक्षता से है जो एक ईमानदार सार्थक और सम्पूर्ण मानवता के विकास के संकीर्ण मानसिकता छुद्र स्वार्थ के कारण विरोधी है ऐसे तत्व सदैव ही घातक होते है।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश