Mahantam Ganitagya Shrinivas Ramanujan - 9 in Hindi Biography by Praveen Kumrawat books and stories PDF | महानतम गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् - भाग 9

Featured Books
  • انکہی محبت

    ️ نورِ حیاتحصہ اول: الماس… خاموش محبت کا آئینہکالج کی پہلی ص...

  • شور

    شاعری کا سفر شاعری کے سفر میں شاعر چاند ستاروں سے آگے نکل گی...

  • Murda Khat

    صبح کے پانچ بج رہے تھے۔ سفید دیوار پر لگی گھڑی کی سوئیاں تھک...

  • پاپا کی سیٹی

    پاپا کی سیٹییہ کہانی میں نے اُس لمحے شروع کی تھی،جب ایک ورکش...

  • Khak O Khwab

    خاک و خواب"(خواب جو خاک میں ملے، اور خاک سے جنم لینے والی نئ...

Categories
Share

महानतम गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् - भाग 9

जीवन में एक नया मोड़
श्री शेषु अय्यर रामानुजन को कुंभकोणम के राजकीय कॉलेज के विद्यार्थी के रूप में पहले से जानते थे। अब चार वर्ष के अंतराल के पश्चात् जब वह रामानुजन से मिले और उन्होंने उनकी गणित की वह नोट बुक देखी तो बहुत प्रसन्न और प्रभावित हुए। उन्होंने नेल्लौर के जिलाधीश दिवान बहादुर आर. रामचंद्र राव के लिए एक संस्तुति-पत्र लिखकर रामानुजन को दिया। रामचंद्र राव गणित में विशेष रुचि रखते थे और तब ‘इंडियन मैथेमेटिकल सोसाइटी’ के सचिव थे। ऐसा प्रतीत होता है कि संकोची स्वभाव के रामानुजन का साहस जिलाधीश रामचंद्र राव से मिलने का नहीं हुआ, शायद इसलिए उन्होंने कुछ अन्य संपर्क ढूँढे।
वे सी.वी. राजगोपालाचारी से मिले, जो रामानुजन के समवयस्क थे और उनके साथ ही हाई स्कूल में पढ़े थे। लगभग एक वर्ष पहले की एक घटना ने रामानुजन की गणितीय प्रतिभा की छाप उन पर छोड़ी थी। तब स्कूल में एक बड़ी कक्षा के विद्यार्थी, जो अपनी कक्षा में सबसे अच्छा था, ने गणित में रामानुजन की कुशाग्रता की परीक्षा के लिए एक प्रश्न दिया था।
यदि √य र = 7 तथा √र य = 11,
तो य और र का मान निकालो।
इन युगल समीकरणों को हल करने में विधिपूर्वक चलने के लिए चार घात की (bi-quadratic) समीकरण को हल करना होता है, जो सरल नहीं है। परंतु रामानुजन ने क्षण भर में इसका हल बता दिया था— य = 9, र = 4।
इस बीच श्री राजगोपालाचारी एक वकील बन गए थे और रामानुजन से उनका संपर्क टूट गया था। लगभग नौ वर्ष पश्चात् जब वह अचानक मद्रास में मिले और रामानुजन ने उन्हें अपनी ग्यारहवीं कक्षा में फेल होकर गणित में कार्य करने पर जीवन में अंधकार छाए रहने की गाथा सुनाई और बताया कि रामचंद्र राव से मिलने का साहस उन्हें नहीं हो रहा है तो उन्होंने रामानुजन को अपने साथ ले जाकर उनसे मिलाने का प्रस्ताव रखा। जब रामानुजन ने कहा कि उनके पास मद्रास में ठहरने के लिए भी धन की व्यवस्था नहीं है तो राजगोपालाचारी ने उसे भी वहन करना स्वीकार किया।
प्रो. पी. वी. शेषु अय्यर एवं श्री राजगोपालाचारी के अतिरिक्त इस संबंध में भी रामचंद्र राव के हवाले से उनके भतीजे आर. कृष्ण राव का भी उल्लेख मिलता है, जिन्होंने अपने चाचा रामचंद्र राव से रामानुजन के लिए कहा। स्वयं श्री रामचंद्र राव ने बाद में इस बारे में इन शब्दों में लिखा है—
“कई वर्ष पूर्व मेरे एक भतीजे, जो गणित से नितांत अनभिज्ञ था, ने मुझसे कहा था ‘चाचाजी, मेरे पास एक व्यक्ति मिलने आया है, जो गणित की बातें कर रहा है। मैं उसकी बातें समझ नहीं पा रहा हूँ। क्या आप उससे मिलकर देखना चाहेंगे कि उसकी बातों में कुछ तथ्य है या नहीं?’ गणित में अत्यंत रुचि के कारण मैंने रामानुजन को स्वयं से मिलने की स्वीकृति दे दी थी। जब रामानुजन मुझसे मिलने आया तो मैंने पाया था कि छोटे कद का, स्वस्थ, दाढ़ी बढ़ाए हुए, साधारण सज्जा में एक व्यक्ति चला आ रहा है, जिसने बगल में एक नोट-बुक दबाई थी
और जिसकी आँखों में अद्भुत चमक थी।”

इस घटना की निर्णायक भूमिका रामानुजन के आगे के जीवन में रही और उनके जीवन ने एक नया मोड़ लिया। दिसंबर 1910 में रामानुजन नेल्लौर गए। राजगोपालाचारी के अनुसार रामानुजन श्री रामचंद्र राव से चार बार मिले। पहली मुलाकात में रामचंद्र राव ने देखने के लिए उनके कागज कुछ दिनों के लिए अपने पास रख लिये। दूसरी बार उन्होंने कदाचित् केवल यह कहा कि उन्होंने रामानुजन के जैसे कार्य को कभी नहीं देखा है और उनकी
समझ में नहीं आ रहा है कि वह क्या करें। तीसरी मुलाकात में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि वह रामानुजन के कार्य को समझने में असमर्थ हैं और सहायता करने की किसी प्रकार की बात भी नहीं की।
चौथी बार रामानुजन उनसे मिलने गए तो उन्होंने देखते ही कहा “अरे, तुम फिर आ गए?” तब रामानुजन ने उन्हें प्रो. सल्दाना का वह पत्र दिखाया, जिसमें उन्होंने रामानुजन के कार्य की सराहना की थी तथा अपने कुछ सरल सूत्र भी रामचंद्र राव को उन्होंने समझाए तो स्थिति बदली। स्वयं रामचंद्र राव ने बाद में इस घटना का वर्णन इन शब्दों में किया है—“उसके बताए सूत्र प्राप्त पुस्तकों से हटकर थे और मुझे विश्वास हो गया कि वह अद्भुत व्यक्ति है। फिर मुझे पग-पग पर विस्तार करके उसने ‘इलिप्टिक इंटीग्रल’ तथा ‘हाइपर-ज्योमेट्रिक सीरीज’ के बारे में बताया। अंत में उसके ‘डाइवर्जेंट सीरीज’ के उन तथ्यों, जो अभी तक विश्व में नहीं जाने जाते थे, को देखकर मेरा हृदय परिवर्तित हो गया। मैंने पूछा कि वह मुझसे क्या चाहता है?”
रामानुजन ने उत्तर दिया कि वह जीवनयापन तथा काम आगे करते रहने भर के लिए थोड़ा धन कमाना चाहता है।
रामचंद्र राव ने यह कहकर रामानुजन को प्रो. शेषु अय्यर के पास वापस भेज दिया कि स्थानीय ताल्लुक के दफ्तर में कोई नौकरी देकर वह उनके साथ अन्याय नहीं करना चाहते। वह यद्यपि परीक्षा में बुरी तरह विफल रहा है, मगर फिर भी किसी पारितोषिक के सर्वथा योग्य है। जब तक उसका कोई प्रबंध हो तब तक रामानुजन मद्रास में रहे। तब से रामानुजन को प्रति मास पच्चीस रुपए मनीऑर्डर से प्राप्त होने लगे।
यह बड़ी राशि नहीं थी, परंतु उस समय रामानुजन को जीवनयापन की चिंता से मुक्त करने के लिए पर्याप्त थी। सन् 1911 के आरंभ से लगभग एक वर्ष तक वह इस पारितोषिक पर आश्रित रहकर मद्रास में कार्य करते रहे।
मई 1911 में रामानुजन अपने पहले स्थान से स्वामी पिल्लै स्ट्रीट स्थित समर हाउस में रहने लगे, जिसके निकट ही मद्रास का प्रेसीडेंसी कॉलेज तथा समुद्र तट है। उसी वर्ष रामानुजन का प्रथम शोधपत्र ‘जरनल ऑफ इंडियन मैथेमेटिकल सोसाइटी’ में प्रकाशित हुआ। शोधपत्र का शीर्षक था— ‘सम प्रॉपर्टीज ऑफ बरनौली नंबर्स’ (जरनल ऑफ इंडियन मैथेमेटिकल सोसाइटी, वर्ष 3, पृष्ठ 219-234) अर्थात् ‘बरनौली संख्याओं के कुछ गुण’।


मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में क्लर्की

लगभग एक वर्ष तक रामानुजन श्री रामचंद्र राव की उदारता से मिले पारितोषिक पर आश्रित रहे। इस काल में वह पूरे मन से गणित में सृजन-कार्य करते रहे। ‘जरनल ऑफ इंडियन मैथेमेटिकल सोसाइटी’ के लिए उन्होंने अपने दो शोधपत्र भी प्रकाशनार्थ भेजे। परंतु वास्तव में वह बेरोजगार थे और उन्हें नौकरी की खोज करनी ही थी।
अपने एक अन्य शुभचिंतक की कृपा से उन्हें बीस रुपए प्रतिमाह पर एक अस्थायी नौकरी मद्रास एकाउंटेंट जनरल के दफ्तर में मिली। उन्होंने कुछ सप्ताह ही वह कार्य किया। बाद में नौकरी की खोज में उन्होंने 1 फरवरी, 1912 को मद्रास पोर्ट ट्रस्ट के चीफ एकाउंटेंट को प्रार्थना पत्र लिखा। उस प्रार्थना पत्र के आधार पर उन्हें 1 मार्च, 1912 से तीस रुपए प्रतिमाह के वेतन पर मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में क्लास 3, ग्रेड 4 के एकाउंट विभाग में क्लर्की मिली। बाद में रामचंद्र राव ने यह बताया है कि पोर्ट ट्रस्ट की यह ऐसी नौकरी थी, जिसमें कार्यभार बहुत नहीं था। यह उनके प्रयत्नों से ही रामानुजन को मिली थी। यह सत्य है कि पोर्ट ट्रस्ट की यह नौकरी ऐसी सिद्ध हुई, जिस पर कार्य करते हुए रामानुजन अपने गणितीय शोध पर लगे रहे।
रामानुजन को पोर्ट ट्रस्ट में नौकरी करते रहकर गणित में कार्य करते रहना वहाँ के दो अन्य व्यक्तियों की कृपा से संभव हुआ। वे थे पोर्ट ट्रस्ट के सर्वोच्च अधिकारी सर फ्रांसिस स्प्रिंग तथा उनके ऑफिस मैनेजर एवं चीफ एकाउंटेंट श्री एस. नारायण अय्यर। सर फ्रांसिस स्प्रिंग मद्रास पोर्ट ट्रस्ट के सर्वोच्च अधिकारी एवं चीफ इंजीनियर के पद पर थे। उनकी शिक्षा डबलिन के ट्रिनिटी कॉलेज में हुई थी। उन्होंने सन् 1870 से भारत सरकार की इंजीनियरिंग सेवाओं से कार्य आरंभ किया था। सन् 1911 में गोदावरी नदी पर रेल का एक विशाल पुल बनाने के निमित्त उन्हें ‘सर’ की उपाधि से सम्मानित किया गया। इसके सात वर्ष पूर्व जब उन्होंने पोर्ट ट्रस्ट के सर्वोच्च अधिकारी का पद सँभाला था तो वह श्री एस. नारायण अय्यर को अपने साथ लाए थे, जो पोर्ट ट्रस्ट के ऑफिस मैनेजर तथा चीफ एकाउंटेंट थे।
श्री नारायण अय्यर ने त्रिचनापल्ली के सेंट जोसेफ कॉलेज से गणित में एम.ए. किया था और जब सर फ्रांसिस स्प्रिंग उनसे मिले तब वह वहाँ पर गणित के प्राध्यापक थे। श्री अय्यर उदार हृदय एवं राष्ट्रवादी विचारों के बड़े ही शालीन एवं भारतीय परंपरा के पोषक थे। वह सदा धोती पहनते तथा पगड़ी बाँधते थे। श्री अय्यर का सर फ्रांसिस स्प्रिंग बहुत आदर और विश्वास करते थे।
कार्यालय में रामानुजन का कार्य कदाचित् एकाउंट्स का मिलान करना तथा उनको ठीक से रखना भर था, जो बहुत श्रमसाध्य नहीं था। कार्यालय में भी गणित का कार्य करने की छूट नहीं तो काम में ढिलाई, श्री अय्यर एवं सर स्प्रिंग द्वारा, सहन अवश्य की जाती थी।
समर हाउस से पोर्ट ट्रस्ट का कार्यालय तीन मील दूर पड़ता था। अतः नई नौकरी मिलने के कुछ माह पश्चात् रामानुजन शैव-मुथैया मुदाली स्ट्रीट, जॉर्ज टाउन पर स्थित एक छोटे से घर में पहुँच गए। उनकी पत्नी श्रीमती जानकी, जो अब तक कभी उनके साथ नहीं रही थीं एवं माँ कोमलताम्मल उनके पास रहने लगीं। उस समय रामानुजन की आयु पच्चीस वर्ष थी।
अधिकारियों की कृपा-दृष्टि रहने पर भी रामानुजन का जीवन बहुत व्यस्त था। उनकी पत्नी ने बाद में बताया है कि कैसे प्रात: ही जल्दी वह गणित करना आरंभ कर देते थे। कभी-कभी रात भर जागकर प्रातः छह बजे तक वे गणित का कार्य करते रहते थे। वे केवल दो घंटे ही सोकर पुनः उठ जाते थे और जल्दी-जल्दी कार्यालय के लिए चले जाते थे।
समर-हाउस के तब के उनके एक मित्र का कहना है— “मैं रामानुजन को कई बार प्रातः बीच सड़क पर
कार्यालय के लिए दौड़ते हुए देखता था। उनका कोट तथा कपड़े हवा में उड़ते जाते थे, सिर के बाल बिखरे रहते थे और माथे पर त्रिपुंड्र होता था। वह सदा जल्दी में दिखते थे, वास्तव में उनके पास समय यूँ ही गँवाने के लिए नहीं था।”
नारायण अय्यर ‘मैथेमेटिकल सोसाइटी’ के सदस्य तथा उसके कोषाध्यक्ष थे। वह वास्तव में रामानुजन के अफसर ही नहीं बल्कि उनके सहकर्मी, सलाहकार, मार्ग निर्देशक एवं मित्र भी बन गए थे। संध्या समय दोनों नारायण अय्यर के घर बैठकर गणित की समस्याओं को स्लेटों पर एक साथ हल करते थे। वहीं कई बार रामानुजन उनको गणित के सूत्र बताते। वे सूत्र बताते, जो उनको (रामानुजन को) पहली रात को ही स्वप्न में आए थे। नारायण अय्यर स्वयं एक अच्छे गणितज्ञ थे, फिर भी उन्हें रामानुजन को समझने में समय लगता था। कितनी ही बार जो बात रामानुजन दो पदों (steps) में कह देते थे, नारायण उसे दस पदों में लिखकर समझते-समझाते। नारायण अय्यर ही रामानुजन की अप्रतिम गणितीय प्रतिभा का वर्णन समय-समय पर सर फ्रांसिस से किया करते थे, जिसके कारण सर फ्रांसिस भी रामानुजन में विशेष रुचि लेने लगे थे।
कई जनश्रुतियाँ रामानुजन के यहाँ के सेवाकाल से जुड़ी हैं। उनके एक सहकर्मी के अनुसार, एक मित्र ने उन्हें कार्यालय के समय बंदरगाह की गोदी में, जहाँ जहाज से सामान उतारा-चढ़ाया जा रहा था, पैकिंग कागजों, जिन पर वह अपना गणित का कार्य कर सकें, ढूँढ़ते हुए पाया।
एक बार सर फ्रांसिस ने नारायण अय्यर को अपने कक्ष में बुलाकर पूछा, “अन्य महत्त्वपूर्ण कागजों के साथ आपने कुछ कागज, जिन पर गणित के सूत्र आदि लिखे हैं, क्यों मिला दिए हैं? क्या आप दफ्तर में बैठकर व्यर्थ में गणित पर काम किया करते हैं?”
नारायण अय्यर ने सफाई दी “वे कागज मेरे नहीं हैं और वह लिखावट भी मेरी नहीं है।”
सर फ्रांसिस हँसे और बोले “हाँ, भाई, मैं पहले से जानता था कि यह रामानुजन की करतूत है।”
नारायण अय्यर के पुत्र श्री एन. सुब्रनारायण ने श्री पी. के. श्रीनिवासन द्वारा संपादित ‘रामानुजन लेटर्स एंड रेमिनिसेंसज’ का एक लेख (112 पृष्ठ) इस विषय में बहुत सटीक है। उन्होंने लिखा है—
‘‘उनकी प्रतिभा की गहराई को दिखाने के लिए मैं उस समय की घटना का उल्लेख करना चाहता हूँ, जब श्री रामानुजन मेरे पिताजी के साथ ठहरे हुए थे और हम लोग नंबर 580, पाइक्रोफ्ट रोड, ट्रिप्लिकेन में रहते थे। उन दिनों रामानुजन और मेरे पिता प्रत्येक रात्रि को घर की छत की मुँड़ेर पर दो बड़ी स्लेटों पर गणित किया करते थे। यह क्रम रात में लगभग साढ़े ग्यारह बजे तक चलता था और घर के अन्य सदस्यों के लिए परेशानी का कारण था। मुझे स्लेटों की पेंसिलों की ध्वनि का स्पष्ट ध्यान है, क्योंकि वह मेरी नींद में पार्श्वसंगीत का काम करती थी।
“कई रातों को मैंने देखा कि श्री रामानुजन रात में जागे और लालटेन के मंद प्रकाश में स्लेट पर कुछ लिखने लगे। जब मेरे पिताजी ने पूछा कि क्या लिख रहे हो, तो वह उत्तर में बताते कि स्वप्न में मैंने गणित किया है और अब याद रखने के लिए स्लेट पर लिख रहा हूँ। स्पष्ट रूप से यह इस बात का प्रमाण है कि अर्धचेतन अवस्था में उनमें गणित करने और समझने की असाधारण शक्ति थी।”
“विचित्र बात यह थी कि मेरे पिता इस प्रकार रामानुजन द्वारा लिखे गए गणित पर कुछ शंकाएँ करते थे। एक पद और दूसरे पद में काफी भेद रहता था। मेरे पिता, जो स्वयं एक अच्छे गणितज्ञ थे, रामानुजन की खोजों की लंबी छलाँगों को समझने में असमर्थ थे। वह उनसे कहा करते थे— “जब मैं तुम्हारे लिखे पदों को नहीं समझ पाता हूँ तो मुझे नहीं पता कि अन्य पारखी गणितज्ञ कैसे तुम्हारी प्रतिभा को स्वीकार करेंगे। तुम्हें मेरे स्तर पर उतरकर अपने दो पदों के बीच में कम-से-कम दस पद और लिखने चाहिए।”
तब श्री रामानुजन का उत्तर होता था “जब यह सब इतना सरल और स्पष्ट है तब और समझाने के लिए मैं क्यों लिखूँ?”
धीरे-धीरे मेरे पिता उनको घेर लाने में सफल हो जाते थे। वह उनको फुसलाकर कुछ और विवरण लिखवा ही लेते थे, यद्यपि यह रामानुजन के लिए बहुत उबाने वाली बात होती थी।