Prafull Katha - 6 in Hindi Biography by Prafulla Kumar Tripathi books and stories PDF | प्रफुल्ल कथा - 6

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प्रफुल्ल कथा - 6


किसी ने क्या खूब कहा है ; “ आत्मकथा लिखते समय लेखक को अपनी आलोचनाओं की परवाह नहीं करनी चाहिए चाहे क्यों ना ज़माना बैरी हो जाय !” सचमुच आत्म की कथा लिखते समय लेखक स्वयम इतना सतर्क और पारदर्शी होता है कि मानो वह आइने के सामने खड़े होकर अपने एक -एक वस्त्र उतार रहा होता है और निर्वस्त्र होकर भी संतुष्ट नहीं हो पाता है | वह स्वयं सतर्क रहता है कि उसकी लेखनी पर कोई उंगली ना उठाये !
कहा जाता है कि महिलाएं आँखें देखकर किसी पुरुष का मन पढ़ने में सिद्धहस्त होती हैं | एक शोध में इस बात की भी पुष्टि हुई है कि महिलाओं को पुरुषों की सोच और भावनाओं को समझने की क्षमता उनमें उपलब्ध संज्ञानात्मक सहानुभूति (काग्निटिव इम्पैथी) की वज़ह से सशक्त बनती है जो पुरुषों की क्षमता से बहुत आगे हुआ करती है | युवावस्था में मुझे जब से विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण का भाव जगना शुरू हुआ मैं भाग्यशाली रहा कि मुझे महिलाओं की उदारता का पूरा लाभ मिलता रहा | चाहे वे गाँव की सीधी –सादी, बिना लाग - लपेट की व्यवहार करने वाली महिलाएं हों या शहर की नाज़- नखरे उठाने वाली महिलाएं |उन दिनों शहरों में आज जैसे खुले वातावरण नहीं हुआ करते थे लेकिन गाँव में सेक्स के प्रति महिलाओं की कोई बहुत बड़ी सोच नहीं हुआ करती थी | आज तो अपने शहरी कल्चर ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से खुले सेक्स की लगभग मान्यता ही दे डाली है | अविवाहित युवक - युवतियां अब सेक्स सम्बन्ध बनाने के लिए शादी तक इंतज़ार करने वाले नहीं ठहरे | विवाहित जोड़े लिविंग रिलेशनशिप में रहकर सामाजिक मान्यताओं को ठेंगा दिखा रहे हैं और इतना ही नहीं कानून ने भी ऐसे सम्बन्धों को मान्यता दे दी है |समय इतनी तेज़ गति से भाग रहा है कि अब तो समलैंगिक सम्बन्ध भी मान्यता पा रहे हैं | कहना यह है कि सेक्स अब कोई सामाजिक टैबू बनकर नहीं रह गया है |
इंटर की पढाई के साथ - साथ मुझे अपनी पुश्तैनी खेती - बारी देखने के लिए गाँव भी जाना पड़ने लग गया था | गोरखपुर से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर सरया तिवारी नामक त्रिपाठी वंशजों के राम घराने के प्रसिद्ध गाँव के विश्वनाथपुर टोले में मेरा हवेलीनुमा घर हुआ करता था | आगे की घटनाएं बताऊँ उसके पहले याद आ रहे हैं डा. रमानाथ अवस्थी जो हिन्दी के एक महान कवि हुए हैं | उनकी एक पंक्ति है – “ कितनी मुश्किल है मोहब्बत की कहानी लिखना , जैसे बहते हुए पानी पे हो पानी लिखना | ” सचमुच जीवन में अगर आपने गम्भीर होकर प्रेम किया है तो उसे व्यक्त करना बहुत मुश्किल काम है | लेकिन वह जीवन भी क्या जीवन जिसमें प्रेम रस की बूँदें न छलकी हों , प्रेमी या प्रेमिका का विछोह न हो,एक दूसरे को पा लेने की तड़प न हो,एक दूसरे में समा जाने की हसरतें न हों ! इसलिए मैनें भी छक कर आनन्द लिया जीवन का , यौवन का | जिन - जिन से दिल लगा ,चाहे वह एकतरफा ही क्यों ना रहा हो ,वो क्या कहते हैं ‘ प्लेटोनिक लव ‘ ही क्यों ना रहा हो ,.... ख़ूब लगा जनाब ! आज उम्र के सत्तरवें सोपान पर जब पहुंच चुका हूँ तब भी “ हर परेशानी को मुंह चिढ़ा कर चरागों की तरह रौशन हो उठते हैं मेरी मोहब्बत के जादुई अक्स ! “अब आप सोच रहे होंगे कि गाँव के कनेक्शन का यह इश्क़ , मोहब्बत या सेक्स क्या सम्बन्ध ?
तो हुआ यूं कि जब मैंने इंटर पास किया तो मेरी उम्र हो चली थी बीस वर्ष की | विपरीत लिंग के प्रति अपना आकर्षण शुरू हो चला था | उन दिनों ”ए” ग्रेड की फ़िल्में भी धडाधड सिनेमा हाल से ज़हर उगल रही थी और पत्र - पत्रिकाएँ तो थीं ही |अब आप मेरा बहकना कह लीजिए या बचपना समाज की परिभाषा में मैं इन अनैतिक रास्तों पर चल पड़ा था | यानि, समय से पहले मैं उन विषयों की ओर आकृष्ट होता चला गया था जिधर मुझे नहीं होना चाहिए था | हालांकि आगे चलकर मुझे पछतावा भी हुआ और प्रकृति से इसका दंड भी मिला | मुझे युवा स्त्रियों का सौन्दर्य आकृष्ट करने लगा था और मैं उनके करीब से करीब जाने के लिए उतावलेपन का शिकार हो गया था | मेरा गाँव आना - जाना शुरू हो गया था और ग्रामीण युवतियां , उनका अनगढ़ सौन्दर्य , उनकी सहजता और उनका उन्मुक्त मेल- जोल मुझे बहकाने लगे ..और मैं उनमें बहकता चला गया |उन्होंने मेरी आंखों ,मेरे ह्रदय और मन की भाषा पढ़ ली और दान-प्रतिदान चलने लगा | हालांकि यह इश्किया सफ़र छोटा रहा लेकिन वे सभी यादगार बन गये हैं उम्र भर के लिए !
वर्ष 1971 में इंटरमीडिएट द्वितीय श्रेणी से पास करके मैंने गोरखपुर विश्वविद्यालय में बी.ए. में प्रवेश लिया | मुझे तीन विषय लेने थे तो मैंने हिन्दी और अंग्रेजी साहित्य तथा राजनीति शास्त्र का चयन किया | अंग्रेजी मुझ पर पिताजी द्वारा ठीक उसी प्रकार थोपी गई थी जिस प्रकार नौवीं कक्षा में पितामह द्वारा संस्कृत थोप दी गई थी |जब कि आज यह सिद्ध हो गया है कि अभिभावकों को अपनी रूचि अपने बच्चों पर नहीं थोपनी चाहिए | स्कूली माहौल से निकल कर यूनिवर्सिटी के खुले माहौल में आकर मैं हतप्रभ था | हालांकि उन दिनों ग्रेजुएट लेवल पर को -एजूकेशन नहीं था लेकिन लडकियां ही लडकियां तो थीं ही !यानि भरपूर आँख भी सिंकाई की व्यवस्था मिली | मेरी क्लासेज आर्ट्स फैकल्टी में होती थीं और लड़कियों की पन्त ब्लाक में | लेकिन इन दोनों को जोड़ने वाली वह मनोनुकूल जगह थी जहां से लड़कियों की बस आती-जाती थी | लड़कियों का बस से उतरना-चढ़ना और बस के लिए इंतज़ार करते देखना भी युवा मन के लिए सुखदायक होता था |
शुरुआत में ही बता चुका हूँ कि तकदीर ने मेरे दिल में इश्क़ का बीज डाल रखा था | इश्क मजाज़ी (लौकिक प्रेम) हो या इश्क़ हकीकी ( अलौकिक प्रेम ) ! मैंने अपने जीवन में इन दोनों तरह के प्रेम का खूब छक कर रसपान किया है | जिन दिनों बिमल मित्र का उपन्यास सुरसतिया चर्चा में थी तो मेरे पास मेरी अपनी ‘सुरसतिया ’ अपना प्यार लुटा रही थी | उसके अनगढ़ सौन्दर्य ने मुझे आकर्षित कर दिया और उसके मोहपाश से मैं बच नहीं सका था | शायद वह मेरे कौमार्य की पहली और बार बार अर्पित होने वाली सुन्दर पुष्प थी | उसके बाद तो फिर अनेक ग्रामीण बालाओं ने मुझे मेरा वांछित भरपूर सुख दिया...किसी के शरीर सौष्ठव ने मुझे अपनी ओर चुम्बक की तरह खिंचा तो तो किसी ने डिम्पल गर्ल होने की वज़ह से और किसी की लस्टफुलनेस ने !’ विष्णु पुराण ‘ कहता है कि हँसते समय जिस लडकी के गालों में गड्ढे पड़ते हैं उनका वैवाहिक जीवन सुखमय होता है | एक कहावत और है कि प्यारे इन्सान के लिए एक फरिश्ता नश्वर दुनिया में आता है और डिम्पल टूटे पंखों वाले फरिश्ते की निशानी है | बहरहाल कहावत जो भी हो मेरा अनुभव यह रहा है कि डिम्पल गर्ल यदि उन्मुक्त होकर आपके साथ सहवास करे तो स्वर्ग की परियों के साथ सहवास जैसा सुख मिलता है |
उधर यूनिवर्सिटी के फ्रंट पर भी मेरी इश्किया तलाश जारी थी | ऐसे में किसी दिन एक युवती के सौन्दर्य ने मुझे झंकझोर दिया और मैं उसके रूप का दीवाना हो चला | सबसे पहले मैंने उसका नाम पता लगाया फिर उसे नए साल का ग्रीटिंग कार्ड भेजा | उससे कभी बस स्टैंड पर तो कभी लाइब्रेरी में मुलाकातों का दौर भी चला | एक बार जब मैंने अपनी सायकिल से उसके घर तक का पता लगा लिया तो उसने मेरी इस “ इश्किया निगहबानी “ को गंभीर मानकर नोटिस में लिया | लेकिन इस इश्क के खेल में सब ठीक ही तो नहीं हुआ करता है ! मेरे बड़े भाई साहब प्रोफेसर एस.सी.त्रिपाठी भी उन दिनों उसी यूनिवर्सिटी से एम.एस.सी.करने के बाद रिसर्च कर रहे थे | एक दिन उनके किसी मित्र ने मुझे मिलने का संदेश भेजा तो मैं डर सा गया | तय समय पर मैं यूनिवर्सिटी कैंटीन अपने एक बाहुबली मित्र के साथ जब डरते हुए पहुंचा तो वहां एक सज्जन ने मुझे किनारे ले जाकर मेरी “इश्किया निगहबानी” का चैप्टर क्लोज कर देने का सुझाव दिया क्योंकि “उस” लडकी ने उनकी बहन(और अपनी दोस्त) से इस बाबत शिकायत कर डाली थी | मैंने समझ लिया कि यह मेरा प्यार एकतरफा था और यूनिवर्सिटी प्रेम के किस्से पर फुल स्टाप लग गया |आज जब मैं उन दिनों को याद कर रहा हूँ तो सच मानिए वे पल जीवंत हो उठे हैं | आज वह महिला भी मुझ सलीके प्रौढावस्था में है और उसी गोरखपुर में एक परिचित परिवार की शोभा बढ़ा रही है |अब आप इसे दीवानगी कही या पागलपन , आज भी कभी - कभार सोशल मीडिया पर उसकी छवि देख लेने से अपने आपको रोक नहीं पाता हूँ |कहा गया है न कि ग़लतफ़हमी में जीने का मज़ा ही कुछ और है साहब वरना हकीक़त तो अक्सर रुलाया करती हैं !
युवा जीवन की मेरी इश्किया कहानी ने आगे चलकर और भी रोमांचक टर्न लिए थे | क्या आप उन सभी को सुनना चाहेंगे ? ...अगर हाँ तो मैं आपको निराश नहीं करूंगा | सच यह है कि मैंने अपने जीवन में दिल से चाहा है कइयों को ..किन – किन को गिनाऊं ? शायद यह सोच कर कि जिसे पा नहीं सकते उसे सोचते रहना भी तो इश्क ही है !आख़िर हम खुदा या ईश्वर को भी तो चाहते ही हैं लेकिन क्या वह मिलते हैं ? इश्क़ तो वह भी है ......... लेकिन वे बातें आगे के अंकों में | फिलहाल तो मैं अपने युवावस्था में पनपे प्रेम के लिए यही कहना चाहूँगा – “ ओ मेरे सफल - असफल प्यार ! मैनें समेट कर रखा है ,तुम्हारी हर एक चीज़ को – जैसे कोई इतिहास का विद्यार्थी किसी खो रही सभ्यता के निशान बचाता है ! ...तुम ..तुम मेरे जीवन की आखिरी सांस तक मेरी स्मृतियों में बने रहोगे |मेरे होठों पर तुम्हारा नाम आने पर मुझे आज भी अलौकिक खुशी मिलती है क्योंकि उन दिनों में भले मुझे तुम्हारी दैहिक चाह भी रही होगी आज तो सिर्फ और सिर्फ तुम सभी के लिए आत्मिक चाह बनी हुई है | कुछ तो बात थी कि तुम सभी मेरे जीवन में आए थे !अब तो यही लगता है कि-
“ तेरे पास में बैठना भी इबादत , तुझे दूर से देखना भी इबादत |
न माला , न मंतर , न पूजा , न सजदा , तुझे हर घड़ी सोचना भी इबादत !”
मेरे प्रिय कवि “बच्चन” जी का कहना है – “ मैं छिपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता , शत्रु मेरा बन गया है छल रहित व्यवहार मेरा !” अपने जीवन की संध्या पर मैं भी पाठकों , सच मानिए , अपने बारे में कुछ भी छिपाना नहीं चाहता हूँ | किसी ने क्या खूब कहा है – “ शौक़ से निकालिए हममें नुक़्स हुज़ूर , आप नहीं होंगे तो हमें तराशेगा कौन ?”..... इसलिए आगे आप सभी पर निर्भर करता है कि आप मेरी सराहना करते हैं, मुझमे कमियाँ निकालते हैं या मेरी आलोचना करते हैं ! जनाब राहत इन्दौरी ने ठीक ही कहा है – मौसम की मनमानी है ,आँखों आँखों पानी है | साया - साया लिख डालो , दुनियां धूप कहानी है ...||”

शिवमंगल सिंह सुमन की एक कविता है – “ बात की बात” , जिसमें वे लिखते हैं- “इस जीवन में बैठे ठाले ऐसे क्षण भी आ जाते हैं ,जब हम अपने से ही अपनी बीती कहने लग जाते हैं | तन खोया - खोया सा लगता , मन उर्वर सा हो जाता है कुछ खोया सा मिल जाता है कुछ मिला हुआ खो जाता है | लगता सुख दुःख की स्मृतियों के कुछ बिखरे तार बुना डालूं , यों ही सूने में अंतर के कुछ भाव - अभाव सुना डालूं |कवि की अपनी सीमाएं हैं, कहता जितना कह पाता है , कितना भी कह डाले लेकिन अनकहा अधिक रह जाता है ...! ” सचमुच अगर आप अपने जीवन का लेखा - जोखा प्रस्तुत करने चलें तो बहुत कुछ अनकहा रह जाता है क्योंकि सुधियों के समुंदर में डुबकी लगाना आसान तो है लेकिन सकुशल स्मृति रूपी रत्नों के साथ बाहर आना मुश्किल है | कुछ ऐसा ही अनुभव इन दिनों हो रहा है “आमी से गोमती तक “की अपनी आत्मकथा लिखने के दौरान !
ज़िंदगी एक कठिन परीक्षा है जिससे होकर गुज़रना आसान नहीं होता है | हाई स्कूल, इंटर, बी.ए और एल.एल.बी. की परीक्षा तो एक समयबद्ध और पूर्व निश्चित कोर्स की थी लेकिन ज़िंदगी की ..? न तो उसकी समयबद्धता है और ना ही उसका कोई निश्चित कोर्स |ऐसा आपने भी अनुभव किया होगा |
मैं अब विश्वविद्यालय पहुंच चुका था |वर्ष 1973 से लेकर वर्ष 1976 तक की अवधि मैंने वहीं बिताई |बी.ए.उत्तीर्ण करने के बाद एल.एल.बी.में दाखिला ले लिया |बी.ए.में जिस साल दाखिल हुआ उसी साल से छात्रसंघ के चुनाव की घोषणा हुई |पिछले कई सालों से सर्कार ने बैन कर रखा था | मैंने भी छात्रसंघ और डेलीगेसी में स्नातक वर्ग के छात्रों का दो वर्षों तक प्रतिनिधित्व किया और छात्र राजनीति के ककहरे सीखे |वर्ष 1971-72 में मेरे सम्पादन में पहली बार विश्वविद्यालय छात्रसंघ की वार्षिक पत्रिका प्रकाशन प्रारम्भ हुआ | उसके बाद मेरे मित्र श्री प्रदीप कुमार गुप्त के सम्पादन में वर्ष 1972-73 में और फिर डा.चितरंजन मिश्र के सम्पादन में वर्ष 1982-83(विश्वविद्यालय के रजत जयंती वर्ष में ) में ऎसी पत्रिका छपी और बंद हो गई | आजकल हिमांचल प्रदेश के राज्यपाल पद सुशोभित कर रहे राज्यपाल श्री शिवप्रताप शुक्ल जो मेरे गाँव की और के हैं , उन दिनों मेरे साथ थे और उनका विशेष सहयोग मुझे मिला था | विश्वविद्यालय प्रशासन के लिए छात्रसंघ की यह पहल एक अलग ही अनुभव दे गया था और मुझे व्यक्तिगत रूप से बुलाकर प्रोफेसर आर. पी. रस्तोगी (पूर्व वी. सी., बीएच.यू.) और प्रोफेसर एन.के.सान्याल ने चाय पर बुलाकर बधाई दी |विश्वविद्यालय की साहित्यिक गतिविधियों में मैं भाग लेता रहा | उन दिनों राजनीति के धुरंधर समाजवादी मधु लिमये ,नेपाल के भू.पू.प्रधानमंत्री बी. पी. कोईराला, एन.सुब्बा राव आदि को नजदीक से जानने का अवसर मिला |
आजकल हिमांचल प्रदेश के राज्यपाल पद सुशोभित कर रहे राज्यपाल श्री शिवप्रताप शुक्ल उन दिनों मेरे साथ छात्रसंघ में कार्यकारिणी समिति के सदस्य थे |मुझे याद है कि छात्रसंघ पत्रिका – 1 में उनकी एक काव्य रचना भी छपी थी,शिव प्रताप “सेवक” के नाम से जिसका शीर्षक था – “मानव” .....जिसकी कुछ पंक्तियाँ थीं- “ ह्रदय रो उठा उनका भी क्रंदन सुनकर ,पर यह क्या है दहल उठा उनका भी जीवन |”
यह भी संयोग देखिए कि गोरखपुर में ब्राम्हण – ठाकुर संघर्ष की पटकथा भी उन्हीं दिनों ( 1970 से 1980 के दशक में ) लिखी जा रही थी | मकान पर कब्जा, सरेराह लूट-पाट और हत्या ,फिरौती,खुलेआम हिंसा का तांडव ...यह सब देखकर इसे “क्राइम कैपिटल ऑफ़ नार्थ इण्डिया” कहा जाने लगा था |बी.बी.सी. की सुर्ख़ियों में रहने लगा यह शहर | दोनों ग्रुप के पर्दे के पीछे रहने वाले लोगों ने छात्र राजनीति को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया था | छात्रसंघ के अध्यक्ष रहने के बाद जातिगत दबाब बनाते हुए रेलवे आदि के ठीका लेने वाले हरिशंकर तिवारी , कल्पनाथ राय ,दयाशंकर दुबे ,रवीन्द्र सिंह, बलवंत सिंह, अम्बिका सिंह ,ओमप्रकाश पासवान ,वीरेन्द्र शाही,राधेश्याम सिंह ,अमर मणि, रंग नारायण पाण्डेय के क्रम में अनेक युवा सुर्ख़ियों में बने रहे थे |1985 में गोरखपुर के वीर बहादुर सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद जब इन पर लगाम लगनी शुरू हुई तो इन्होने राजनीति का दामन पकड़ा और पहले विधायक और फिर मंत्री भी बने |
वर्ष 1995 से 1998 तक श्रीप्रकाश शुक्ला नामक यंग एंग्रीमैन का वर्चस्व रहा और उसके ढेर होने के बाद से ही सच मायने में गोरखपुर का यह जातिवादी दावानल शांत हो सका है | हालांकि राख में दबी आग की तरह जातिवाद का ज़हर अभी भी इस शहर में विद्यमान है | गनीमत यह रही कि मैं जिस दौर में छात्रसंघ की राजनीति में उतरा उसने समाज को नेता तो दिया लेकिन उनका कोई क्रिमिनल बैकग्राउंड नहीं रहा | जैसे – जगदीश लाल, अरुण कुमार श्रीवास्तव,अवधेश कुमार उपाध्याय,राज मणि पाण्डेय राम सिंह, शीतल पाण्डेय, शिव प्रताप शुक्ला,गनपत सिंह, राजधारी सिंह ..आदि |
विश्वविद्यालय की अपनी पढ़ाई के दौरान मेरा गाँव आना - जाना जारी रहा | उन दिनों बात – बात पर छात्र आन्दोलन हुआ करते थे और प्रशासन द्वारा उसे शांत करने का सरल उपाय यूनिवर्सिटी परिसर में पी.ए .सी.बल को उतार देना और उसे बंद कर देना होता था |हास्टल खाली हो जाता था और छात्र बेकार हो जाया करते थे | मैं उन दिनों का उपयोग साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने और अपने लेखन के लिए भी करता था |
आप इसे चाहे बुरा कह लें या भला , युवावस्था से ही मेरी यह धारणा रही है कि देह से गुज़रे बिना प्यार सम्भव नहीं है | अगर वह देह से इतर है तो उसे हम “प्लेटोनिक लव” की ही संज्ञा दे सकते हैं..और कुछ नहीं | एक और महत्वपूर्ण बात यह कि प्यार की प्रकृति कंजूस जैसी नहीं होती है | वह तो जब चाहो लुटा देने वाली चीज़ है | जो एक दूसरे के प्रति समर्पण या निष्ठा की बात करते हैं वे या तो झूठ बोलते हैं ,आत्म संतुष्टि के लिए कहते हैं या भ्रम के शिकार हैं | और अब आज के उस दौर में तो भूल ही जाया जाय जब खुलेआम “लिव इन रिलेशन” को समाज मान्यता प्रदान कर चुका है | मैंने इन दोनों प्रकृति के प्यार को जिया है और अपने अंतिम दम तक जीना चाहता हूँ | विश्वविद्यालय में तारा और नौकरी के शुरुआती दौर में धीरा नामक युवतियां मेरी “प्लेटोनिक लव” थीं और जीवन में आई ढेर सारी जानी - अनजानी युवतियां-महिलाएं मेरा प्यार थीं | मुझे अपने जीवन के इस आखिरी दौर में न कोई गिला है, न शिकवा..मैंने जो जिया , भरपूर जिया | श्री गोपाल दास नीरज के शब्दों में –
“ जब चले जायेंगे लौट के सावन की तरह ,
याद आयेंगे प्रथम प्यार के चुम्बन की तरह |
ज़िक्र जिस दम भी छिड़ा उनकी गली में मेरा ,
जाने शरमाये वो क्यूँ गाँव की दुल्हन की तरह |
कोई कंघी न मिली जिससे सुलझ पाती वो ,
ज़िंदगी उलझी रही ब्रम्हा की दर्शन की तरह |
दाग मुझमें है कि तुझमें यह पता तब होगा ,
मौत जब आएगी कपडे लिए धोबन की तरह |
हर किसी शख्श की किस्मत का यही है किस्सा ,
आए राजा की तरह ,जाए निर्धन की तरह |
जिसमें इंसान के दिल की न हो धड़कन ‘नीरज’ ,
शायरी तो है वह अखबार की कतरन की तरह | ”

हाईस्कूल से ही मैनें मुहल्ले के हम उम्र बच्चों को लेकर एक बाल वाचनालय “प्रगतिशील बाल वाचनालय” बनाया था और युवा होने पर उन्हीं के साथ मिलकर बना था एक संगठन बना “प्रगतिशील नवयुवक संगठन |” उन दिनों प्रगतिशील शब्द का उपयोग प्रचलन में था | मेरे अत्यंत निकट मित्र प्रदीप कुमार गुप्ता और मो.अज़हर हुसैन संगठन के पदाधिकारी थे | उसकी ओर से भी वर्ष 1970 में एक पत्रिका निकली थी – “आह्वान” जिसके सम्पादन का दायित्व मैंने निभाया था | पत्र-पत्रिकाओं में मेरी लिखी बाल कविता , कहानियाँ , लेख,परिचर्चाएं छपने लगी थीं जिसका क्रम आज तक बना हुआ है |युवावस्था से ही मेरी साहित्यिक रुझान के ये प्रमाण हैं |
मैं जब बी.ए. में था तो राजनीति शास्त्र के साथ हिन्दी और अंग्रेजी साहित्य भी मेरे विषय थे | अंग्रेजी तो नहीं किन्तु हिन्दी साहित्य में मेरी गहरी रूचि थी |इन्हीं दिनों मैनें लाइब्रेरी से ईशू करा कर हरिवंश राय बच्चन की लिखे कविता संग्रह और उनकी आत्मकथा अध्ययन किया | ‘मधुशाला ‘ तो बार बार पढ़ डाली मैंने |
“ मुसलमान और हिन्दू हैं दो , एक मगर उनका प्याला |
एक मगर मदिरालय उनका , एक मगर उनकी हाला |
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते ,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर ,मेल कराती मधुशाला ||”
लेकिन उनकी कविताओं से ज्यादा उनकी आत्मकथाओं ( “क्या भूलूं क्या याद करूँ –वर्ष 1969 और “नीड़ का निर्माण फिर- वर्ष 1970 )“ ने मुझ पर जादू का असर किया और उनके प्रति मेरा कौतूहल बढ़ता चला गया | आगे चलकर मेरे और उनके बीच अनेक रोचक पत्राचार हुए और उनके स्नेह का मैं आजीवन भाजन बना |उन्होंने उन्हीं दिनों मेरी अधूरी काव्य संकलन की पांडुलिपि के लिए अपना आशीर्वाद भेजा था जो आगे चलकर मेरे काव्य संकलन “काव्य किसलय” की शोभा बनी |उन्होंने लिखा था –
“ सम्मान्य बन्धु,
पत्र – सद्भावना के लिए धन्यवाद | प्रसन्नता है कि आपका काव्य संकलन प्रकाशित होने जा रहा है .आपकी कृति जन रंजन सज्जन प्रिय सिद्ध हो. अपने कवि के विकास एव अपने मंगल कल्याण के लिए मेरी शुभकामनाएं स्वीकार करें . स्वास्थ्य अनुकूल न होने से भूमिका लिखने में असमर्थ रहूँगा .कृपया क्षमा करें !..सादर, बच्चन। "