Haunted Express - 2 in Hindi Horror Stories by anirudh Singh books and stories PDF | हांटेड एक्सप्रेस - (भाग 02)

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हांटेड एक्सप्रेस - (भाग 02)

घड़ी पर नजर डाली तो अभी भी रात के ढाई बजे थे,
इस सुनसान से स्टेशन पर रात का सन्नाटा मन को विचलित करने लगा था।

आगे क्या करूँ?, यह सोच ही रहा था कि अचानक अपने कंधे पर पीछे से किसी हाथ का स्पर्श महसूस करके मैं बुरी तरह चौंक गया।
पलट कर पीछे देखा तो एक सूट बूट पहने सज्जन से इंसान को खड़ा देख कर जान में जान आई, सामान्य कद काठी,सांवले रंग वाले लगभग 50 वर्ष की उम्र वाले उन महोदय का पहनावा एवं हुलिया कुछ अजीब सा था।
उसने काला कोट एवं पेंट पहना हुआ,पैरो में पहने हुए जूते भी काले,
उसके एक हाथ में कुछ डॉक्यूमेंट थे,और दूसरा हाथ मेरे कन्धे पर.,उसी हाथ मे पहनी हुई गोल्डन चेन वाली ओल्ड फैशन हो चुकी एक आउटडेटेड वॉच तथा कुछ लम्बे बालो वाला उसका अजीब सा हेयरस्टाइल,
जैसा कि हम पुरानी फिल्मों में अक्सर देखा करते है।
उसके काले कोट पर लगी नेम प्लेट पर अंग्रेजी में उसका नाम भी लिखा हुआ था 'ड्यूक ओर्फीन'।

यह सब देखकर मेरा तेज दिमाग एक पल में ही यह भांप गया कि सामने खड़े सज्जन किसी ट्रेन के टीसी महोदय है,
जो एक ईसाई होने के साथ साथ शायद बॉलीवुड की पचास -साठ के दशक वाली एवरग्रीन हिंदी फिल्मों से कुछ ज्यादा ही इंस्पायर है।
अभी अभी मेरी पत्रकार वाली नजरों ने उन सज्जन का व्यक्ति परीक्षण पूर्ण किया ही था कि अचानक उन्होंने मुझसे सवाल किया।

"जेंटलमैन,मैं आपकी कुछ मदद कर सकता हूँ?"

उनकी आवाज में शराफत साफ साफ झलक रही थी,बस इसी लिए मैंने उन्हें अपनी समस्या बता डाली,मैंने उन्हें बताया कि मैं देवगढ़ जाना चाहता हूँ पर इस वक्त जाने के लिए किसी भी साधन के उपलब्ध न होने के कारण मैं यहां समय व्यतीत कर रहा हूँ।

शायद ईश्वर ने उस नेक इंसान को मेरी ही समस्या का समाधान करने वहां भेज था,
उन्होंने मुझे बताया कि
" मैं रेलवे में टीसी हूँ ।
पालमपुर से देवगढ़ के लिए वर्षो से बंद पड़ी रेल सेवा का एक बार फिर से आरम्भ होने वाला है,पटरी तो वर्षो से पड़ी ही है,बस रेल सेवा अभी अपने ट्रायल पीरियड में है,जो कि शीघ्र ही आरम्भ होगी,
और अभी दो डिब्बे वाली वही ट्रायल ट्रेन देवगढ़ जाने के लिए तैयार खड़ी है,
जिसमें मेरे सहित कुछ और रेलवे के कर्मचारी मौजूद है,यदि तुम चाहों तो हमारे साथ चल सकते हो।"

अंधे को क्या चाहिए,बस दो आंखे,
देवगढ़ जाने के लिए सुगम साधन का प्रबंध होता देख मैंने बिना नानुकुर करे ही हां कर दी।

मुझे ऑफर करने के बाद ड्यूक ओर्फीन नाम के वह टीसी महोदय प्लेटफार्म के उस अंतिम छोर से भी आगे मुख्य लाइन से हटकर बिछे हुए एक और रेलवे ट्रैक की ओर बढ़ गए थे,
मुझे लगा शायद यह स्पेशल ट्रायल ट्रेन प्लेटफार्म से न जाकर उसी ट्रैक से जाने वाली होगी,इसलिए मैं भी तेज कदमो से उसी ओर बढ़ने लगा।
घने अंधेरे में वह टीसी पता नही कहां गायब हो गया था,अब वह मुझे दिखाई नही दे रहा था फिर भी मैं उसी सुनसान से रेलवे ट्रैक पर आगे बढ़ रहा था।
कुछ दूर चलने के बाद मुझे ट्रेन के डिब्बो जैसी आकृति उस अंधेरे में नजर आई तो मैंने सुकून की सांस ली,
मैं समझ गया था कि यही ट्रेन मुझे देवगढ़ लेकर जाएगी।
पास पहुंचा तो कुछ अजीब सा महसूस हुआ,दो डिब्बे और एक इंजन वाली इस छोटी सी ट्रेन में उजाले की एक भी किरण नजर नही आ रही थी।
मोबाइल के फ्लैश की रोशनी में उस ट्रेन के डिब्बो की हालत भी काफी जर्जर एवं खस्ताहाल मालूम पड़ रही थी,
बनावट भी काफी पुरानी जैसी, इस प्रकार की ट्रेन तो हम अक्सर पुरानी फिल्मों में देखा करते थे,जब भारत मे डीजल ट्रेन्स का चलन बस आरम्भ ही हुआ था,तब की ट्रेनों जैसी।
इंजन के अंदर भी किसी इंसान की कोई भी उपस्थिति नही थी,अंदर रोशनी डाल कर देखा तो वहां भी चारों ओर मकड़ियों के जाले ही लिपटे हुए नजर आ रहे थे,माजरा कुछ समझ नही आ रहा था,
उस टीसी का भी कोई अता पता नही था।
मैंने "ओर्फीन सर' आप कहां है?" कुछ आवाज़ें भी लगाई,
पर कहीं कोई जबाब नही आया।

उस घनघोर अंधेरे में ट्रेन को टटोलते हुए मैं इंजन से वापस पीछे की ओर बढ़ रहा था,कि अचानक से डिब्बे के एक दरवाजे पर मेरे हाथ का दबाब पड़ने से वह "चर्रर.." की आवाज के साथ थोड़ा सा खुल गया।
मेरे दिमाग में पता नही कहां से यह बेहूदा विचार आया कि क्यों न डिब्बे के अंदर जा कर देखा जाए,
और मैं एक बार फिर मोबाइल के फ्लैश का सहारा लेते हुए डिब्बे में जा पहुंचा था,
अभी इस से पहले कि अंदर के नजारे का जायजा मैं ले पाता ,कि तेज रोशनी हुई और मेरी आँखें चुंधिया कर बन्द हो गयी,फिर अगले ही पल जैसे ही मेरी आँखें खुली तो दंग रह गया,डिब्बे की लाइट्स ऑन हो चुकी थी,डिब्बे के अंदर सब कुछ सामान्य सा था,बैठने के लिए साफ सुथरी एवं व्यवस्थित सीट,और उन सीटों पर इक्का दुक्का सवारी भी बैठी हुई थी।
अब जा कर मुझे पुष्टि हुई कि मैं सही ट्रेन में आया हूँ,शायद ट्रेन अभी अभी चलने को तैयार हुई होगी इसीलिए उसकी लाइट्स ऑन हुई है,और शायद कुछ देर पहले अंधेरे की वजह से मुझे इस ठीक ठाक ट्रेन के खस्ताहाल होने की गलत फहमी हुई होगी,ऐसा सोच कर मैं एक सीट पर जा बैठा ।

मेरे सामने वाली सीट पर सफेद कुर्ता पायजामा पहने हुए एक बुजुर्ग व्यक्ति बैठे हुए थे,मैंने उनसे सवाल किया....
"अंकल जी ,आप भी देवगढ़ जा रहे है? "

मेरी बात सुन कर उन्होंने घूर कर मेरी ओर तो देखा, परन्तु कोई जबाब न दिया,उनका चेहरा एकदम भावहीन सा प्रतीत हो रहा था,मानों कोई फीलिंग्स ही न हो,
शायद पारिवारिक अथवा व्यक्तिगत समस्याओं से ग्रसित होने की वजह से ऐसे हो,मैने उनके उस व्यवहार को नजरअंदाज किया और अपने मोबाइल में व्यस्त होता ही जा रहा था,कि अचानक आवाज आई "आ गए तुम गोलू।"
सामने वहीं टीसी ड्यूक ओर्फीन खडे हुए थे मैने उनसे शिकायती लहजे में पूछा।
"अरे सर,कहां चले गए थे आप,मैं कन्फ्यूज था कही गलत ट्रेन में तो नही आ गया,और आपने तो कहा था कि स्टाफ ही जा रहा है देवगढ़,
बट इसमें तो कुछ पैसेंजर्स भी है।"

मेरी बात को ध्यान से सुनने के बाद मिस्टर ओर्फीन ने बताया कि यह पैसेंजर्स भी तुम्हारी ही तरह देवगढ़ जाने वाले मुसाफिर है,जिनको इस स्पेशल ट्रेन में लिफ्ट दी गयी है,उसने बताया कि वह अन्य स्टाफ के सहित इंजन में मौजूद है।

इतना बता कर मिस्टर मॉर्फीन वहां से गायब हो गए,मुझे मेरी शंका का समाधान मिल जाने से मैं थोड़ी देर के लिए खुश तो हुआ पर अगले ही क्षण जो सवाल मेरे दिमाग में कौंधा,उसने मेरे दिमाग को हिला ड़ाला।

उस टीसी को मेरा नाम कैसे पता चला?
छोटी सी उस मुलाकात के दौरान मैंने तो उसे अपना नाम बताया ही नही,और सबसे बडी बात तो यह,कि मेरे सारे डॉक्यूमेंटस ,एवं अन्य सभी ऑफीशियल जगहों पर तो मेरा नाम गौरव ही लिखा है,गोलू कह के तो मुझे इस दुनिया में सिर्फ एक ही शख्स बुलाते थे,वह थे मेरे स्वर्गीय दादा जी।

यह बात मेरी समझ से परे थी।

कहानी जारी रहेगी
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