Khaali Haath – Part – 6 in Hindi Fiction Stories by Ratna Pandey books and stories PDF | खाली हाथ - भाग 6

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खाली हाथ - भाग 6

वृद्धाश्रम में नताशा और सूरज वहाँ रहने वाले वृद्धों से बात कर रहे थे। उन्हीं में से एक वृद्ध दीनानाथ जी ने कहा, "सूरज जी यहाँ हम सब बड़े ही प्यार से मिल-जुल कर रहते हैं। सुबह से शाम कैसे हो जाती है पता ही नहीं चलता।"

सभी की बातें सुनकर उन्हें सुकून मिल रहा था लेकिन घर की याद आना स्वाभाविक ही था। जब वह अपने कमरे में गए तो देखा उनका कमरा साफ़ सुथरा व्यवस्थित था जहाँ नित्य की ज़रूरत की हर चीज मौजूद थी। उन्हें यह देखकर अच्छा लगा।

उधर अर्पिता जब नहा कर बाहर निकली तो देखा सूरज और नताशा घर पर नहीं थे। वह सूटकेस भी नहीं थे जो नताशा ने तैयार किए थे। अर्पिता डर रही थी और सोच रही थी कि वह अरुण को क्या जवाब देगी। फिर उसे यह विचार आया कि उसने थोड़ी ही उन्हें इस घर से जाने के लिए कहा था। वह तो अपनी मर्जी से चले गए, इसमें उसकी भला क्या गलती?

दूसरे दिन से ही वृद्धाश्रम में सूरज और नताशा की जीवन शैली एकदम बदल चुकी थी। सुबह सभी वृद्धों के साथ में योगा, प्राणायाम करते, चलने जाते, सब मिलकर नाश्ता करते। एक दूसरे का सुख दुख बांटते और सभी भूतकाल में मिले हुए ग़म को भूल कर वर्तमान का सुखी जीवन जीते थे। दोपहर का खाना, फिर आराम। उसके बाद कोई अपनी ख़ुशी से बागवानी करता, कोई वृक्षों को पानी देता और कुछ लोग बैठकर हंसी मज़ाक करते। यह सब रोज़ ऐसा ही चलता रहता।

पांच दिन बाद अरुण जब घर लौटा और हमेशा की तरह अपनी माँ को आवाज़ देता हुआ सूरज और नताशा के कमरे में उनसे मिलने गया। तब वह यह देख कर हैरान रह गया कि उसके माता-पिता कमरे में नहीं हैं।

उसने अर्पिता से पूछा, "अर्पिता इतनी रात को ग्यारह बजे माँ और पापा कहाँ गए हैं? दिखाई नहीं दे रहे, सब ठीक तो है ना?"

अर्पिता रोने लगी, रोते हुए ही उसने कहा, "मुझे नहीं पता वह कहाँ गए?"

"क्या? ये क्या कह रही हो तुम? कहाँ गए, कब गए?"

"कहाँ गए, यह तो नहीं मालूम लेकिन जिस दिन तुम गए उसी दिन वे भी..."

"तुम ने उन्हें रोका नहीं? अब समझा उस दिन माँ और पापा इतने उदास होकर मुझसे क्यों मिल रहे थे।"

उसने अर्पिता से पूछा, "अर्पिता क्या हुआ था सच-सच बताओ?"

"क्या हुआ था, कुछ भी तो नहीं, मैंने उन्हें जाने के लिए थोड़ी कहा था। वह अपनी मर्जी से ही घर छोड़ कर चले गए।"

अरुण के हाथ में पानी का भरा हुआ गिलास था जो उसके हाथों से छूट कर नीचे गिर गया। उसने कहा, "भर गया तुम्हारा मन, पड़ गई तुम्हारे कलेजे में ठंडक। यही चाहती थी ना तुम। तुम्हारी वज़ह से आज मेरे माँ पापा ने यह घर छोड़ दिया है। जानती हो जिस ज़मीन पर तुम अपने पांव रखकर खड़ी हो ना अर्पिता, यहाँ मेरे पापा का खून पसीना लगा है, तब जाकर यह मकान बना है। मेरी माँ के संस्कार और उनकी तपस्या से यह मकान घर बना है। तुमने उसी घर से उन्हें चले जाने पर मजबूर कर दिया।"

अरुण ने आगे कहा, "मैं तुम्हें..."

तभी अचानक अर्पिता को वहीं खड़े-खड़े उल्टी के उबके आने लगे और साथ ही चक्कर भी। यह देखते ही अरुण ने उसे संभाला और बाथरूम में ले गया। वहाँ अर्पिता ने उल्टी की फिर अरुण ने उसे बिस्तर पर लाकर लिटा दिया।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः