main to odh chunriya - 50 in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | मैं तो ओढ चुनरिया - 50

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मैं तो ओढ चुनरिया - 50

 

मैं तो ओढ चुनरिया 

 

50


जैसे जैसे दिन बीत रहे थे , माँ की घबराहट बढती जा रही थी , ऊपर से पास पङोस के लोगों और रिश्तेदारों ने पूछना शुरु कर दिया था – शादी कब कर रहे हो ?
पिताजी सहज भाव से कहते , भाई लङकी जितने दिन अपने पास रह ले , अच्छा है । एक बार शादी हो गई तो हमारे पास कहाँ रह पाएगी । जब मांगेंगे , फेरे कर देंगे । हमें क्या जल्दी है । पर माँ उन लोगों के जाने के बाद खीझ खीझ जाती । अक्सर पिताजी से लङ पङती ।
लोग तो पूछेंगे ही । किस किस का मुँह बंद करोगे । डेढ साल सगाई को हो गया , न कोई आया न गया । अगलों ने तो घर बार भी नहीं देखा । ऐसे रिश्ते होते हैं और ऐसे निभते हैं क्या । पचास रुपए हाथ में देकर लङकी रोक ली । उसके बाद कोई खोज खबर नहीं । अभी तो शादी हुई नहीं तो ये हाल है । शादी के बाद पता नहीं क्या करेंगे ।
पिताजी चुपचाप सुन लेते । फिर तो यह क्रम ही हो गया । जहाँ पिताजी दिखाई दिए , माँ बोलना या रोना शुरु हो जाती । आखिर हार कर एक दिन पिताजी ने कहा – मैं तो जवाब देने वाला नहीं । तू खुद जाकर मना कर आ ।
खैर एक दिन माँ जाने को तैयार हो गई । उसने दो जोङी कपङे थैले में रखे । पिताजी उन्हें गाङी में बैठा आए । माँ जिंदगी में पहली बार अकेली सफर पर गई थी । कैसे पहुँचेगी और वहाँ जाकर क्या कहेंगी , चिंता हो रही थी । फिक्र पिताजी को भी थी पर वे कहते किससे । पिताजी ने फूफा जी को अर्जैंट तार दे दी – तेरी भाभी लाहौरी से आ रही है । तो गाङी पहुँचने से पहले स्टेशन पर फूफा जी अपने साईकिल लेकर लेने आ गये थे । महताब बुआ उनसे मिल कर बहुत खुश हुई ।
और भाभी शादी की तैयारी कैसी चल रही है ?
तैयारी किस बात की महताब । रोकना हुए डेढ साल हो गया । तब से कोई झांकने तक नहीं आया । कोई दिन नहीं , कोई साहा नहीं । कोई गोद भराई नहीं और अब तो बेटे की मौत हो गई । हमारे तो नाते रिश्तेदार सबमें चर्चा हो रही है कि रिश्ता तो टूट गया ।
शाम को माँ महताब बुआ के साथ उनके घर गई । वहाँ आटा भून कर हलवा बनाया जा रहा था । माँ ने धीरे से ननद के कान में कहा – यहाँ तो हलवे बन रहे हैं । सोग कहाँ है ।
बुआ ने उन लोगों से बात की । दूसरे नम्बर के भाई साहब ही अब घर के कर्ता थे । उन्होंने कहा – मौसी , यह रिश्ता फौजी भाई साहब ने तय किया था तो टूटने का तो सवाल ही नहीं होता । बाकी भाईसाहब को गये तो अब सात महीने होने को हैं । वे तो वापस आने वाले हैं नहीं । मग्सिर में शादी कर लेते हैं । तब तक दस महीने हो जाएंगे । बाकी नवरात्रों में दो तीन लोग आ जाएंगे आपके घर । जैसे आप चाहो ।
माँ अगले दिन वापस लौटी तो पहले से भी ज्यादा उदास थी । मामा स्टेशन से उन्हें साइकिल पर घर ले आए । पिताजी ने छेङना उचित नहीं समझा । जब मन होगा खुद ही बता देगी , वहाँ क्या हुआ । इधर माँ इंतजार कर रही थी कि पिताजी कुछ पूछें तो वह बताए । आखिर उनसे रहा नहीं गया ।
वे आ रहे हैं , तीसरे नराते में ।
वे कौन ?
वही , दो तीन लोग आएंगे ।
वे क्या करेंगे आकर । तू तो रिश्ता तोङने गई थी न ।
मग्घर में शादी करने का कह रहे हैं । मैंने तो वैसे ही कहा था कि पङोसी और रिश्तेदार आपस में बातें कर रहे हैं कि रिश्ता तो टूट गया । अब तक कोई एक बार भी नहीं आया तो बङा बेटा बोला , इस मग्घर में शादी कर लेते हैं , उससे पहले दो तीन लोग नवरात्रों में यहाँ आ जाएंगे ।
पिताजी ने मन ही मन ईश्वर का धन्यवाद जरूर किया होगा क्योंकि उनके चेहरे पर अनोखा सुकून दिखाई दे रहा था । ऊपर से उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी ।
मग्घर यानि मार्गशीर्ष , उसमें तीन महीने से भी कम समय बाकी थे । और नवरात्रों में कठिनाई से बीस दिन । तो तैयारी जोर शोर से होने लगी ।
नियत दिन बङी दीदी अपनी गोद की बेटी और छोटे भाई के साथ आ पहुँची । माँ परेशान - शुभ में आए हैं और वह भी तीन जने । तीन तिगाङा काम बिगाङा पर प्रत्य़क्ष में कुछ नहीं बोली । उनका स्वागत सत्कार किया गया । शाम को सारे पास पङोसियों को बुलाया गया । जम कर गीत गाए गये । ढोलक बजी । सारी भाभियां झूम झूम कर नाची । मुझे चौकी पर बिठाया गया । ननद ने बाल संवारे , कस कर चुटिया बनाई और उसमें लाल रिबन गूंथ दिया । सुर्ख लाल रंग का चौङा गोटा लगा दुपट्टा औढा कर मेवों का लिफापा थमा दिया गया । जिसमें मेवे कम मखाने और इलायचीदाना ज्यादा था मेवों के नाम पर एक मुट्ठी बादाम , एक मुट्ठी किशमिश और दो चार काजू दिख रहे थे । मुझे तो रोना आ गया । ऐसी कैसी गोद भराई न कोई जेवर न मिठाई । कोई सूट न साङी । मिठाई के नाम पर सिर्फ एक किलो लड्डू । मेरी सहेलियों ने मेकअप किट खोली । मेरे चेहरे पर बिंदी , लिपस्टिक और नाखूनपालिश लगा दी । माँ ने सभी को दो दो बङे पतासे देकर बिदा किया । मैं बाथरूम में घुस गई । पाँच मिनट रोने के बाद मैंने रगङ रगङ कर मुँह धोया । बाहर निकल कर चोटी भी खोल कर दोबारा बाल संवारे । माँ ने मुझे कहा , जा इन्हें शहर दिखा ला । मैं रात की रोटी बना लेती हूं । मैं उन्हें बाजार ले गई पर न तो दीदी ने कुछ खरीदने में दिलचस्पी दिखाई न देवर जी ने । मैंने तो लेकर देना ही क्या था । हम जैसे गए थे , वैसे ही लौट आए । यहाँ तककि किसी ने बाजार में कुछ खाने पीने की इच्छा भी नहीं दिखाई । मैंने माँ के दिए ढाई सौ रुपए जब उन्हें पूरे के पूरे वापस कर दिए तो उन्होंने हैरान होकर मुझे देखा – कुछ खिला तो देती ।
लाओ . अब रोटी खिला देते हैं । मैं माँ के साथ रोटी परोसने में मदद करने लगी । रात रह कर वे लोग सुबह की गाङी से लौट गये । मेरा मन बुझ गया था । माँ ने तीनों को कपङे , मिठाई और शगुण के दस दस रुपए देकर विदा किया था । मुझे मिले इक्यावन रुपए माँ ने मौली लपेट कर दुपट्टे में रख दिए । मैंने वह मेवे भी उसी के साथ रख दिए ।
माँ ने मुझे गले से लगा लिया – बेटी मिलता वही है जो भाग्य में लिखा होता है । उससे न कम न ज्यादा । चल लङका समझदार है , उसी से रिश्ता निभना है । बाकी चीजें कम ज्यादा होने से क्या फर्क पङता है ।

बाकी फिर ...