Prafull Katha - 9 in Hindi Biography by Prafulla Kumar Tripathi books and stories PDF | प्रफुल्ल कथा - 9

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प्रफुल्ल कथा - 9


कथा सम्राट प्रेमचन्द का कहना है कि “ लिखते तो वह लोग हैं जिनके अन्दर कुछ दर्द है, अनुराग है, लगन है, विचार है | जिन्होंने धन और भोग - विलास को जीवन का लक्ष्य बना लिया , वह क्या लिखेंगे ?” आज जब मैं इन पन्नों पर अपने आप को उतार रहा हूँ तो लगता है कि उस दौर की मेरी परेशान ज़िंदगी में सब ‘चिल’ हो जाएगा किसको पता था , मुझे भी तो नहीं ! सोचिए,अगर मुझ जैसा साहित्यिक रूचि वाला नौजवान सच को झूठ और झूठ को सच साबित करने की जद्दोजहद वाली कोर्ट - कचहरी के फेर में पड़ जाता तो उस पर क्या बीतती ? इसलिए भगवान ने जो किया उसका लाख- लाख शुक्रिया अदा करते हुए मैंने आकाशवाणी की अपनी मनचाही नौकरी शुरू कर दी थी | कुछ लोग ‘नान गजेटेड’ और ‘क्लास थ्री’ की इस नौकरी पर नाक - भौं सिकोड़ रहे थे उसका मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था | नौकरी मेरी योग्यता पर मिली थी , उस दौरान मेरा चयन हुआ था जब इंदिरा और संजय गांधी की तूती बोलती थी और सूचना प्रसारण मंत्रालय का पत्ता भी उनकी मर्ज़ी के बगैर नहीं हिलता था | हाँ, इसे दिलाने में भगवान के बाद अगर किसी का हाथ था तो वे सिर्फ़ दो लोग थे – श्री मुक्ता शुक्ल (आकाशवाणी में सहायक निदेशक) और महान कथाकार शिवानी जी |
सभी जानते हैं कि सिर्फ़ इंटरव्यू के आधार पर नियुक्तियों में धांधली की भरपूर सम्भावनाएं रहती हैं |1975 की 25 जून को देश में इमरजेंसी लगाई जा चुकी थी और उस समय आई.के.गुजराल आई.बी. मिनिस्टर थे |28 जून 1975 को विद्याचरण शुक्ल ने यह पद सम्भाला | मेरे प्रसारण अधिशाषी पद के लिए भी इसी दौरान आकाशवाणी लखनऊ में इंटरव्यू के आधार पर नियुक्तियों का पैनल बना था | दावे के साथ मैं यह कह सकता हूँ कि ढेर सारी नियुक्तियां कांग्रेसी सांसदों की सिफ़ारिश पर हुई थीं | इसके कुछ ही महीने पूर्व मैं आकाशवाणी गोरखपुर के सहायक सम्पादक पद के एक ऐसे ही इंटरव्यू में जा चुका था और मुझे साफ़ - साफ़ पता चल गया था कि चयन समिति के हेड आकाशवाणी गोरखपुर के तत्कालीन निदेशक इंद्र कृष्ण गुर्टू ‘कमिटेड’ हैं किसी एक ख़ास व्यक्ति (रवीन्द्र श्रीवास्तव उर्फ़ जुगानी भाई ) के चयन के लिए | शिवानी जी उस बोर्ड में भी थीं और मेरे लिखने पढ़ने से बेहद प्रभावित थीं लेकिन उनकी बिल्कुल नहीं चली थी इसीलिए अगली नियुक्ति के इंटरव्यू में मानो उस ‘देवी’ ने मेरे चयन के लिए ‘वीटो’ ही लगा दिया था | इंटरव्यू आपातकाल में हुआ था,पैनल भी बन गया था लेकिन ज्यादातर नियुक्ति पत्र जनता सरकार में बांटने शुरू हुए | मेरे एक प्रतिस्पर्धी मित्र (प्रदीप गुप्त) ने भी इंटरव्यू दे रखा था | उनका भी कांग्रेसी सोर्स तगड़ा था और जब घर आते बता जाते कि उनका बस अब एप्वाइन्टमेंट लेटर आ ही रहा होगा | मैं और भी मायूस हो जाता था क्योंकि मेरे पास तो ऐसा कोई सोर्स नहीं था | लेकिन यह देखिये कि उनका सुपर आत्मविश्वास धरा का धरा रह गया और उनका तो नहीं हाँ हमारा अवश्य नियुक्ति पत्र आ गया |
बहरहाल मैं अब धीरे -धीरे इलाहाबादी होने की कोशिशें कर रहा था |लेकिन मन हमेशा गोरखपुर में लगा रहता था |अब मेरी सिर्फ़ यह ख्वाहिश थी कि कब, कैसे मेरा स्थानान्तरण गोरखपुर हो जाय ! इलाहाबाद की खूबसूरत सिविल लाइंस की शाम और वहां उतरती परियां भी मेरा मन नहीं बाँध पा रही थीं | ननिहाल का कठोर अनुशासन अलग से ! कार्यालयीन कामकाज मैंने अब समझ लिया था | सपनों को पंख लग गए थे क्योंकि मुझे यह समझाया गया था कि बस, अब तो तुम एक के बाद एक पदोन्नति पाते हुए कम से कम स्टेशन डाइरेक्टर तो बन ही जाओगे |
इस नौकरी को ज्वाइन करने के पहले मैंने यू.पी.एस.सी. की मुन्सफी की लिखित परीक्षा भी दे रखी थी | नौकरी ज्वाइन करने के एक महीने के अन्दर इंटरव्यू हेतु मेरा चयन हो गया | इस पर मित्रों ने सुखद आश्चर्य भी जताया कि हिन्दी में लिखकर मैंने यह कठिन परीक्षा भला कैसे उत्तीर्ण कर ली | हांलाकि इसके लिए मुझे उर्दू भी सीखनी पड़ी थी | लगभग दो महीने घर आकर एक मुल्ला जी ट्यूशन करते रहे | जब रिजल्ट आया तो मुझे ऐसा लगा कि अब इन्टरव्यू निकाल लेना आसान है | मैंने कोई तैय्यारी नहीं की और मेरा अनुमान गलत निकला | इंटरव्यू में जो सवाल पूछे गए उनके सटीक उत्तर मैं नहीं दे सका | इसके साथ एक और मज़ाक़ मेरे साथ यह हुआ कि इलाहाबाद के उसी घर से मैं एक परीक्षार्थी के रूप में जा रहा था और मेरे नाना जी (जज साहब) एक एक्सपर्ट के रूप में | इंटरव्यू के पहले ग्रुप बना तो उसमें भी मेंबर के रूप में मेरे नानाजी मेरे ही ग्रुप में रखे गए लेकिन वे अपने सम्मान के प्रति इतना सतर्क थे कि उन्होंने अपना ग्रुप बदलवा लिया | बरसों बाद एक शाम उन्होंने अफ़सोस जताया कि अगर उन्होंने थोड़ी सी भी व्यावहारिकता दिखाई होती तो मेरा चयन हो गया होता | असल में उनके सभी पुत्र मेधा सम्पन्न थे और उनको यह विश्वास था कि मैं भी क्वालीफाई कर जाऊंगा| बहरहाल मुझे इस असफलता से कतई कोई असंतोष उत्पन्न नहीं हुआ क्योंकि मैं केन्द्रीय सेवा में आ चुका था और उससे संतुष्ट भी था | हाँ, यह बता दूँ कि पी.सी.एस.(जे.) के इस अंतिम रिजल्ट के आने तक मेरी ‘मार्केट हाई’ हो चली थी और अच्छे अच्छे परिवार के लोग शादी के लिए आना शुरू कर दिए थे |
वह दिसम्बर का महीना था | गोरखपुर से मेरे एक लंगोटिया मित्र अपने मामा के यहाँ आये हुए थे | उनके ममेरे हम उम्र भाई सुव्रत उन दिनों इलाहाबाद में आई. पी. एस. की तैयारी कर रहे थे | दो चार दिन उन दोनों के साथ घूमने के बाद यह तय हुआ कि क्यों ना मुम्बई घूम आया जाय | मुम्बई में एक नजदीकी रिश्तेदार सुदर्शन पति उर्फ़ सूदन गुरु का मुम्बई आने का बुलावा भी था | हम दोनों लोग इलाहाबाद से मुम्बई के लिए रवाना हो गए | पहली बार किसी अनजान जगह, इतनी दूर की यात्रा | भरोसा दिलाया गया था कि ट्रेन के अंतिम पडाव पर सूदन गुरु हमें मिल जायेंगे | लेकिन यह क्या सूदन गुरू तो कल्याण स्टेशन आते आते ही ट्रेन में हमें खोजते हुए पहुँच गए | बहुत ही संतोष हुआ कि अब हम मुम्बई में सुरक्षित हैं |
उन दिनों वे वहां किसी फैक्ट्री सुपरवाइजर के पद पर काम करते थे | उनके शब्दों में सेठ(मालिक) उनको बहुत मानता था |असल में उन दिनों एक दौर ऐसा आया था जब मुम्बई की फैक्ट्रियों में वर्कर यूनियन की राजनीति चरम पर थी |सूदन गुरु तेज तर्रार,शार्प माइंडेड और हृष्ट पुष्ट थे और अपने सेठ के लिए कुछ भी करने को तैयार थे | उन्होंने अपनी वाक्पटुता से सेठ की कम्पनी को लेबर यूनियनों के दबाव से बचा लिया था | उसी का यह प्रतिफल था कि सेठ उनको अपना विश्वासपात्र मानने लगा था |
सूदन गुरु हमें भांडुप अपने एक कमरे के घर में ले गए | एक कमरा जिसमें उनका किचेन, बेडरूम सब कुछ था | वहां उनकी सद्यः विवाहिता पत्नी पुष्पा भी थीं | दोनों ने खूब आतिथ्य सत्कार किया | उनके कहने पर हम दोनों ने लोकल ट्रेन का पास बनवा लिया जिससे पूरी मुम्बई आसानी से घूम सकें | चर्च गेट के पास ही मेरे मामा जी प्रकाश चन्द्र त्रिपाठी उन दिनों आयकर अधिकारी के रूप में पदस्थ होकर रह रहे थे | उनकी भी जल्द ही शादी हुई थी| एक दोपहर उनके यहाँ हमने लंच भी लिया |गोरखपुर का एक कामन फ्रेंड आलोक शुक्ला भी उन दिनों वहीं पर फ़ोर्ब्स कम्पनी में इंजीनियर थे | वर्किंग मैन हास्टल में रहते थे | उनके साथ भी हमने मस्ती की |उसने मुम्बई के सिनेमा स्टारों के मकान ,स्टूडियो आदि दिखाए | समुंदर और उसके किनारे के नजारे भी हमने लिए जो हमारे लिए एकदम नया था | पुरबिहा लोगों द्वारा बेंची जा रही भेलपूरी खाई |
उस दौरान की एक मजेदार बात भी बताना चाहूँगा |मेरे उक्त मित्र जाने क्यों अपने दोनो नाम का अलग अलग स्थानों पर सुविधानुसार इस्तेमाल करते थे | लोकल ट्रेन का पास उन्होंने असली नाम से बनवाया था और जब चर्चगेट रेलवे स्टेशन पर टी.टी.ने नाम पूछा तो उनके मुंह से पुकार नाम निकल गया | बस ! टी.टी. ने उनका झूठ पकड़ लिया और डरा धमका कर पैसे वसूलने के मकसद से हमें जी.आर.पी. ले गया | वह तो अच्छा हुआ कि हम लोग वहां से किसी तरह भाग निकले | यह वाकया उसी दिन का है जब हमलोग इनकम टैक्स वाले मामा जी के घर लंच पर जा रहे थे | उनकी इस हरकत से उनको तो कुछ फर्क नहीं पडा हां, लेकिन मुझे शर्मिंदगी हुई | उनकी यह आदत आज तक नहीं जा सकी है और इसीलिए लोगों ने उनको ‘फ्राडियर’ तक कहना शुरू कर दिया है |
सूदन गुरु की पत्नी की सेवा की याद आज तक है | जब हमलोग घूमने निकल जाते थे तो वे हमारे कपड़े तक धो डालती थीं | हाँ,यह तो बताना भूल ही गया कि उनके यहाँ सुबह पानी के डिब्बे लेकर कामन शौचालय की लाइन लगानी पड़ती थी |वहां जाकर हमें मालूम हुआ कि मुम्बई तो रातभर सोती ही नहीं है | बहरहाल हम दो मित्र लगभग एक सप्ताह मुम्बई घूम करके वापस अपने अपने ठिकानों के लिए रवाना हुए | रास्ते में जाने किस बात पर हम दोनों में ठन गई और मुम्बई में हुए खर्च का हिसाब किताब होने लगा | कुछ रूपये मेरे उनके ऊपर निकल रहे थे जिसे उन्होंने ट्रेन में ही जिद करके मुझे अदा करने को विवश कर दिया | शायद मेरे और उनकी मैत्री सम्बन्धों में दरार पड़ने का यह संकेत था जो आगे चलकर सचमुच सही भी सिद्ध हुआ |
मुम्बई से वापस आकर मैं एक बार फिर उसी इलाहाबाद में था | इलाहाबादी गर्मी में जब लू के थपेड़े उठते थे तो बाहर निकलना मुश्किल होता था | लेकिन नौकरी तो करनी ही थी | कभी- कभार जब वीकली ऑफ़ में इलाहाबाद रुका रहना पद जाता था तो मैं दो शिफ्टों में घूमता रहता था | कभी चन्द्रशेखर आज़ाद पार्क,कभी घंटाघर... एक बार तो मीरगंज की बदनाम गलियों में भी घूम आया | वहां अजीब - अजीब इशारे करती वेश्याएं मिलीं | वेश्याओं को नजदीक से देखने का यह मेरा पहला और अंतिम रोमांचकारी अनुभव था |
इलाहाबाद में मेरी छुट्टी की एक ऐसी ही दुपहरी में नाना जी से मिलने के लिए हिन्दी के विद्वान डा.विद्यानिवास मिश्र आये | मैं ही गेट पर उनसे मिला , दोनों को एक दूसरे का चेहरा कुछ जाना पहचाना सा लगा और परिचय होते ही ऎसी आत्मीयता हो गई कि वह उनके जीवनांत तक बनी ही रही |वे नाना जस्टिस त्रिपाठी का बहुत ही सम्मान करते थे और बातचीत के क्रम में नाना जी ने उनको मेरी आकाशवाणी की सेवाओं का संरक्षक बना दिया | पंडित जी ने आगे चलकर मुझे जब- जब उनकी सिफारिश की आवश्यकता हुई वे तत्पर मिले |एक अभिभावक की तरह वे हमारी मदद करते रहे |
उन दिनों रेडियो में अंदरुनी राजनीति और उसके चलते घटिया हरकतें कुछ ज्यादा ही हुआ करती थी | मैं तो गोरखपुर का भुक्तभोगी था लेकिन उस समय मैं स्टाफ नहीं था और अब स्टाफ में था | फिर भी नर्मदेश्वर उपाध्याय,विनोद रस्तोगी आदि जैसे नामचीन प्रोड्यूसर रिकार्डिंग के लिए टेप या स्पूल तक छूने नहीं देते | वे अपने ज़माने के मशहूर समाचार वाचक हुआ करते थे लेकिन एक अवधि के बाद उन्हें लगा कि साहित्यिक शहर इलाहाबाद में प्रोड्यूसर बनकर उनको ज़्यादा मान मिलेगा इसलिए वे हिंदी उच्चरित शब्द के प्रोड्यूसर हो गए थे |अपने काम में किसी को हाथ नहीं लगाने देते थे |कोशिश करते कि प्रसारण के समय उद्घोषणा भी वे स्वयम करें , टेप बजाएं और वापस अपनी झोली में रखकर स्टूडियो से बाहर आ जाएं | ऐसे में मुझ जैसे नौसिखिया को इलाहाबाद में कुछ भी सीखने का अवसर नहीं मिला |
हाँ,बड़े बड़े साहित्यकारों,राजनीतिज्ञों आदि को नजदीक से देखने सुनने का अवश्य अवसर मिला | सुमित्रा नन्दन पन्त,महादेवी वर्मा, इलाचंद जोशी, आदि स्टूडियो में आते रहे | एक मेरे वरिष्ठ सहयोगी थे तारा सिंह ग्रोवर | वे बहुधंधी थे | उन्होंने मेरे ज्वाइन करते ही अपनी किसी एक चिट फंड कम्पनी में खाता खुलवा दिया|एकाध महीना तो ठीक रहा लेकिन एक दिन अचानक वह कंपनी गायब हो गई | ग्रोवर साहब कुछ हफ्ते तो सवाल जबाब से बचने के लिए गायब रहे और जब आए तो बहाने बनाने लगे | अंततः मेरे भी लगभग पांच सौ रूपये डूब ही गए | गनीमत रही कि एक सौ रूपये की पांच किश्तें ही मैंने जमा की थीं | इसी तरह ग्रोवर और एक चपरासी मिलकर एक और धंधा करते थे जो आगे चलकर उनके सस्पेंशन का भी कारण बना | उन दिनों कलाकारों /वार्ताकारों को मानदेय में ‘बियरर चेक’ मिला करता था | ये लोग चेक मिलते ही कलाकार से चेक पर दस्तखत करवा कर उसे कुछ कमीशन काटकर नकद रूपये दे दिया करते थे | जब वे ड्यूटी पर होते तो इस काम को शत- प्रतिशत अंजाम दिया करते | एक प्रकार से चेक देने वाले भी वही होते और लेने वाले भी वही | उसी उगाही में कुछ अनुपस्थित कलाकारों के चेक भी बंटने और कैश होने लगे | इस अंदरुनी जालसाजी के काम से मैं भी अनजान था और मैंने भी अनेक कलाकारों के हस्ताक्षर गुड फेथ में चपरासी के कहने पर वेरीफाई किये थे | गनीमत रही कि वे सब सही निकले | इस घोटाले का खुलासा उस समय हुआ जब मैं इलाहाबाद से स्थानांतरित होकर गोरखपुर चला आया था | ऐसे घोटाले के प्रकरण में उस चपरासी और ग्रोवर साहब की नौकरी चली गई थी |
इलाहाबाद आने जाने के क्रम में एक बार का वाकया याद आ रहा है | इतिहास के एक प्रोफेसर ने मुझे बंद लिफ़ाफ़े की एक किताब इलाहाबाद ले जाकर अपनी किसी प्रेयसी को देने का आग्रह किया | रात की ट्रेन थी और जाने क्या शरारत सूझी कि मैंने इनका लिफाफा खोलकर पहले रस ले लेकर उनका प्रेम पत्र पढ़ा और फिर किताब पढ़ी |वह युवती रेडियो आती- जाती थी | वहां जाकर मैंने उस युवती को उसे सौंप दिया | आगे चलकर उस युवती के दाम्पत्य जीवन में इतनी दिक्कतें आईं कि उसने आत्मदाह तक कर लिया था |
ज़िन्दगी की रंगीनियां और उसकी तल्ख दुश्वारियां अब मुझे दिखाई दे रही थीं | मैंने समझ लिया कि ज़िंदगी का गणित उतना आसान नहीं है जितना लोग समझ लेते हैं |फिर भी मेरी ज़िंदगी ने मुझसे कहा-“ जस्ट चिल !”
मैंने उन दिनों अपनी डायरी के एक पृष्ठ पर कुछ लिखा था |संयोगवश आज वह मुझे मिल गया है और उसे मैं आप तक पहुंचा रहा हूँ | पढ़ना तो चाहेंगे ही !
“ बाहर खुला नीला आकाश था,
और भीतर एक पिंजरा लटका हुआ था |
बाहर मुक्ति का डर था ,
और भीतर सुरक्षित जीने की थकान |
उसे उड़ने की भूख थी ,
और पिंजरे में खाना रखा हुआ था ! ”

ये ज़िंदगी तमन्नाओं का गुलदस्ता ही तो है , इसके फूल कुछ महकते हैं,कुछ मुरझाते हैं और इसकी डंठलियाँ कुछ चुभ भी जाया करती जाती हैं |ये ज़िंदगी से मौत तक का सफर भी बड़ा सुहाना होता है |ज़िन्दगी के पिटारे में गम और खुशियों का खजाना छिपा होता है | उन दिनों इलाहाबाद से अपनी जुगाडू छुट्टियां लेकर मैं गोरखपुर आया हुआ था | हमेशा की तरह गोरखपुर टाउनहाल स्थित आकाशवाणी केंद्र पहुंच गया | ड्यूटी रुम में एक ताजगी लिए चेहरे से मुलाक़ात हुई, नाम था शैलेन्द्र प्रधान | वे जनाब मूलतः इलाहाबाद से वास्ता रखते थे और बस, फिर क्या ! अपने म्यूचुअल स्थानान्तरण की बात बन गई | मैंने उनसे एक प्रार्थना पत्र लिया और अपना प्रार्थना पत्र उनको दिया कि हम दोनों लोग स्वेच्छया आपस में स्थानान्तरण चाहते हैं,बिना कोई टी.ए., डी.ए.लिए |लगभग एक महीने में हमलोगों का स्थानान्तरण हो गया | मैंने आकाशवाणी गोरखपुर 18 अक्टूबर 1977 को ज्वाइन किया | उस समय केंद्र पर कार्यक्रम प्रमुख केंद्र निदेशक के रुप में जनाब मुनीर आलम साहब थे जो बीमार चल रहे थे |मैंने ज्वाइनिंग के दो एक दिन बाद उनके घर जाकर अपनी औपचारिक हाजिरी लगाईं |
जिस तरह आकाशवाणी की नौकरी पाना मेरी ज़िंदगी की हसरत का सबब था उसी तरह गोरखपुर केंद्र पर ट्रांसफर पाना भी |यह वही केद्र था जहां मैंने रेडियो की जादुई दुनिया में प्रवेश करने की हसरतें मन में पाली थीं |यह वही केंद्र था जहां कुछ वर्ष ही पहले अपनी नौकरी की चाहत में लोग शह और मात का खेल मेरे साथ भी खेला करते थे | अब माहौल बदल चुका था क्योंकि केंद्र की लगभग सभी नियुक्तियां सम्पन्न हो चुकी थीं |मेरे दौर के जितने रक़ीब थे वे या तो कहीं और जा चुके थे या रेडियो में समाहित हो चुके थे |वे सभी जिन्होंने मुझे नहीं चाहा था अब मेरे स्वागत में तत्पर था क्योंकि अब मैं उन सभी के ‘शह और मात’ के खेल से परे था | लेकिन आकाशवाणी-दूरदर्शन जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं में अपनों के बीच शतरंजी बिसात तो बिछी ही रहती थी,रहती है|मेरे मामले में मोहरे अब अलग- अलग तरह के हो चले थे |वे साइलेंट मोड में थे लेकिन जब किसी नये पद पर नियुक्ति का समय आता था तो सक्रिय हो जाते थे , जिसकी चर्चा आगे करूंगा |
जब मैंने गोरखपुर में कार्यभार ग्रहण किया तो उस समय मेरे साथ प्रसारण अधिकारी श्री के. सी. गुप्ता,उमाशंकर गुप्ता,एन.भद्र थे|
उद्घोषकों में उदिता श्रीवास्तव,माहजबीं जैदी ,अनिल मेहरोत्रा थे और कैजुअल उद्घोषक बुक किये जाते थे |कैजुअल उद्घोषक भी प्रतिभा सम्पन्न थे और परमानेंट होने के लिए तत्पर थे | श्री सतीश ग्रोवर,मोहसिना खान,सर्वेश दुबे,मो.नसीम खान, धीरा जोशी,बीना श्रीवास्तव आदि का नाम याद आ रहा है|आगे चल कर बीना श्रीवास्तव और धीरा जोशी को छोड़कर अन्य सभी स्थाई उद्घोषक बन गए थे |माहजबीं जैदी ने लखनऊ ट्रांसफर ले लिया तो केंद्र पर नजीबाबाद से नवनीत मिश्र का आगमन हुआ | लखनऊ के ‘मिश्र बन्धु’ परिवार की साहित्यिक पृष्ठभूमि वाले नवनीत को गोरखपुर खूब रास आया और उनकी यहीं समाचार वाचक के पद पर नियुक्ति हुई और उन्होंने प्रसारण और कहानी लेखन के क्षेत्र में यहीं से लोकप्रियता पाई |
उन दिनों कार्यक्रम अधिकारियों में संगीत के प्रोड्यूसर प्रकाश शर्मा, आर.एन. सिंह, के.के.शुक्ला ,सतीश माथुर ,अब्दुल खालिक आदि थे | गोरखपुर में व्यतीत अवधि की नौकरी मुझे नौकरी जैसी लगी ही नहीं क्योंकि आकाशवाणी केंद्र मेरे बेतियाहाता घर के बेहद पास था |सुबह की शिफ्ट में नाश्ता और रात की शिफ्ट में खाना घर से ही आ जाता था |लोकल होने के कारण मैं वोकल होता चला गया |अपनी ड्यूटी के अलावे कार्यक्रम निर्माण आदि में भी काम मिलने लगा |खासतौर से हिन्दी की साहित्यिक रेडियो पत्रिकाओं को प्रस्तुत करने का मुझे भरपूर अवसर मिला |
उन दिनों के अपने कामकाज में सिर्फ एक चीज़ से मुझे असुविधा हुआ करती थी जब मुझे AIR-16 नामक स्टेटमेंट बनाने को कहा जाता था |इलाहाबाद में तो मैं इन सबसे मुक्त था लेकिन यहाँ स्टेटमेंट बनाने के रोटेशनल सिस्टम के कारण फंसना ही पडा था|भला हो सहयोगी श्री एन. भद्र का जिनके घर जाकर मैं इस स्टेटमेंट को किसी तरह बनवाया करता था | शिफ्ट ड्यूटी में सभी तो समय पर आ जाया करते थे सिर्फ एक उमाशंकर गुप्त ऐसे थे जो कभी भी समय पर नहीं आते|फलस्वरूप सभी उन पर खीझते |असल में वे उन दिनों बहुधन्धी थे|उनकी नियुक्ति ही जुगाड़ पर हुई थी |बताते हैं कि उनकी ससुराल करस्यांग (दार्जिलिंग) में थी और उनके श्वसुर की वहां मिठाई की दुकान थी जहां से रेडियो के बंगाली डाइरेक्टर रसगुल्ला मंगाया करते थे ,जाया भी करते थे |इसी मेल जोल में गुप्ताजी के श्वसुर ने गुप्ताजी को पहले कैजुअल फिर परमानेंट करा दिया|बताते हैं कि उनको फर्राटे से नेपाली बोलने आती थी और वहां नेपाली लोग बहुत थे |आगे वे ट्रांसफर लेकर गोरखपुर आ गये थे |
गोरखपुर के स्टाफ में पारिवारिकता बहुत थी|शिफ्ट के सभी लोग (इंजीनियर ,एनाउंसर,ड्यूटी अफसर) लंच ,ब्रेकफास्ट या डिनर प्राय:साथ ही किया करते थे|कभी कभी वहीं पर चंदा लगाकर खाना भी तैयार हुआ करता था |क्लास फोर्थ स्टाफ मदद करता था|कुछ शौकीन लोग अपने शौक का भी इंतज़ाम कर लेते थे |इससे हमेशा सौहार्द बना रहा |कभी कभी कुछ लोग खासतौर से इंजीनियर तुनक मिजाजी आ जाते थे तो सबसे पहले सहभोज ही प्रभावित होता था|रेडियो में कार्यक्रम,प्रशासन और अभियन्त्रण विभाग का समन्वय आवश्यक हुआ करता है जो इन तीनो विभागों में आ रहे कुछ अहंकारी लोगों की वज़ह से क्रमशः अब छिन्न भिन्न हो चला है| प्रोग्राम वाला अपने को सर्वेसर्वा मानता है तो इंजीनियर अपने को|प्रशासनिक अधिकारी भला पीछे क्यों रहे ?सो वह भी मान बैठे हैं कि “सजनी हमहूं राजकुमार” (हे प्रिये , मैं भी राजकुमार हूँ !) !
अन्य शहरों के मुकाबले गोरखपुर में उन दिनों उतनी साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियाँ नहीं हुआ करती थी|राजनीतिक और आपराधिक मामलों में वहां कुछ ज्यादा ही सक्रियता थी|विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रवक्ता डा.गिरीश रस्तोगी रंगमंच को समृद्ध करने में तत्पर थीं|रेडियो में केंद्र के पहले निदेशक आई.के.गुर्टू ने रेडियो नाटकों की रिकार्डिंग के लिए उनके कलाकारों का सहयोग लिया |
कविता, कहानी,संगीत की विधाओं में रेडियो ने स्वयं पहल करते हुए गोरखपुर के युवाओं और साहित्यिक रूचि वाले लोगों को मंच देना शुरू किया | यह भी सुखद संयोग रहा कि उसी दौर में संगीत विभाग को दो म्यूजिक कम्पोजर मिल गए- राहत अली और शुजात हुसैन खान |इनकी नियुक्ति से गोरखपुर में सुगम और उप शास्त्रीय संगीत के प्रति लगाव रखने वालों को दिशा मिली |संगीत जो एक विषय के रूप में मात्र यहाँ के विश्वविद्यालय में पढाया जाता था अब सार्वजनिक जीवन मे प्रवेश पाने लगा था |यह भी सुखद संयोग था कि सिर्फ धुनें तैयार करने में ही नहीं गायन,वादन आदि लगभग सभी विधाओं में ये म्यूजिक कम्पोजर उस्ताद थे |राहत भाई की शागिर्द ऊषा टंडन ने अब लखनऊ की जगह अपना प्रसारण आकाशवाणी गोरखपुर से करना शुरू कर दिया था |उन दिनों आकाशवाणी में ए ग्रेड में बहुत कम कलाकार होते थे और ऊषा जी चूंकि ए ग्रेड की कलाकार थीं इसलिए स्वाभाविक था कि उन्हें पूरे देशा में बुलाया जाने लगा था |वे अपने उस्ताद राहत अली के साथ तमाम कंसर्ट में जाने लगी थीं |गुर्टू साहब ने रेडियो नाटकों का जो सिलसिला शुरू किया था उसे उनके स्थानान्तरण के बाद भी केंद्र ने जारी रखा था |उन दिनों सतीश माथुर रेडियो नाटक देख रहे थे और प्रोडक्शन सहयोगी श्री हसन अब्बास रिजवी थे जिनको रंगमंच का पूरा अनुभव था|सबसे लोकप्रिय ग्रामीण कार्यक्रम था जिसमें रवीन्द्र श्रीवास्तव उर्फ़ जुगानी भाई की नाटकीयता लोगों को रास आ रही थी और उनके बहाने आकाशवाणी गोरखपुर की पहुँच दूर दराज के गाँवों तक हो चली थी |
मेरे गोरखपुर आने से सबसे ज्यादा खुश मैं स्वयं या मेरे माँ-बाप ही नहीं मेरे वे लंगोटिया यार भी थे क्योंकि वे लगभग छह महीनों मित्रता सुख से वंचित थे |उनकी खुशी का एक कारण यह भी बन गया कि उन्होंने शहर के एक बड़े वकील के साथ कचहरी में बैठना तो शुरू कर दिया था लेकिन आमदनी नहीं के बराबर थी|सीनियर साहब कोई मदद नहीं कर रहे थे और मित्र को कम से कम मकान का किराया तो समय पर देना ही पड़ता था|सो,मेरी तनख्वाह उनका सहारा बनने लगी और वे बिना नागा किये हर महीने एक निश्चित धनराशि मुझसे उठाने लगे |तब तक मेरी शादी हुई नहीं थी और वेतन बैंक में जमा ही होना था | मुझे कतई इस बात का एहसास नहीं था कि मेरे इस रिश्तेदार कम मित्र के लिए मेरा त्याग नहीं बल्कि मेरा शोषण हो रहा है जिसका खामियाजा दशकों बाद मुझे ही उठाना पड़ा जब उनसे सम्बन्धों में दरार पड़ी|आज वे मुझे पेट भरकर गालियां देते हैँ जब मैं कहीं उनकी चार सौ बीसी हरकतों का विरोध करता हूं।
असल में वे बहुत बड़े खिलाड़ी थे मेरे बहु नामधारी मित्र। उन्हीं दिनों में उनके पिता को ब्रेन हैमरेज हो गया और वे और असहाय हो गए |वे चाहते तो वापस अपने गाँव चले जाते लेकिन वे वापस गाँव जाना नहीं चाहते थे और शहर का खर्चा उठायें तो कैसे?उनकी कचहरी की कमाई कुछ थी नहीं |इसलिए वे तमाम जुगाड़ ,धंधा पानी करने लगे |एक कमरे का मकान उनका जुआघर में तब्दील हो गया| वे जुआडियों को पनाह देने लगे और बदले में उनको अच्छी रकम मिलने लगी। अब वे एक सहकर्मी की मदद से थोक भाव पर खरीद के लिए कोयले की रेक पर पैसा लगाना शुरू कर दिये और फुटकर में उसे बेंचकर मुनाफा कमाने लगे|यह सब धंधा उनके अक्सर पहनने वाले उनके काले कोट के व्यवसाय से छिप जाया करते थे |
मुझे तो मानो उन्होंने हिप्नोटाईज़ ही कर रखा था |हाँ,जब कुछेक महीनों में ही उन्होंने अपनी मां सहित अपनी दोनों बहनों को गोरखपुर लाकर पढाने के लिए बड़ा मकान लिया तब मेरा माथा ठनका और मैंने समझ लिया कि अब इन्होने अपनी काली कमाई का पक्का रास्ता ढूँढ़ लिया है और मैंने उनसे थोड़ी दूरी बनानी शुरू कर दी |इन मित्र की अत्यधिक निकटता ,शिफ्ट नौकरी की प्रकृति ने मुझे और लोगों से लगभग काट दिया |अब उसे याद करके पछताता हूँ|
मेरी आकाशवाणी की सेवा रफ्तार पकड़ चुकी थी| इलाहाबाद से आते समय अपने एक सहयोगी निखिल के लव रिकमेन्डेशन ने मेरे मन को आंदोलित कर रखा था जब तक उस लड़की से मुलाक़ात नहीं हो गई| रेडियो में ही एक कैजुअल एनाउंसर हुआ करती थीं धीरा जिनके विवाह का प्रस्ताव निखिल से चला था लेकिन किसी कारणों से उस पर अमल नहीं हो पाया था| मेरी जब धीरा से उसकी ड्यूटी के दौरान मुलाक़ात हुई तो मैं हतप्रभ रह गया कि आखिर निखिल ने इतने अच्छे प्रस्ताव को ठुकरा क्यों दिया था? धीरा विश्वविद्यालय के एक प्रोफ़ेसर हेमचंद जोशी की लड़की थीं और हर मामले में परफेक्ट थीं| उनसे अपनी निकटता और फिर दूरी की एक लम्बी और रोचक दास्ताँ है | आज भी जब मैं उन दिनों को याद कर रहा हूँ तो ह्रदय भावुक हो चला है | यूं तो उम्र के अंतिम पडाव पर हम और वे आ चुके हैं | हम दोनों अपनी अपनी ज़िंदगी के मकडजाल में उलझे हुए हैं लेकिन फिर भी एक अदृश्य तार से जुड़े महसूस करते हैं|प्रेम ऎसी चीज़ ही है जो कभी भी विस्मृत नहीं हुआ करती |
कुंअर बेचैन ने “ आंधियां धीरे चलो ” में लिखा है; “ वो लहरें कहाँ, वो रवानी कहाँ ,
बता ज़िंदगी, जिंदगानी कहाँ ! ”
सचमुच मैं जब अपनी ज़िंदगी के पिछले पन्नों को आज उलट- पुलट रहा हूँ तो ज़िंदगी तो है लेकिन उसकी जिंदगानी अदृश्य है| जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लेना मेरी विवशता रही है और जो नहीं मिला उसे भूल नहीं पा रहा हूँ | यह भी महसूस करता हूँ कि सेक्स और प्यार दोनों दो चीजें हैं |यह जरूरी नहीं कि जहां सेक्स मिले ,यौन तृप्ति मिले वहां प्यार भी मौजूद हो|
इलाहाबाद से ही मन में हलचल मचा रही उस युवती धीरा से किसी एक दिन मेरी मुलाक़ात आकाशवाणी गोरखपुर के स्टूडियो में हो ही जाती है | वह मोहन राकेश के लिखे रेडियो नाटक ‘आधे अधूरे’ में भाग लेने आई हुई थीं|मैंने निखिल का सन्दर्भ देते हुए अपना परिचय बढाया तो उसकी आँखों में चमक आ गई|थोड़ी देर की बात ने आत्मीयता की झलक दिखला दी |मैंने पूछा- “आप तो यहाँ पर कैजुअल एनाउन्सर भी हैं?”मुस्कुराते हुए उसने कहा- “ हूँ तो लेकिन बुलाया कम जाता है|” बस ! आगे की मुलाकत जारी रखने के लिए मुझे क्लू मिल गया था और मैंने कैजुअल बुकिंग करने वाले से अपनी सिफारिश कर दी| धीरा अब लगभग एक सप्ताह की बुकिंग पाने लगी थीं| मेरे लिए अब वे दिन सोना चांदी के हो चले | मैंने अपनी सारी ड्यूटी धीरा के साथ लगवानी शुरू कर दी |.....आखिर इश्क दा मामला था !
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