Chirag ka Zahar - 3 in Hindi Detective stories by Ibne Safi books and stories PDF | चिराग का ज़हर - 3

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चिराग का ज़हर - 3

(3)

"जो दिल में आये वह कहो और समझो―" आसिफ ने कहा "मगर सच्ची बात यही है कि मामिला कुछ भी नहीं है— केवल बात का ब़तंगड़ बनाया गया है।"

"हाथ कंगन को आर्सी क्या है चाचा" सुरेश ने कहा।

"अभी सात बजे हैं। चार पाँच घन्टे के बाद सब कुछ सामने आ जायेगा -"

इसके बाद सब लोग वहां से हट गये। रात ठराडी थी और आकाश पर प्रारम्भिक दिनों के चन्द्रमा की किरने कांपती हुई सिमिट रही थीं। अमर सिंह इत्यादि ने आज की रात को एक प्रकार से पिकनिक की रात बना लेने का निश्चय कर लिया था। उन लोगों के साथ कई थर्मास थे जो काफी से भरे हुये थे। टोस्ट और सैन्डविच से भर हुये बास्केट थे और सिगरेटों के दिन जेबों में पड़े हुये थे ।

यह लोग सर्वेन्ट क्वार्टर्स के बरामदे में डेरा जमाये पडे थे । लकड़ियाँ जल रही थीं - जिन पर हाथ भी सेंकते जाते थे और कभी कभी टोस्ट भो । रह रह कर मिस नूरा के कमरे का चक्कर भी लगा जा रहा था । अमर सिह तो दो घन्टे के बाद ही जा कर देख आया था। नूरा के कमरे का दरवाजा खुला हुआ था और वह कम्बल ओढ़े सो रही थी— खबर।

अमर सिंह ने यह महसूस किया था कि नूरा का जीवन सिद्धान्त के अन्तर्गत है । सादा जीवन और स्वास्थ्य वर्धक प्रकृति—यह दो बातें ऐसी थीं जिन्हें उसने यहां जाते ही नूरा के सम्बन्ध में सोची थीं और अब उसे यह भी मालूम हो गया था कि नूरा राव में जल्द ही सो जाने की आदी हैं।

थोड़ी देर के बाद अमर सिंह अपने साथियों को छोड़ कर फिर कोठी के अन्दर गया। आसिफ डाइनिंग हॉल में बैठा हुआ भोजन कर रहा था और दो सिपाही अटेनशन खड़े थे। उसे देखते हो आसिफ ने कहा।

"वाओ – खाना खाओ- "

“शुक्रिंग चाचा ! हम लोगों ने अभी अभी भोजन किया है।"

"कैसे आये ?" आसिफ ने पूछा । "किसी ध्येय वश नहीं आया हूँ-बस वैसे ही चक्कर लगा रहा हूं।

"यह क्यों नहीं कहते कि मुझे देखने आये हो―" आसिफ ने हंस कर कहा "तुम लोगों को यह सन्देह था कि मैं कमरे में नहीं मिलूँगा–!”

"आप यह क्यों भूल रहे हैं चाचा कि आपके सामने ही यह ते हुआ था कि आप के साथ मैं भी कोठी के अन्दर रहूँगा-

"तो फिर जिस बिस्तर पर दिल चाहे सो जाओ - अगर कोई खास बात होगी तो मैं तुम्हे जगा दूंगा।"

अमर सिंह ने कोई उत्तर नहीं दिया और कमरे से निकल कर अपने साथियों के पास चला आया और आग के सामने बैठ कर हाथ तापने लगा । फिर ठीक पौने ग्यारह बजे सुरेश ने उससे कहा ।

"अमर सिंह ! अब तुम कोठी के अन्दर जाओ वर्ना ग्यारह बजते ही चाचा भाग निकलेंगे।”

अमर सिंह बिना कुछ कहे उठ गया और फिर इमारत में दाखिल हो गया। उसने देखा कि आसिफ बड़ी लापरवाही से कारोडर में एक सिपाही के साथ टहल रहा था और हँस हँस कर बात कर रहा था। अमर सिंह को देखते ही बोला।

"क्या इरादा है ?"

"पहले आप अपना इरादा बताइये" अमर सिंह ने हँस कर पूछा ।

"तुम लोगों के कारण आज रात भर तो मुझे जागना ही है।"

"मैं भी आपका साथ दूँगा चाचा-" अमर सिंह ने कहा।

"मेरे विचार में इस कोठो के अन्दर जो उत्पात हुये थे उनका कोई समय नियत नहीं था।"

"यह बात नहीं है— जो कुछ भी यहाँ होता रहा था वह रात में बारह बजे के बाद ही हुआ था।"

"उस कमरे में ताला बन्द है ?"

"हा—क्यों ?" आसिफ उसे घूरने लगा ।

"मेरा विचार है कि आप ताला खुलवा दीजिये -"

"मुझे तो बेकार ही मालूम होता है मगर तुम कहने हो तो खुलवा देता हूँ-मार इस पर भी विचार कर लो कि कोई कानूनी उलझन न उत्पन्न हो पाये ।"

"कैसी कानूनी उलझन –?"

"कोठी के हर कमरे में सामान भरे पड़े हैं- अगर कोई सामान गायब हो गया तो "

"इस बात को दिल से निकाल दीजिये चाचा" अमर सिंह ने कहा "यह इस लिये कह रहा हूँ कि फरामुज जी का लड़का शापूर इस कोठी से इतना अप्रसन्न है कि अगर इस पूरी कोठी के सामान गायब हो जायें तो वह कुछ कहेगा नहीं दूसरी बात यह है कि लोग इतने भयभीत हैं कि वह इस कोठी को भूत ग्रस्त समझने के साथ ही साथ इसके अन्दर की हर वस्तु को मनहूस समझने लगे हैं-फिर भला रात में उन सामानो को चुरा ले जाने का साहस कौन कर सकता है।"

"यह बचकानी धारणा है अमर" आफिस ने हँसते हुये कहा"

"जब कफन तक चोरी कर लिये जाते हैं तो फिर यह सब सामान - " अमर सिंह ने सोचा कि इस बूढ़े खूसट से कौन तर्क करे इसलिये उसने फिर कुछ नहीं कहा और उसको साथ लिये हुये बाहर निकला। उस कमरे का ताला खुलवाया और फिर दरवाजा भी खुलवा दिया। अन्दर रोशनी हो रही थी। फिर वह आसिफ को लिये हुये दुवारा

डाइनिंग हाल में आ गया। डाइनिंग हाल से वह कमरा तथा उसका भीत से भाग साफ नजर आ रहा था। कुछ देर तक दोनों बातें करते रहे फिर आसिफ मौन हो गया। उसे नींद सता रही थी। उसने सोफे से पीठ टिका कर आंखें बन्द कर लीं ।

उस कमरे के सामने जिस सिपाही की ड्यूटी थी वह आरम्भ ही से भयभीत नजर आ रहा था-फिर जैसे जैसे समय बीतता जा रहा था वैसे वैसे उसके भय में वृद्धि होती जा रही थी। वह इसी प्रयास में था कि वह उस मनहूस कमरे से अधिक से अधिक दूरी पर रहे !

इस मध्य अमर सिंह के साथी आते जाते रहे और आसिफ को ऊँचना देख कर उनमें से एक आध को शरारत भी सूझी थी मगर अमर सिंह ने उन्हें सख्ती से मना कर दिया था ।

थोड़ी ही देर बाद आसिफ के खरटे गूंजने लगे — मगर अमर सिंह की आँखों में नींद का नामो निशान तक नहीं था। उसकी निगाहें  उसी मन्हूस कमरे की ओर लगी हुई थी और गुजरते हुये वक्त के साथ साथ उसके दिल की धड़कनें तेज होती जा रही थीं। दिमाग में दो ही सवाल चकरा रहे थे क्या होने वाला है—क्या होगा ?

फिर बिल्कुल अचानक तौर पर अमर सिंह की भी आँखें बन्द होने लगीं । वह जल्दी से उठकर खड़ा हो गया- पहले अंगड़ाई ली- फिर खों को मला तत्वात् सिगरेट सुलगा कर टहलने लगा - मगर नींद के झकोरे पर झकोरे आते रहे। उसने घड़ी देखी। दो बज रहे थे- फिर उसने आसिफ की ओर देखा जो अब भी से खबर सो रहा था- फिर उसने उस सिपाही की ओर देखा जिसकी ड्यूटी उस कमरे के पास थी। वह भी दरवाजे से दूर हट कर दीवार से टेक लगाये बैठा था। उसकी भी आंखें बन्द थीं ।

कुछ ही क्षण बाद डाइनिंग हाल के सारे बल्ब बुझ गये । अमर सिंह ने बौखला कर उस मनहूस कमरे की ओर देखा। वहाँ के बल्ब भी बुझ गये थे। उसने अनुमान लगा लिया कि पूरी इमारत के बल्ब इसी प्रकार अपने आप बुझ गये होंगे। खिड़कियों से नजर आने वाली चांद की रोशनी भी गायब हो चुकी थी। इतना गहरा अन्धेरा हो गया था कि अमर सिंह को आसिफ भी नजर नहीं आ रहा था। उसके दिल की धड़कन बढ़ गई थी और इस ठण्डक में भी उसका शरीर पसीने से भीग गया था— मगर फिर भी वह साहस करके अपने स्थान पर खड़ा रहा और उसी मनहूस कमरे की ओर देखता रहा ।

अचानक उसे उसी मनहूस कमरे में एक चिराग नजर आया जिसकी लौ तेज थी।

फिर कमरे में सामने वाली दीवार पर डरावनी और भयानक परछाइयां नजर आने लगीं। वह साहस बटोर कर डाइनिंग हाल से बाहर निकल आया और दरवाजे के पास ही ठहर कर फिर उसी कमरे की ओर देखने लगा । अब दीवार पर परछाइयां गति शील थीं। वह समझ गया कि कमरे में जो लोग भी हैं वह टहल रहे हैं। वह परछाइयों को ध्यान पूर्वक देखता रहा-

अचानक उसे ऐसा लगा जैसे उसके निकट ही से दो तीन आदमी गुजर गये जिनके शरीरों पर सफेद कपड़े थे । केवल उनके चेहरे और हाथ खुले हुये थे जो चमकदार प्रतीत हुये थे । उनके गुजरते ही अमर सिंह को तेज सुगन्ध की भी अनुभूति हुई थी। इतनी तीव्र सुगंध थी कि उसका दिमाग चकरा उठा था। यदि उसके स्थान पर दूसरा कोई रहा होता तो चक्कर खा कर गिर पड़ा होता — मगर वह दाँतों में होंठ दबाये अपने स्थान पर खड़ा रहा और उसी कमरे की ओर देखता रहा।

जो लोग उसके निकट से गुजरे थे उनमें से केवल एक को ही अमर सिंह पहचान सका था और वह था नीलम हाउस का मालिक से फराज जी — जो मर चुका था। वह सब उसी मनहूस कमरे में दाखिल हुये थे और इस प्रकार बातें कर करके अट्टहास लगाने लगे थे जैसे वह सब जिन्दा हों-फिर अमर सिंह ने एक आवाज सुनी और उसे अपनी रीढ़ की हड्डी टूटती हुई मालूम हुई। कमरे के अन्दर कोई कह रहा था।

" पुलिस ने आज इस कमरे को देखने की अशिष्टता की है।

"तो फिर — ?" दूसरी आवाज ।

"उन्हें इस अशिष्टता का दण्ड मिलना चाहिये -" पहली आवाज ।

"दण्ड क्या होगा ?" दूसरी आवाज।

"जिस जिस ने यह अशिष्टता की है उन्हें उबाल दिया जाये - " पहली आवाज ।

अमर सिंह के रोयें खड़े हो गये। यह आवाजें इस प्रकार की थीं जैसे बोलने वाले पानी के अन्दर से बोल रहे हो - विचित्र प्रकार की भरी हुई आवाजें।

अब अमर सिंह ने यही उचित समझा कि आसिफ को जगा दे । उसने आवाज देकर उस सिपाही को भी जगाना चाहा जो उस कमरे से कुछ हट कर दीवार से टेक लगाये सो रहा था उसने आवाज देनी चाही मगर आवाज कण्ठ से बाहर न निकल सकी इसलिये वह बाइनिंग हाल के अन्दर आ गया और आसिफ को फोड़ने लगा ।

इस प्रकार कोड़े जाने पर आसिफ बौखला कर उठ बैठा और कुछ कहने ही जा रहा था कि अमर सिंह ने उसके मुख पर हाथ रख दिया और उस मनहूस कमरे की ओर देखने के लिये कहा ।

आसिफ ने जब उस मनहूस कमरे की ओर नजरें उठाई तो इस प्रकार कांपने लगा जैसे जाड़ा देकर ज्वर चढ़ आया हो। डर तो उसे पहले ही से था मगर जिस कारण भय था वह पूरा दृश्य इस वकत उसकी नजरों के सामने था और फिर उस समय तो उसकी जान ही निकल गई जब उसने उस कमरे के अन्दर से एक आदमी को बढ़ते हुये देखा । उसके दोनों हाथ फैले हुये थे। वह हाथ इन्सानी हाथों से दुगने लम्बे थे ।

आसिफ ने महसूस किया कि वह हाथ धीरे धीरे कमरे के अन्दर से उसका गला घुटने के लिये आगे बढ़ रहे हैं।

"अमर सिंह फ...फ.. फायर करो..." आसिफ ने हकला फर और रुक रुक कर कहा ।

"आप भी अपना रिवाल्वर निकालिये चाचा" अमर सिंह ने कहा और अपना रिवाल्वर निकालने के लिये जब में हाथ डाला, मगर प्रथम इसके कि जेब से हाथ बाहर निकालता - वह सफेद कपड़े में लिप्टा हुआ हाथ उन दोनों के बिल्कुल निकट पहुँच चुका था- अमर सिंह ने पीछे हटना चाहा, मगर उसी समय वह हाथ उसकी गर्दन पर पड़ा और उसके मुख से चीख निकल पड़ी-साथ ही उसने आसिफ की भी चीख सुनी - बस ऐसा ही लगा था जैसे कोई बकरा जवह किया जा रहा हो ।

फिर अमर सिंह बेहोश हो गया ।

हमीद ने पूरे ब्रेक लगाये - फिर खिड़की से सर निकाल कर चीखा ।

"किसी ऐसी कार से दब कर मरो जिसे कोई सुन्दर लड़की चला रही हो - समझें-"

सामने आ जाने वाला एक दरिद्र युवक था जो इस ठण्डी रात में मिलेट्री का फटा पुराना लम्बा कोट पहने बीच सड़क पर खड़ा पलके झपका रहा था ! हमीद ने चाहा कि कतरा कर गाड़ी निकाल ले मगर वह युवक फिर कार के सामने आ गया ।

"शामत आई है। चार साल से कम के लिये नहीं जाओगे -"हमीद चीखा और दरवाजा खोल कर नीचे उतर आया फिर उसका कालर पकड़ कर झकझोरता हुआ बोला "क्या अभी तक कोई ऐसी नहीं मिली जिस पर मर सको—यही गाड़ी रह गई है क्या मरने के लिये !"