main to odh chunariya - 41 in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | मैं तो ओढ चुनरिया - 41

Featured Books
  • એઠો ગોળ

    એઠો ગોળ धेनुं धीराः सूनृतां वाचमाहुः, यथा धेनु सहस्त्रेषु वत...

  • પહેલી નજર નો પ્રેમ!!

    સવાર નો સમય! જે.કે. માર્ટસવાર નો સમય હોવા થી માર્ટ માં ગણતરી...

  • એક મર્ડર

    'ઓગણીસ તારીખે તારી અને આકાશની વચ્ચે રાણકી વાવમાં ઝઘડો થય...

  • વિશ્વનાં ખતરનાક આદમખોર

     આમ તો વિશ્વમાં સૌથી ખતરનાક પ્રાણી જો કોઇ હોય તો તે માનવી જ...

  • રડવું

             *“રડવુ પડે તો એક ઈશ્વર પાસે રડજો...             ”*જ...

Categories
Share

मैं तो ओढ चुनरिया - 41

मैं तो ओढ चुनरिया 

 

41

 

इन मामी को पहली बार रसोई में हलवा बनाना था । सब को मीठा खिला कर मीठे से जिंदगी की शुरूआत करनी थी ।
ये जैसे ही आटा भूनने बैठी तो आटा कहीं से जल गया , कहीं से कच्चा रह गया । घबरा कर जल्दी में पानी मिलाया तो आटे की गुठलियां बन गई । यह देख कर वे बुरी तरह से डर गई और जोर जोर से रोने लगी । उनके रोने की आवाज सुन कर मंझली मामी जो कमरे में बेटे को दूध पिला रही थी , वे दौङी आई ।
क्या हुआ ? रो क्यों रही है ?
मामी ने कढाई की ओर उंगली दिखाई ।
चल तू छोङ इसे , मैं दूसरा बना देती हूँ । तू ऐसा कर तब तक आटा गूध ले ।
मंझली मामी ने वह सारा बिगङा हलवा बाहर कुत्ते को डाला । दोबारा हलवा बनाया और कहा - ले अब ठाकुर को भोग लगा कर घर के सब लोगों को दे दे – कह कर वे पीछे मुङी तो क्या देखती हैं , परात में आटे से दुगना पानी डाले नई बहु अपनी उंगलियों से टपकता आटा एकटक देख रही है ।
मंझली मामी ने तो यह सब किसी को नहीं बताया , ये छोटी मामी ही शाम होते होते मुझे हंस हँस कर ये सारा किस्सा सुना रही थी कि कैसे उनसे हलवा बिगङ गया और आटा , वह तो लेई से भी पतला हो गया और पेट पकङ कर हंसे जा रही थी ।
कमरे के बाहर से गुजर रही मां ने यह सब सुन लिया । वे पास आई – सुन छोटी । माँ के पेट से कोई लङकी ये सब सीख कर नहीं आती । दुनिया में रह कर धीरे धीरे सीख जाती है । तुम भी सीखने की कोशिश करो , सीख जाओगी । जब बङी या मंझली काम कर रही होती हैं , ध्यान से देखा करो कि क्या करती हैं कैसे करती हैं । इस तरह छोटी मामी की ट्रेनिंग शुरु हुई पर एक गंभीर समस्या अभी बाकी थी , इन मामी को इनके मायके में सब कहते थे नूरी । ये मुसलमानों जैसा नाम नानी को बिल्कुल मंजूर नहीं था तो उन्होंने नया नाम दिया संतोष । अब पूरा परिवार पुकारता संतोष पर मामी को लगता किसी और को पुकारा जा रहा है , वे मस्त हुई पलंग पर लेटी रहती । पुकारने वाला पुकार पुकार कर थक जाता तो वहीं उनके कमरे में चला आता ये बताने कि उन्हें कब से पुकारा जा रहा है । मामी मासूम सी शकल बना कर शिकायत करने वाले को देखती रहती फिर उठ कर उसके पीछे पीछे बाहर चल देती । अपने नये नाम से पहचान होने में उन्हें सवा साल से ऊपर ही समय लग गया , तब जाकर वे संतोष सुन कर प्रतिक्रिया करना सीखी । नानी और बङी मामी कहती , जानबूज कर काम से टलने के लिए मचली बन कर कानों में उंगली दिए लेटी रहती है कि अगर जवाब दे दिया तो उठ कर काम करना पङेगा इसलिए पुकारते रहो संतोष संतोष कानों में सरसों का तेल डाले बैठी रहती है । माँ झट मामी के पक्ष में आ खङी होती ।
एक दिन नानी ने उन्हें अपने दो जोङे धोने के लिए दिए । वह भी खौलते पानी में कास्टिक सोडा डाल कर उबाल कर । मामी ने धोए भी मन से पर शाम को जब कपङे छत से उतार कर लाए गए तो नानी ने माथा पीट लिया । कमीज के बांहों , सलवार के पौंहचों पर मैल की परत पहले की तरह जमी थी बल्कि ज्यादा ही उभर आई थी । माँ ने वे सारे कपङे साबुन से रगङ रगङ कर धोए ।उसके बाद तो मामी हमेशा कहती अम्मा को तो मेरे घोए कपङे पसंद ही नहीं आते । बहन जी को दोबारा से मल मल कर धोने होते हैं तो मैं धो कर क्या करूं ।
पर एक बात थी , ये मामी मन से बहुत अच्छी थी । एकदम सहज , सरल और भोली । दुनिया का कोई छलछंद उन्हें छू न गया था । फिल्में देखने की बहुत शौकीन थी । मामा भी हप्ते में एक आध फिल्म देख ही डालते थे तो अब दोनों जमनानगर , अंबाला तक फिल्म देखने चले जाते । मामा रेलवे में थे तो टिकट तो लगती नहीं थी तो फिल्म देखना ज्यादा महंगा नहीं था । अक्सर मामी जिद करके मुझे अपने साथ ले जाती । जिस दिन न ले जा पाती , पूरी फिल्म की कहानी अगले दो तीन दिन में दो चार बार मुझे सुना डालती । कोई सीन सुनाना भूल जाती तो फिर से शुरु हो जाती ।
एक बार नानी ने यह सब सुन लिया तो मुझे बुला कर पूछा कि क्या सुन रही थी । मैंने बता दिया परसों मामा और मामी रोटी फिल्म देख कर आए थे तो उसी की कहानी मुझे सुना रही थी ।
यह वह जमाना था जब फिल्में देखना आवारा शोहदों , लौफरों का काम माना जाता था । शरीफ घरानों के बच्चे बङों से छिप छिपा कर फिल्म देख आते तो इस बात की पूरी एहतियात बरती जाती कि घर में बुजुर्गों को किसी भी हाल में पता न चले । बङे फिल्म देख कर तय करते थे कि फिल्म परिवार के साथ देखने लायक है या नहीं । औरतों और बच्चों के हिस्से में हर हर महादेव , रामराज्य , नानक नाम जहाज जैसी फिल्में आती थी ।
अगले दिन सुबह ही नानी ने मामा को बुलाकर सफाई मांगी । मामा चुपचाप सुनते रहे । इसके चार दिन बाद मामा ने शाम को नानी से कहा कि एक बहुत बङे संत सहारनपुर में प्रवचन करने आए हैं । अगर कोई सच्चे मन से उनकी कथा सुने तो वे उसे शंकर के दर्शन भी करवा देते हैं । नानी फटाफट तैयार हो गई । मामा ने उन्हें साइकिल पर बैठाया और ले गये । करीब चार घंटे बाद नानी लौटी तो मुँह ढक कर बैठ गई । किसी से बात ही न करें। आखिर दो घंटे बाद उन्होंने मुँह खोला – ये निकम्मा मुझे पता नहीं ,कहाँ ले गया था । वहाँ संत तो नहीं थे पर शंकर और पार्वती के दर्शन जरूर हो गये ।
भाबी तुने फिल्म देखी !
शायद ये फिल्म ही होगी । ये मर जाना मुझे धोखे से फिल्म दिखा लाया ।
बङे मामा और मंझले मामा बहुत हंसे – भाबी अब धरमराज के दरबार में जोगी तो वह पूछ सकता है न कि दुनिया में रह कर फिल्म देखी क्या तो बता देना – हां भाई देखी है ।
नानी गुस्से में पैर पटकती कमरे में जाकर खेस ओढ कर सो रही । घर में तीनों मामा देर तक इस पर चर्चा कर हंसते रहे । अगले दिन माँ और पिता जी आए तो दोबारा से यह कहानी मजे ले ले कर सुनी और सुनाई गई ।