Hanuman Prasad Poddar ji - 43 in Hindi Biography by Shrishti Kelkar books and stories PDF | हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 43

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हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 43

चित्र शास्त्रीय आधारपर
"कल्याण" के जो भी चित्र प्रकाशित होते थे उनका आधार हिन्दू शास्त्रोंसे ही खोजा जाता था। कई बार ऐसे अवसर आते थे कि उपर्युक्त आधार खोजनेमें पर्याप्त समय लग जाता था पर जब तक शास्त्रीय आधार नहीं मिलता उसे प्रकाशित नहीं किया जाता था। ऐसे ही एक प्रसंगका वर्णन पं० मंगलजी उद्धवजी शास्त्रीके शब्दोंमें इस तरह है

सन् 1949-50 का समय था, जब श्रीभाईजीके प्रथम दर्शन मुझे हुए। गीतावाटिका मुझे तपौवन-सी प्रतीत हुई। श्रीभाईजीने स्नेहसे गले लगा लिया और मेरा हाथ पकड़कर चारपाईपर बैठा लिया। "कल्याण" के विशेषांक "हिंदू-संस्कृति-अंक" की पूर्व तैयारियाँ हो रही थी। टाइटलके ऊपरवाले चित्रमें श्रीरामसभाका दृश्य ही अंकित करना था। सम्पादकीय विभागके सदस्य उस चित्रके सम्बन्धमें विचार-विमर्श कर रहे थे। एक सदस्यने आकर श्रीपोद्दारजीसे कहा- "वाल्मीकि रामायणमें कुत्तेके न्याय माँगनेका प्रसंग नहीं मिल रहा है। अब तो उसे किसी अन्य रामायणमें देखना होगा---"

"वह प्रसंग मैंने देखा है।" मैं बीचमें ही बोल पड़ा। "मुझे रामायण दीजिये, अभी निकाल देता हूँ।"

उन महाशयने मुझे रामायणकी पुस्तक लाकर दे दी। ध्यानसे देखने पर भी उक्त प्रसंग उस प्रतिमें नहीं मिला। महाशय बोले- "हम लोग दो-तीन बार देख चुके; वह प्रसंग है तो जाना-माना, पर वाल्मीकि रामायण उसका उल्लेख नहीं है।"

"तो फिर जबतक प्रमाण न मिले, हम इस प्रसंगवाले चित्रको टाइटलके ऊपर कैसे दे सकते हैं ?" -पोद्दारजी बोले।

श्रीभाईजीके ये शब्द सुनकर मुझे ज्ञात हुआ कि किस प्रकार "कल्याण" में प्रकाशित होनेवाली चीजोंके लिये शास्त्रका आधार लिया जाता है। "कल्याण" की प्रतिष्ठाका यही प्रधान हेतु है।

"मैंने तो उसे वाल्मीकि रामायणमें ही देखा है, किंतु मेरे पास निर्णय-सागर प्रेसकी प्रति है।"--मैंने कहा। निर्णयसागरकी प्रति देखी गयी और वह प्रसंग मिल गया। सभी प्रसन्न हुए। श्रीभाईजीने प्रसन्नतामें भरकर मुझे गलेसे लगा लिया।

स्वामी अखण्डानन्दजी द्वारा गोरखपुरमें भागवत सप्ताह

स्वामीजी पूर्वाश्रममें पं० शान्तनुबिहारी द्विवेदीके नामसे भाईजीके निकट 'कल्याण' के सम्पादकीय विभागमें बहुत वर्षोतक कार्य करते रहे। भाईजीके परिवारके सदस्यकी तरह हो गये थे। स्वामीजीके शब्दोंमें-- मैंने सन्यास अपनी आनुवंशिक घर-गृहस्थीसे नहीं, भाईजीके परिवारसे ही लिया। स्वामीजी भागवतके प्रकाण्ड पण्डित माने जाते हैं। भाईजीने इनकी भागवत्-सप्ताह-कथाका आयोजन 'श्रीकृष्ण निकेतन' गोरखपुरमें करवाया। आयोजन बहुत विशाल रूपमें हुआ और भाईजीने परिवार एवं प्रेमीजनों सहित कथा-श्रवण की। कथाका आयोजन सं० 2007 फाल्गुन कृष्ण 5 से 13 (26 फरवरी 5 मार्च 1951) तक हुआ।

श्रीसेठजीके पौत्रके विवाहमें बाँकुड़ा-यात्रा

चैत्र शुक्ल 13 सं० 2008 (16 अप्रैल, 1951) को भाईजी वायुयानसे कलकत्ता पहुँचे एवं दिनमें प्रेमीजनोंसे मिलकर रात्रिको रेलसे बाँकुड़ाके लिये प्रस्थान किया। चैत्र शुक्ल 15 सं० 2008 (21 अप्रैल, 1951) को श्रीसेठजीके छोटे भाई श्रीमोहनलालजी (जिन्हें श्रीसेठजीने अपना पुत्र मान लिया था) के लड़के माधवका विवाह था। संतोंकी उपस्थिति हर अवसरपर आध्यात्मिक वातावरण उत्पन्न करती ही है। बाँकुड़ामें भाईजीने भगवान्की बाललीला पर बड़ा मनमोहक प्रवचन दिया। बारात रवाना होनेपर श्रीसेठजी एवं भाईजीके आगे-आगे श्रीडूंगरमलजी लोहिया नृत्य करते हुए संकीर्तन करा रहे थे। संकीर्तन करते हुए ही बारात विवाह-स्थल पर पहुँची। विवाहका लग्न अर्धरात्रिके बाद था, अतः भाईजी रातभर वहीं रहे। बैसाख कृष्ण 4 सं० 2008 (25 अप्रैल, 1951) को बाँकुड़ासे रवाना होकर आसनसोल बनारस होते हुए गोरखपुर पहुँचे।

इसी वर्ष गोरखपुरमें मार्गशीर्षके कृष्णपक्षमें भाईजी अत्यधिक रुग्ण हो गये। कई दिनोंतक व्याधिजनित कष्ट रहा, किन्तु अनुष्ठान करानेसे स्वास्थ्यमें आशातीत लाभ हुआ।

गोरखपुरमें अकाल पीड़ितोंकी सेवा

गोरखपुरमें स० 2009 (सन् 1952) में भयंकर अकाल पड़ा। भाईजी सदा ही ऐसे अवसरोंपर सहायता कार्यका आयोजन करते थे। इस बार भी श्रीसेठजीके साथ भाईजी स्वयं जीपमें गाँव-गाँवमें भ्रमण करके अकालपीड़ितोंकी अन्न-वस्त्रसे अपने हाथों सेवा की। श्रीसेठजी एवं भाईजीके साथ रहनेसे कार्यकर्ताओं में बड़ा उत्साह रहता। इसके बाद ही श्रीसेठजीके पेटमें भयंकर दर्द हो गया एवं शारीरिक स्थिति गम्भीर हो गयी। भाईजीने उनके स्वास्थ्य लाभके लिये विश्वासी व्यक्तियोंसे अनुष्ठान करवाया, जिससे श्रीसेठजीके स्वास्थ्यमें शीघ्र लाभ हुआ।