Mahantam Ganitagya Shrinivas Ramanujan - 5 in Hindi Biography by Praveen kumrawat books and stories PDF | महानतम गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् - भाग 5

Featured Books
  • నిరుపమ - 10

    నిరుపమ (కొన్నిరహస్యాలు ఎప్పటికీ రహస్యాలుగానే ఉండిపోతే మంచిది...

  • మనసిచ్చి చూడు - 9

                         మనసిచ్చి చూడు - 09 సమీరా ఉలిక్కిపడి చూస...

  • అరె ఏమైందీ? - 23

    అరె ఏమైందీ? హాట్ హాట్ రొమాంటిక్ థ్రిల్లర్ కొట్ర శివ రామ కృష్...

  • నిరుపమ - 9

    నిరుపమ (కొన్నిరహస్యాలు ఎప్పటికీ రహస్యాలుగానే ఉండిపోతే మంచిది...

  • మనసిచ్చి చూడు - 8

                     మనసిచ్చి చూడు - 08మీరు టెన్షన్ పడాల్సిన అవస...

Categories
Share

महानतम गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् - भाग 5


तीन वर्ष की अवस्था तक रामानुजन ने बोलना आरंभ नहीं किया तो माता-पिता को उनके गूँगा होने की आशंका हुई। बड़ों की सलाह पर उनका विधिवत् अक्षर अभ्यास संस्कार कराया गया। घर में ही तमिल भाषा का ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् अक्तूबर 1892 में विजयादशमी के दिन वैदिक मंत्रोच्चार के साथ पाँच वर्षीय रामानुजन को स्थानीय पाठशाला में प्रवेश दिलाया गया। परंतु स्कूल में उनका मन नहीं लगता था।
पारिवारिक कारणों से वह तीन वर्षों तक थोड़े-थोड़े समय तक कुंभकोणम, कांचीपुरम तथा मद्रास (चेन्नई) के स्कूलों में गए। कांचीपुरम में उनकी शिक्षा का माध्यम तेलुगु भाषा रही। सन् 1895 के उत्तरार्ध में वह कुंभकोणम के कंगायन प्राइमरी स्कूल में अध्ययन करने लगे। यद्यपि तब अंग्रेजी पढ़ने का प्रचलन बहुत नहीं था, तथापि उस स्कूल में उन्होंने अंग्रेजी की भी शिक्षा ली।
दस वर्ष के होने से कुछ पहले ही उन्होंने अंग्रेजी, तमिल, गणित एवं भूगोल विषयों से प्राइमरी की परीक्षा उत्तीर्ण की और पूरे जिले में प्रथम स्थान प्राप्त किया। आगे की शिक्षा के लिए वह अपने घर के निकट ही स्थित टाउन हाई स्कूल पहुँचे। इसमें नगर के मेधावी बच्चे ही प्रवेश ले पाते थे और यहाँ से निकलने वाले विद्यार्थी अच्छे पदों पर पहुँचते थे। उनके समय में इसके प्राचार्य श्री कृष्णास्वामी अय्यर थे। वह एक अनुशासनप्रिय शिक्षाविद् थे। ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’ कहावत के अनुसार दस वर्ष की आयु में प्रवेश पाने वाले रामानुजन की पहचान बनने लगी। दूसरे वर्ष में ही उनके सहपाठी उनसे गणित में सहायता के लिए जुटने लगे। शीघ्र ही, तीसरे वर्ष में उन्होंने अपने अध्यापकों से कठिन कठिन प्रश्न पूछने आरंभ कर दिए।
उन्हें गणित के प्रति केवल रुचि ही नहीं थी बल्कि एक स्पर्धा का भाव भी था। वह उसमें सब विद्यार्थियों से अच्छे अंक प्राप्त करना चाहते थे। सन् 1897 में वह नौ वर्ष के थे और तब उन्होंने प्राइमरी की परीक्षा दी थी। उस परीक्षा में गणित में उन्हें 45 में से 42 अंक मिले तथा एक अन्य विद्यार्थी, सारंगपाणि आयंगर, को 43। रामानुजन को बहुत ठेस लगी। वह क्रुद्ध हुए। सारंगपाणि के यह कहने पर कि अन्य विषयों में उनके अंक उससे अधिक हैं, वह संतुष्ट नहीं हुए।
कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण रामानुजन के अभिभावक विद्यार्थियों को अपने यहाँ रख लेते थे। जब रामानुजन लगभग ग्यारह वर्ष के थे, तब वहाँ सरकारी कॉलेज के दो विद्यार्थी रहते थे। इनमें से एक त्रिचनापल्ली का रहने वाला था तथा दूसरा त्रिनुवेलि का। गणित में रामानुजन की विशेष रुचि देखकर उन्होंने रामानुजन को कॉलेज के पाठ्यक्रम के गणित की जानकारी दी। रामानुजन कुशाग्र-बुद्धि के तो थे ही, उन्होंने स्कूल में रहते हुए ही उस स्तर के गणित को शीघ्र ही आत्मसात् कर लिया। परीक्षाओं को वह नियत समय के आधे समय में ही पूरा कर लेते थे। उनसे दो वर्ष आगे की कक्षाओं वाले विद्यार्थी उनके सम्मुख गणित की अपनी कठिनाइयाँ प्रस्तुत करते और रामानुजन उन्हें आसानी से हल कर देते थे।
इस बीच रामानुजन ने अपने से एक बड़े विद्यार्थी से घात तीन के (cubic) समीकरणों का हल निकालना भी सीख लिया। त्रिकोणमितीय फंक्शनों (जैसे— sine, consine of an angle) को उन्होंने केवल त्रिकोण की भुजाओं के अनुपात के रूप में, जैसा साधारणतया पहले स्तर पर होता है, न जानकर उनको अनंत श्रेणियों के रूप में भी भली प्रकार जान लिया था।
स्कूल में उनकी प्रतिभा का सिक्का जम गया था। बारह सौ विद्यार्थियों वाले इस स्कूल की समय-सारिणी तैयार करने की जटिल समस्याओं का भी हल वह तुरंत निकालकर गणित के वरिष्ठ अध्यापक श्री गणपति सुब्बियार की सहायता करते थे। चौथी कक्षा तक पहुँचते-पहुँचते उनका मस्तिष्क गणित में इतना रच-बस गया था कि बहुधा अध्यापक तथा अन्य विद्यार्थी उनकी बातें कठिनाई से समझ पाते थे। इसलिए वे उनका सम्मान करते थे।
पूरे स्कूल में उनकी प्रतिभा की धाक थी। यहाँ छह वर्षों में उन्होंने मेधावी छात्र के रूप में कितने ही पुरस्कार जीते। उन पुरस्कारों में अंग्रेजी कविताओं की अनेक पुस्तकें प्राप्त कीं। दिसंबर 1903 में उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय से दसवीं कक्षा की परीक्षा उत्तीर्ण की।
अपने इस विद्यार्थी काल में उनकी असाधारण प्रतिभा ने सब पर अपनी छाप छोड़ी। सन् 1904 में जब एक आयोजन में उन्हें गणित में ‘रंगनाथ राव पुरस्कार’ दिया जा रहा था, तब स्कूल के प्राचार्य श्री कृष्णास्वामी अय्यर ने भरी सभा में कहा था कि “स्कूल की परीक्षा के मापदंड रामानुजन के लिए कोई अर्थ नहीं रखते। रामानुजन अधिकतम अंकों से कहीं अधिक अंकों के योग्य हैं और 100 प्रतिशत अंक उनका समुचित मूल्यांकन नहीं करते। उनकी योग्यता स्कूल के गणित में पूर्ण ज्ञान से कहीं आगे है।”
हाई स्कूल की परीक्षा के बाद उन्हें सुब्रमण्यम छात्रवृत्ति मिली, जो गणित एवं अंग्रेजी में अच्छे अंक आने पर दी जाती थी। उन्होंने गवर्नमेंट कॉलेज में आगे की शिक्षा के लिए प्रवेश लिया।
रामानुजन गणित में इतने तल्लीन हो गए कि अन्य विषयों—अंग्रेजी, इतिहास आदि की कक्षा में भी वह गणित के शोध में ही लगे रहते। इस बीच उन्होंने गणित के अपने अध्यापक श्री पी. वी. शेषु अय्यर को अनंत श्रेणियों (Infinite Series) पर कई सूत्र दिखाए, जो उन्होंने स्वयं निकाले थे। श्री अय्यर ने उनकी सराहना की और अन्य विषयों पर भी ध्यान देने की सलाह दी। परंतु रामानुजन अन्य विषयों में न कक्षाओं में कुछ सीख पाए और न ही गणित के अतिरिक्त अपना मन किसी अन्य विषय में लगा पाए। मनोविज्ञान तो उन्हें एकदम पसंद नहीं था। उसका
एक कारण यह भी था कि इसमें शरीर के विभिन्न अंगों के चित्र बनाने होते थे। उनका विश्लेषणात्मक मस्तिष्क इस प्रकार केवल स्मरण मात्र रखने वाले विषय में कोई रुचि नहीं रखता था। गणित के अतिरिक्त अन्य सभी विषयों की परीक्षाओं में उनके अंक अच्छे नहीं रहे, फलतः वे ग्यारहवीं कक्षा की परीक्षा में गणित के अतिरिक्त सभी विषयों में अनुत्तीर्ण रहे। इस प्रकार वे बारहवीं कक्षा में नहीं पहुँच पाए और उनकी छात्रवृत्ति समाप्त हो गई।
छात्रवृत्ति समाप्त होने पर उनकी माँ को स्कूल प्रबंधन पर क्रोध आया। उन्होंने स्कूल के प्रधानाध्यापक से मिलकर गणित में अद्वितीय प्रतिभा का तर्क देकर छात्रवृत्ति समाप्त न करने की विनती की। प्रधानाध्यापक विवश थे। उन्होंने ऐसा कर पाने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। रामानुजन एफ. ए. (First Arts Class 12) की परीक्षा में सफल नहीं हो पाए।
छात्रवृत्ति रामानुजन के लिए केवल सम्मान की बात नहीं थी। एक सत्र की फीस बत्तीस रुपए होती थी और उनके पिता को लगभग बीस रुपए प्रतिमाह ही वेतन मिलता था। उस समय घर की आर्थिक स्थिति इतनी बिगड़ी हुई थी कि घर के सभी सदस्यों को भरपेट भोजन भी मिलना कठिन था।
रामानुजन ने इस बीच अपनी आर्थिक स्थिति को ठीक करने के कुछ प्रयत्न भी किए। गणित के ट्यूशन तथा बही-खाते लिखने एवं मिलाने का काम उन्होंने ढूंढा। कुछ विद्यार्थी गणित पढ़ाने के लिए मिले भी, लेकिन पढ़ाते-पढ़ाते वह इतने लीन हो जाते कि इस बात की भी सुधि नहीं रहती कि वह हाई स्कूल के विद्यार्थियों को पढ़ा रहे हैं। वह साधारण प्रश्नों को भी कई तरह से समझाने लगते, जिससे बेचारा विद्यार्थी उलझ जाता।
हताश मनःस्थिति और पिता पर बोझ न बने रहने की बात उनके मन में थी। उन्होंने नौकरी की खोज आरंभ की। तब अपने किसी मित्र की सलाह पर वे विशाखापट्टनम पहुँच गए। उनके इस प्रकार चले जाने से उनके माता-पिता बहुत दुःखी हुए। निकट के स्थानों में तथा मद्रास में उनकी खोज की गई, मगर वह नहीं मिले। कुछ समय तक भटकने के पश्चात् वह लौट आए और पुनः कॉलेज जाने लगे। परंतु कक्षाओं में उपस्थितियाँ कम होने के कारण वह सन् 1905 की परीक्षा नहीं दे पाए।
पढ़ने की अपनी अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए सन् 1906 में उन्होंने मद्रास के पचयिप्पा कॉलेज में ग्यारहवीं कक्षा की पढ़ाई के लिए जाने का निश्चय किया। वहाँ पर उन्होंने रजिस्टर में लिखे अपने नए सूत्र गणित के अध्यापक श्री एन. रामानुजाचारियार को दिखाए। श्री रामानुजाचारियार उनसे प्रभावित हुए और रामानुजन को कॉलेज के प्रधानाध्यापक से मिलवाया। प्रधानाध्यापक ने एक छोटी राशि की छात्रवृत्ति उनको दे दी। परंतु कुछ समय बाद बीमार हो जाने पर उन्हें पढ़ाई छोड़कर कुंभकोणम लौट आना पड़ा। सन् 1907 में उन्होंने एफ.ए.
(बारहवीं कक्षा) की परीक्षा असंस्थागत (प्राइवेट) विद्यार्थी के रूप में दी और अनुत्तीर्ण रहे। बस, यहीं उनके विद्यार्थी जीवन में विधिवत् विद्यार्जन की इतिश्री हुई।
इसके पश्चात् उनके जीवन की दशा बदली। घोर अनिश्चितता एवं मानसिक असंतुलन ने उनके जीवन में पदार्पण किया। यहाँ से उनका भाग्यचक्र बदला और जीवन में विफलताओं व कष्टों का क्रम आरंभ हुआ, जो उनके जीवन के साथ ही समाप्त हुआ। हाँ, सब कठिनाइयों और काफी उथल-पुथल के बीच भी उन्होंने गणित में कार्य करना जारी रखा। वह नए सूत्र एक रजिस्टर में लिख लेते थे।